क्या मंत्र शक्ति स्रोत हैं ?
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...…
20 FACTS;-
1-अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग महामंत्र पाए गए हैं,जैसे ऊँ नमो शिवाय, नमो अरिहंताणं, ऊँ मणि पद्मो हुम्,
अल्लाहो अकबर। वास्तव में, मंत्र साधना से अन्दर की सोई हुई चेतना को जागृत किया जा सकता है।आन्तरिक शक्ति का विकास करके महान बना जा सकता है। मंत्र के जाप से मन की चंचलता नष्ट हो जाती है। जीवन संयमित बनता है ,स्मरण शक्ति में वृद्घि होती है और एकाग्रता प्राप्त होती है।मनन करने पर जो रक्षा करे उसे मंत्र कहते हैं।एक प्रकार से विशेष शब्दों का समूह जप करने पर मन को एकाग्र करके अभिष्ट फल की प्राप्ति कराएं उसे मंत्र कहते हैं।वास्तव में,साधक दो प्रकार की यात्राएं कर सकता है। एक यात्रा है शक्ति की और दूसरी यात्रा है शांति की। शक्ति की यात्रा सत्य की यात्रा नहीं है, शक्ति की यात्रा तो अहंकार की ही यात्रा है। फिर शक्ति चाहे धन से मिलती हो, पद से मिलती हो या मंत्र से। तुम शक्ति चाहते हो, तो सत्य नहीं चाहते हो। तुम्हारे द्वारा अर्जित की गई शक्ति शरीर की हो, मन की हो, या तथाकथित अध्यात्म की हो, तुम्हें मजबूत करेगी।तुम जितने मजबूत हो, परमात्मा से उतने ही दूर हो। तुम्हारी शक्ति परमात्मा के समक्ष तुम्हारे अहंकार की घोषणा है। तुम्हारी शक्ति ही तुम्हारे लिए बाधा बनेगी। तुम्हारी शक्ति ही, वास्तविक अर्थों में, परमात्मा के समक्ष तुम्हारी निर्बलता है। तो जितने तुम अपनी आंखों में शक्तिशाली बनोगे , उतने ही परमात्मा के द्वार पर निर्बल होते जाओगे।
2-इसलिए शक्ति की खोज वास्तविक साधक की खोज नहीं। लेकिन साधक उस दिशा में ही जाता है। क्योंकि हम जो संसार में खोजते हैं, वही हम परमात्मा में भी खोजते हैं। जो हमें यहां नहीं मिला, उसे ही हम वहां पा लेना चाहते हैं। तो हमारे संसार और हमारे मोक्ष में एक कंटिन्युटी है।जिसे बाजार में खोजा और वह नहीं मिला, तो उसे हम मंदिर में खोजते हैं। लेकिन खोज वही है। खोज करने वाला जरा भी बदला नहीं है। एक जगह असफल हुए, तो दूसरी जगह सफलता की आकांक्षा जमा लेते हैं।लेकिन तुम शक्तिशाली होना चाहते हो, यही तुम्हारा दुख है। तुम मिटोगे तो आनन्द घटेगा, तुम्हारी अनुपस्थिति में अमृत की वर्षा होगी , तुम्हारे रहते यह होने वाला नहीं है।मंत्र शक्तिदायी है। तो मंत्र से निश्चित शक्ति मिलती है।वास्तव में, मंत्र मन को एकाग्र करता है। तुम्हारी सारी बिखरी हुई मन की किरणें इकट्ठी हो जाती हैं। फिर वह मंत्र कोई भी हो ..राम का नाम हो, नमोकार हो, ऊँ मणि पद्मो हुम् हो, अल्लाहो अकबर हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम अपना खुद का मंत्र बना ले सकते हो। मंत्र में आये शब्दों का भी कोई अर्थ नहीं है।
