क्या ध्यान आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान है ?
07 FACTS;- 1-ध्यान में संपूर्ण आध्यात्मिक रहस्य समाये हुए हैं, फिर भी इसका अनुभव कम ही लोग कर पाते हैं और इसका कारण यह है कि ध्यान के विषय में अनेक भ्रांतियाँ प्रचलित हैं। कतिपय लोग ध्यान को महज एकाग्रता भर समझते हैं। कुछ लोगों के लिए ध्यान केवल मानसिक व्यायाम भर है। ध्यान को एकाग्रता समझने वाले लोग जिस किसी तरह से मानसिक चेतना को एक बिंदु पर इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं, हालाँकि उनके इस प्रयास से परामानसिक चेतना के द्वार नहीं खुलते। उन्हें अंतर्जगत में प्रवेश नहीं मिलता। वे तो बस, बाहरी उलझनों में भटकते अथवा मानसिक द्वंद्वों में अटकते रहते हैं। 2-जिस तरह दवा शरीर से बीमारियों को दूर करती है, उसी तरह ध्यान अंतस् को स्वस्थ करता है। ध्यान हमारी जागरूकता और हृदयसहित सभी इंद्रियों की संवेदनशीलता को तेजी से बढ़ाता है। ध्यान हमारी भावनाओं में वृद्धि करता है और सकारात्मकता को भी बढ़ाता है। यही सकारात्मकता और भावनाएँ हमें ईश्वर के निकट ले जाती हैं।ध्यान का मतलब कुछ करना नहीं है। ध्यान है— पूर्ण विश्राम की अवस्था में साँसों के प्रति चेतन होना। पूर्ण का तात्पर्य है शरीर, मन और हृदय यानी क्रिया, सोच-विचार और भावनाओं, तीनों की विश्राम की अवस्था। ध्यान प्रयास से नहीं आता है। जब भी हम ध्यान में उतरने का प्रयास करेंगे, समस्या होगी।लेकिन जैसे ही हम अपने को पूरी तरह छोड़ देंगे, हमें पता भी नहीं चलेगा कि हम कब ध्यान में उतर गए। 3-हमारी क्रियाओं के तीन तल हैं। एक शरीर का तल है, जहाँ हम कुछ कर्म करते हैं। दूसरा तल मन का है, जहाँ हम सोचते-विचारते हैं। तीसरा तल है- हमारे हृदय का, भाव के जगत का, जहाँ हम भावनाओं का अनुभव करते हैं। इन तीनों के भीतर एक चौथा तल और है। वह किसी कर्म का तल नहीं है। वहाँ सिर्फ प्राण है, सिर्फ चेतना है, जहाँ जब हम शरीर, मन या हृदय से कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं।हम समझते हैं कि अगर हम बीमार नहीं हैं तो हम स्वस्थ हैं, लेकिन बीमार न होने का मतलब स्वस्थ होना नहीं है। कुछ और भी चाहिए।और ध्यान वही है। यह हमारी आध्यात्मिक समस्यायों का समाधान है। ध्यान हमें उचित परिप्रेक्ष्य में घटनाओं को परखने की दृष्टि देता है। ध्यानी से मिलकर हमको उसकी आंतरिक खुशी और शांति का स्पष्ट अनुभव होगा। जो ध्यान करेगा, उसमें अतींद्रिय क्षमता अवश्य विकसित होगी और यह उसे जीवन का परम उद्देश्य खोजने के प्रति चेतन बनाए रखती है। 4-ध्यान से प्राप्त शून्यता उसमें नई सूझ-बूझ भरती है। इस बात की प्रबल संभावना होती है कि ध्यानी स्वतंत्र व आत्मनिर्भर विचारों का स्वामी होगा। उसकी वृत्ति आविष्कारक, सृजनात्मक, कलात्मक व साहित्यिक होगी।ध्यान स्व-यथार्थ बोध/ Self-Actualization में मददगार है। यह सेवाकार्य में हमारी रुचि बढ़ाता है। आत्मज्ञान की संभावना का द्वार ध्यान से ही खुलता है और इसके द्वारा न सिर्फ खुद के बारे में, बल्कि दूसरों के विषय में भी गहरी समझ पैदा होती है। यह ध्यान ही है, जिससे तन-मन और चेतना के बीच के सामंजस्य की अखंडता को समझना और उसे साधना संभव होता है। इससे आध्यात्मिक विश्राम की गहराई में डुबकी लगती है और व्यक्ति विकाररूपी शत्रुओं से मुक्त होने लगता है व उसमें दूसरों की उन्नति के प्रति सहर्ष स्वीकार का भाव बनता है। 