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क्या ओम् साध्य है, साधन नहीं?

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Nov 17, 2021
  • 12 min read

Updated: Nov 20, 2021


15 FACTS;-

1-ओम् सातवीं अवस्था का प्रतीक है, सूचक है। सातवीं अवस्था किसी भी शब्द से नहीं कही जा सकती।ओम् शब्द की खोज भी चौथे शरीर के अनुभव पर हुई है।वास्तव में, जब चित्त सब भांति शून्य हो जाता है -कोई विचार नहीं होते...तब भी शून्य की ध्वनि शेष होती है।अगर कभी बिलकुल सूनी जगह में आप खड़े हो गए हों ...जहां कोई ध्वनि नहीं ...तों वहां शून्य का भी एक सन्नाटा है।शून्य भी बोलता है ....Zero Sound। उस सन्नाटे में, जो मूल ध्वनियां हैं, वे ही केवल शेष रह जाती हैं। अ, ऊ, म..A,U,M मूल ध्वनियां हैं।हमारा सारा ध्वनि का विस्तार उन तीन ध्वनियों के ही नये -नये संबंधों और जोड़ों से हुआ है।जब सारे शब्द खो जाते हैं, तब ध्वनि शेष रह जाती है।चौथे शरीर की, मनस शरीर/ Mental Body की शून्यता में जो ध्वनि होती है, वहां ओम् को खोजा गया है।तो इस ओम् का यदि साधक प्रयोग करे, तो दो परिणाम हो सकते हैं।वास्तव में, सभी शरीरों की दो संभावनाएं हैं और चौथे शरीर की भी..।किसी भी शब्द को अगर बार-बार दोहराया जाए, तो उसका एक सा संघात, लयबद्धता, जैसे कि सिर पर कोई ताली थपक रहा हो, ऐसा ही परिणाम करती है और निद्रा पैदा कर देती है। यदि साधक ओम् का ऐसा प्रयोग करे कि उस ओम् के द्वारा sleepiness पैदा हो जाए ; तो चौथे मनस शरीर की जो पहली प्राकृतिक स्थिति है...कल्पना, स्वप्न।

2-अगर ओम् का इस भांति प्रयोग किया जाए कि उससे तंद्रा आ जाए तो आप एक स्वप्न में खो जाएंगे।वह स्वप्न सम्मोहन तंद्रा जैसा होगा।उस स्वप्न में जो भी आप देखना चाहें, देख सकेंगे।भगवान के दर्शन कर सकते हैं, स्वर्ग-नरकों की यात्रा कर सकते हैं।लेकिन वह सब स्वप्न ही होगा ;उसमें सत्य कुछ भी नहीं होगा।आनंद का अनुभव कर सकते हैं, शांति का अनुभव कर सकते हैं।ओम् की ध्वनि को जोर से पैदा करके उसमें लीन हो जाना बहुत ही सरल है, रसपूर्ण है। जैसे सुखद ,मनचाहा स्वप्न होता है ,ऐसी रसपूर्ण है।इसमें बहुत कठिनाई नहीं है और मनस शरीर के दो ही रूप हैं ...कल्पना का, स्वप्न का; और दूसरा रूप है संकल्प का ,दिव्य दृष्टि का, विजन का।जिसे योग तंद्रा कहते हैं, वह तो ओम् के संघात से पैदा हो जाती है।तो अगर ओम् का मन में Repetition किया जाए , तो उसके Collision/संघात से तंद्रा पैदा होती है।लेकिन यदि ओम् का उच्चारण किया जाए, और पीछे साक्षी को भी कायम रखा जाए अथार्त दोहरे काम किए जाएं तो चौथे शरीर की दूसरी संभावना पर काम शुरू हो जाता है।

