top of page

Recent Posts

Archive

Tags

क्या है आनन्दमय कोश की तुरीया साधना?PART-04


आनन्दमय कोश के चार प्रधान अंग ...

1- नाद, 2- बिंदु 3- कला 4-तुरीया

क्या है तुरीयावस्था?-

03 FACTS;-

1-मन को पूर्णतया संकल्प रहित कर देने से रिक्त मन की निर्विषय स्थिति होती है, उसे तुरीयावस्था कहते हैं। जब मन में किसी भी प्रकार का एक भी संकल्प न रहे, ध्यान, भाव, विचार, संकल्प, इच्छा, कामना को पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया जाए और भावरहित होकर केवल आत्मा के एक केन्द्र में अपने अन्त:करण को पूर्णतया समाविष्ट कर दिया जाए, तो साधक तुरीयावस्था में पहुँच जाता है। इस स्थिति में इतना आनन्द आता है कि उस आनन्द के अतिरेक में अपनेपन की सारी सुध-बुध छूट जाती है और पूर्ण मनोयोग होने से बिखरा हुआ आनन्द एकीभूत होकर साधक को आनन्द से परितृप्त कर देता है, इसी स्थिति को समाधि कहते हैं। समाधि काल में अपना संकल्प ही एक सजीव एवं अनन्त शक्तिशाली देव बन जाता है।जिस किसी को जब कभी ईश्वर का मूर्तिमान् साक्षात्कार होता है, तब समाधि अवस्था में उसका संकल्प ही मूर्तिमान् हुआ होता है।

2-भावावेश में भी क्षणिक समाधि हो जाती है। भूत-प्रेत आवेश, देवोन्माद, हर्ष-शोक की मूर्च्छा, नृत्य-वाद्य में लहरा जाना, आवेश में अपनी या दूसरे की हत्या आदि भयंकर कृत्य कर डालना , क्रोध का व्यतिरेक, बिछुड़ों से मिलन का प्रेमावेश, कीर्तन आदि के समय भाव- विह्वलता, अश्रुपात, चीत्कार, आर्तनाद, करुण क्रन्दन, हूक आदि में आंशिक समाधि होती है। संकल्प में, भावना में आवेश की जितनी अधिक मात्रा होगी, उतनी ही गहरी समाधि होगी और उसका फल भी सुख या दु:ख के रूप में उतना ही अधिक होगा। भय या आवेश होने पर डर के मारे भावना मात्र से लोगों की मृत्यु तक होती देखी गई है। कई व्यक्ति फाँसी पर चढ़ने से पूर्व ही डर के मारे प्राण त्याग देते हैं।

3-आवेश की दशा में अन्तरंग शक्तियों और वृत्तियों का एकीकरण हो जाने से एक प्रचण्ड भावोद्वेग होता है। यह उद्वेग भिन्न-भिन्न दशाओं में मूर्च्छा , उन्माद, आवेश आदि नामों से पुकारा जाता है। पर जब वह दिव्य भूमिका में आत्म-तन्मयता के साथ होता है, तो उसे समाधि कहते हैं। पूर्ण समाधि में पूर्ण तन्मयता के कारण पूर्णानन्द का अनुभव होता है। आरम्भ स्वल्प मात्रा की आंशिक समाधि के साथ होता है। दैवी भावनाओं में एकाग्रता एवं तन्मयतापूर्ण भावावेश जब होता है, तो आँखें झपक जाती हैं, सुस्ती , तन्द्रा या मूर्च्छा भी आने लगती है, माला हाथ से छूट जाती है, जप करते-करते जिह्वा रुक जाती है। अपने इष्ट की हलकी-सी झाँकी होती है और एक ऐसे आनन्द की क्षणिक अनुभूति होती है जैसा कि संसार के किसी पदार्थ में नहीं मिलता। यह स्थिति आरम्भ में स्वल्प मात्रा में ही होती है, पर धीरे-धीरे उसका विकास होकर परिपूर्ण तुरीयावस्था की ओर चलने लगती है और अन्त में सिद्धि मिल जाती है।

क्या जाग्रत, स्वप्र और सुषुप्‍ति केवल मन की दशाएं है?