3-मंत्र का प्रयोजन न शब्दों से है, न अर्थ से। मंत्र का प्रयोजन मन को एकाग्र करने से है।जब तुम मंत्र की रटन करते हो, तब तुम्हारे सारे विचारों की शक्ति विचारों से हटकर मंत्र में प्रवाहित होने लगती है। चित्त में मंत्र ही रह जाता है। और भीतर तुम्हारे जितने ऊर्जा के द्वार हैं, उनके बहाव की ओर कोई दिशा नहीं बचती। जब तुम विचार करते हो, तो तुम्हारी शक्ति अनंत-अनंत धाराओं में बह रही है। एक विचार पश्चिम जा रहा है, एक पूरब जा रहा है, एक दक्षिण जा रहा है, एक उत्तर जा रहा है ...तुम बहुत तरफ बह रहे हो । इकट्ठे नहीं हो, बंटे हो, विभाजित हो। जब तुम मंत्र का जाप कर रहे हो, तब सारी ऊर्जा एक दिशा में प्रवाहित होने लगती है।जैसे हम सूरज की किरणों को एक कांच के लेंस से इकट्ठा कर लें, तो आग पैदा हो जाती है। सूरज की किरणों में आग तो छिपी है, लेकिन पृथक-पृथक ज्यादा से ज्यादा गर्मी पैदा होगी। इकट्ठी हो जाएं, तो आग पैदा हो जाती है। ऐसे ही तुम्हारे मन में भी बड़ी आग छिपी है, अलग-अलग सिर्फ उष्णता रहती है। मंत्र उन्हें इकट्ठा करने का उपाय है। इकट्ठे होते से ही बड़ी गर्मी, ऊर्जा पैदा होती है।और अगर तुम सतत मंत्र का प्रयोग करते रहो, तो तुम्हारे जीवन में अनेक शक्ति की घटनाएँ घटनी शुरू हो जाएंगी, जो तुम्हारे अहंकार को बड़ा सुख देंगी।
4-तुम जो कहोगे, वह सच होने लगेगा; तुम जो बोल दोगे, वैसा हो जाएगा; तुम अभिशाप दे दोगे, तो फलित हो जाएगा; तुम वरदान दे दोगे, तो पूरा हो जाएगा। क्योंकि तुम्हारी ऊर्जा इतनी इकट्ठी हो गई है कि तुम्हारे शब्द अब सार्थक होने लगेंगे।उनकी सार्थकता का कारण यही है कि जब कोई व्यक्ति इकट्ठी ऊर्जा से कुछ कहता है, तो वह दूसरे के अचेतक तक प्रवेश कर जाता है, उसका तीर सीधा दूसरे के हृदय में चला जाता है। और दूसरे के हृदय में कोई भी बात पहुंच जाए, तो उसके परिणाम शुरू हो जाते हैं। अगर तुमने किसी व्यक्ति को कह दिया कल सुबह तुम बीमार पड़ जाओगे और तुम्हारा पूरा चित्त इसमें प्रवाहित हुआ हो, तो तत्क्षण तुमने दूसरे के हृदय को घाव से भर दिया। इस कहते क्षण में, कोई दूसरा विचार विघ्न-बाधा डालने को नहीं, बस यही तुम्हारा मनोकार मंत्र रहा हो कि कल सुबह तुम बीमार पड़ जाओगे ।अब यह व्यक्ति रात भर सो न सकेगा। इसने तुम्हारी आंखें देखीं, तुम्हारा वक्तव्य सुना, तुम्हारा ढंग देखा और इसके मन पर यह गहरी छाप पड़ गई कि तुमने जो कहा है, उससे बचना मुश्किल है। इसका मन भी अब इसी मंत्र के आस-पास घूमेगा। यह रात सपने में भी तुम्हें देखेगा, सपने में भी इसे यही वचन सुनाई पड़ेगा। यह कई बार मन में कहेगा, इससे कुछ होने वाला नहीं, डरो मत, भय मत करो। लेकिन भीतर से कोई इसे फिर भी भयभीत किए जाएगा।
5-चाहे व कहे कि डरो मत, चाहे यह डरे, दोनों हालात में यह तुम्हारे मंत्र को दोहरा रहा है । सुबह होते-होते यह बीमार पड़ जाएगा।यह बीमारी तुमने पैदा की आधी, आधी इसने पैदा की। और ठीक ऐसा ही जीवन के बहुत अंगों में कर सकते हो। और एक बार तुम्हारा वचन सार्थक होने लगे, तो तुम्हारा आत्माविश्वास बढ़ेगा, तुम और बलशाली होने लगोगे। जितना तुम्हारा वचन सही होंगे, उतना ही तुम्हें लगेगा कि मैं कुछ दिव्य शक्ति, कोई सिद्धि से भरा हुआ हूं। यह भरोसा तुम्हारे मंत्र को मजबूत करेगा। हर मंत्र तुम्हारे भरोसे को मजबूत करेगा। तुम धीरे-धीरे अनेक शक्तियों का अनुभव करने लगोगे।यह जो शक्तियों का अनुभव है, इन्हें योग ने सिद्धियां कहा है। ये सिद्धियां परमात्मा के मार्ग पर सबसे बड़ी बाधाएं हैं। महृषि पतंजलि ने योग-सूत्रों में इनका उल्लेख किया है, ताकि तुम इनसे सावधान रहो। इनकी तरफ जाना ही नहीं है। जा चुके हो, तो वापस लौट आना है। जितना जल्दी लौट आओ, उतना अच्छा है। क्योंकि जितना समय इसमें खोया, वह बिलकुल व्यर्थ ही जाता है। और हर बार जितने आगे तुम इन दिशाओं में जाते हो, उतना लौटना मुश्किल होने लगता है।
