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क्या है आनन्दमय कोश की तुरीया साधना?PART-05

आनन्दमय कोश के चार प्रधान अंग ...

1- नाद, 2- बिंदु 3- कला 4-तुरीया

शास्त्रों के अनुसार चौथे में कैसे प्रवेश हो?-

22 FACTS;-

1-जाग्रत, स्‍वप्‍न, सुषुप्‍ति -इन तीनों अवस्थाओं में भी चौथी तुरीय ऐसी ही पिरोई हुई है जैसे माला के मनकों में धागा। सोये हुए भी तुम्हारे भीतर कोई जागा हुआ है।कैवल्‍य उपनिषद के अनुसार ''पिछले जन्मों के कार्यों से प्रेरित होकर वही मनुष्य सुषुप्तावस्था से पुन: स्वप्रावस्था व जाग्रतावस्था में आ जाता है। इस तरह से ज्ञात हुआ कि जीव जो तीन प्रकार के पुरों (शरीरों ) — स्थूल, सूक्ष्म और कारण में रमण करता है, उसी से इस सारे मायिक प्रपंच की सृष्टि होती है। जब तीन प्रकार के शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म, कारण) का लय हो जाता है, तभी यह जीव मायिक प्रपंच से मुक्त हो कर अखंडानंद का अनुभव करता है।इसी से प्राण, मन और समस्त इंद्रियों की उत्पत्ति होती है। इसी से पृथ्वी की सृष्टि होती है जो आकाश, वायु अग्रि, जल और सारे संसार को धारण करती है।''

2-स्‍वप्‍न देखते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई देखनेवाला रूप के बाहर है। जागते हुए, दिन के काम करते समय भी, तुम्हारे भीतर कोई साक्षी मौजूद है।ऐसा होगा क्योंकि जो तुम हो, वह तो मौजूद ही रहेगा; दब जाए, छिप जाए, विस्मरण हो जाए, नष्ट नहीं हो सकता।तो चाहे नींद हो, चाहे स्‍वप्‍न, चाहे जागरण, पीछे गहरे में तुरीय सदा मौजूद है।गहरे में तुम सदा ही बुद्ध व्यक्ति हो; ऊपर तुम कितने ही भटक जाओ, वह सब भटकाव परिधि का और लहरों का है। गहरे में तुम कभी भी भटके नहीं हो; क्योंकि गहरे में भटकने का कोई उपाय नहीं।इसलिए तुरीय को पाना नहीं है, केवल अविष्कृत करना है। तुरीय को उपलब्ध नहीं करना है, केवल अनावृत्त करना है। वह छिपी पड़ी है; जैसे कोई खजाना दबा हो, सिर्फ मिट्टी की थोडी सी परतें हटा दें और तुम सम्राट हो जाओ। कहीं खोजने नहीं जाना है; तुम्हारा खजाना तुम्हारे भीतर है। और इसकी झलक भी तुम्हें निरंतर मिलती रहती है, लेकिन तुम उस झलक पर ध्यान नहीं देते।

3-शिव सूत्र के अनुसार ''तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था का तेल की तरह सिंचन करना चाहिए। ऐसा मग्‍न हुआ स्व -चित्त में प्रवेश करे।प्राणसमाचार (अर्थात सर्वत्र परमात्म ऊर्जा का प्रस्‍फुरण है ..ऐसा अनुभव कर से) से समदर्शन को उपलब्ध होता है और वह शिवतुल्य हो जाता है!''मनुष्य का जीवन इन तीन-जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति से ही मिल कर निर्मित हुआ है।इस मनुष्य के जीवन के पीछे जो छिपा सार है , वह इन तीनों के पार है। इन तीन से संसार निर्मित हुआ है। इसलिए इस सूत्र को थोड़ा गहरे में समझ लेना जरूरी होगा। इसके अनेक आयाम हैं।इन तीन अवस्थाओं में हम पूरे जीवन ही डोलते हैं और अनेक जीवन में भी हम इन तीन अवस्थाओं में घूमते हैं। मृत्यु का क्षण सुषुप्त में घटित होता है। मरता हुआ आदमी जाग्रत से स्वप्र में प्रवेश करता है, फिर स्वप्र से सुषुप्‍ति में प्रवेश करता है।मृत्यु सुषुप्‍ति में ही घटित होती है।इसलिए पुराने लोग निद्रा को रोज आ गयी मृत्यु की थोड़ी सी झलक मानते थे।जब आप सुषुप्ति में होते हैं तब आप उसी अवस्था में होते हैं जब मृत्यु घटित होती है, या घट सकती है।

