क्या प्रकाश में प्रवेश ही अध्यात्म है?-
क्या प्रकाश में प्रवेश ही अध्यात्म है?-
03 FACTS;-
तीन बातें महत्वपूर्ण हैं....
1-प्रथम बात ...आप सचेतन रूप से जिंदगी के प्रति निराश हों।
2-दूसरी बात ....जो कुछ भी आप हैं, वह सब कुछ आप अपने ही कारण हैं।
3-तीसरी बात.... निरंतर असंतुष्ट रहें, जब तक कि प्रकाश उपलब्ध न हो जाए।
1-प्रथम बात ...आप सचेतन रूप से जिंदगी के प्रति निराश हों;-
03 POINTS;-
1-वास्तव में, हम सब निराश हैं, परंतु अचेतन रूप से। और जब कभी हम अचेतन रूप से निराशा होते हैं, तो हम अपनी कामनाओं की चीजें बदल लेते हैं। किंतु एक वस्तु को दूसरी से बदल लेना आपको भीतर जाने में मदद नहीं करता। आप बाहर ही बने रहते हैं। आप एक वस्तु को दूसरी से बदल लेते हैं और फिर तीसरी से। चूंकि आप अ से निराश हो गए हैं, इसलिए आप अपनी इच्छा को ब से भर लेते हैं। फिर आप ब से भी निराश हो जाते हैं, तो आप स के पास चले जाते हैं। आप वस्तुएं बदलते रहते हैं क्योंकि आप केवल अचेतन रूप से निराश हैं।यह अचेतन निराशा है। यदि आप सचेतन हो जाएं, तो फिर आप वस्तुएं नहीं बदलेंगे; फिर आप दिशा ही बदलेंगे। यह कामना कि आप किसी और से सुख ले सकते हैं, यही मूल जड़ है। आप व्यक्ति बदलते चले जाते हैं, किंतु यह दिशा कभी नहीं बदली जाती। सचेतन रूप से निराश होओ, अथार्त इसे भली-भांति जान लो कि व्यक्ति असंगत है।
2-जब तक कि आप अपनी दिशा ही न बदलें, सुख की तलाश से कुछ भी नहीं हो सकता। अतः दो रास्ते हैं... या तो अ वस्तु को ब वस्तु से बदल लो अथवा अ दिशा को ‘ब’ दिशा से बदल लो। ‘अ’ बाहर जाने का मार्ग है, ‘ब’ भीतर जाने का रास्ता है। अतः मार्ग ही बदल लें। दिशा बदल कर आप स्वयं को बदलने लगते हैं। वस्तुओं को बदल कर आप वही के वही रहते हैं।कोई सालों तक, जीवनों तक चीजों को बदलता रह सकता हूं।लेकिन हर वस्तु के साथ वही का वही रहेगा ;इसलिए परिणाम भी वही होने वाला है, वही दुःख फिर घटित होने वाला है।सचेतन रूप से निराश होंने का मतलब है दूसरों से निराश न हों। स्वयं से ही निराश हो जाएं, अपने से हताश हो जाएं।केवल तभी दिशा बदली जा सकती है।हम सब एक दूसरे से निराश हैं। पति निराश है पत्नी से, पत्नी निराश है पति से, और बेटा निराश है पिता से , और पिता बेटे से निराश है। प्रत्येक दूसरे से निराश हैं। यह बाहर जाता हुआ मन है।
3-स्वयं अपने में ही निराश हो जाएं और तब दिशा परिवर्तित हो जाती है। आप भीतर जाने लगते हैं। और जब तक आप स्वयं से निराश नहीं हो जाते, तब तक रूपांतरण की कोई संभावना नहीं हैं।एक Enlightened One/ बुद्ध वस्तुतः संसार से निराश नहीं है।यदि वे संसार से निराश हैं, तो फिर उन्हें दूसरा संसार प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। वे वस्तुतः स्वयं से निराश हैं, इसलिए वे अपने को ही बदलने में लग जाते हैं। निराशा का विषय ही रूपांतरण का बन जाता है।इसलिए जब आप यह अनुभव करने लगते हैं कि बाहर कुछ और नहीं है बल्कि सिर्फ अंधकार है;तब आंतरिक यात्रा प्रारंभ होती है। और जब तक आप अपनी दृष्टि भीतर की ओर नहीं मोड़ते, प्रकाश नहीं मिलता। अतः पहली बात...सचेतन रूप से निराश हों। किंतु इतना ही काफी नहीं है। यह अनिवार्य है, किंतु पर्याप्त नहीं, क्योंकि आप स्वयं से निराश हो सकते हैं और अपने विचार में ही जीते चले जा सकते हैं। तब आप एक जिंदा लाश की भांति होंगे -स्वयं के लिए एक बोझ।