6-संसार शक्ति की खोज है, सिद्धि की खोज है। परमात्मा की शांति, शून्यता की खोज है। वहां तुम मिटते हो, वहां तुम धीरे-धीरे लीन होते हो। सिद्धि की खोज में आखिर में तुम बचोगे, परमात्मा बिल्कुल नहीं। शांति की खोज में तुम न बचोगे, अंत में सिर्फ परमात्मा बचेगा। और इन दो में से एक का मिटना जरूरी है। ये दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। परमात्मा और तुम साथ-साथ नहीं हो सकते, तुम्हारा सह-अस्तित्व असंभव है। तब तक तुम हो, तब तक परमात्मा नहीं; जब परमात्मा है, तब तुम नहीं।तो सिद्धि और शक्ति तो केवल तुम्हें मजबूत करेगी। इसलिए मंत्रों के साधक परम अहंकार से भरे हुए दिखाई पड़ते हैं। धनी का अहंकार उनके सामने कुछ भी नहीं, पद पर बैठे राजनीतिक का अहंकार भी उनके सामने कुछ भी नहीं। उनका अहंकार बड़ा सूक्ष्म और भीतरी है।और उसका कारण भी है कि धन छीना जा सकता है, चोरी जा सकता है, पद आज है, कल न हो, लेकिन मंत्र का भरोसा ज्यादा प्रबल है।क्योकि चोर छीन नहीं सकते, जनता का लोकमत बदल नहीं सकता। और मंत्र तुम्हारे मन पर ही निर्भर है, किसी और पर नहीं। इसलिए तुम ज्यादा सबल, आत्मनिर्भर, अपने पैरों पर खड़े मालूम पड़ते हो।
7-साधक अगर सिद्धि की दिशा में चला जाए, तो भटक गया। रस बहुत आएगा, क्योंकि अहंकार को इस तरह की चीजों से ही रस आता है। अगर एक चींटी इस तरफ आ रही है और तुम सिर्फ अपने मनोबल से उसका रास्ता बदल दो, हालांकि इस कृत्य में कोई सार नहीं है, पर फिर भी तुम्हें रस आएगा।उदाहरण के लिए रूस में एक महिला किसी भी वस्तु को अपने मन से चालित कर देती है। टेबिल रखी है, छह फीट दूर वह खड़ी हो जाए, पंद्रह मिनिट मन को एकाग्र करे, तो वह टेबिल को हिलाना शुरू कर देती है। टेबिल उसकी तरफ सरक सकती है, दूर जा सकती है। और सब तरह की जांच-पड़ताल से सब समझा गया है, कोई धोखाधड़ी नहीं है।परन्तु पंद्रह मिनिट के प्रयोग में उस महिला का दो पौंड वजन खो जाता है । और एक सप्ताह के लिए वह निर्बल हो जाती है। एक सप्ताह बिस्तर से नहीं उठ सकती क्योंकि जब तुम मन को एकाग्र करके अपनी शक्ति को बाहर फेंकते हो, ‘तब’ तुम्हारे शरीर की उर्जा भी उसमें क्षीण होती है।लेकिन फिर भी वह महिला बड़ा आनंद लेती है।इस उपद्रव में उसका सारा जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है । परिवार में डाँवा डोल हो गया, बच्चे की चिंता करनी मुश्किल, पति की फ़िक्र करनी मुश्किल। घर तो अस्तव्यस्त हो गया है और यह एक खेल बन गया है, वैज्ञानिक अध्ययन करने आ रहे हैं कि कोई चमत्कार घटित हो रहा है।