5-ध्यान करने वाला जो पहले था, वही नहीं रह जाता। जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण बदल जाता है। उसके भीतर मैत्रीभाव और क्षमाभाव भी आता है। यह उसे ध्यान की उच्चतर अवस्था में ले जाने अर्थात समाधि में उतारने में सहायक होता है, जिससे व्यक्ति का परमात्मा के साथ गहरा संबंध स्थापित होता है। वास्तविक योग यही है। ध्यानी अंतर्मुखी जरूर होता है, मगर वह गंभीर नहीं होता। इसके विपरीत वह तो जीवन की लीला को खेल की तरह लेता है। यही प्रवृत्ति उसे वर्तमान में जीने में मदद करती है, जिससे द्रष्टाभाव विकसित होता है और व्यक्ति के लिए स्वयं को घटना का साक्षीमात्र समझना आसान होता है। सत्ता और अहंकार से परे आत्मचैतन्य की खोज में तल्लीन होने का यह परम सूत्र है।जो भी ध्यानी होगा, वह अकारण ही संतोष, आनंद और मस्ती में दिखेगा। कारण बिलकुल सीधा है- उसने दूसरों से तुलना करना छोड़ दिया है। जैसे ही आप अपने आप से परिचित होते हैं, आपकी समझ में आ जाता है कि अन्य लोग भी आपकी ही तरह अद्वितीय हैं। फिर तुलना नहीं हो सकती। जागरण की यह अवस्था सबके प्रति सहज सम्मान जगाती है। 6-हमारे शरीर में ऊर्जा के सात तल हैं, जिनमें सबसे नीचे का तल मूलाधार कहलाता है और सबसे ऊपर का तल सहस्रार। प्रकृति केवल मूलाधार चक्र को सक्रिय करती है। बाकी चक्रों को सक्रिय करने के लिए व्यक्ति को प्रयास करना होता है। यदि व्यक्ति प्रयास नहीं करता तो उसकी ऊर्जा आजीवन मूलाधार चक्र पर ही रह जाती है। और वह मूलाधार चक्र से ही विदा हो जाता है। चूँकि हमारी सारी ऊर्जा मूलाधार चक्र पर जमी रहती है या यों कहें कि कुंडली मारकर बैठी रहती है, इसलिए वहाँ से ऊर्जा के ऊपर उठने को कुंडलिनी जागरण कहते हैं। ध्यान की पूरी प्रक्रिया इन सातों चक्रों को सक्रिय करने का प्रयास है; क्योंकि आंतरिक जीवन की समृद्धि इसी से संभव है। कुंडलिनी जागरण होते ही जीवन-ऊर्जा का अनुभव सघन होने लगता है।ध्यानी का आज्ञाचक्र (त्रिनेत्र) सक्रिय होता है, जिससे उसके लिए आत्मस्वामित्व का अनुभव कर पाना आसान होता है। आज्ञाचक्र की सक्रियता से अतींद्रिय ज्ञान के द्वार खुलते हैं और व्यक्ति पहली बार उस शक्ति से परिचित होता है, जिसे वास्तविक अर्थ में चमत्कार कहा जा सकता है। 7-उसकी जिंदगी प्रेम, श्रद्धा, स्नेह, करुणा जैसी श्रेष्ठ भावनाओं से ओत-प्रोत हो जाती है। ऐसा व्यक्ति जब भी विदा होगा, गहन शांति और स्वीकार्य के भाव के साथ विदा होगा। ध्यान के लिए कोई उपकरण नहीं चाहिए। ध्यान को समझना बिलकुल आसान है। बच्चे, युवा, वृद्ध, स्त्री-पुरुष, शिक्षित-अशिक्षित सभी इसे कर सकते हैं। किसी भी समय, कहीं भी इसका अभ्यास किया जा सकता है और इसके माध्यम से अपनी चेतनता को एक नया आयाम दिया जा सकता है।ध्यान अंतर्यात्रा है और यह यात्रा वही साधक कर पाते हैं, जिन्होंने अपनी साधना के पहले चरणों में अपनी मानसिक चेतना को स्थिर, सूक्ष्म व शांत कर लिया है। अनुभव का सच यही है कि मानसिक चेतना की स्थिरता, सूक्ष्मता व शांति ही परामानसिक/Parapsychic चेतना की अनुभूति है। इस अनुभूति में व्यापकता व गुणवत्ता की संवेदना का अतिविस्तार होता है साथ ही इसे पाने पर आंतरिक चेतना /Conscience स्वतः ही ऊर्ध्वगमन के लिए प्रेरित होती है।