3-ओम् की ध्वनि पैदा की जाए और पीछे जागकर इस ध्वनि को सुना भी जाए ...इसमें लीन या डूबा न जाए।तो यह ध्वनि एक तल पर चलती रहे और हम दूसरे तल पर खड़े होकर इसको सुननेवाले, साक्षी, द्रष्टा, श्रोता हो जाएं। इस ध्वनि में लीन न हों, बल्कि जाग जाएं ; तब आप स्वप्न में नहीं जाएंगे,अथार्त योग-तंद्रा में नहीं जाएंगे,बल्कि योग-जागृति में चले जाएंगे।किसी मंत्र का उपयोग करने पर, 99% लोग तो तंद्रा में चले जाते हैं। उसके कारण हैं कि हमारा चौथा शरीर निद्रा का आदी है; वह सोना ही जानता है और रोज सपने देखता ही है।तो मंत्र के उपयोग से बहुत संभावना यही है कि आपका वह स्वप्न देखने का आदी मन अपनी यांत्रिक प्रक्रिया से तत्काल स्वप्न में चला जाएगा। लेकिन यदि साक्षी को जगाया जा सके और पीछे तुम खड़े होकर देखते भी रहो कि यह ओम् की ध्वनि हो रही है..इसमें लीन न होओ, डूबो मत...तो ओम् से भी वही काम हो जाएगा। इसके अतिरिक्त

अगर ' मैं कौन हूं ' को भी तुम निद्रा की भांति पूछने लगो और पीछे साक्षी न रह जाओ, तो जो भूल ओम् से स्वप्न पैदा होने की होती है, वह ' मैं कौन हूं ' से भी पैदा हो जाएगी।

4-लेकिन ओम् की बजाय ‘मैं कौन हूं? से स्वप्न पैदा होने की संभावना थोड़ी कम है। उसका कारण है कि ओम् में कोई प्रश्न नहीं है, सिर्फ थपकी है; ' मैं कौन हूं' में प्रश्न है, सिर्फ थपकी नहीं है।और प्रश्न आपको जगाए रखेगा।यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अगर चित्त में प्रश्न हो तो सोना मुश्किल हो जाता है। अगर दिन में भी आपके चित्त में कोई बहुत गहरा प्रश्न घूम रहा है, तो रात आपकी नींद खराब हो जाएगी...प्रश्न आपको सोने न देगा। वह जो क्वेश्चन मार्क है ...अनिद्रा का बड़ा सहयोगी है।अगर चित्त में कोई प्रश्न खड़ा है, चिंता खड़ी है, कोई सवाल खड़ा है, कोई जिज्ञासा खड़ी है, तो नींद मुश्किल हो जाएगी।तो ओम् की जगह ' मैं कौन हूं' का प्रयोग ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योकि उसमें मौलिक रूप से एक प्रश्न है।और चूंकि प्रश्न है, इसलिए उत्तर की गहरी खोज के लिए तुम्हें जागा ही रहना होगा। ओम् में कोई प्रश्न नहीं है; उसमें कहीं चोट नहीं है। और उसका निरंतर संघात, निद्रा ले आएगी।

5- इसके अतिरिक्त ' मैं कौन हूं' में संगीत नहीं है। ओम् बहुत संगीतपूर्ण है और जितना ज्यादा संगीत है उतना स्वप्न में ले जाने में समर्थ है। शब्दों के भी आकार हैं, संगीत है और उनकी चोट का भी भेद है। अगर कोई सोया भी पड़ा हो, और उसके पास हम बैठकर कहने लगें... ' मैं कौन हूं ', ' मैं कौन हूं', तो सोया हुआ भी जग सकता है। लेकिन सोए हुए व्यक्ति के पास अगर हम बैठकर ओम्, और ओम्, दोहराने लगें, तो उसकी नींद और गहरी हो जाएगी।संघात के फर्क हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि ओम् से नहीं किया जा सकता।अगर कोई ओम् के पीछे जागकर खड़ा हो सके तो उससे भी यही काम हो जाएगा।

