क्या कारण है कि जीसस और सुकरात जैसे साक्षात प्रेमावतारों के साथ अमानवीय व्यव्हार किया गया ?
क्या है अस्तित्व ?-
17 FACTS;-
1-अस्तित्व तटस्थ भी है और अत्यंत प्रीतिपूर्ण भी।लेक़िन तुम सोचते हो कि जो तटस्थ है वह प्रीतिपूर्ण कैसे होगा?वास्तव में, तुम्हें विरोधाभासों को समझने की क्षमता जगानी ही होगी। तुम सोचते हो कि अगर अस्तित्व प्रीतिपूर्ण है तो जीसस को बचा लेता और जीसस के विरोधी भी तो वही मांग कर रहे थे। वे कहते थे कि तुम अगर ईश्वर के बेटे हो तो देख लेते हैं, परीक्षा हुई जाती है।जैसा तुम दावा करते हो, तो चलो सूली पर निर्णय हो जायेगा। अगर एक हाथ आकाश से उतर आता ,फूल बरस जाते और सूली सिंहासन बन जाती...यही तो दुश्मन मांग रहे थे। वे कहते थे ...ये प्रमाण दे दो। सूली लग गई, न फूल बरसे, न सूली सिंहासन बनी, न कोई आकाश से दिव्य हाथ आया, न कोई चमत्कार हुआ, कुछ भी न हुआ ।जैसे किसी साधारण व्यक्ति को सूली दे दी हो, ऐसे ही जीसस को भी सूली लग गई और सब समाप्त हो गया। स्वाभाविक है कि लगेगा कि अस्तित्व बिलकुल तटस्थ है, कुछ लेना-देना ही नहीं है। लेकिन हमें थोड़ा गहराई में जाना होगा ।
2-अस्तित्व तटस्थ है, क्योंकि प्रेमपूर्ण हैं। अस्तित्व प्रेमपूर्ण है, तो ही तुम्हारे जीवन में स्वतंत्रता हो सकती है। मगर स्वतंत्रता के लिये अस्तित्व का तटस्थ होना भी जरूरी है, नहीं तो स्वतंत्रता नष्ट हो जायेगी। अगर अस्तित्व हर कदम पर बाधाएं डालने लगे तो जीवन कारागृह हो जायेगा।परन्तु जीवन कारागृह नहीं है। तुम जो होना चाहो,परमात्मा ने तुम्हें उसकी पूरी स्वतंत्रता दी है--पापी या पुण्यात्मा, अच्छे या बुरे, तुम जो होना चाहो ;एडोल्फ हिटलर से लेकर गौतम बुद्ध तक ।यह मनुष्य की गरिमा है और यह परमात्मा की अपार अनुकंपा है कि मनुष्य स्वतंत्र है। यह स्वतंत्रता दी ही इसलिए है कि अस्तित्व प्रीतिपूर्ण है।प्रेम ही तो स्वतंत्रता देता है और जो प्रेम स्वतंत्रता न दे सके, छोटा प्रेम है। परमात्मा का प्रेम इतना बड़ा है कि तुम उसके विपरीत भी चले जाओ तो भी स्वतंत्रता है। इस प्रेम की विशालता को समझना होगा ।
3-तुम तो छोटे-छोटे प्रेम जानते हो या ऐसे प्रेम जानते हो जो कि प्रे्म नहीं हैं।प्रेम के नाम पर कब्जा है, मालकियत है, राजनीति है।परमात्मा का प्रेम ऐसा प्रेम नहीं है कि जरा रात देर से लौटे कि परमात्मा सामने खड़ा है कि कहां रहे कि जरा-सी भूल-चूक की, कि तुमने ऐसा क्यों किया? पहली बात परमात्मा का प्रेम विराट है और उसी विराट प्रेम के कारण परमात्मा तटस्थ मालूम होता है।अगर परमात्मा ने जीसस पर फूल बरसा दिये होते और सूली सिंहासन बन गई होती,तो गलत हुआ होता। क्योंकि फिर मनुष्य की स्वतंत्रता न रह जाती ; अपने जीवन को अपने ढंग से जीने का अधिकार न रह जाता।अगर ऐसा हुआ होता तो दुनिया से सारे धर्म खो गये होते, सिर्फ ईसाइयत बचती। फिर ये जो इतने विभिन्न धर्मों के फूल हैं और जगत में इतना वैविध्य है, यह सब खो गया होता।तो परमात्मा ने बाधा नहीं दी। लोग जो कर रहे थे करने दिया और इस तरह जीसस को भी एक अवसर दिया।