2-दूसरी बात ....जो कुछ भी आप हैं, वह सब कुछ आप अपने ही कारण हैं;-
05 POINTS;-
1-दूसरी बात यह है कि जो कुछ भी आप हैं, वह सब कुछ आप अपने ही कारण हैं। हम कहते हैं कि ‘मैं ऐसा हूं ...भाग्य के कारण, उस दिव्य स्रष्टा के कारण, प्रकृति की शक्तियों के कारण, वंशपरंपरा के कारण, वातावरण के कारण, समाज के कारण। जो कुछ भी मैं हूं, मैं सदैव ही किसी और के कारण हूं।’ वह स्वर्ग में बैठे परमात्मा के कारण हो सकता है अथवा जैविकशास्त्र की किताबों के अनुसार वंश-परंपरा के कारण हो सकता है, अथवा वह समाज के कारण हो सकता है, अथवा साम्यवादियों के कारण हो सकता है, परंतु सदैव कुछ अन्य ही कारण है। आप स्वयं जिम्मेवार नहीं हैं।समाज कारण बदलता चला जाता है। कभी कारण परमात्मा होता है, तब आप आराम से होते हैं। तब आप जो कुछ भी हैं, आप कुछ भी नहीं कर सकते। फिर कभी कर्मों के कारण से हैं; अतीत के कर्म जिन्होंने कि आपको निर्मित किया जैसे कि आप है, और ‘कुछ भी नहीं किया जा सकता।’
2-फिर साम्यवाद कहता है कि समाज कारण है। साम्यवाद कहता है कि चेतना समाज को निर्मित नहीं करती, इसके विपरीत समाज ने चेतना को निर्मित किया है। अब आप पुनः बच्चे नहीं हो सकते, और वे सात वर्ष अब बदले नहीं जा सकते। अतः जो कुछ भी आप हैं;ज्यादा से ज्यादा, मनोविश्लेषण से आप अपने साथ तालमेल बैठा कर सकते हैं। आप ‘सब ठीक है’-ऐसा महसूस कर सकते हैं।आपने जैसे ही सोचा कि अब कुछ भी नहीं किया जा सकता, और ‘मैं जैसा हूं, वैसा हूं।’ तो आप फिर नीचे गिरने लगते हैं।आप स्वयं से निराश हो सकते हैं; यह नेगेटिव हिस्सा है। पॉजिटिव बात दूसरी है कि जो कुछ भी आप हैं, उसके लिए आप ही जिम्मेवार है। समाज ने भले ही अपना पार्ट अदा किया हो, और यहां तक कि भाग्य ने भी अपना काम पूरा किया हो, और बचपन ने भी अपना पार्ट निभाया हो, किंतु अंततः जिम्मेवार आप ही है।यह अनुभूति, ऐसा अनुभव ही सारे धर्मों की बुनियाद है।क्योंकि धर्म की बुनियाद ही इस संभावना पर निर्भर है कि आप बदल सकते हैं, स्वयं को रूपांतरित कर सकते हैं। और यह संभावना इस भावना पर निर्भर करती है कि आप अपने लिए जिम्मेवार हैं या नहीं। 3-यदि मैं मेरे कोषों द्वारा जाना जाता हूं, वंश-परंपरा के द्वारा निर्मित किया जाता हूं, तो फिर मैं क्या कर सकता हूं? यदि मेरे जीव-कोष्ठों में बिल्ट-इन-प्रोग्राम, पूर्व-निश्चित-कार्यक्रम मौजूद है, तो वे फिर खुलते चले जाएंगे। फिर उसमें मैं क्या कर सकता हूं? और यदि परमात्मा ने पहले से तय कर लिया है, तो उसमें मैं क्या कर सकता हूं! और फिर इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि वह परमात्मा है, या बायो-सेल्स हैं, या वंश परंपरा है, या बचपन है। बुनियादी बात यह है कि यदि आप अपनी जिम्मेवारी किसी और पर रख देते हैं- तो फिर आप भीतर की यात्रा नहीं कर सकते।