8-लेकिन चमत्कार से प्राप्ति भी क्या है ? टेबिल तुम हाथ से हटा सकते थे, जिसमें कि रत्ती भर ताकत लगती है। उसे तुमने मन से हटाया और दो पौंड शरीर की ऊर्जा क्षीण की और सात दिन तक अस्वस्थ रहे ।रामकृष्ण परमहंस के पास किसी ने आकर एक दिन कहा कि लोग कहते हैं, आप परमहंस हो, लेकिन कोई ऐसी सिद्धि तो दिखाई नहीं पड़ती। मेरे गुरु हैं, वे पानी पर चलते हैं। रामकृष्ण कहने लगे, मैं दो पैसा देकर नदी पार हो जाता हूं। तो जो काम दो पैसे से हो जाता हो, तुम्हारे गुरु ने कितने वर्षों में यह कला सीखी ? शिष्य ने कहा, कम से कम बीस वर्ष उनको मंत्र की साधना में लगे। तो रामकृष्ण ने कहा कि बड़ी मूढ़ता है कि जो काम दो पैसे में होता हो, उसे बीस वर्ष का जीवन नष्ट करके किया ! आखिर पानी ही पार होते हैं, तो पानी पार होने में ऐसी बात क्या है ? नाव हो, दो पैसे लेती है, न हो तो व्यक्ति तैर कर पार हो जाए।पर नदी पर चलकर जो व्यक्ति पार होता है, वह बीस वर्ष मेहनत कर सकता है। आप भी कर सकते हैं लेकिन नाव में बैठकर अहंकार खड़ा नहीं हो सकता, तैरने से अहंकार खड़ा नहीं हो सकता।
9-मंत्र शक्ति स्रोत हैं और सभी धर्मों ने मंत्र खोज लिए हैं, क्योंकि सभी धर्म शांति की तलाश से शक्ति की तलाश में पतित हो जाते हैं।‘मंत्र’ का वास्तविक अर्थ है, मन को स्थिर करने वाला अर्थात जो मन की गति को रोक सके। पूरे विश्वास के साथ मंत्र जपने से सफलता प्राप्त होती है। मंत्र में कभी शंका नहीं करनी चाहिए। मंत्र में जिसकी जैसी भावना होती है, उसको वैसी ही सिद्घि प्राप्त होती है।मंत्र शक्ति उतनी ही सामर्थ्यवान बन जाएगी। अचेतन मन को जागृत करने की वैज्ञानिक विधि को मंत्र जप कहते हैं। मंत्र जप से मनोबल दृढ़ होता है। आस्था में परिपक्वता आती है, बुद्घि निर्मल होती है। भावपूर्वक मंत्र को बार-बार दोहराना जप कहलाता है। मंत्र के अक्षर, मंत्र के अर्थ, जप करने की विधि को अच्छी प्रकार सीखकर उसके अनुसार जप करने से साधक की योग्यता विकसित होती है।मंत्र जपने से पुराने संस्कार हटते जाते हैं। मंत्र जप से मन पवित्र होता है। दुख, चिन्ता, भय, शोक, रोग आदि निवृत्त होने लगते हैं। सुख-समृद्घि और सफलता की प्राप्ति में मदद मिलती हैं। मंत्र के माध्यम से आप अपने मन की इच्छानुसार फल प्राप्त कर सकते हैं। वट वृक्ष का बीज और मंत्र, द्वितीया के चन्द्रमा की तरह छोटा दिखाई देता है। परन्तु बढ़ते-बढ़ते रंग बिखेर देता है। सारा संसार देवताओं के अधीन हैं, देवता मंत्र के अधीन हैं, मंत्र योगी के अधीन है और योगी परमात्मा के अधीन है।
10-जिन मंत्रों को हम उच्चारित करते हैं तो उच्चारण करने से जो ध्वनि पैदा होती है उस ध्वनि के अन्दर एक विचित्र प्रकार की शक्ति छिपी रहती है जो बड़ी शक्तिशाली होती है। जिससे बड़े से बड़ा प्रलय व सृजन कार्य होता है। ध्वनि विशेषज्ञों ने इसको प्रमाणित किया है। ध्वनि को विश्व ब्रह्मïड का एक संक्षिप्त रूप कहा जाता है। वायु, जल और पृथ्वी इन तीन चीजों से ध्वनियां उत्पन्न होती है। वायु की तरंगों से प्राप्त होने वाली ध्वनि की गति प्रति सेकेंड 1088 फुट होती है। जल तरंगों से गति इससे भी तेज है जो 4900 फुट चलती है तथा पृथ्वी के माध्यम से यह और भी तीव्र हो जाती है अर्थात एक सेकेंड में 16400 फुट। सभी जीवित प्राणी