4-जीसस के मन में भी इसी तरह का भाव था, एक क्षण को जीसस भी डगमगा गये थे। जब सूली लगी और हाथ पर कीले ठोंके गये तो जीसस ने भी आकाश की तरफ पुकार कर कहा था: हे प्रभु, यह तू क्या दिखला रहा है? कहीं भीतर अचेतन में छुपी एक कामना रही होगी कि जब समय पड़ेगा तो परमात्मा काम आयेगा।यह मानवीय कामना है, कौन नहीं करेगा! लेकिन मैं परमात्मा से अपने हिसाब से काम लूं , इसमें अहंकार भी है; और परमात्मा मेरी अपेक्षा पूरी करे, मेरे ढंग से व्यवहार करे इसमें परमात्मा पर आरोपण भी है। इसमें उसकी ही मर्जी अंतिम है, ऐसा भाव नहीं है। क्षण-भर को जीसस के मन भी संदेह की एक लहर दौड़ गई और जीसस ने कहा: हे प्रभु, तू मुझे क्या दिखला रहा है? देखते हो,अथार्त शिकायत हो गई!पर जीसस बड़े संवेदनशील व्यक्ति थे, तत्क्षण समझ गये । वह जो जरा-सी संदेह की लहर उठ गई थी, उसे पकड़ लिया।अपनी भूल समझ ली, ..झुक गया सिर। और जीसस ने दूसरे जो शब्द तत्क्षण कहे , वे थे ...'' हे प्रभु, तेरी जो मर्जी हो वही पूरी हो। मेरी मर्जी पर ध्यान न देना। मैं क्या जानूं कि क्या ठीक है? मेरी मर्जी का मूल्य क्या? तू जानता है क्या ठीक है। तू जो करे वही ठीक! मैं नतमस्तक हूं!''
5-यह समर्पण ही असली चमत्कार है। अगर परमात्मा ने फूल बरसा दिये होते, तो जीसस जीसस ही रह जाते, क्राइस्ट न हो पाते। अगर फूल बरस गये होते तो जीसस का अहंकार भर गया होता, कहा होता कि अब देख लो सब, सारे विरोधी, कि कौन सच्चा है! अब यह कसौटी हो गई। जीसस का अहंकार प्रबल हो गया होता और वहीं भूल हो गई होती। जीसस खो गये होते, भटक गये होते।पापियों से भी बड़ा अहंकार पुण्य का होता है। और इतना बड़ा पुण्य कि परमात्मा आकाश से उतरे अपने प्यारे को बचाने। तो उस अकड़ में जीसस का परमात्मा से संबंध ही सदा के लिए टूट गया होता। लेकिन चमत्कार हुआ। परमात्मा ने कुछ भी न किया; इस न करने में चमत्कार है। मगर इसे देखने के लिये बड़ी गहरी आंख चाहिये। ऊपर-ऊपर से तो ऐसा ही दिखा कि परमात्मा ने बड़ी उदासी रखी, बिलकुल तटस्थ रहा; जीसस मरे कि नहीं, जैसे कोई मतलब ही नहीं था। जरा भी बीच में आया नहीं। मगर और गहरे देखो कि बिना बीच में आये वह बीच में आया। कृत्य कुछ भी न किया और क्रांति घटी।