4-सुषुप्ति के बिना मृत्यु घटित नहीं होती। इसलिए सुषुप्ति में आपको सारा बोध खो जाता है।इसलिए मृत्यु की पीड़ा भी अनुभव नहीं होती। मृत्यु बड़ा ‘सर्जिकल ‘ काम है अथार्त मृत्यु सदा से ही बडे से बडा आपरेशन करती रही है। पूरे प्राणों को इस शरीर से बाहर निकालना है। तो गहन सुषुप्ति में मृत्यु घटित होती है। जन्म भी सुषुप्ति में ही होता है। इसलिए हमें याद नहीं रहती। पिछले जन्म की याद न रहने का कारण सिर्फ इतना है कि बीच में इतनी लंबी सुषुप्ति होती है कि दोनों ओर छोर पर संबंध छूट जाते हैं। सुषुप्ति में ही मृत्यु होती है, सुषुप्ति में ही फिर पुनर्जन्म होता है। माँ के पेट में बच्चा सुषुप्ति में ही होता है।जो बच्चे माँ के पेट में सुषुप्ति में नहीं होते हैं, वह माँ के स्वप्रों को प्रभावित करने लगते हैं।लेकिन बहुत थोड़ी संख्या में ही ...कभी करोड़ में एकाध बच्चा माँ के पेट में स्वप्र की अवस्था में होता है। लेकिन यह वही बच्चा होता है जिसकी पिछली मृत्यु स्वप्र की अवस्था में हुई है।

5-तिब्बत में इस पर बहुत प्रयोग किये हैं और इस प्रयोग का नाम है,‘बारदो’।वे मरते हुए मनुष्य को सुषुप्ति में न चला जाए, इसकी चेष्टा करते हैं।अगर सुषुप्ति में चला गया तो फिर उसको इस जन्म की स्मृति मिट जाएगी। तो उसको इस जन्म की स्मृति बनी रहे, इसीलिए मरते हुए मनुष्य के पास विशेष तरह के प्रयोग करते हैं। उन प्रयोगों में उस मनुष्य को चेष्टापूर्वक जगाए रखने की कोशिश की जाती है। न केवल जगाए रखने की बल्कि उस मनुष्य के भीतर रूप को पैदा करने की भी चेष्टापूर्वक कोशिश की जाती है, ताकि स्वप्र चलता रहे, चलता रहे और उसकी मृत्यु स्वप्र की अवस्था में घटित हो जाए। यदि स्वप्र की अवस्था में मृत्यु घटित हो जाए, तो वह मनुष्य आने वाले जन्म में अपने पिछले जन्म की सारी स्मृति लेकर पैदा होता है।उदाहरण के लिए रात तुम सपने देखते हो; सुबह उनकी याद, उनकी झलक कायम रह जाती है। सुबह उठकर तुम कहते हो कि रात बड़ी गहरी नींद आयी, बड़ा आनंद हुआ, नींद बड़ी सुखद थी।

6-अगर तुम पूरे ही सो गये थे, तो यह कौन कहता है कि रात नींद बहुत गहरी आयी, बड़ी आनदपूर्ण थी? जरूर कोई नींद की गहराई में भी देखता रहा ,कोई टिमटिमाता प्रकाश जलता रहा है ;पूरा अंधकार नहीं था।दिन में भी जब क्रोध पकड़ता है, तब भी तुम जानते हो कि क्रोध पकड़ रहा है। जैसे वर्षा आने के पहले आकाश बादल से घिर जाता है, वैसे तुम्हें भी लगने लगता है, अब क्रोध आने के करीब है।जब तुम मोह से भरते हो, तब भी; जब तुम शांत होते हो, तब भी; जब अशांत होते हो तब भी, तुम्हारे भीतर कोई देख रहा है। लेकिन इस देखनेवाले पर तुमने ध्यान नहीं दिया। तुम्हारा ध्यान दृश्य की तरफ बह रहा है। जो दिखाई पड़ता है, तुम उसमें ही लीन हो। जो देखता है, उस तरफ मुड़कर तुमने नहीं देखा। बस, इतना ही करने का है और तुम्हारी बेहोशी टूट जायेगी, तुरीय उपलब्ध हो जायेगा; और जिसे तुरीय मिल गया , उसे सब मिल गया।

