क्या है भगवद्गीता में उल्लेखित प्रमुख योग ?योगी और ज्ञानी में क्या अंतर है ?
योग का महत्व;-
08 FACTS;- 1-लोग परमात्मा को खोजते हैं लेकिन कभी खोज न पाएंगे, क्योंकि खोजा उसे जा सकता है जिसे खोया हो।वास्तव में, जो खोजने निकला है, वह स्वयं ही परमात्मा है, इसलिए नहीं खोज पाएगा ।जिन्होंने कहा है, परमात्मा नहीं है, वे कभी भीतर ही नहीं गए। और जो भीतर गए हैं, उन्होंने सदा कहा है कि परमात्मा है.... हमारा स्वभाव स्वयं परमात्मा होना है। स्वभाव का अर्थ है, जो मेरा होना ही है, जो हमारा अस्तित्व ही है।हम अगर परमात्मा से अलग होते, तो कहीं न कहीं उसे खोज ही लेते, आमने-सामने पड़ ही जाते। लेकिन हम स्वयं ही परमात्मा हैं ; इसलिए जो परमात्मा को खोजने निकला है, उसे अभी पता ही नहीं कि वह जिसे खोज रहा है, वह उसका स्वयं का ही होना है।यह तो हमारा स्वभाव है, जिसे हम कभी खो नहीं सकते, लेकिन जो खोने से मिलता-जुलता है ...वह है विस्मरण /फारगेटफुलनेस।स्वभाव को खोया नहीं जा सकता, लेकिन स्वभाव को भूला जा सकता है।परमात्मा सिर्फ विस्मृत है।योग की जरूरत है इस विस्मरण को तोड़कर स्मरण को पुनर्स्थापित करने के लिए।योग से कोई नई उपलब्धि नहीं होगी; जो सदा-सदा से मिला ही हुआ है, वही पुनर्स्मरण होगा।योग का मतलब है आत्मा से परमात्मा का मिलन।
2-अगर इस पृथ्वी पर अंधेरा न हो, तो प्रकाश का किसी को भी पता नहीं चलेगा।पता चलने के लिए विपरीत का होना जरूरी है।जिंदगी के गहरे नियमों में से एक है कि उसी बात का पता चलता है जिसका विरोधी मौजूद हो; अन्यथा पता नहीं चलता।
अगर हमारे भीतर परमात्मा सदा से है, तो भी उसका पता तभी चलेगा, जब एक बार विस्मरण हो। उसके बिना पता नहीं चल सकता।योग इस भूलने के ढंग से विपरीत यात्रा है ...पुनः घर की ओर वापसी। योग समस्त धर्मों की प्रक्रिया है ,सार है।योग शुद्ध विज्ञान है। हां, फर्क है क्योंकि साइंस आब्जेक्टिव /पदार्थगत है ,जबकि योग सब्जेक्टिव /आत्मगत है। विज्ञान खोजता है पदार्थ और योग खोजता है परमात्मा।वैज्ञानिकों का खयाल है कि दस प्रतिशत से ज्यादा हम अपने शरीर का उपयोग नहीं करते। नब्बे प्रतिशत शरीर की शक्तियां अनुपयोगी रहकर ही समाप्त हो जाती हैं।योग का पहला काम तो यह है कि उन नब्बे प्रतिशत शक्तियों में से जो सोई पड़ी हैं, उन शक्तियों को जगाना, जिनके माध्यम से अंतर्यात्रा हो सके। क्योंकि बिना एनर्जी/ऊर्जा के कोई यात्रा नहीं हो सकती है।
3-शरीर में बहुत-से चक्र हैं। इन प्रत्येक चक्र में छिपी हुई अपनी विशेष ऊर्जा है, जिसका विशेष उपयोग किया जा सकता है। योगासन उन सब चक्रों में सोई हुई शक्ति को जगाने का प्रयोग है।योग के द्वारा शरीर एक डायनेमिक फोर्स, ऊर्जा की एक जीती-जागती, साकार प्रतिमा बन जाता है। इस शक्ति के पंखों पर चढ़कर अंतर्यात्रा हो सकती है। अन्यथा अंतर्यात्रा अत्यंत कठिन है।योग का पहला तत्व है, ऊर्जा। दूसरा तत्व है, ध्वनि और तीसरा तत्व है, ध्यान, अटेंशन, दिशा।योग कहता है कि अगर परमात्मा की तरफ जाना है तो उन ध्वनियों का उपयोग करो, जिन ध्वनियों से परमात्मा की तरफ जाने वाला लयबद्ध मन निर्मित हो जाए।