6-जीसस को एक अवसर दिया कि तू अपनी आखिरी अपेक्षाएं भी छोड़ दे। तू आग्रह छोड़ दे ;शिकायत का रेशा भी न रह जाये। यही वास्तविक घटना थी। यही महोत्सव है, जो जीसस के भीतर घटा। वे झुक गये और उस झुकने में जीसस क्राइस्ट हो गये। उसी झुकने में वह महापर्व आ गया, समर्पित हो गये। बूंद सागर में गिर गई और सागर हो गई। फिर यह भी खयाल रखो कि तुम्हें जो मृत्यु मालूम पड़ती है वह परमात्मा के लिये मृत्यु नहीं है। तुम्हें अड़चन लगती है कि जीसस, सुकरात और मंसूर जैसे प्रेमावतारों को सूली दी गई, जहर पिलाया गया, हाथ-पैर काटे गये, गर्दनें काटी गईं, परमात्मा कैसे देखता रहा? यह तुम्हारा देखना और परमात्मा का देखना, तुम सोचते हो कि एक जैसा होगा। लेकिन यह ऐसा ही है कि बच्चे ने अपने खिलौने की गर्दन तोड़ दी और पिता बैठा देखता रहा, कुछ भी न बोला। दूसरे बच्चे कहेंगे: यह कैसा पिता है! गर्दन तोड़ी गई और पिता बैठा देखता रहा! अब पिता जानता है कि खिलौना है और बच्चा आज नहीं कल गर्दन तोड़ेगा ही। खिलौने टूटने के लिए ही होते हैं।
7-लेकिन छोटे बच्चे को तो खिलौना बड़ा जीवित मालूम होता है।वे तो अपने खिलौनों को रात बिस्तर पर भी ले जाते हैं, उनको नहलाते भी हैं, उनको खिलाने की भी कोशिश करते हैं, घुमाने भी ले जाते हैं, उनसे बातचीत भी करते हैं। खिलौना गिर जाये तो उठाकर उसको पुचकारते हैं, समझाते भी हैं कि मत रो। छोटा बच्चा तो अपने खिलौनों को जीवित मानता है। हमारी भी बुद्धि उतनी ही है। तुम जब जीसस को सूली लगते देखते हो, तब तुम सोचते हो जीसस को सूली लग रही है! जीसस को तो सिंहासन ही मिल रहा है। देह गिर रही है ...देह तो मिट्टी की ही है, खिलौना है।परमात्मा की तरफ से देखने पर देह तो गिरेगी ही, आज नहीं तो कल। देह को कब तक बचाया जा सकता है? देह तो मरणधर्मा है। और अगर ऐसा समझो, तो फिर जीसस,सुकरात से बेहतर मरने का ढंग और क्या होगा? मृत्यु भी बड़ी महत्वपूर्ण हो गई, क्योंकि जीसस की मृत्यु से ही जीसस का प्रभाव पड़ा... जगत पर। जीसस की मृत्यु ने ही मनुष्य को जीसस के प्रति आकर्षित किया।सुकरात के जहर ने ही तो सुकरात के नाम को आज तक जिंदा रखा है।
8-सुकरात ऐसे भी मरते , चाहे बीमारी से मरते ; लेकिन जहर देकर मारा गया, यह बात मनुष्य के हृदय पर अमिट अक्षरों में खुद गई , जो कभी न मिट सकेगी। सुकरात को अब भुलाया न जा सकेगा ..सदा-सदा याद रहेगे । शायद इससे सुंदर और मृत्यु हो भी नहीं सकती थी। सुकरात को ...अदालत ने कहा गया था कि हम तुम्हें क्षमा कर सकते हैं; तुम जिसको सत्य कहते हो वह बोलना बंद कर दो तो हम तुम्हें क्षमा कर सकते हैं। लेकिन वायदा करना होगा कि तुम चुप रहोगे, अब यह सत्य की बातचीत बंद कर दोगे सुकरात ने कहा..बिना सत्य बोले जीने से... सत्य बोलकर मरना बेहतर है। मृत्यु भी सत्य के काम आ जायेगी।तुम जहर दो 'मुझे मारो। जीकर क्या करूंगा? अगर सत्य की उदघोषणा न कर सकूं, अगर सोयों को जगा न सकूं, अगर गङ्ढे में गिरते को रोक न सकूं, अगर बीमार का उपचार न कर सकूं, तो जीकर क्या करूंगा? मुझे तो जीकर जो जानना था वह जान लिया, अब बांटने के लिये जी रहा हूं। अगर बांटना ही नहीं हो सकता तो यह फूल अभी गिर जाये। अगर सुगंध बांटनी ही नहीं है, तो इस फूल को बचाने से प्रयोजन भी क्या है?