7-जिसे तुरीय, वह चौथी ध्यान की जागृत अवस्था न मिली ...वह जीवन में सब कुछ कमा ले, सब कुछ इकट्ठा कर ले, मृत्यु के क्षण में पायेगा कि वह सब कमाना, सब इकट्ठा करना, दो कौड़ी का सिद्ध हुआ है। लेकिन तब बहुत देर हो जायेगी। तब कुछ करते न बनेगा। अभी समय है ;कुछ किया जा सकता है।और जो मौत के पहले जाग गया, उसकी फिर कोई मौत नहीं। और जो मौत तक सोया रहा उसका कोई जीवन नहीं; उसका जीवन एक लंबा स्‍वप्‍न है, जो मृत्यु तोड़ देगी। जो जीते जी जाग गया, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं; क्योंकि जो जाग गया, उसने अपने भीतर के स्वभाव को देखा और अनुभव किया कि वह अमृत है।लेकिन जिंदगी बेहोश सी...नशे में चलती हो। तुम कहां जा रहे हो, क्यों जा रहे हो, यह Clear नहीं है। अपनी जिंदगी को गौर से देखो तो तुम पाओगे, तुम कठपुतली से ज्यादा नहीं हो। और ऐसी कठपुतली की जिंदगी में ..जो अपना मालिक भी न हो;क्या सत्य की कोई घटना घट सकती है ?

8-जिंदगी के आखिर में हिसाब बराबर हो जाता है। सफल -असफल,धनी -गरीब सब बराबर हो जाते हैं। मौत तुम्हें बिलकुल साफ कोरी स्लेट की भांति कर देती है।सिर्फ एक व्यक्ति को मौत नहीं बराबर कर पाती ..वह जिसने तीन के भीतर छिपे हुए चौथे को पहचान लिया; क्योंकि उसकी कोई मृत्यु नहीं।केवल वही सफल हुआ, शेष सभी असफल हैं ;चाहे नेपोलियन हो या सिकंदर ..वे सभी असफल हैं। जो मृत्यु से नष्ट हो जाये, उसे असफलता की व्याख्या बना लेना। सिर्फ कोई Enlightened one ही सफल होता है।यहां सफलता बस एक है कि तुमने उसे जान लिया जिसकी कोई मृत्यु नहीं है।अगर तुम पाओ कि सभी कुछ ऐसा है जो मृत्यु छीन लेगी, तो समय खोना अब उचित नहीं; जागने की घड़ी अथार्त जागरण का समय आ गया ।

तुम्हारा दिन; स्‍वप्‍न, तुम्हारी रात और तुम्हारी निद्रा ...ये तीनों ही मृत्यु में बुझ जायेंगी। इन तीनों का तुमसे कोई संबंध नहीं।

9- जैसे सूरज के चारों तरफ बादल घिर गये हों, ऐसे ही इन तीनों ने तुम्हारे सूरज को घेरा है। और अगर इन तीनों में ही तुमने अपने जीवन को नियोजित कर दिया तो मृत्यु के क्षण में तुम पाओगे कि तुम दीन दरिद्र मर रहे हो। लेकिन अगर तुमने सूरज की किरण पकड़ लीं तो सूरज ज्यादा दूर नहीं है। तब बादलों की तरफ तुम्हारी पीठ हो जायेगी और सूरज की तरफ तुम्हारा मुंह हो जायेगा।पहला सूत्र है : तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था का तेल की तरह सिंचन करना चाहिए। तीनों अवस्थाओं में ..चाहे जागो, चाहे सोओ, चाहे सपना देखो ..चौथे की स्मृति को जगाते रहना चाहिए, ध्यान चौथे पर रहे। परिधि पर कुछ भी घटता रहे, नजर केंद्र पर लगी रहे।भोजन करते, घर जाते,व्यापर करते ..होश संभाले रखना। एक बात खयाल रखना कि मैं द्रष्टा हूं कर्ता नहीं हूं। जीवन को एक अभिनय से ज्यादा मत समझना।