इस जगत में और कुछ भी खोजना हो, तो दिशा है।लेकिन परमात्मा की तो कोई दिशा नहीं है क्योकि वह सब दिशाओं में व्याप्त है।जब परमात्मा की तो कोई दिशा नहीं, तो उसे हम कैसे खोजें?इसीलिए योग ने ऐसी ध्वनियां खोजी जो दिशाहीन हैं। जैसे ओम ..यह दिशाहीन ध्वनि है। अगर आप ओम का पाठ करें, तो यह ध्वनि सर्कुलर है। इसलिए ओम का जो प्रतीक बनाया है, वह भी सर्कुलर /वर्तुलाकार है। अगर आप भीतर ओम की ध्वनि करें, तो आपको ऐसा अनुभव होगा, जैसे मंदिर के ऊपर गोल गुंबज होती है । वह गोल गुंबज ओम की ध्वनि से जुड़कर बनाई गई है। जब आप भीतर जोर से ओम का पाठ करेंगे, तो आपको अपने सिर और चारों तरफ एक सर्कुलर स्थिति का बोध होगा, दिशाहीन। यह ओम कहीं से आता हुआ नहीं मालूम पड़ेगा। सब कहीं से आता हुआ और सब कहीं जाता हुआ मालूम पड़ेगा।
4-यह एक अदभुत ध्वनि है, जो योग ने खोजी है। इस ध्वनि के मुकाबले जगत में कोई दूसरी ध्वनि नहीं खोजी जा सकी।
इस सर्कुलर स्थिति में आप परमात्मा की तरफ उन्मुख होंगे, अन्यथा आप उन्मुख न हो सकेंगे। कोई न कोई चीज आपको अपनी तरफ खींचती रहेगी ; कोई न कोई दिशा आपको पुकारती रहेगी। दिशामुक्त होंगे, तो भीतर की तरफ यात्रा शुरू होगी। और जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक नहीं चलायमान होता है, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है। सब ध्वनियां चेतना को कंपित करेंगी।जब तक किसी दिशा में ध्यान जाएगा, तब तक चेतना की लौ कंपित होगी।चित्त के लिए ध्वनि ही वायु है।जब इन समस्त ध्वनियों के पार हम अपने भीतर कोई मंदिर खोज पाएं, जहां ये कोई ध्वनियां प्रवेश न करें।तब हम अपने भीतर ऊर्जा का एक ऐसा मंडल/वर्तुल बना पाएंगे, जहां चेतना अकंप ठहर जाए ।इस मंडल में ठहरी हुई चेतना वायुरहित स्थान में दीए की लौ जैसी हो जाती है।योग उसका अभ्यास है ; तब चित्त ..मंडलाकार अपने भीतर ही बंद हो जाता है।
5-तो ध्वनि का एक विशेष आयोजन भीतर करना पड़े, तभी लौ ठहर पाएगी।योग कहता है मन आपके सिस्टम की जड़ है। मन में लोभ, क्रोध ,काम, अहंकार होगा ही। क्योकि यह मन का स्वभाव है। इस मन को ही बदलो। इस मन की जगह नए मन को स्थापित करो। यह मन रहा और इस मन का यंत्र रहा, तो सब जारी रहेगा। इस यंत्र को नया करो, नया यंत्र स्थापित करो। तो तुम्हारे पास नया मन होगा, जिसमें क्रोध नहीं होगा, काम नहीं होगा, मोह नहीं होगा, लोभ नहीं होगा।लेकिन इस मन को बदलने का राज है और योग उसी राज का विस्तार है?और योग ने तीन प्रकार के राज कहे, तीन तरह के लोगों के लिए।क्योंकि तीन तरह के लोग हैं। वे लोग हैं, जिनके भीतर, विचार /बुद्धि प्रधान है, जिनके भीतर भाव प्रधान है,और जिनके पीछे कर्म प्रधान है ।योग की तीन प्रमुख शाखाएं हैं –फिर तो अनंत शाखाएं हो गईं–कर्म, भक्ति और ज्ञान...तीन एलिमेंट... फायर, वॉटर और एयर।और उन तीनों की तीन कुंजियां हैं।