लेकिन अगर ओम् की साधना करेंगे तो चौथे शरीर से ओम् का अनिवार्य एसोसिएशन हो जाएगा और वह रोकनेवाला सिद्ध होगा। ओम् प्रतीक तो है सातवें शरीर का, लेकिन उसका अनुभव होता है चौथे शरीर में ...ध्वनि का। चौथे शरीर में इसका प्रयोग सातवें शरीर के लिए किया गया है।क्योंकि सातवें शरीर के लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है । और चौथे शरीर के बाद फिर शब्दों का अनुभव बंद हो जाता है ...तो चौथे शरीर का जो आखिरी शब्द है, उसको हम अंतिम अवस्था के लिए प्रयोग कर रहे हैं। और कोई उपाय भी नहीं है। क्योंकि पांचवां शरीर फिर निःशब्द है; छठवां बिलकुल निःशब्द है; सातवां तो बिलकुल ही शून्य है।

6-चौथे शरीर की जो आखिरी शब्द की सीमा है, जहां से हम शब्दों को छोड़ेंगे, वहां आखिरी क्षण में, सीमांत पर ओम् सुनाई पड़ता है।तो भाषा की दुनिया का वह आखिरी शब्द है, और अभाषा की दुनिया का वह पहला शब्द है; वह दोनों की बाउंड्री पर है।वह है तो चौथे शरीर का, लेकिन हमारे पास उससे ज्यादा सातवें शरीर के कोई निकट शब्द नहीं है।इसलिए उसको सातवें के लिए प्रयोग किया है।लेकिन उसको चौथे के साथ न बांधें । इससे वह अनुभव तो चौथे में होगा, लेकिन उसको सिंबल सातवें का ही रहने देना उचित है। इसलिए उसका साधना के लिए उपयोग करने की जरूरत नहीं। उसके लिए किसी ऐसी चीज का उपयोग करना चाहिए जो चौथे पर ही छूट भी जाए। जैसे, 'मैं कौन हूं?' यह चौथे में प्रयोग भी होगा, छूट भी जाएगा।और ओम् का सिंबॉलिक अर्थ ही रहना चाहिए। साधन की तरह उसका उपयोग एक और कारण से भी उचित नहीं है। क्योंकि जिसे हम अंतिम/ एब्लोल्युट का प्रतीक बना रहे हैं, उसे हमें अपना साधन नहीं बनाना चाहिए ; वह साध्य ही रहना चाहिए।

7-ओम् वह है जिसे हमें पाना है! इसलिए ओम् को किसी भी तरह के साधन की तरह प्रयोग न करे ।और उसका प्रयोग हुआ है, उससे बहुत नुकसान हुए हैं। उसका प्रयोग करनेवाला साधक बहुत बार चौथे शरीर को सातवां समझ बैठता हैं ; क्योंकि ओम् सातवें का प्रतीक था और चौथे में अनुभव होता है। और जब चौथे में अनुभव होता है तो साधक को लगता है कि ठीक है, अब हम ओम् को उपलब्ध हो गए; अब और यात्रा न रही, अब यात्रा खत्म हो गई।इसलिए साइकिक/Mental बॉडी पर बड़ा नुकसान होता है; वह वहीं रुक जाता है। बहुत से साधक हैं, जो विजन्स को, दृश्यों को, रंगों को, ध्वनियों को, नाद को, इसको उपलब्धि मान लेते हैं। स्वभावत:, क्योंकि जिसको अंतिम प्रतीक कहा है, वह इस सीमा रेखा पर पता चलने लगता है। फिर हमें लगता है कि सीमा आ गई ।इसलिए अगर इसका प्रयोग करेंगे तो पहले, दूसरे, तीसरे शरीर पर इसका कोई परिणाम नहीं होगा; इसका परिणाम चौथे शरीर पर होगा। इसलिए पहले, दूसरे, तीसरे शरीर के लिए दूसरे शब्द खोजे गए हैं, जो उन पर चोट कर सकते हैं।