10- अभिनय के साथ बहुत एकात्म मत हो जाना।तुम्हारा पति होना या पत्नी होना, दुकानदार या ग्राहक होना एक अभिनय का हिस्सा है ...तुम इसमें मत खो जाना।जो खेल मिला है, उसे पूरा कर देना; बीच में भागने की कोई जरूरत नहीं।भगोडे हमेशा कमजोर हैं ...जो जिंदगी में न टिक पाये और जो जिंदगी में द्रष्टा को न संभाल पाये, इसलिए भाग गये हैं। भागने से कोई संन्यासी नहीं होता। भागना केवल इतना ही बताता है कि संसार ज्यादा ताकतवार था और वह कमजोर था।लेकिन, अगर तुम घर में न जाग सकोगे, तो पहाड़ में कैसे जाग जाओगे? तुम कहां हो ,क्या कर रहे हो, इससे जागने की क्रिया का कोई संबंध नहीं है।चाहे तुम मखमल की गद्दियों पर बैठकर जागो; चाहे वृक्ष के नीचे बैठकर जागो ...जागने की क्रिया तो एक है। जागने की क्रिया यह है कि जो भी कृत्य हो रहा है, मैं उस कृत्य से पृथक हूं ..वह कृत्य दुकान का है, काम का है, प्रार्थना का है, पूजा का है, कोई फर्क नहीं पडता। कृत्य संसार का हिस्सा है और मैं देखनेवाला हूं। कृत्य में इतने लीन न हो जाना कि कृत्य ही बचे और साक्षी खो जाये।

11-यह सूत्र कहता है : तीनों अवस्था में चौथी को सिंचन करते रहना। धीरे धीरे सींचते -सींचते चौथी का वृक्ष खड़ा हो जायेगा। पहले जाग्रत से शुरू करना क्योंकि वही चौथी के निकटतम है। उसमें थोड़ी सी किरण जागने की है ;उस किरण का उपयोग करना। तुम नींद में , सपने में तो एकदम से जाग नहीं सकते ;तो पहले जागने से शुरू करना। जागने में एक प्रतिशत होश है, निन्यानबे प्रतिशत बेहोशी है। इस एक प्रतिशत का उपयोग करना; इसको सींचना। जब भी दिन में मौका आ जाये, तो अपने को झकझोरकर जगा लेना।स्थिति तो बार -बार खो जायेगी ;तुम भूल जाओगे। फिर एक झटका देना और अपने को जगा लेना। जैसे लोग कुछ भूल न जाये, तो कपडे पर गांठ लगा लेते है, ऐसे तुम भूल न जाओ, तो हर जगह अपनी चेतना पर एक गांठ लगा लेना कि मैं करनेवाला नहीं हूं सिर्फ देखनेवाला हूं।ऐसा खयाल आते ही तुम पाओगे, सब तनाव खो गया। सब तनाव कर्तृत्व का है, अहंकार का है। जैसे ही तुम्हें लगेगा, मैं देखने वाला हूं तनाव खो जायेगा।बार -बार खोयेगा क्योंकि जन्मों -जन्मों से तुमने बेहोशी साधी है ...तोड्ने में समय लगेगा।

12- लेकिन अगर तुमने सतत सिंचन किया तो तुम धीरे -धीरे पाओगे कि बाते आसान आसान होती जाती है। और तब दिन में कभी -कभी तुरीय की झलकें आने लगेंगी।जब दिन में तुरीय सरल हो जायेगा, तब तुम सपने में भी उसका उपयोग कर सकोगे। तब रात सोते वक्त, एक ही खयाल रखकर सोना कि मैं देखनेवाला हूं मैं द्रष्टा हूं। नींद आने लगे, तुम्हारे भीतर एक ही स्वर गूंजता रहे कि मैं साक्षी हूं ,मैं साक्षी हूं ,मैं साक्षी हूं। तुम्हें पता भी न चले कि कब नींद लग गयी और कब यह भाव धारा टूटी। अगर तुम इस भाव धारा को संभालते चले गये, तो नींद आ जायेगी, परन्तु भाव धारा जारी रहेगी। क्योंकि भाव धारा तुम्हारे भीतर चल रही है, नींद तो शरीर को आती है। अगर भाव धारा भीतर जारी रही तो एक दिन तुम अचानक स्‍वप्‍न में भी अनुभव करोगे कि मैं देखनेवाला हूं।