9- तुम्हें अड़चन लगती है, क्योंकि तुम्हें अभी पता ही नहीं कि इस मरणधर्मा देह में अमृत छिपा है। ईरान के ब्रह्मज्ञानी मंसूर को जरा भी अड़चन न थी।जब मंसूर को सूली लगी, तो आकाश की तरफ देखकर खिलखिलाकर हंसा था। भीड़ इकट्ठी थी। भीड़ में से किसी ने पूछा कि मंसूर, यह हंसने का वक्त है? तुम होश में हो? पागल तो नहीं हो गये हो? किस लिये हंस रहे हो?
मंसूर ने कहा.. मैं इसलिए हंस रहा हूं कि यह भी खूब रही! तुम सोच रहे हो, मुझे मार रहे हो, तुम मुझे मारोगे क्या, तुम मुझे छू भी नहीं सकते। तुम्हारे अस्त्र मुझे छू भी नहीं सकते।और जिसे तुम मार रहे हो, उसे तो मैं खुद ही छोड़ चुका था। वह मैं हूं, ऐसी तो धारणा मैंने कब की त्याग दी थी। मैं देह तो हूं ही नहीं। जिस दिन मैंने, देह नहीं हूं, ऐसा जाना, उसी दिन तो मेरे भीतर यह उदघोष उठा : अनलहक, कि मैं परमात्मा हूं! जिस अपराध के लिये तुम मुझे मार रहे हो...।मंसूर का अपराध यही था कि उसने घोषणा कर दी कि मैं ईश्वर हूं।हज़रत शिबली ने समझाया कि 'मित्र! प्रेमास्पद ब्रह्म के भेद को छिपाना चाहिए -सर्वसाधारण अनधिकारी जनों पर रहस्य नहीं खोलना चाहिए।'
10-इस शिक्षा का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा, और प्रयत्नपूर्वक रहस्य को छिपाने लगे, पर छिपाना असंभव था। एक दम मौन का बाँध टूट गया, और 'अनलहक़' (अहं ब्रह्मास्मि) की घोषणा गूँज उठी, जिसने सर्वसाधारण और विशिष्ट व्यक्तियों को आश्चर्यचकित कर दिया। मुसलमानों की नजर में कि कोई अपने को ईश्वर घोषित कर दे, तो वह कुफ्र हो गया।मंसूर को अद्वैत के अतिरिक्त और कुछ उन्हें सूझता ही न था। किसी के कहने-सुनने का कुछ असर न हुआ; अद्वैतभावना पराकाष्ठा को पहुँच गई। एक दिन अरबी भाषा में एक किता कहा, जिसका भाव यह है कि—'मैं वही हूँ, जिसे मैं चाहता हूँ; और जिसे मैं चाहता हूँ, वह मैं ही हूँ। हम दोनों दो आत्माएँ हैं, जिन्होंने एक शरीर अवतार लिया है; इसीलिए जब वह मुझे देखता है, मैं उसे देखता हूँ, और जब मैं उसे देखता हूँ, वह मुझे देखता है'। वह 'हक़, हक़, अनलहक़'—ब्रह्म ब्रह्म, अहं ब्रह्म—कहते रहे, यहाँ तक कि कुफ़्र के फ़तवे से क़ैद और क़ैद से क़त्ल के फ़तवे की नौबत आ गई।
11-मंसूर ने कहा कि मैंने कहा कि मैं ईश्वर हूं; मगर तुम्हें पता है कि यह अपराध मैं इसीलिए कर सका कि मुझे पता चल गया कि मैं देह नहीं हूं। जिस दिन जाना देह नहीं हूं, उसी दिन जाना अमृत हूं।फिर किसी ने पूछा कि आकाश की तरफ देखकर क्यों हंस रहे हो? तो उसने कहा कि मैं इसलिये आकाश की तरफ देखकर हंस रहा हूं कि कह रहा हूं ..