6-और प्रत्येक टाइप के व्यक्ति के लिए अलग-अलग कुंजी लागू होती है।परन्तु ताला खुलने पर एक ही मकान में प्रवेश होता है। अब जो व्यक्ति विचार से ही जीता है...एयर एलिमेंट, उसके लिए प्रार्थना, कीर्तन, भजन बिलकुल अर्थपूर्ण नहीं मालूम पड़ेंगे। उसमें उसका कसूर नहीं है क्योंकि विचार प्रश्न उठाता है। और जहां विचार में प्रश्न उठते हैं वहां भाव वॉटर एलिमेंट में प्रश्न नहीं उठते हैं। भाव कभी प्रश्न नहीं उठाते क्योंकि निष्प्रश्न हैं। भाव स्वीकार है, एक्सेप्टिबिलिटी है लेकिन विचार संघर्ष करता है। तो विचार के लिए तो अलग ही रास्ता खोजना पड़ेगा। योग ने उसके लिए रास्ता खोजा ..ज्ञानयोग अथार्त उस जगह पहुंच जाओ, जहां न ज्ञेय रह जाए और न ज्ञाता रह जाए, सिर्फ ज्ञान रह जाए। उसकी पूरी प्रक्रिया है। ज्ञेय /आब्जेक्ट्स को छोड़ो। जिसे जानना हो, उसे छोड़ो; और जो जानने वाला है, उसे भी छोड़ो। वह जो ज्ञान की क्षमता /नोइंग फैकल्टी है, उसी में रमो।भाव वाले व्यक्ति/वॉटर एलिमेंट को यह बात समझ में न पड़ेगी कि ज्ञान की धारा में कैसे खड़े हो जाएं क्योंकि भाव वाला भावना से जीता है, समझ से नहीं। भाव वाले व्यक्ति से कहो कि आनंदमग्न होकर , प्रभु-समर्पित होकर नाचो। वह नाचने लगेगा। वह यह नहीं पूछेगा, नाचने से क्या होगा और नाचने से सब हो जाएगा।
7-नाचने में वह क्षण आता है, कि नाचने वाला भी मिट जाता है, नाचने का खयाल भी मिट जाता है, नृत्य ही रह जाता है । परमात्मा भी भूल जाता है, जिसके लिए नाच रहे हैं; जो नाचता था, वह भी भूल जाता है; सिर्फ नाचना ही रह जाता है... जस्ट डांसिंग। जस्ट नोइंग की तरह घटना घट जाती है। जैसे सिर्फ जानना रह जाता है, बस द्वार खुल जाता है। सिर्फ नृत्य रह जाता है, तो भी द्वार खुल जाता है।उदाहरण के लिए जब मीरा गाती है, 'मेरे तो गिरधर गोपाल', तो न तो गोपाल रह जाते है, न मेरा कोई रह जाता।सिर्फ यह गीत ही रह जाता है ..गिरधर भी भूल जाते हैं, गायक भी भूल जाता है; मीरा भी खो जाती है, श्री कृष्ण भी खो जाते हैं; बस, गीत रह जाता है। जहां सिर्फ गीत रह जाता है, वहां वही घटना घट जाती है।लेकिन एयर एलिमेंट कहेंगे, केवल ज्ञान /जस्ट नोइंग रह जाए, बस...वहीं द्वार खुलेगा। मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या करेंगे! गीत रह जाए।ज्ञान तो रेगिस्तान जैसा बड़ा रूखा-सूखा है लेकिन गीत गीला है ,हरियाली से भरा है। प्राणों के कोने-कोने तक गीत स्नान करा जाता है।तीसरा हैं फायर एलिमेंट ..कर्म प्रधान ।ये तीन खास प्रकार के लोग हैं। इन तीन विधियों के द्वारा साधारणतः कोई भी व्यक्ति चेतना को उस स्थान में ले आ सकता है जहां केवल ज्ञान रह जाए ;केवल भाव रह जाए या केवल कर्म रह जाए ।