13-और जैसे ही तुम अनुभव करोगे, स्‍वप्‍न में यह खयाल आयेगा कि मैं देखनेवाला हूं तो स्‍वप्‍न तत्‍क्षण टूट जायेगा।स्‍वप्‍न चलता ही तुम्हारी बेहोशी से है। और जब ऐसा होने लगे, तब तीसरी घटना संभव होती है। तुम भीतर स्मरण जारी रखना कि मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं ...तो नींद पुन: आ जायेगी और अब नींद में भी यह धारा प्रविष्ट हो जायेगी। और जिस दिन नींद में यह धारा प्रविष्ट हो जाती है कि मैं साक्षी हूं तुम्हारे हाथ परम खजाने की कुंजी लग गयी। अब तुम्हें कोई भी बेहोश न कर पायेगा। जो नींद में एक क्षण को भी जाग गया, अब उसकी बेहोशी बिलकुल टूट जायेगी।जिस दिन तुम नींद में जागोगे, उस दिन तुम योगी हो गये। योगी कोई आसन करने से नहीं होता। वह सब व्यायाम है; शरीर के लिए स्वास्थ्यप्रद है। लेकिन शरीर के व्यायाम को ही अगर कोई योग समझ लेता हो तो वह भ्रम में पड़ गया है। योग का अर्थ है... निद्रा में जो जाग्रत हो जाये, वही योगी है।

14-यह सूत्र कहता है : तीनों अवस्थाओं में चौथे का तेल की भांति सिंचन करते रहना। एक न एक दिन वह अनूठी घटना घट जायेगी! जब तुम्हें नींद में भी जागरण होगा तो चौथे में स्थिर हो जाओगे। जब कोई चौथे में स्थिर हो जाता है, तो ऐसी अवस्था हो जाती है, जैसे दीया जल रहा हो और कोई हवा का झोंका हो परन्तु दीये की लौ जरा भी न कंपती हो। तब तुम्हारी प्रज्ञा, तुम्हारा ज्ञान तुम्हारी आत्मा ऐसी ही होगी ...अकंप, प्रकाश से भरी। फिर तुम उठोगे, जागोगे, सोओगे ... कई बातों में रूपांतरण हो जायेगा। बुद्ध पुरुष स्‍वप्‍न नहीं देखते क्योंकि स्‍वप्‍न वासना से घिरा हुआ चित्त देखता है।जो नींद में जाग जायेगा उसके स्‍वप्‍न सदा के लिए समाप्त हो जायेंगे।क्योंकि नींद में जो जाग गया, अब उसकी कोई वासना न रही। सब वासनाएं मूर्च्छा के, बेहोशी के हिस्से हैं।जिंदगी में तुम जो कर रहे हो, करीब -करीब ऐसा ही बेहोश है। इस नशे को कहीं न कहीं से तोड़ना जरूरी है।तो जागृति से शुरू करो। सुबह उठो, एक ही भाव से उठो कि आज दिन साक्षी का प्रयोग करूंगा।रातभर के विश्राम के बाद, तुम्हारे भीतर भी एक सुबह होती है और बाहर भी एक सुबह होती है।उस समय तनाव नहीं होते ,आकाश में बादल नहीं होते ; तुम हलके होते हो।

14-तो जैसे ही तुम्हें पता चले, सुबह की नींद टूट गयी, आंख मत खोलना क्योंकि उस समय चित्त बहुत संवेदनशील है।तो रोज सुबह उठते समय पांच मिनट आंख बंद किये ही पड़े रहना ;पहले ध्यान करना और भीतर एक भाव करना कि 'मैं साक्षी हूं कर्त्ता नहीं हूं'।और यह साक्षी भाव दिन भर सधे, बारबार इसका मैं स्मरण कर सकूं ...ऐसे भाव में डूबे हुए तुम उठना और थोड़ी देर इसे संभालने की कोशिश करना; क्योंकि शुरू शुरू में सबसे ज्यादा आसान होगा। उठो, बिस्तर के नीचे होशपूर्वक पैर रखो, होशपूर्वक स्नान और होशपूर्वक नाश्ता करो ।होशपूर्वक का अर्थ है कि यह सब मेरे बाहर हो रहा है ..शरीर की जरूरत हैं .. मेरी कोई जरूरत ही नहीं है।वास्तव में, तुम स्वयं परमात्मा हो,तो तुम्हारी क्या जरूरत हो सकती है? तुम पूर्ण हो ,ब्रह्मस्वरूप हो ,सब कुछ तुम्हारा है। आत्मा किसी जरूरत से नहीं चलती। उसके लिए कोई ईंधन की जरूरत नहीं है ..''बिन बाती बिन तेल''। शरीर की जरूरत है -उठना,स्नान, भोजन आदि ।यह पौधा धीरे -धीरे इतना बड़ा होगा कि दिखाई भी नहीं पड़ेगा कि कब बड़ा हो रहा है।