परमात्मा से कि तू किसी भी रूप में आ, मैं तुझे पहचान लूंगा। आज तू मौत के रूप में आया है, मुझे धोखा न दे सकेगा। मैं तुझे हर रूप में जानता हूं। मौत भी तू है। वास्तव में , उस परम दशा में जीवन और मृत्यु में , कांटे और फूल में कोई भी भेद नहीं है। जो जानते हैं, उनकी भावदशा कुछ और होती है। प्रेम का अर्थ है अपूर्णता और असफलता । तुमने कभी सोचा भी न होगा, कि प्रेम अपूर्णता और असफलता का नाम है!असफलता में भी सफलता जानना, अपूर्णता में भी पूर्णता जानना, मृत्यु में भी जीवन जानना.. प्रेम है । प्रेम है हार में भी जीत जानना। और अगर सच में तुम्हें प्रेम है तो अपने मन को लाभऱ्हानि के विचार से मुक्त कर लो। हानि-लाभ का भाव बना रहा तो कभी प्रेम न कर सकोगे। फिर मृत्यु में भी हानि नहीं है और जीवन में भी लाभ नहीं है। फिर असफलता में हानि नहीं है, सफलता में लाभ नहीं है। फिर फूलों की सेज पर मरे कि कांटों की सेज पर, भेद नहीं है। इस अभेद दशा का नाम प्रेम है और प्रेम ही प्रार्थना है।
12-प्रेम की दुनिया दीवानों की दुनिया है। ये मंसूर, ये सुकरात, ये जीसस, इस जगत के बड़े-से-बड़े दीवाने हैं, बड़े-से-बड़े प्रेमी हैं। इस्लाम की धारणा है कि जब आखिरी कयामत का दिन आयेगा तो एक देवपुरुष उतरेगा और जोर से तुरही बजायेगा, क्योंकि सब जो मुर्दे कब्रों में लेटे हैं वे उठ जायें। एक तरह की सूचना है मुर्दों को.. कि जाग जाओ। तुरही बड़ी भयंकर होगी ..दिल को दहला देने वाली होगी। लेकिन यहां कुछ दीवाने भी सो रहे हैं, जिनको फिक्र ही नहीं है, न जीवन की न मृत्यु की, न संसार की न कयामत की। उन्हें प्रलय का भी पता न चलेगा। सृष्टि का अंत आ गया, यह तुमुल-घोष होगा और वे अपनी मस्ती में पड़े रहेंगे।क्या जीसस को ,मंसूर को मौत का पता चला होगा? आई और गुजर गई। यही चमत्कार है।अस्तित्व अत्यंत प्रेमपूर्ण है और इसलिये अत्यंत तटस्थ है। यह प्रीतिपूर्ण तटस्थता है। यह तटस्थता उपेक्षा की नहीं बल्कि प्रीति की है।
13-अस्तित्व इतना प्रेम करता है कि कैसे तुम्हारे जीवन में बाधा डाले ... इसीलिये परमात्मा की उपस्थिति बिलकुल अनुपस्थिति जैसी है। परमात्मा जगह-जगह उपस्थित हो, लेकिन परमात्मा का प्रेम विराट है। उसी विराट प्रेम के कारण वह उपस्थित है, मगर अनुपस्थित हो गया है। कहीं उसकी उपस्थिति बाधा न बन जाये, क्योंकि वह मौजूद हो तो कहीं ऐसा न हो कि तुम कुछ काम न कर सको जो तुम करना चाहते थे। परमात्मा तुम्हारे सामने बैठा हो तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी, कि क्या करोगे और क्या नहीं। उसने खूब उपाय खोजा है कि बिलकुल तिरोहित हो गया है। चारों तरफ वही है ..उसी ने तुम्हें घेर रखा है--भीतर भी वही, बाहर भी वही, लेकिन बिलकुल अनुपस्थिति है। यह उसके प्रेम का प्रतीक है। तुम्हारे जीवन में बाधा न हो। तुम्हें पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। परमात्मा की अनुपस्थिति तुम्हारी स्वतंत्रता की आधारशिला है। वह जगह-जगह खड़ा मिल जाये,तो तुम्हारे जीवन से सारा गौरव, सारी गरिमा तिरोहित हो जायेगी।