साधना में ध्यान किसका करना है?-
05 FACTS;-
1-सामान्य रूप से ध्यान के संबंध में जो भी विचार प्रचलित हैं, उसमें हम ध्यान को 'किसी के ध्यान' के रूप में खयाल करते हैं। इसलिए स्वाभाविक यह प्रश्न उठता है कि ध्यान , प्रार्थना किसकी करे। प्रेम की दो अवस्थाएं हैं। एक प्रेम एक संबंध की तरह और एक प्रेम प्रेम मनोस्थिति /State of mind की तरह। पहले प्रेम में हम पूछते हैं, 'किससे?' वास्तव में, 'किससे का कोई सवाल नहीं ..बस प्रेम किया जाता है ।'लेकिन यह बात समझने में आपको दिक्कत होगी। परन्तु दूसरी बात समझने की है। वही व्यक्ति प्रेम करता है, जो बस प्रेम करता है और किसका कोई सवाल नहीं है। क्योंकि जो व्यक्ति 'किसी से' प्रेम करता है, वह शेष के प्रति घृणा से भरा होगा। जो व्यक्ति 'किसी का ध्यान' करता है, वह शेष के प्रति मूर्च्छा से घिरा होगा। हम जिस ध्यान की बात कर रहे हैं, वह किसी का ध्यान नहीं है, ध्यान की एक अवस्था है।ध्यान का मतलब, किसी को स्मरण में लाना नहीं है। ध्यान का मतलब, सब जो हमारे स्मरण में हैं, उनको गिरा देना है; और एक स्थिति लानी है कि केवल चेतना मात्र रह जाए, केवल कांशसनेस मात्र , अवेयरनेस मात्र रह जाए।
2- उदाहरण के लिए एक दीपक जलाएं और सारी चीजें हटा दें, तो भी दीपक प्रकाश करता रहेगा। वैसे ही अगर हम चित्त से सारे विचार , सारी कल्पनाएं हटा दें, तो चेतना अकेली रह जाएगी। चेतना की वह अकेली अवस्था ध्यान है।ध्यान किसी का नहीं करना होता है। ध्यान एक अवस्था है, जब चेतना अकेली रह जाती है। जब चेतना अकेली रह जाए और चेतना के सामने कोई विषय, न हो, उस अवस्था का नाम ध्यान है। जो हम प्रयोग करते हैं, वह ठीक अर्थों में ध्यान नहीं, धारणा है। ध्यान तो उपलब्ध होगा। जो हम प्रयोग करते हैं-- चक्रों, श्वास आदि पर--यह सब धारणा है, यह ध्यान नहीं है। इस धारणा के माध्यम से एक समय आएगा जब श्वास भी विलीन हो जाएगी ,शरीर भी विलीन हो जाएगा और विचार भी विलीन हो जाएंगे। जब सब विलीन हो जाएगा, तो जो शेष रहेगा, उसका नाम ध्यान है। धारणा किसी की होती है और ध्यान किसी का नहीं होता। हम ईश्वर की भी धारणा करते हैं-लेकिन उसमे एक समस्या है।मूर्ति की धारणा करने से मूर्ति ही आती रहेगी। और जितनी मूर्ति की धारणा घनी होती जाएगी, उतनी मूर्ति ज्यादा आने लगेगी। रामकृष्ण परमहंस के साथ ऐसा हुआ था। वे माँ काली के ऊपर धारणा करते थे। फिर धीरे-धीरे उनको ऐसा हुआ कि उनको माँ काली केअंतस में साक्षात होने लगे । आंख बंद करके वह मूर्ति सजीव हो जाती। वे बड़े आनंद में रहने लगे।