ध्वनि के प्रभाव को अनुभव करते हैं। आप किसी व्यक्ति को गाली देते हैं, क्रोधित होकर डांटते हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो जाता है। उसी व्यक्ति के साथ आप मधुर वचन बोलते हैं वह प्रसन्नचित होकर गदगद हो जाता है। अपने आपको हर समय न्यौछावर करने को तैयार रहता है। यह सब चमत्कार ध्वनि का है। गायन कला के अनुसार कंठ को अमुक आरोह-अवरोहों के अनुरूप उतार-चढ़ाव के स्वरों से युक्त करके जो ध्वनि प्रवाह होता है वह गायन है। इसी प्रकार मुख के उच्चारण मंत्र को अमुक शब्द क्रमवार बार-बार लगातार संचालन करने से जो विशेष प्रकार की ध्वनि प्रवाह संचारित करने से जो विशेष प्रकार की ध्वनि प्रवाह संचारित होती है वही मंत्र की भौतिक क्षमता होती है।
11-यही ध्वनि का प्रभाव सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करता है। इसके अन्दर विद्यमान 3 ग्रन्थियों, षटचक्रों, षोडश माष्टकाडों, 24 उपत्यिकाओं तथा 84 नाड़ियों को झंकृत करने में मंत्र शक्ति का ध्वनि उच्चारण बहुत कार्य करता है और दिव्य शक्ति प्राप्ति हेतु मंत्र के शब्दों का उच्चारण ही बड़ा कारण है। सील और डॉऌिफन नामक जन्तु मधुर संगीत की लहरें सुनकर शिकारियों के जाल मे फंस जाते हैं। बीन की ध्वनि पर सर्प, बांसुरी की ध्वनि पर हिरण वशीभूत हो जाते हैं। हौलेण्ड के पशु पालकों ने गायों का दूध निकालते समय संगीत बजाने का क्रम चलाया और अधिक मात्रा में दूध की प्राप्ति की ।वहीं यूगोस्वालिया में फसल को सुविकसित करने लिए अपने खेतों पर वाद्य ध्वनि यंत्र से संगीतमय ध्वनि प्रभावित की जिसका परिणाम उत्साहवर्धक पाया गया। जो मंत्र जिस देवता से सम्बन्धित होता है वह उसकी शक्ति को जागृत कर आत्मसात कर लेता है। मंत्र साधक स्वयं देवता तुल्य होकर जन-कल्याण करने लगता है। मंत्र साधक को सशक्त व जागृत बनाता है। जागृत मंत्र के साधक से जो कुछ चाहता है वह उसे अवश्य प्राप्त हो जाता है।
12-जिन व्यक्तियों के आसपास धर्म का जन्म होता है, वे तो शून्यता हो गए होते हैं। जो लोग आसपास इकट्ठे होते हैं, वे शून्य होने के कारण इकट्ठे नहीं होते। उनका सुख कुछ और है..विपरीत है।उदाहरण के लिए महावीर तो शांति खोजते हैं, लेकिन जैन को शांति से कोई लेना-देना नहीं है। गौतम बुद्ध तो शून्यता खोजते हैं, अपने को मिटाते हैं, लेकिन बौद्धों को अपने को मिटाना नहीं, बनाना है, बचाना है, सुरक्षित करना है। इसलिए धर्म जिनसे जन्म पाता है और जिनके हाथों में पड़ता है, वे हमेशा शत्रु हैं। उन दोनों की आकांक्षाएं बिलकुल भिन्न हैं। इसलिए सभी धर्म पतित हो जाते हैं।शक्ति की खोज धर्म को संसार का हिस्सा बना देती है। जैन हो, हिंदू हो, बौद्ध हो, इस्लाम हो, कोई भी हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। तुम्हें चमत्कार में बड़ा रस आता है। और जब तक तुम्हें चमत्कार में रस आता है, तब तक तुम जानना कि अभी तुम्हारी धर्म की जिज्ञासा पैदा नहीं हुई। कोई साधु, कोई संन्यासी, कोई बाबा अगर हाथ से राख ही पैदा कर दे, तो भी तुम आंदोलित हो जाते हो।राख तो तुम घर से ही आग जलाकर पैदा कर सकते हो - पैसे भी खर्च नहीं होते। लेकिन किसी व्यक्ति ने हाथ से पैदा कर दी, तो तुम बहुत आंदोलित हो, प्रसन्न हो और तुम इस व्यक्ति के पीछे चल रहे हो, तो तुम ...।