14-परमात्मा तटस्थ है, क्योंकि प्रेमपूर्ण है और परमात्मा प्रेमपूर्ण है क्योंकि तटस्थ है।वहां तटस्थता और प्रेम में विरोध नहीं रह जाता। फिर तुम्हारी दृष्टि से जो मृत्यु है उसकी दृष्टि से मृत्यु नहीं है।क्या जिंदगी कहीं मौत पर समाप्त हो सकती है? ..असंभव है। जिंदगी तो और बड़ी जिंदगी बनती है।आम के वृक्ष में आम के फल लगते हैं, नीम के वृक्ष में नीम के फल लगते हैं। जीवन के वृक्ष में मृत्यु के फल लग कैसे सकते हैं? और अगर तुम्हें दिखाई पड़ते हों कि मृत्यु के फल लग रहे हैं, तो तुम्हारे देखने में कहीं भूल-चूक होगी। मृत्यु सिर्फ परिधान का बदलना है, अपने वस्त्रों का बदलना है। वस्त्र जीर्ण हो जाते हैं तो मनुष्य बदल लेता है, लेकिन वस्त्रों की बदलाहट मृत्यु नहीं है। तुम देह में सीमित नहीं हो। तुम देह में आवास कर रहे हो, मगर तुम देह ही नहीं हो। घड़ा टूट गया, इससे घड़े का जल थोड़े ही टूट जाता है बल्कि मुक्त हो जाता है। बंधा था, अब मुक्त हो गया। ऐसे ही जीसस का घड़ा सूली पर टूट गया। लोगों ने घड़ा फोड़ा और समझे कि जीसस को मार लिया।लेकिन यह इतना आसान नहीं है।
15-जीसस को अपमानित के लिये उनके साथ दो चोरों को भी सूली लगी थी, कि तुम्हें हम चोरों से ज्यादा नहीं गिनते।जीसस को तो पता है कि भीतर शाश्वत विराजमान है। उनके बाएं एक चोर है, दाएं एक चोर है; उनको नहीं पता इसीलिए वे जरूर मर रहे हैं ,पीड़ित हो रहे हैं। लेकिन उन दो चोरों में भी भेद है। एक चोर न तो जानता है कि आत्मा है, न मानता है कि आत्मा है। दूसरा चोर जीसस के चेहरे पर मृत्यु के क्षण में भी गुलाब के फूल जैसी लालिमा देखता है। उनकी आंखों में गहरी शांति देखता है।उनके चारों तरफ प्रेम की आभा देखता है।जीसस के परमात्मा से अंतिम वचन थे कि हे प्रभु, इन सबको माफ कर देना, जो लोग मुझे सूली दे रहे हैं, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं! एक चोर जो कि आत्मा को मानता भी नहीं, जानता भी नहीं, वह तो हंस रहा है, वह तो जीसस की मजाक उड़ा रहा है। उसने तो जीसस से मरने के पहले कहा कि हम तो खैर चोर हैं, सो ठीक, सूली लग रही है, आपका क्या? आप तो बड़े संत, आप तो दावेदार थे कि आप ईश्वर के बेटे हो ... इकलौते बेटे हो -आपका क्या हुआ?