अतः दूसरी बातः स्मरण रखें, जो कुछ भी आप हैं-यदि आप क्रोधी हैं, यदि आप भयभीत हैं-यदि भय ही आपका मुख्य चारित्रिक गुण है, तो भी आप ही जिम्मेवार हैं। बाकी सब चीजों ने भले ही अपना पार्ट अदा किया हो, किंतु वह पार्ट ही है, और वह पार्ट तभी पूरा किया जा सकता है, जब आपने उसमें सहयोग दिया हो। और यदि आप अपना सहयोग इसी क्षण काट दें, तो आप दूसरे ही व्यक्ति हो जाएंगे। 4-इसलिए दूसरी बात जो कि निरंतर ध्यान में रखनी है कि जो कुछ भी आप हैं उसके लिए आप जिम्मेवार हैं।यह मुश्किल है। विषाद को अनुभव करना आसान है। यहां तक कि स्वयं से निराश होना भी कठिन नहीं है। परंतु यह अनुभव करना कि ‘जो कुछ मैं हूं, उसके लिए मैं ही जिम्मेवार हूं’ बड़ा कठिन है-बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि तब कोई बचने की राह नहीं है, कोई बहाना नहीं है। यह एक बात है और दूसरी बात है कि जो कुछ भी मैं हूं, यदि मैं ही जिम्मेवार हूं तो यदि मैं नहीं बदलता हूं तो उसके लिए भी मैं ही जिम्मेवार हूं। यदि मैं रूपांतरित नहीं हो रहा हूं, तब कोई और नहीं, मैं ही दोषी हूं। इसीलिए हमअपने स्वयं के दायित्वों से बचने के लिए कितने ही सिद्धांतों को निर्मित करते हैं।दायित्व ही आधार है समस्त धार्मिक रूपांतरण के लिए। सब धर्मों की आधारशिला दायित्व के इसी अनुभव पर रखी गई है, कि अपने लिए आप ही जिम्मेवार है। तब अचानक आपके भीतर कुछ खुलता है।
5-यदि दायित्व आपका है, तो फिर आप बदल सकते हैं। इस बात के साथ आप भीतर प्रवेश कर सकते हैं। अतः अपने प्रति निराशा से भर जाएं।यदि प्रत्येक निराशा अनुभव करता हो, किंतु कोई और उसके लिए जिम्मेवार न हो, तो वह दिन उससे भी बड़ा महामृत्यु का होगा।विषाद नेगेटिव है लेकिन दायित्व का अनुभव पॉजिटिविटी से करें, और तब आप बहुत शक्तिप्राप्त करते हैं। जिस क्षण भी आप यह जानते हैं कि यदि आप बुरे हैं तो इसके लिए आप ही जिम्मेवार हैं, तो आप अच्छे बन सकते हैं। तब फिर वह आपके हाथ की बात है। आप शक्ति अर्जित करते हैं; आप शक्तिशाली बनते हैं। आप काफी ऊर्जा पैदा करते हैं और यह ऊर्जा का जन्म ही आंतरिक यात्रा के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। यदि यह बात आपके मन में गहरी चली जाए कि ‘जो कुछ भी मैं हूं उसके लिए मैं ही जिम्मेवार हूं और जो कुछ भी मैं चाहता हूं, मैं हो सकता हूं,’ यह धारणा बहुत-सी ऊर्जा को मुक्त करेगी और इस ऊर्जा से आप आंतरिक प्रकाश तक पहुंच सकते हैं। 3-तीसरी बात.... निरंतर असंतुष्ट रहें, जब तक कि प्रकाश उपलब्ध न हो जाए;-
04 POINTS;-
1-और तीसरी बात, निरंतर असंतुष्ट रहें, जब तक कि प्रकाश उपलब्ध न हो जाए। निरंतर असंतुष्ट रहना एक धार्मिक चित्त का बुनियादी गुण है। साधारणतः हम सोचते हैं कि एक धार्मिक व्यक्ति संतुष्ट होता है। यह बेवकूफी की बात है। वह संतुष्ट दिखलाई पड़ता है, क्योंकि उसकी असंतुष्टि दूसरे ही आयाम की है। वह तृप्त, संतुष्ट दिखलाई पड़ता है क्योकि वह गरीब घर में रह सकता है; वह साधारण कपड़ों में रह सकता है; वह वृक्ष के नीचे रह सकता है। वह संतुष्ट प्रतीत हो सकता है, क्योंकि वह इन चीजों से संतुष्ट है,वह इन चीजों से परेशान नहीं हो सकता।किंतु उसकी असंतुष्टि दूसरी चीजों की तरफ मुड़ गई है।