13- वास्तव में, इस राख में तुम कुछ और देख रहे हो । तुम्हें यह आशा बंधी है कि जो व्यक्ति हाथ से राख पैदा कर सकता है, वह हीरे भी पैदा कर सकता है ,तुम्हारी बीमारी भी दूर कर सकता है, आदि-आदि।जिनकी भी वासना है, वे चमत्कार पर निर्भर रहेंगे।तुम चमत्कार को नमस्कार करते हो, क्योंकि तुम्हारी वासना है, कुछ तुम पाना चाहते हो। चमत्कारी से भरोसा मिलता है, कि कुछ आशा बंधती है, इससे कुछ होगा। बीमारी है, नौकरी नहीं, व्यवसाय ठीक नहीं चलता है, अदालत में मुकदमा है, हजार उपद्रव हैं मनुष्य के पास, मुश्किलें हैं, कठिनाइयां हैं ...मनुष्य दुखी है। राख हाथ से गिरती देखकर उसे आशा बंधती है कि अगर बाबा प्रसन्न हों, तो मेरे दुख भी विसर्जित हो सकते हैं। और जैसे राख पैदा हो रही है, ऐसे ही सुख की वर्षा हो सकती है।
आज तक किसी दूसरे की कृपा से सुख की कोई वर्षा नहीं हुई। आज तक कभी किसी दूसरे के द्वारा आनंद का कोई जन्म नहीं हुआ। सदियों का इतिहास इस बात का सबूत है कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई भी आनंद न दे सकेगा। लेकिन मन की भ्रांतियां हैं.. मन सस्ते और सरल रास्ते खोजता है।
14-वास्तव में, धर्म ने कोई मंत्र नहीं दिए हैं। तीर्थंकर कोई मंत्र नहीं देते, न अवतार मंत्र देते हैं, केवल पुरोहित मंत्र देते हैं। और पुरोहित से धर्म का कोई संबंध नहीं। पुरोहित धर्म को व्यवसाय के जगत का हिस्सा बना देता है। वह तुम्हारी आकांक्षाओं का सेवक है। तुम जो चाहते हो, वह कहता है हो सकता है। वह तुम्हें आश्वासन देता है। तुम्हारी आशा को जगाए रखता है।और धर्म तो तभी शुरू होगा, जब तुम्हारी सारी आशा गिर जाएगी। जब तुम्हरी निराशा परम होगी। जब आशा की एक किरण भी न बचेगी। क्योंकि एक भी किरण बची, तो तुम संसार में चलते ही रहोगे। अगर जरा सा भी तुम्हें लगा कि कल कुछ हो सकता है, तो तुम कल की प्रतीक्षा करोगे। तुम्हारा विषाद कितना सघन हो जाए कि कल पर से तुम्हारा भरोसा हट जाए। तुम्हारा संताप इतना गहरा हो कि कोई आशा पैदा न हो। तुम्हारे पास जो है, वह भी छिन जाए और अंततः तुम भी मिट जाओ।तुम वस्तुतः ही ऊब गए हो संसार से। तुम्हारी ऊब वास्तविक है। तुम्हारे संताप ने उस सीमा को छू लिया है, जहां तुम एक दूसरे ही अध्यात्म लोक में प्रवेश करना चाहते हो। तुम इस सातत्य को तोड़ना चाहते हो, जो अब तक चलता रहा है। तुम इससे छलांग लगा लेना चाहते हो। तुम इसी का सिलसिला आगे जारी रखने को उत्सुक नहीं हो।इसलिए मंत्र वहां दिया जाता है , जहां तुम्हारी खोज किसी ऋद्धि की, किसी सिद्धि की है।