8-ये जो मूल ध्वनियां हैं...अ, ऊ और म की, इस संबंध में एक बात और खयाल में ले लेनी उचित है। जैसे बाइबिल यह नहीं कहती कि परमात्मा ने जगत बनाया अथार्त बनाने का, बोलने का कोई काम नहीं किया।जैसे बाइबिल कहती है कि सबसे पहले शब्द/the word था , फिर सब हुआ; परमात्मा ने कहा—प्रकाश हो! और प्रकाश हो गया।। पुराने और बहुत से शास्त्र इस बात की खबर देते हैं कि सबसे पहले शब्द था। जैसे कि भारत में कहते हैं शब्द ब्रह्म है। हालांकि इससे बड़ी भ्रांति होती है, इससे कई लोग समझ लेते हैं कि शब्द से ही ब्रह्म मिल जाएगा। ब्रह्म तो मिलेगा निःशब्द से, लेकिन ' शब्द ब्रह्म है ' इसका मतलब केवल इतना ही है कि हम अपने अनुभव में जितनी ध्वनियों को जानते हैं, उसमें सबसे सूक्ष्मतम ध्वनि शब्द की है।अगर हम जगत को पीछे और पीछे लौटाएं/ Retro जाये तो अंततः जब हम शून्य की कल्पना करें, जहां से जगत शुरू हुआ होगा, तो वहां भी ..उस शून्य में ..ओम् की ध्वनि हो रही होगी । क्योंकि जब हम चौथे शरीर पर शून्य के करीब पहुंचते हैं तो ओम् की ध्वनि सुनाई पड़ती है, और वहां से हम डूबने लगते हैं उस दुनिया में जहां कि प्रारंभ में दुनिया रही होगी। चौथे के बाद हम जाते हैं आत्म शरीर में, आत्म शरीर के बाद जाते हैं ब्रह्म शरीर में, ब्रह्म शरीर के बाद जाते हैं निर्वाण शरीर में, और आखिरी ध्वनि जो उन दोनों के बीच में है, वह ओम् की है।इस तरफ हमारा व्यक्तित्व चार शरीरों वाला है , जिसको हम कह सकते हैं— जगत; और उस तरफ हमारा अव्यक्तित्व है, जिसको हम कह सकते हैं—ब्रह्म।

9-ब्रह्म और जगत के बीच में जो ध्वनि सीमा—रेखा पर गूंजती है, वह ओम् की है। इस अनुभव से यह खयाल में आना शुरू हुआ कि जब जगत बना होगा, तो उस ब्रह्म के शून्य से इस पदार्थ के साकार तक आने में बीच में ओम् की ध्वनि गूंजती रही होगी। और इसलिए ' शब्द था' उस शब्द से ही सब हुआ', यह खयाल है। और इस शब्द को अगर हम उसके मूल तत्वों में तोड़ दें तो वह A, U, M पर रह जाता है; बस तीन ध्वनियां मौलिक रह जाती हैं। उन तीनों का जोड़ ओम् है। तो इसलिए ऐसा कहा जा सकता है ओम् ही पहले था, ओम् ही अंत में होगा। क्योंकि अंत जो है वह पहले में ही वापस लौट जाना है; वह जो अंत है वह सदा पहले में वापस लौट जाना है ...सर्किल पूरा होता है।लेकिन फिर भी ओम् को प्रतीक की तरह ही प्रयोग करना है, साधन की तरह नहीं। साधन के लिए और चीजें खोजी जा सकती हैं। ओम् जैसे पवित्रतम शब्द को साधन की तरह उपयोग करके अपवित्र नहीं करना है।