3-फिर वहां एक संन्यासी तोतापुरी महाराज का आना हुआ। और उस संन्यासी ने कहा कि 'तुम यह जो कर रहे हो, यह केवल कल्पना है। यह परमात्मा का साक्षात नहीं है।'रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि मुझे साक्षात होता है माँ काली का।' उस संन्यासी ने कहा, 'काली का साक्षात परमात्मा का नहीं है।'किसी को माँ काली का होता है, किसी को क्राइस्ट का होता है, किसी को श्री कृष्ण का होता है। ये सब मन की ही कल्पनाएं हैं। परमात्मा के साक्षात का कोई रूप ,कोई चेहरा, और कोई ढंग नहीं है, और कोई आकार नहीं है। जिस क्षण चेतना निराकार में पहुंचती है, उस क्षण वह परमात्मा में पहुंचती है। परमात्मा का साक्षात नहीं होता है, परमात्मा से सम्मिलन होता है। आमने-सामने कोई खड़ा नहीं होता कि इस तरफ आप खड़े हैं, उस तरफ परमात्मा खड़े हुए हैं! एक क्षण आता है कि आप समस्त सत्ता के बीच लीन हो जाते हैं जैसे बूंद सागर में गिर जाए। और उस क्षण में जो अनुभव होता है, वह अनुभव परमात्मा का है। परमात्मा का साक्षात या दर्शन नहीं होता। परमात्मा के मिलन की एक अनुभूति होती है, जैसे बूंद को सागर में गिरते वक्त अगर हो, तो होगी।
4- तो उस संन्यासी ने कहा, 'यह तो भूल है। यह तो कल्पना है।' और उसने रामकृष्ण से कहा कि 'अपने भीतर जिस भांति इस मूर्ति को आपने खड़ा किया है, उसी भांति इसको दो टुकड़े कर दें। एक कल्पना की तलवार उठाएं और मूर्ति के दो टुकड़े कर दें।' रामकृष्ण बोले, 'तलवार! वहां कैसे तलवार उठाऊंगा?' उस संन्यासी ने कहा, 'जिस भांति मूर्ति को बनाया, वह भी एक धारणा है। तलवार की भी धारणा करें और तोड़ दें। कल्पना से कल्पना खंडित हो जाए। जब मूर्ति गिर जाएगी और कुछ शेष न रह जाएगा--जगत तो विलीन हो गया है, अब एक मूर्ति रह गयी है, उसको भी तोड़ दें--जब खाली जगह रह जाएगी, तो परमात्मा का साक्षात होगा।'तोतापुरी महाराज ने कहा, 'जिसको आप परमात्मा समझे हैं, वह परमात्मा नहीं है। परमात्मा को पाने में आखिरी अवरोध है, उसको और गिरा दें।' रामकृष्ण को बड़ा कठिन पड़ा। जिसको इतने प्रेम से संवारा, जिस मूर्ति को वर्षों साधा, जो मूर्ति बड़ी मुश्किल से जीवित मालूम होने लगी, उसको तोड़ना! वे बार-बार आंख बंद करते और वापस लौट आते और वे कहते कि 'यह कुकृत्य मुझसे नहीं हो सकेगा!' उस संन्यासी ने कहा, ' तो परमात्मा का सान्निध्य नहीं होगा।परमात्मा से तुम्हारा प्रेम थोड़ा कम है। एक मूर्ति को तुम परमात्मा के लिए हटाने के लिए राजी नहीं हो!'
5- हम भी बीच में मूर्तियां,संप्रदाय और ग्रंथ लिए हुए हैं। और कोई उनको हटाने को राजी नहीं है। उन्होंने कहा कि 'तुम बैठो ध्यान में और मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट दूंगा। और जब तुम्हें भीतर लगे कि मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट रहा हूं, एक हिम्मत करना और दो टुकड़े कर देना।' रामकृष्ण ने वह हिम्मत की और जब उनकी हिम्मत पूरी हुई, उन्होंने मूर्ति के दो टुकड़े कर दिए। तो लौटकर उन्होंने कहा, 'आज पहली बार समाधि उपलब्ध हुई ..जाना कि सत्य क्या है। आज पहली बार कल्पना से मुक्त हुए और सत्य में प्रविष्ट हुए।' तो ऐसी कल्पना न करे जो कि बाधा हो जाए। चक्रों , श्वास से कोई बाधाएं नहीं है क्योंकि इनसे कोई प्रेम पैदा नहीं होता। ये केवल कृत्रिम उपाय हैं, जिनके माध्यम से भीतर प्रवेश हो जाएगा। और ये बाधाएं नहीं हो सकते हैं।इसलिए किसी का ध्यान नहीं करना है, अपने भीतर ध्यान में पहुंचना है। इसे स्मरण रखेंगे, तो बहुत-सी बातें स्पष्ट हो सकेंगी।
....SHIVOHAM...
Comments