वह आंतरिक क्रांति के लिए इतना अतृप्त है, वह अंतस के प्रकाश की आशा में इतना असंतुष्ट है कि वह इन बातों की परवाह ही नहीं कर सकता। वास्तव में, अब वे उसके लिए कुछ अर्थ नहीं रखती, वे सब असंगत हैं। ऐसा नहीं है कि वह तृप्त है।वे सब कहीं बाहर परिधि पर हैं; उसका उनसे कोई मतलब नहीं। परंतु वह एक अतृप्ति में जीता है। और केवल वह अतृप्ति ही तुम्हें भीतर की ओर ले जा सकती है। 2-स्मरण रहे, यह अतृप्ति ही है जो कि आपको बाहर की ओर ले जाती है। यदि आप अपने घर में अतृप्त हैं, तो आप एक बड़ा घर बना सकते हैं। यदि आप अपनी आर्थिक स्थिति से निराश हैं, तो आप उसे बदल सकते हैं। बाहर की यात्रा में भी असंतुष्टि ही है, जो कि आपको आगे और आगे ले जाती है। वही बात भीतर की यात्रा में भी होती है। अतृप्त रहें ;जब तक कि आपको प्रकाश न मिल जाए, जब तक कि आप मन के पार न चले जाएं ...असंतुष्ट बने रहें। यह तीसरी बात है।ये तीन बातें....स्वयं से निराशा-दूसरों से नहीं; स्वयं पर दायित्व-दूसरों पर नहीं; और एक नई अतृप्ति आंतरिक उपलब्धि के लिए मदद कर सकती हैं। एक क्षण में भी अंतिम लक्ष्य को पहुंचा जा सकता है। पर तब आपको संपूर्णतः अतृप्त होना पड़ेगा। तब आप बिल्कुल समझौते के लिए राजी नहीं होंगे। तब फिर कुछ भी आपके रास्ते में नहीं आ सकता। 3-बाहर कुछ भी होता है, उससे आपका कोई संबंध नहीं, क्योंकि आपके पास कोई ऊर्जा ही बाकी नहीं है जो आपको उस तरफ ले जाए। सारी ही ऊर्जा भीतर की ओर जा रही है। ये तीन चीजें मात्र आपकी सहायता कर सकती हैं।मुख्य बात तो ध्यान है। ध्यान करें और इनकी सहायता से अंतर्प्रकाश उपलब्ध हो सकता है। वह यहां है, वह दूर नहीं है। लेकिन आपके पास अतृप्ति ,अभीप्सा ही नहीं है। आपकी अभीप्सा बाहर ही बिखर जाती है। उसे इकट्ठा करें, संजोए और उसकी दिशा को मोड़ें।आपसे तीर संसार की ओर न जाए बल्कि आपकी ही ओर जाए-अथार्त केंद्र की ओर। इसलिए ध्यान करना पड़ता है।बिना ध्यान के ये तीनों कुछ भी सहायता नहीं कर सकते। किंतु ध्यान इनके बिना भी सहायता कर सकता है। ये तो सिर्फ सहायक हैं।लेकिन निन्यानबे प्रतिशत लोगों के लिए इनकी सहायता अनिवार्य है, क्योंकि जब तक ये तीन चीजें नहीं हैं, आप ध्यान करने वाले नहीं हैं।
4-केवल एक प्रतिशत लोगों के लिए इन तीन की आवश्यकता नहीं है-क्योकि ध्यान अपने आप में ही एक पूरे हृदय का प्रयास है; उसके लिए बाहरी किसी चीज की आवश्यकता नहीं है।ध्यान-इतना पर्याप्त है कि एक शब्द भी अचानक कुछ खोल सकता है।‘ध्यान’ शब्द सुनकर ही छलांग लग जाती है।मात्र एक धक्के की आवश्यकता होती हैं।कई बार ऐसा हुआ है कि ‘ध्यान’ शब्द भी उच्चारित नहीं किया जाता। मात्र एक चिड़िया आकाश में सूरज की ओर उड़ती है और किसी को ध्यान प्राप्त हो जाता है! एक सूखा पत्ता पेड़ से गिर जाता है और कोई उसे देख लेता है और उसे सत्योपलब्धि हो जाती है-और कोई नाचने लगता है,वह पा लेता है।ऐसे लोग बिल्कुल किनारे पर खड़े होते हैं।और वस्तुतः यह कोई मजाक नहीं है,ऐसा उनके साथ घटित हुआ है।किंतु इतना सरल, निर्दोष चित्त पाना बहुत मुश्किल है।यह बहुत कम लोगों की बात है।अकसर कोई एक टाइप से दूसरे में डोलता रहता है इसीलिए निन्यानबे प्रतिशत लोगों के लिए सहायता अनिवार्य है।
...SHIVOHAM...
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