05 FACTS;-

1-हमारे शरीर में जो कुछ भी जड़ है वह आत्मा के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। स्थूल शरीर हो, सूक्ष्म शरीर हो ,चाहे कारण शरीर हो ,उसमें सारी क्रियाओं का कारण यह आत्मा ही है। स्थूल शरीर में देखना, स्वाद लेना, सुनना, स्पर्श करना आदि तथा कर्मेंद्रियों की सभी क्रियाओं का कारण यह आत्मशक्ति ही है।मन, बुद्धि,चित्त, अहंकार का कारण भी यह चेतन तत्व ही है ।चेतना के अभाव में यह शरीर कुछ भी नहीं कर सकता ।यह चेतन शक्ति चार अवस्थाओं में विद्यमान रहती है ।जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरिया अवस्था। पहला तो जाग्रत, स्वप्र और सुषुप्‍ति केवल मन की ही दशाएं नहीं, हमारे जीवन के भी आधार स्तंभ हैं। इन तीन पर ही हम खड़े हैं। और वास्तव में जो स्वयं हैं-इन तीनो के पार चौथे हैं। इन तीन से भवन निर्मित होता है, लेकिन वह जो निवासी है वह चौथा है। इसलिए उसे 'तुरीय' कहा है।तुरीय का अर्थ होता है चौथा, 'दि फोर्थ'। उसको कोई नाम नहीं दिया, सिर्फ चौथा कहा है। इन तीनों को नाम दिये हैं। उस चौथे को कोई नाम दिया नहीं जा सकता।

2-क्या है जागृत अवस्था का? -

हमारी पाँच ज्ञानेंद्रियां हैं तथा इनके पाँच विषय हैं। इनके द्वारा जो विशेष अनुभव प्राप्त होता है उसी को "जागृत अवस्था" कहते हैं। इस अवस्था में स्थूल शरीर का अभिमान रहने से आत्मा विश्व नाम वाला होता है ।चेतना की इसी अवस्था को "वेश्वानर" कहते हैं । जिस प्रकार से वानर कभी भी एक स्थान पर टिक नहीं सकता उसी प्रकार से जागृत अवस्था में जीवात्मा की चेतन शक्ति चंचल बनी रहती है। ऐसा जीवात्मा स्थूल ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से इस संसार का अनुभव करता है । 3-क्या है स्वप्नावस्था?-

जागृत अवस्था में मनुष्य को जो भी ज्ञान प्राप्त होता है। वह पांँचों ज्ञानेंद्रियों द्वारा होता है ;किंतु स्वप्नावस्था में इंद्रियां विषयों को ग्रहण नहीं कर सकती। जिससे उनसे कोई ज्ञान प्राप्त नहीं होता ।स्वप्न में जो भी दृश्य दिखाई देते हैं वे जागृत अवस्था में जो कुछ देखा, सुना गया है उसकी सूक्ष्म वासना मन में समाहित रहती है। मन की इसी वासना के कारण निद्रा काल में जगत का जो व्यवहार दिखाई देता है उसी को स्वप्नावस्था कहते हैं।इस अवस्था में स्थूल शरीर तो निष्क्रिय हो जाता है किंतु सूक्ष्म शरीर जागृत रहता है..उसी को स्वप्नावस्था कहते हैं। 4-क्या है सुषुप्तावस्था ?-

जागृत अवस्था में ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से होता है। स्वप्नावस्था में यह ज्ञान मन से उसकी वासना के अनुसार होता है जबकि सुसुप्तावस्था में मन भी सुप्त हो जाता है। इस अवस्था में उसे किसी प्रकार का अनुभव नहीं होता मात्र निद्रा का अनुभव होता है । इस अवस्था में आत्म चेतना को अपने कारण शरीर का अभिमान रहता है । वह इसी को अपना वास्तविक स्वरूप मानता है ।आत्मा की यह अवस्था 'प्राज्ञ'कहलाती है जिसमें यह अनुभव स्वयं आत्मा द्वारा होता है। वास्तव में यदि देखा जाए तो जानने वाला केवल आत्मा है। आत्मा की उपस्थिति में ही जानने योग्य विषय वस्तु को जाना जाता है । आत्मा सीधा ही ज्ञान का कारण है। जागृत अवस्था में ज्ञान का कारण शरीर की ज्ञानेंद्रियां होती है। स्वप्ना अवस्था में ज्ञान का कारण मन होता है । इस अवस्था में मन भी शांत हो जाता है इसलिए यहां पर ज्ञान का बोध सिर्फ आत्मा के द्वारा किया जाता है। 5-क्या है तुरियावस्था ?-