15-जहां आशा नहीं, कल नहीं, वहां वासना के खड़े होने की जगह नहीं। क्योंकि वासना खड़ी होती है आशा से कल में, आज तो जगह भी नहीं है।इसलिए तुम कल में जीते हो, आज नहीं। फिर तुम चाहो मंत्रों का पाठ करो, चाहे मन्दिरों-मस्जिदों में पूजा करो, प्रार्थना करो। लेकिन तुम्हारी सारी प्रार्थनाएँ तुम्हारी वासनाओं की संततियां हैं। इसलिए सब झूठी हैं।जो प्रार्थना वासना का पार्ट है, वह झूठी है। तुम कुछ मांगते हो, इसलिए प्रार्थना करते हो। यह प्रार्थना शब्द ही मांगने से बना है। तुम जाते हो मंदिर में, लेकिन मांगते संसार हो। जब तक तुम परमात्मा से कुछ मांग रहे हो, तब तक एक बात पक्की है कि तुम परमात्मा को नहीं मांग रहे हो क्योकि तब तक परमात्मा से बड़ी कोई चीज है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि परमात्मा के सामने भी खड़े होकर तुम क्षुद्र चीजें मांग पाते हो। इसका अर्थ है कि वे क्षुद्र चीजें परमात्मा से बड़ी हैं।वास्तव में,मन प्याज की गांठ की भांति है। बस, पर्त विचारों की उघाड़ते जाओ, आखिर में मन भी नहीं बचता, जैसे प्याज नहीं बचती । और जब मन बिलकुल नहीं बचता, तब तुम अपने परिपूर्ण रूप में प्रगट होते हो।
16-तुम कैसे मिटो, यही महामंत्र है और उस घड़ी की प्रतीक्षा करो कि तुम मन को, जैसे कोई प्याज को छीलता हो, छीलते जाओगे एक-एक पर्त प्याज की, तुम्हारे विचार की एक-एक पर्त गिरती जाएगी। और एक दिन आएगा कि प्याज की सारी पर्तें अलग हो जाएंगी और कुछ भी हाथ में न बचेगा, शून्य बचेगा।तो प्रार्थना ध्यान नहीं है और एकाग्रता /कनसनट्रेशन भी ध्यान नहीं है। साधारणतः यही समझा जाता है कि चित्त को एकाग्र कर लेना ध्यान है।एकाग्रता बड़ी छोटी बात है। एकाग्रता में भी बाहर एक बिंदु शेष रह जाता है, जिस पर हम मन को एकाग्र करते हैं। एकाग्रता में भी हम बाहर ही होते हैं, भीतर नहीं होते। क्योंकि एकाग्रता में किसी नाम पर, किसी प्रतिमा पर, किसी विचार पर, किसी शब्द पर, किसी मंत्र पर, किसी रूप पर हम अपने को एकाग्र करते हैं। एकाग्रता का मतलब ही है, चित्त अब भी बाहर से जुड़ा है। एकाग्रता संसार का हिस्सा है, साधना का हिस्सा नहीं है। एकाग्रता से तुम सघन होओगे, ध्यान से तुम मिटोगे। एकाग्रता तुम्हारी शक्तियों को एक जगह लगाती है, ध्यान तुम्हारी शक्तियों को परमात्मा में समर्पित करवाता है। तो परमात्मा को एकाग्रता का बिंदु नहीं बनाना है, परमात्मा में समर्पित होना है। मन को एकाग्र नहीं करना है, परमात्मा में मन को खोना है।
17-विलीन होना, तल्लीन होना है, खो जाना है-ये बड़ी भिन्न बाते हैं।ऐसी घड़ी आ जाए, जब तुम्हें तुम्हारा पता न चले, जब तुम खोजो भी तो अपने को न पा सको। तुम भीतर जाओ तो पाओ कि घर खाली है। तुम दर्पण के सामने खड़े होओ, अपनी आंखों में झांको, तो पता चले की भीतर कोई भी नहीं है। जहां तुम वसर्जित हो गए, वहीं निर्वाण है।उदाहरण के लिए रामकृष्ण परमहंस के पास जब विवेकानंद आए, तो उनका घर बड़ी दीन अवस्था में था। पिता चल बसे थे और बड़ा कर्ज छोड़ गए थे। घर में रोटी का भी इन्तजाम न था। किसी तरह रोटी जुटती थी, तो मां और बेटे दोनों के लिए काफी नहीं होती थी। तो विवेकानन्द मां को कहते कि आज मुझे किसी मित्र ने निमंत्रण दिया है , ताकि मां रोटी खा ले, अन्यथा विवेकानंद को खिला देती और खुद भूखी रह जाती। जब रामकृष्ण परमहंस को पता लगा तो उन्होंने ' कहा, तू भी बड़ा मूर्ख है। यहां रोज काली के दरबार में उपस्थित होता है तो मांग क्यों नहीं लेता ? इतनी छोटी-सी बात, इसके लिए व्यर्थ कष्ट क्यों उठा रहा है ?'