8-तीन की जगह एक रह जाए अथार्त बीच का रह जाए, दोनों छोर मिट जाएं, तो व्यक्ति की चेतना स्थिर हो जाती है। जैसे कि जहां वायु न बहती हो, वहां दीए की ज्योति स्थिर हो जाती है।उस दीए की ज्योति के स्थिर होने को ही योगी को उपमा दी गई है। योगी भी ऐसा ही ठहर जाता है।गीता में योग शब्द को एक नहीं बल्कि कई अर्थों में प्रयोग हुआ है, लेकिन हर योग अंतत: ईश्वर से मिलने मार्ग से ही जुड़ता है। गीता में योग के कई प्रकार हैं, लेकिन मुख्यत: तीन योग का वास्ता ही मनुष्य से अधिक होता है ...अथार्त ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। महाभारत युदध् के दौरान जब अर्जुन रिश्ते नातों में उलझ कर मोह में बंध रहे थे तब भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को बताया था कि जीवन में सबसे बड़ा योग है ...कर्म योग।उन्होंने बताया था कि कर्म योग से कोई भी मुक्त नहीं हो सकता, वह स्वयं भी कर्म योग से बंधे हैं। कर्म योग ईश्वर को भी बंधन में बांधे हुए रखता है। श्रीकृष्ण योग ने अर्जुन को 13 प्रकार के योग मुद्रा के बारे में जानकारी देकर उनके मन के मैल को साफ किया था। गीता में उल्लेखित 13 योग है.. गीता में उल्लेखित प्रमुख योग ;-
13 FACTS;- 1-विषाद योग विषाद यानी दुख। युद्ध के मैदान में जब अर्जुन ने अपनो को सामने देखा तो वह विषाद योग से भर गए। उनके मन में निराशा और अपनो के नाश का भय हावी होने लगा। तब भगवान श्रीकष्ण ने अर्जुन के मन से यह भय दूर करने का प्रयास किया। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिए, वही गीता बनीं। उन्होंने सर्वप्रथम विषाद योग से अर्जुन को दूर किया और युद्ध के लिए तैयार किया था। 2-सांख्य योग सांख्य योग के जरिये भगवान श्रीकृष्ण ने पुरुष की प्रकृति और उसके अंदर मौजूद तत्वों के बारे में समझाया। उन्होनें अर्जुन को बताया कि मनुष्य को जब भी लगे कि उस पर दुख या विषाद हावी हो रहा है उसे सांख्य योग यानी पुरुष प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए। मनुष्य पांच सांख्य से बना है, आग, पानी, मिट्टी, हवा। अंत में मनुष्य इसी में मिलता है। 3-कर्म योग भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि जीवन में सबसे बड़ा योग कर्म योग है। इस योग से देवता भी नहीं बच सकते। कर्म योग से सभी बंधे हैं। सभी को कर्म करना है। इस बंधन से कोई मुक्त नहीं हो सकता है। साथ ही यह भी समझाया की कर्म करना मनुष्य का पहला धर्म है। उन्होंने अर्जुन को समझाया कि सूर्य और चंद्रमा भी अपने कर्म मार्ग पर निरंतर प्रशस्त रहते हैं। तुम्हें भी कर्मशील बनना होगा। 4-ज्ञान योग भगवान श्रीकृष्ण अजुर्न से कहा कि ज्ञान अमृत समान होता है। इसे जो पी लेता है उसे कभी कोई बंधन नहीं बांध सकता। ज्ञान से बढ़कर इस दुनिया में कोई चीज़ नहीं होती है। ज्ञान मनुष्य को कर्म बंधनों में रहकर भी भौतिक संसर्ग से विमुक्त बना देता है। 5-कर्म वैराग्य योग भगवान ने अर्जुन को बताया कि कर्म से कोई मुक्त नहीं, यह सच है, लेकिन कर्म को कभी कुछ पाने या फल पाने के लिए नहीं करना चाहिए। मनुष्य को अपना कर्म करना चाहिए.. यह सोचे बिना कि इसका फल उसे कब मिलेगा या क्या मिलेगा। कर्म के फलों की चिंता नहीं करनी चाहिए। ईश्वर बुरे कर्मों का बुरा फल और अच्छे कर्मों का अच्छा फल देते हैं। 6-ध्यान योग ध्यान योग से मनुष्य खुद को मूल्यांकन करना सीखता है। इस योग को करना हर किसी के लिए जरूरी है। ध्यान योग में मन और मस्तिष्क का मिलन होता है और ऐसी स्थिति में दोनों ही शांत होते हैं और विचलित नहीं होते। ध्यान योग मनुष्य को शांत और विचारशील बनता है। 