10-इसलिए इतने पवित्रतम शब्द का साधन की तरह उपयोग नहीं होना चाहिए। वास्तव में, यह हमारे शरीर से उच्चारण योग्य नहीं। यह तो उस जगह शुरू होता है जहां जीभ अर्थ खो देती है, शरीर व्यर्थ हो जाता है; वहां इसकी गूंज है। और वह गूंज हम नहीं करते, वह गूंज होती है, वह जानी जाती है, वह की नहीं जाती।इसलिए ओम् को जानना ही है, करना नहीं है।और भी एक खतरा है कि अगर आपने ओम् का प्रयोग किया, तो जो उसका मूल उच्चार है, जो अस्तित्व से होता है उसका आपको कभी पता नहीं चल पाएगा कि वह कैसा है, आपका अपना उच्चारण उस पर आरोपित हो जाएगा। तो उसकी शुद्धतम जो अनुभूति है, वह आपको नहीं हो सकेगी। तो जो लोग भी ओम् शब्द का साधना में प्रयोग करते हैं, उनको वस्तुत: ओम् का कभी अनुभव नहीं हो पाता। क्योंकि वे जो प्रयोग कर रहे हैं, उसका ही अभ्यास होने से, जब वह मूल ध्वनि आनी शुरू होती है, तो उनको अपनी ही ध्वनि सुनाई पड़ती है।

11-वे ओम् को नहीं सुन पाते; शून्य का सीधा गुंजन उनके ऊपर नहीं हो पाता अपना ही शब्द वे तत्काल पकड़ लेते हैं। स्वभावत:, क्योंकि जिससे हम परिचित हैं, वह आरोपित हो जाता है।वह किसी दिन चौथे शरीर पर प्रकट होगा। और तब वह कई अर्थ रखेगा। एक तो यह अर्थ रखेगा कि चौथे शरीर की सीमा आ गई; और अब आप मनस के बाहर जाते हैं, शब्द के बाहर जाते हैं। आखिरी शब्द आ गया; जहां से शब्द शुरू हुए थे, वहीं आप खड़े हो गए; जहां पूरा जगत सृष्टि के पहले क्षण में खड़ा होगा, वहां आप खड़े हो गए हैं, उस सीमांत पर खड़े हैं। और फिर जब उसकी अपनी मूल ध्वनि पैदा होती है तो उसका रस ही और है। उसको कुछ कहने का उपाय नहीं। हमारा श्रेष्ठतम संगीत भी उसकी दूरतम ध्वनि नहीं है। हम कितने ही उपाय करें, उस शून्य के संगीत को/म्यूजिक ऑफ साइलेंस को हम कभी भी न सुन पाएंगे। और इसलिए अच्छा हो कि हम उसको कोई रूपरंग देकर न चलें। नहीं तो वह हमें बाधा दे सकता है।

12- चौथे शरीर तक स्त्री और पुरुष का भेद है, चौथे शरीर के बाद कोई भेद नहीं है। पांचवां शरीर लिंग-भेद के बाहर है। लेकिन चौथे शरीर तक बहुत बुनियादी भेद है। और वह बुनियादी भेद बहुत तरह के परिणाम लाएगा। पुरुष शरीर का पहला शरीर पुरुष है, दूसरा शरीर स्त्रैण है; तीसरा शरीर फिर पुरुष है, चौथा शरीर फिर स्त्रैण है। इससे उलटा स्त्री का है उसका पहला शरीर स्त्री का, दूसरा पुरुष का, तीसरा स्त्री का और चौथा पुरुष का। इसकी वजह से बड़े मौलिक भेद पड़ते हैं ; जिन्होंने मनुष्य जाति के पूरे इतिहास और धर्मों को बड़ी गहराई से प्रभावित किया, और मनुष्य की पूरी संस्कृति को एक तरह की व्यवस्था दी।पुरुष शरीर की कुछ खूबियां हैं; स्त्री शरीर की कुछ खूबियां और विशेषताएं हैं। और वे दोनों खूबियां और विशेषताएं एक -दूसरे की पूरक/काप्लीमेंटरी हैं।वास्तव में, स्त्री शरीर भी अधूरा शरीर है और पुरुष शरीर भी अधूरा शरीर है; इसलिए सृजन के क्रम में उन दोनों को संयुक्त होना पड़ता है। यह संयुक्त होना दो प्रकार का है।एक पुरुष का शरीर अगर बाहर की स्त्री से संयुक्त हो, तो प्रकृति का सृजन होता है;प्रकृति की तरफ यात्रा शुरू होती है।और एक पुरुष का शरीर अगर अपने ही पीछे छिपे स्त्री शरीर से संयुक्त हो, तो ब्रह्म की तरफ का जन्म शुरू होता है ; परमात्मा की तरफ यात्रा शुरू होती है।