18-तब विवेकानंद ने कहा, ‘आप कहते हैं तो मांग लूंगा।संत रामकृष्ण मंदिर के बाहर बैठे हैं , विवेकानंद भीतर गए। बड़ी देर बाद वापस लौटे तो संत रामकृष्ण ने पूछा ' मां को कहा ? तकलीफ बताई ?' विवेकानंद ने कहा, मैं भूल गया। रामकृष्ण ने कहा, यह भी कोई भूलने की बात है ? भूखा है तू, मां तेरी भूखी, घर मुसीबत में, पैसा चुकता नहीं। जरा कह दे, इशारे की बात है, सब हो जाएगा। तू जा वापस। फिर घड़ी भर बाद विवेकानंद आए, आंख से आनंद के आंसू बह रहे हैं । रामकृष्ण ने कहा निश्चित तूने मांग लिया होगा, इसलिए प्रसन्न है। विवेकानन्द ने कहा, मैं फिर भूल गया।ऐसा तीन बार हुआ। फिर विवेकानन्द ने कहा कि नहीं, यह हो ही नहीं सकेगा। क्योंकि जब मैं मां के सामने जाता हूं, तो मां ही दिखाई पड़ती है और सब भूल जाता हूं। मैं खुद को ही भूल जाता हूं तो मेरी तकलीफें, मेरी मुसीबतें कहां टिकें ? उनकी स्मृति कैसे रहे ? और यह असंभव मालूम पड़ता है। रामकृष्ण ने कहा कि इसीलिए तुझे बार-बार भेजा, यह तेरी परीक्षा थी। क्योंकि मां के सामने अगर तू कुछ मांगने को राजी हो जाए, तो उसका अर्थ है कि अभी प्रार्थना का कोई उपाय नहीं। फिर प्रार्थना ही नहीं हो सकती।मांगने वाला चित्त भिखारी का चित्त है, वह प्रार्थना नहीं करेगा और परमात्मा से बड़ी चीजें उसके सामने हैं, जिनको वह मांग रहा है। जिसको परमात्मा ही चाहिए, वह उसके सामने कुछ भी नहीं मांग सकता। वह परमात्मा को भी नहीं मांग सकता।
19-इसे थोड़ा समझना है। क्योंकि अक्सर इसका दूसरा दृष्टिकोण खयाल में आ जाता है कि हम कुछ चीजें न मांगेंगे, हम तो परमात्मा को ही मांगेंगे।लेकिन तुम तो उसमें भी मौजूद रहोगे। और परमात्मा तुमसे छोटा है और तुम बड़े ...क्योंकि तुम उसे पा लोगे, वह भी तुम्हारी संपदा बन जाएगा। एक लहर समुद्र की मालिक हो जाएगी। तुमने जो राज्य बनाया है, उसमें तुम उसे भी एक जगह बिठा दोगे, लेकिन तुम मालिक रहोगे।तो ध्यान रहे, वस्तुएं तो कोई मांग ही नहीं सकता, संसार तो कोई मांग ही नहीं सकता परमात्मा के सामने--मांगता हो, तो वह परमात्मा के सामने ही नहीं खड़ा है; उसके लिए क्षुद्र अभी विराट से बड़ा है, व्यर्थ अभी उसे सार्थक है, प्रार्थना उसकी झूठी है--लेकिन परमात्मा को भी कोई नहीं मांग सकता। परमात्मा के सामने खड़े होकर मांग ही बंद हो जाती है, मांगना ही व्यर्थ हो जाता है, मांगने वाला ही मौजूद नहीं रह जाता।इसलिए प्रार्थना कोई कृत्य नहीं है। आप प्रार्थना कर नहीं सकते, करने वाला नहीं रह जाता। प्रार्थना एक भावदशा है, विलीनता की एक अवस्था है, जहां करने वाला खो जाता है। वह जो आप सदा हैं, नहीं होते ...वही प्रार्थना है।
20- सभी मंत्रों से तुमने केवल अपने अहंकार को सिद्ध किया है।केवल मंत्र से अपने को मत भरना, क्योंकि मंत्र तुम्हारे मन का ही खेल है।विचार ही अशुद्धि है, विचार की तरंग का होना ही चेतना को अशुद्ध करता है। फिर वह विचार चाहे प्रार्थना का है या मंत्र है .. इससे भी कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ता। चेतना में विचार का होना अशुद्धि है। शुद्ध विचार जैसी कोई चीज नहीं होती। क्योंकि शुद्धि का अर्थ निर्विचारता है, शुद्धि का अर्थ ही विचार का अभाव है।उदाहरण के लिए पानी का स्वभाव अलग है और दूध का स्वभाव अलग है। पानी कितना ही शुद्ध हो, दूध में मिलने से अशुद्ध होगा। और आप यह मत सोचना कि दूध ही अशुद्ध हुआ,बल्कि पानी भी अशुद्ध हो गया। पानी ने भी अपनी शुद्धि खो दी और दूध ने भी अपनी शुद्धि खो दी। दो शुद्ध चीजें मिलीं और दोनों अशुद्ध हो गईं।इसीलिए विचार का अपना स्वभाव है और चेतना का अपना स्वभाव है। दोनों के स्वभाव अलग-अलग हैं, दोनों के मिलन से अशुद्धि होती है। विचार अपने में शुद्ध है, चेतना अपने में शुद्ध है। अपने में होना , स्वभाव में होना शुद्धि है, विभाव अशुद्धि है।इसलिए कोई शुद्ध विचार चेतना को शुद्ध नहीं कर सकते। कोई शुद्ध पानी दूध को शुद्ध नहीं कर सकता। जब भीतर का आकाश निर्विचार होता है, जहां कोई बादल नहीं, मंत्र के बादल भी नहीं, तब परमात्मा प्रत्यक्ष है। तब आप उस निराकार के साथ एक हैं।
....SHIVOHAM...
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