15-लेकिन अचानक एक दिन तुम पाओगे कि दिनभर एक धागे की तरह, तुम्हारे भीतर प्रकाश की एक किरण बनी रहती है। और वह प्रकाश की किरण तुम्हारे जीवन को रासायनिक रूप से बदल देगी। क्रोध कम आयेगा; क्योंकि साक्षी को कैसा क्रोध! मोह कम पकड़ेगा; क्योंकि साक्षी को कैसा मोह! चीजें घटेंगी ..सफलता ,असफलता होगी, सुख ,दुख आयेंगे; लेकिन तुम कम डावांडोल होओगे क्योंकि साक्षी का कैसा कंपन। सुख आयेगा, उसे भी तुम देख लोगे; दुख आयेगा, उसे भी देख लोगे और तुम्हारे भीतर सतत धारा बनी रहेगी कि 'मैं देखनेवाला हूं भोक्ता नहीं हूं'।कोई भी नहीं कह सकता कि कितना समय लगेगा। क्योंकि तुम्हारी तीव्रता, तुम्हारी सघन आकांक्षा पर निर्भर करेगा।जैसे -जैसे तुम जागने को सींचोगे, वैसे -वैसे सब बदलने लगेगा। इस बदलने का नाम ही संन्यास है। और जैसे -जैसे तुम भीतर सच्चे होते जाओगे, वैसे -वैसे तुम पाओगे कि बीमारी को मिटाना जरा भी कठिन नहीं है।

16-लेकिन झूठी बीमारी को मिटाना बहुत कठिन है।उदाहरण के लिए तुम कोरोना के मरीज हो। लेकिन डर के मारे तुम यह स्वीकार नहीं करते कि मैं कोरोना का मरीज हूं। क्योंकि फिर कोरोना घबड़ाता है; तो तुम समझते हो कि कुछ नहीं, सर्दी ,जुकाम है और तुम सर्दी ,जुकाम का इलाज करते रहते हो। इससे क्या होगा ..तुम केवल स्वयं को धोखा दोगे । तो एक

साधक के लिए जान लेनी जरूरी है कि उसकी असली बीमारी क्या है। और सभी साधक उसको छिपाते है। और जो असली बीमारी को छिपा लेता है, उसका निदान ही नहीं हो पाता, और तब तुम झूठी बीमारी का इलाज करते रहते हो। उस इलाज से भी तुम बच नहीं सकते; मरते ही हो क्योंकि वह कभी तुम्हारी बीमारी न थी।कुछ लोग कहते है कि ईश्वर की खोज करनी है; तो कोई कहता है कि आत्मा की खोज करनी है।परन्तु उनके चेहरे पर ऐसी किसी खोज का कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ता। तो यह खोज झूठी है।

17-वास्तव में वे किसी और चीज की खोज में है लेकिन ईश्वर के नाम के नीचे उसको छिपा रहे है।वह कहते है, ''मैं बिलकुल ईश्वर की खोज कर रहा हूं ; और ध्यान साधना सब कर रहा हूं। लेकिन कुछ फल नहीं होता।कोई सिद्धि नहीं हाथ आती।’’

वास्तव में यह व्यक्ति ईश्वर को खोज ही नहीं रहा है ;भीतर केवल सिद्धि खोज रहा है और ऊपर से ईश्वर का नाम रखा हुआ है । सारी खोज ऐसी ही चल रही है! तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या खोज रहे हो; क्यों खोज रहे हो? जागने को जैसे-जैसे सींचोगे, तुम्हारे जीवन में एक दिशा आयेगी। व्यर्थ गिरेगा, सार्थक बचेगा। और जिस दिन बिलकुल सार्थक बच जाता है, उस दिन मंजिल दूर नहीं है।केवल एक ही चीज साधने जैसी है, और वह है :... तीनों अवस्थाओं में तेल की भांति सिंचन करना ..तुरीय का, होश का, विवेक का, जागरण का, अमूर्च्छा का, अप्रमाद का।