16-वह मर रहा है खुद लेकिन फिर भी अपना व्यंग्य किये जा रहा है। जीसस की मजाक उड़ा रहा है। एक अर्थ में वह प्रसन्न है कि जीसस को भी लग रही है, क्योंकि तब बुरा और भला सब बराबर हो जाता है। मौत में न कोई पुण्य का भेद है न पाप का भेद है। झंझट सब खतम हो जाती है। आगे कुछ भी नहीं है। यह जीसस तक मर रहा है। जब जीसस की भी यह गति हो रही है तो अच्छा करके भी क्या कर लिया? हमने ही बुरा किया तो कौन बुरा किया? फल तो बराबर हुआ जा रहा है, दोनों की मौत घट रही है।मगर दूसरे चोर ने जीसस की शांति को देखा ..पहचाना। उसने जीसस से कहा कि हे प्रभु, मैंने तो न जानी आत्मा और न हीं जाना परमात्मा, न कभी प्रार्थना की, चूक ही गया; मगर यही क्या मेरा कम धन्यभाग कि आपकी छाया में मर रहा हूं! यही मेरा महापुण्य है! जीसस ने उसकी आंखों में देखा और कहा: तू घबड़ा मत, तू बचा लिया गया है।वास्तव में, इस भाव में ही बचाव हो गया ..सारे पाप धुल गये। मरने के आखिरी क्षण उस चोर ने कहा कि प्रभु, फिर कब दर्शन होंगे? जीसस ने कहा..आज ही! शरीर को गिर जाने दे। दर्शन तो हो ही गये और दर्शन तो जारी रहेंगे।
17-दोनों चोर...लेकिन एक अंधा और एक आंखवाला। एक मर कर फिर पैदा होगा। फिर चोर हो जायेगा; लेकिन दूसरे ने खूब कुशलता से सम्हाला।अंत में गिरते-गिरते सम्हल गया। जो पारखी हैं वे तो जिंदगी में जब दुख आता है तो मुस्कराते हैं, क्योंकि हर दुख परीक्षा है और हर दुख कसौटी है। और हर दुख निखारता है और हर दुख तपश्चर्या है। और हर दुख से गुजरकर तुम्हारे जीवन का कुंदन रोज-रोज शुद्ध होता जाता है। और जो व्यक्ति जीवन के परम दुख से गुजरा...फांसी परम दुख है, एक क्षण में सारे जीवन की पीड़ा इकट्ठी हो गई...उससे जो गुजरा, उस गुजरने में, उस पार होने में, उसने आखिरी परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।तुम्हारी तरफ से देखने पर लगता है कि परमात्मा कुछ भी न बोला, चुप रहा, तटस्थ है। परमात्मा को जो करना था उसने किया। जो करने योग्य था किया। यह परीक्षा थी और परीक्षा जरूरी थी। जीसस, मंसूर, सुकरात इस परीक्षा से उत्तीर्ण हो गये--पताकायें फहराते परमात्मा में लीन हो गये होंगे! दुख जब आये तो ऐसे ही सोचना कि दुख निखारता है, कि दुख मांजता है, कि दुख से मंज-मंजकर ही वह घड़ी आती है जब सोने में सुगंध पैदा होती है।
...SHIVOHAM...
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