03 POINTS;-

1-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में आत्मा विश्वानर, तेजस और प्राज्ञ अवस्था में रहती है। इसकी चौथी अवस्था "तुरीया "कही गयी है। इस अवस्था में सभी दृश्य तथा ज्ञान का विलय हो जाता है।केवल परब्रह्म के समान निर्विकल्प ,निर्विचार ,शून्य अवस्था प्राप्त हो जाती है। इस स्थिति में सभी विकल्प समाप्त होकर केवल ज्ञान ही शेष रह जाता है। यही जीवात्मा की मुक्तावस्था है। आरंभ की तीन अवस्थाओं में जीव और आत्मा के बीच भेद बना रहता है।ज्ञाता और ज्ञान का भेद रहता है। अभेद का ज्ञान होने पर भी भेद बना रहता है। जीव और ब्रह्म में भेद रहने से ही जीव ब्रह्म की साधना करता है । जीवात्मा उसी का अंश है किंतु प्रकृति के आवरण में आकर वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाती है। नाशवान जड़ तत्वों से बने हुए भौतिक शरीर को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझने लगती है । इसी के दुख एवं सुख को अपना दुख एवं सुख मानने लगती है। जब निरंतर ध्यान के अभ्यास से उसे अपने वास्तविक स्वरूप का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर हो जाता है तो वह अपने वास्तविक स्वरूप को ही धारण कर लेती है ।

2-साधक के हृदय में "आत्मवत् सर्वभूतेषु "की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।उसे संपूर्ण संसार अपना ही स्वरूप दिखाई देने लगता है।न कोई अपना न कोई पराया ,सब कुछ अपना ही स्वरूप दिखाई देने लगता है अर्थात उसकी चेतना ब्रह्मांड व्यापी अस्तित्व को धारण कर लेती है। इस स्थिति में साधना की आवश्यकता ही नहीं रहती । अब कौन किसकी साधना करें? तुझमें मुझमें बस भेद यही मैं नर हूंँ तू नारायण है ..किंतु यहां पर पहुंचने के बाद योगी की यह स्थिति समाप्त हो जाती है । फिर जो स्थिति उत्पन्न होती है उसमें साधक कह उठता है- तुझमें मुझमें अब भेद नहीं तू नारायण ,मैं भी नारायण हूँ। एक ही में साधना नहीं हो सकती ।इसलिए तुरियावस्था में सभी साधनाएं समाप्त हो जाती हैं क्योंकि इसमें आत्मा को परमात्मा से एकत्त्व का अनुभव हो जाता है ।नदी पार होने पर फिर नाव की आवश्यकता नहीं रहती।उसे भी छोड़ना पड़ता है। इस स्थिति में योगी को जगत अपना ही स्वरूप ज्ञात होने लगता है ।वह वासना शून्य हो जाता है ।

3-वासना ही जन्म का कारण बनती है तथा वासना शून्य होना ही वास्तविक मुक्ति है ।जिस साधक के मन में इस संसार के प्रति कोई वासना नहीं ,कोई आसक्ति नहीं! वह समस्त बंधनों से मुक्त होकर हमेशा हमेशा के लिए इस संसार के आवागमन से मुक्त हो जाता है।उसके नाम का कोई पता भी नहीं है। और उसकी किसी से कोई तुलना नहीं हो सकती। इसलिए उसे सिर्फ चौथा कहा है।हम प्रत्येक दिन इन तीन में से गुजरते हैं। सुबह जब जागते हैं तो जाग्रत अवस्था में प्रवेश होता है। रात्रि में जब सोते हैं तो पहले स्वप्र में प्रवेश होता है, फिर जब रूप भी खो जाते हैं तो सुषुप्ति में प्रवेश होता है।हम प्रतिदिन चौबीस घंटे में इन तीन अवस्थाओं में बार-बार घूमते रहते हैं, और अगर और सूक्ष्म में देखें, तो प्रतिपल भी इन तीन अवस्थाओं में डूबते रहते हैं।