18-संन्यास का अर्थ है ,झूठ का जो जाल तुमने खड़ा किया है, उसे विसर्जित कर देना और जीवन को वास्तविक और प्रामाणिक स्वीकार करना ...जैसे तुम हो, बुरे तो बुरे, क्रोधी तो क्रोधी; क्रोध को लीपा पोती करके सुंदर मत बनाओ। घाव को फूलों से छिपाने से कुछ भी न होगा, घाव और बड़ा होगा। कह दो कि मै ऐसा हूं ..जो बुरा हूं तो बुरा, भला हूं तो भला। लेकिन इसके लिए कोई तर्क या विचार प्रक्रिया से छिपाने की कोशिश मत करो। और बुराइयों के लिए अच्छे कारण मत खोजो; क्योंकि तब बुराइयां कभी भी न मर सकेंगी।तुम क्रोध भी करते हो तो अच्छे कारण खोजते हो।अच्छे कारण से तुम सहारा दे रहे हो; तुम क्रोध को भी अच्छा कर ले रहे हो।अथार्त तुमने कारागृह को भी चारों तरफ फूल पत्ती सजाकर घर जैसा बना लिया; अब तुम बीमारी को भी स्वास्थ्य जैसा समझकर बैठे हो! तब फिर छुटकारा नहीं हो सकता!जागृत हुआ व्यक्ति जैसे -जैसे जागेगा, वैसे -वैसे पायेगा, उसका जागरण झूठ है ,उसके सपने विकृत है; उसकी निद्रा अशांत है। उन तीनों तलों पर एक बेचैनी, एक परेशानी, एक उपद्रव चल रहा है। और जैसे -जैसे वह देखने लगेगा.. झूठे कारणों को हटा देगा, वैसे -वैसे वह पायेगा कि झूठे कारणों के हटते ही,अथार्त सच्चाई के दिखाई पड़ते ही, उसका होश और सघन होने लगा।

19-'ऐसा मग्‍न हुआ, स्व चित्त में प्रवेश करे।’ अथार्त ऐसा मग्‍न हुआ स्व चित्त में प्रवेश कर ही जाता है।और जो इस तुरीय में मग्न हो गया, और इससे बड़ी और कोई मग्नता नहीं है।तुरीय का रस कभी नहीं सूखता ;वह शाश्वत रसधारा है। और जो उसमें मग्‍न हुआ; जिसके रोएं -रोएं में तुरीय समा गया; वही स्व चित्त में प्रवेश करता है। अन्यथा तुम स्वयं से ,इस संसार से ..सबसे परिचित हो जाओगे, बस स्वयं से अपरिचित हो जाओगे। यह सारा संसार तुम्हारा परिवार हो जाएगा, लेकिन अपने प्रति तुम अजनबी रह जाओगे।जैसे ही कोई स्व चित्त में प्रवेश करता है, उसके जीवन में पहली बार प्राण समाचार का उदय होता है।''प्राणसमाचार से समदर्शन को उपलब्ध होता है और वह शिवतुल्य हो जाता है!'' प्राण समाचार से अर्थात सर्वत्र परमात्म ऊर्जा का ही स्फुरण है, ऐसे अनुभव से समदर्शन को उपलब्ध होता है। और जैसे ही कोई व्यक्ति स्वयं को जान लेता है, तत्क्षण वह जान लेता है यही दीया सबमें जल रहा है।जब तक तुमने अपने को नहीं देखा, तभी तक दूसरा तुम्हें पराया मालूम पड़ रहा है। जब तक तुमने खुद को नहीं पहचाना, तभी तक तुम दूसरे को भी दुश्मन समझ रहे हो। जैसे ही तुमने स्वयं को देखा, वैसे ही तुम सभी के मिट्टी की दीवारों में घिरे हुए प्रकाश के दीये को देख लोगे; समदर्शन को उपलब्ध हो जाओगे। फिर न कोई मित्र है, न कोई शत्रु न कोई अपना, न कोई पराया। तब वस्तुत: तुम ही सबके भीतर छाये हुए हो। तब एक ही विराजमान है।