13- ऊर्ध्वगमन का यात्रा पथ यही है..भीतर की स्त्री से संबंधित होना, और भीतर के पुरुष से संबंधित होना।वास्तव में ,जो ऊर्जा है, वह सदा पुरुष से स्त्री की तरफ बहती है ...चाहे वह बाहर की तरफ बहे और चाहे वह भीतर की तरफ बहे। अगर पुरुष के भौतिक शरीर की ऊर्जा भीतर के ईथरिक स्त्री शरीर के प्रति बहे, तो फिर ऊर्जा बाहर विकीर्ण नहीं होती -ब्रह्मचर्य की साधना का यही अर्थ है ...तब वह निरंतर ऊपर चढ़ती जाती है। चौथे शरीर तक उस ऊर्जा की यात्रा हो सकती है। चौथे शरीर पर ब्रह्मचर्य पूरा हो जाता है। इसके बाद ब्रह्मचर्य जैसी कोई चीज नहीं है; क्योंकि चौथे शरीर को पार करने के बाद साधक न पुरुष है और न स्त्री है।अब यह जो एक नंबर का शरीर और दो नंबर का शरीर है, इसी को ध्यान में रखकर अर्धनारीश्वर की कल्पना कभी हमने चित्रित की थी। बाकी वह प्रतीक बनकर रह गई और हम उसे कभी समझ नहीं पाए।

14- शिव शंकर अधूरे हैं,देवी पार्वती अधूरी है ..वे दोनों मिलकर एक हैं।अर्धनारीश्वर का कि आधा अंग पुरुष का है, आधा स्त्री का है। यह जो आधा दूसरा अंग है, यह बाहर प्रकट नहीं है, यह प्रत्येक के भीतर छिपा है। तुम्हारा एक पहलू पुरुष का है, तुम्हारा दूसरा पहलू स्त्री का है।वास्तव में, ये एक -दूसरे के परिपूरक हैं; और ये दो इकाइयां नहीं हैं, ये एक ही इकाई के दो पहलू हैं। इसलिए कितना ही बलशाली पुरुष हो ; जब वह बारह घंटे, दस घंटे पुरुष का उपयोग कर लेता है, तो उसका पहला शरीर थक जाता है। घर लौटते-लौटते वह पहला शरीर विश्राम चाहता है। भीतर का स्त्री शरीर प्रमुख हो जाता है, पुरुष शरीर गौण हो जाता है। स्त्री दिन भर स्त्री रहते-रहते उसका पहला शरीर थक जाता है, उसका दूसरा शरीर प्रमुख हो जाता है। और इसलिए स्त्री पुरुष का व्यवहार करने लगती है और पुरुष स्त्री का व्यवहार करने लगता है ...रिवर्सन हो जाता है।ऊर्जा के आंतरिक प्रवाह के ऊर्ध्वगमन का मार्ग है कि बाहर के पुरुष का भीतर की स्त्री से मिलन या बाहर की स्त्री का भीतर के पुरुष से मिलन।