तुरीय अवस्था में, चौथे में कैसे प्रवेश हो?-

03 FACTS;-

1-तुरीय अवस्था में प्रवेश के लिए पहला चरण है अपने शरीर के प्रति पूर्ण होश रखना।धीरे-धीरे व्यक्ति प्रत्येक भाव-भंगिमाओं के प्रति, हर गति के प्रति होश पूर्ण हो जाता है। और जैसे ही तुम होशपूर्ण होने लगते हो, एक चमत्कार घटित होने लगता है :अनेक बातें जो तुम पहले करते थे, सहज ही गिर जाती है। तुम्हारा शरीर ज्यादा विश्रामपूर्ण, ज्यादा लयबद्ध हो जाता है। शरीर तक में एक गहन शांति फैल जाती है ।फिर अपने विचारों के प्रति होशपूर्ण होना शुरू करो।जैसे शरीर के प्रति होश साधा, वैसे ही अब विचारों के प्रति करो। विचार शरीर से ज्यादा सूक्ष्म है, और फलत: ज्यादा कठिन भी है। और जब तुम विचारों के प्रति जागोगे, तब तुम आश्चर्यचकित होओगे कि भीतर क्या - क्या चलता है;उसे लिख डालो, तो तुम चकित होओगे। तुम भरोसा ही न कर पाओगे कि भीतर यह सब क्या चलता है। फिर दस मिनट के बाद इसे पढ़ो - तुम पाओगे कि भीतर एक पागल मन बैठा हुआ है! चूंकि हम होशपूर्ण नहीं होते, इसलिए यह सब पागलपन अंतर्धारा की तरह चलता रहता है।

2-यह प्रभावित करता है और इन सब का जोड़ ही तुम्हारा जीवन बनने वाला है। इसलिए इस भीतर के पागल व्यक्ति को बदलना होगा।और होश का चमत्कार यह है कि तुम्हे और कुछ भी नहीं करना है सिवाय होशपूर्ण होने के। इसे देखने की घटना मात्र ही इसका रूपांतरण है। धीरे-धीरे यह पागलपन विसर्जित हो जाता है। धीरे-धीरे विचार एक लयबद्धता ग्रहण करने लगते हैं, उनकी अराजकता हट जाती है और उनकी एक सुसंगतता प्रकट होने लगती है।और फिर एक ज्यादा गहन शांति उतरती है। फिर जब तुम्हारा शरीर और मन शांतिपूर्ण है तब तुम देखोगे कि वे परस्पर भी लयबद्ध हैं, उनके बीच एक सेतु है। वे अब विभिन्न दिशाओं में नहीं दौड़ते।पहली बार एक सुख - चैन आता है और यह सुख - चैन तीसरे तल पर ध्यान साधने में बहुत सहायक होता है।तीसरे तल पर अपनी अनुभूतियों और भावदशाओं के प्रति होशपूर्ण होना होता है । यह सूक्ष्मतम तल है और सबसे कठिन भी। लेकिन यदि तुम विचारों के प्रति होशपूर्ण हुए हो, तब यह केवल एक कदम आगे है। कुछ ज्यादा गहन होश और तुम अपने भावों और अनुभूतियों के प्रति सजग हो जाओगे।

3-एक बार तुम इन तीन आयामों में होशपूर्ण हो जाते हो, फिर ये तीनों जुड़कर एक ही घटना बन जाते हैं। जब ये तीन एक साथ हो जाते हैं —एक साथ क्रियाशील हो उठते हैं, तब तुम इनका संगीत अनुभव कर सकते हो, वे तीनों एक सुरताल बन जाते हैं।

तब चौथा चरण "तुरीय" घटता है...उसे तुम कर नहीं सकते। चौथा अपने से होता है। यह समग्र अस्तित्व से आया उपहार है, जो प्रथम तीन चरणों को साध चुके हैं, उनके लिए यह एक पुरस्कार है।चौथा चरण होश का चरम शिखर है, जो व्यक्ति को जाग्रत बना देता है।वह बुद्ध व्यक्ति हो जाता है, जाग जाता है। और इस जागरण में ही अनुभूति होती है कि परम आनंद क्या है।

वास्तव में ,शरीर केवल देह-सुख जानता है ,मन जानता है प्रसन्नता ,ह्रदय जानता है हर्षोल्लास और केवल चौथा,

तुरीय ही आनंद जानता है ।संन्यास का, सत्य के खोजी का लक्ष्य है 'आनंद 'और केवल जागरूकता ही उसके लिए मार्ग है ।

शास्त्रों के अनुसार चौथे में कैसे प्रवेश हो?-

コメント


Single post: Blog_Single_Post_Widget
bottom of page