20-शिवसूत्र में इसे प्राण समाचार कहा है कि अब तुम्हें वह समाचार मिल गया कि सब तरफ एक ही प्राण है। सभी दीयों में एक ज्योति है। सभी बूंदों में एक ही सागर का निवास है। किसी का दीया काला है, किसी का गोरा है; कोई लाल मिट्टी का बना, कोई पीली मिट्टी का बना; कोई इस शक्ल, कोई उस शक्ल; कोई यह नाम, कोई वह रूप; लेकिन भीतर की ज्योति का न कोई नाम है, न कोई रूप है। जिसने अपने को जाना, उसने अपने को सबमें जान लिया।पहली घटना घटती है, तुरीय से, कि तुम स्वयं को जानते हो; तत्क्षण दूसरी घटना घटती है कि तुम परमात्मा को जान लेते हो।परमात्मा को सीधा मत खोजो। सीधा तुम खोजोगे तो वह कल्पना ही होगी। तुम बैठे कल्पना कर सकते हो कि कृष्ण बाँसुरी बजा रहे है; इससे कोई परमात्मा न मिल जायेगा। यह अच्छा सपना है। मगर इस सपने में और दूसरे सपनों में कोई भी भेद नहीं है; मन कल्पना कर रहा है और कई लोग यही कल्पना करते रहते है; बैठे हुए सपने देखते रहते है। धार्मिक सपने है, मगर सपने ही हैं।

21-परमात्मा को सीधा खोजने का कोई उपाय ही नहीं है; क्योंकि तुम ही उसके द्वार हो। जब तक तुम अपने द्वार से न गुजरोगे, उसका द्वार बंद है। आत्मा परमात्मा का द्वार है। इधर खुला द्वार, इधर तुमने अपने को जाना कि परमात्मा प्रकट हो गया। तब तुम्हें सब तरफ वही दिखाई पड़ने लगेगा। वृक्ष में, पत्थर में, चट्टान में वही आबद्ध है। कहीं बहुत सोया है। कहीं बहुत जागा है। कहीं सपने में खोया है। कहीं नींद है, कही होश है; लेकिन वही है। उस एक की प्रतीति को शिव ने प्राण समाचार कहा है। वह बडे से बडा समाचार है। लेकिन स्वयं को जाननेवाले को ही उपलब्ध होता है।और जब कोई व्यक्ति समदर्शन में ठहर जाता है, वह शिवतुल्य हो जाता है । फिर वह स्वयं परमात्मा हो गया। तुम तभी तक 'मैं' हो, जब तक तुम्हें अपना पता नहीं है। यह बात बड़ी विरोधाभासी लगती है। तुम तभी तक मैं -मैं -मैं,चिल्लाये चले जा रहे हो जब तक तुम्हें पता नहीं कि तुम कौन हो। जिस दिन तुम्हें पता लगेगा, उसी दिन 'मैं' भी गिर जायेगा, 'तू, भी गिर जायेगा। उस दिन तुम शिवतुल्य हो जाओगे।

22-उस दिन तुम स्वयं परमात्मा हो और तब दिन-रात नाद उठेगा ''अहम् ब्रह्मास्मि''। उस दिन तुम यह दोहराओगे नहीं, बल्कि तुम यह जानोगे। उस दिन तुम्हें यह समझना नहीं पड़ेगा; यह तुम्हारा अस्तित्व होगा, तुम्हारी अनुभूति होगी। उस दिन सब तरफ एक का ही नाद, एक का ही निनाद होगा। जैसे बूंद सागर में खो जाये, सीमा मिट जाये, असीम हो जाये! तब तुम शिवतुल्य हो जाओगे।शिव की यही चेष्टा है कि तुम भी उन जैसे हो जाओ। उन्होंने जो परमानंद जाना है , वह तुम्हारी भी संपदा है। तुम अभी बीज हो, वे वृक्ष हो गये हैं। वे वृक्ष तुम से यही कहे चले जा रहे है कि तुम बीज मत बने रही, तुम भी वृक्ष हो जाओ। और तब तक तुम्हें शांति न मिलेगी जब तक तुम शिवतुल्य न हो जाओ।इससे कम में आत्मा तृप्त न होगी ;प्यास बनी ही रहेगी, कितना ही पियो... संसार का पानी, प्यास बुझेगी नहीं, जब तक कि परमात्मा के घट से न पी लो। तब प्यास सदा के लिए खो जाती है। सब वासनाएं सब दौड़, सब आपाधापी समाप्त हो जाती है; क्योंकि तुम वह हो गये, जो परम है। उसके ऊपर फिर कुछ और नहीं।''तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था को तेल की तरह सिंचन करो, ताकि ऐसे मग्‍न हो जाओ कि स्व चित्त में प्रवेश हो; ताकि प्राण समाचार मिले; ताकि तुम जान सको कि सबमें एक ही विराजमान है; समदर्शन हो; ताकि तुम शिवतुल्य हो जाओ''।

..SHIVOHAM..


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