15-पुरुष शरीर के जो विशेष गुण हैं, वह पहला गुण यह है कि वह आक्रामक है ,दाता है रिसेप्टिव नहीं ; दे सकता है, ले नहीं सकता।लेकिन पुरुष ग्रहण नहीं कर पाता; उसकी ग्रहण करने की क्षमता बहुत कम है। इसलिए पुरुषों ने धर्म को जन्म तो दिया, लेकिन पुरुष धर्म का संग्रह नहीं करते बल्कि स्त्रियां धर्म का संग्रह करती है।स्त्री रिसेप्टिव है; दे नहीं सकती, ले सकती है।परन्तु इस ब्रह्मांड की सबसे बड़ी महिमा यही है कि जिसका पहला शरीर स्त्री का है ;उसका दूसरा शरीर पुरुष का;पुनः तीसरा शरीर स्त्री का और चौथा पुरुष का।इस प्रकार जिसका पहला शरीर पुरुष का है ,उसका दूसरा शरीर स्त्री का ;पुनः तीसरा पुरुष का और चौथा स्त्री का।चौथे शरीर के बाद स्त्री पुरुष शरीर का भेद भी खत्म हो जाता है। उनका ऊर्ध्वगमन हो जाता है।जिसका पहला शरीर स्त्री का है ;उसका चौथा शरीर पुरुष का है।जिसका पहला शरीर पुरुष का है ;उसका चौथा शरीर स्त्री का है।इसलिए चौथे शरीर में स्त्रियां Giver है और चौथे शरीर में पुरुष Taker हैं। सांसारिक जगत में 3 शरीरों का वर्चस्व है। परंतु आध्यात्मिक जगत में यात्रा चौथे शरीर से ही शुरू होती है।

16- स्त्रैण व्यक्तित्व का मतलब यह है कि उनमें जो स्त्रैण गुण हैं..कोमलता, प्रेम,ममता, करुणा और अहिंसा आदि वे बढ़ गए; हिंसा क्रोध खत्म हो गया, आक्रमण विदा हो गया, और बढ़ गए। जब भी कोई मुल्क आध्यात्मिक होगा, तो स्त्रैण हो जाएगा; और जब भी स्त्रैण होगा, तब अपने से बहुत साधारण सभ्यताएं उसको हरा देंगी।भारत को जिन लोगों ने हराया, वे भारत से बहुत पिछड़ी हुई सभ्यताएं , एक अर्थ में बिलकुल बर्बर सभ्यताएं थीं।लेकिन हम रिसेप्टिव हो गए थे, हम उनको आत्मसात ही कर सके, लड़ने का कोई उपाय न था।तो ऐसी प्रक्रियाएं हैं कि इसी हालत में व्यक्तित्व का रूपांतरण किया जा सकता है..जो तुम्हारा नंबर दो का शरीर है, वह तुम्हारे नंबर एक का शरीर हो सकता है; और जो तुम्हारे नंबर एक का शरीर है, वह तुम्हारे नंबर दो का शरीर हो सकता है। इसके लिए प्रगाढ़ संकल्प की साधनाएं हैं, जिनसे तुम्हारा इसी जीवन में भी शरीर रूपांतरित हो सकता है।परंतु समस्या तब आती है जब हम चौथे शरीर पर ही रुक जाते हैं।चौथे शरीर के बाद पांचवें ,छठवें और सातवें शरीर की भी तो यात्रा है।भारत चौथे शरीर पर ही रुक गया इसलिए हार गया।उदाहरण के लिए गोपिओं को श्री कृष्ण सखी प्रतीत होते हैं;परंतु क्या महाभारत में भी उनका व्यक्तित्व ऐसा है?क्योंकि उनकी यात्रा सातवें शरीर की हैं... वो स्विचर हैं।भारत चौथे शरीर पर रुक गया तो हार गया! इसीलिए चौथे शरीर के बाद रुकना नहीं हैं... सातवें शरीर तक जाना हैं।


...SHIVOHAM...



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