7-विज्ञान योग इस योग में मनष्य किसी खोज पर निकलता है। सत्य की खोज विज्ञान योग का ही अंग है। इस मार्ग पर बिना किसी संकोच के मनुष्य को चलना चाहिए। विज्ञान योग तप योग की ओर ही अग्रसर होता है। 8-अक्षर ब्रह्म योग श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि अक्षर ब्रह्म योग की प्राप्ति से ही ब्रह्मा, अधिदेव, अध्यात्म और आत्म संयम की प्राप्ति होती है। मनुष्य को अपने भौतिक जीवन का निर्वाह शून्य से करना चाहिए। अक्षर ब्रह्म योग के लिए मनुष्य को अपने अंदर के हर विचार और सोच को बाहर करना होता है। नए सिरे से मन को शुद्ध कर इस योग को कराना होता है। 9-राज विद्या गुह्य योग इस योग में स्थिर रहकर व्यक्ति परम ब्रह्म के ज्ञान से रूबरू होता है। मनुष्य को परम ज्ञान प्राप्ति के लिए राज विद्या गुह्य योग का आत्मसात करना चाहिए। इसे आत्मसात करने वाला ही हर बंधनों से मुक्त हो सकता है। 10-विभूति विस्तार योग मनुष्य विभूति विस्तार योग के जरिये ही ईश्वर के नजदीक पहुंचता है। इस योग के माध्यम से साधक ब्रह्म में लीन हो कर अपने ईश्वर मार्ग पर प्रशस्त होता है। 11-विश्वरूप दर्शन योग इस योग को मनुष्य जब कर लेता है तब उसे ईश्वर के विश्वरूप का दर्शन होता है। ये अनंत योग माना गया है। ईश्वर तक विराट रूप योग के माध्यम से अपना रूप प्राप्त किए हैं। 12-भक्ति योग भक्ति योग ईश्वर प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ योग है। बिना इस योग के भगवान नहीं मिल सकते। जिस मनुष्य में भक्ति नहीं होती उसे भगवान कभी नहीं मिलते। 13-क्षेत्र विभाग योग क्षेत्र विभाग योग ही वह जरिया है जिसे जरिये मनुष्य आत्मा, परमात्मा और ज्ञान के गूढ़ रहस्य को जान पाता है। इस योग में समा जाने वाले ही साधक योगी होते हैं।गीता में वर्णित ये योग, मौजूदा समय में मनुष्य की जरूरत हैं। इसे अपनाने वाला ही असल मायने में अपने जीवन को पूर्ण रूप से जी पाता है।
/////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////
योगी और ज्ञानी में अंतर;-
05 FACTS;-
(1) साधक योगी वह है जो पिण्ड के अन्दर ही जीव का आत्मा से मिलन (हंसो) साधना के माध्यम (स्वांस-प्रस्वांस) से करते हैं। परन्तु ज्ञानी या तत्वज्ञानी वह है जो ब्रह्माण्ड के अन्दर मानव का अवतार से मिलन तत्त्वज्ञान के माध्यम से करते हैं। (2) योगी अपने लक्ष्य रूप आत्मा की प्राप्ति हेतु अपने मन को इन्द्रिय रूपी गोलकों से अथार्त बहिर्मुखी से हटाकर /खींचकर अंतर्मुखी बनाते हुये स्वास-प्रस्वास में लगाकर जीव को समाधि अवस्था में आत्मा से मिलन करता है। इसकी ये समस्त क्रियाएँ पिण्ड के अन्तर्गत ही होती हैं। पिण्ड से बाहर योगी की कोई क्रिया-प्रक्रिया नहीं होती है। परन्तु ज्ञानी या तत्त्वज्ञानी अपने लक्ष्य रूप परमात्मा की प्राप्ति हेतु अपने जीवात्मा से युक्त शरीर /पिण्ड को सम्बन्ध /ममता-आसक्ति रूपी सम्बन्धियों से मोह आदि से हटाकर पूर्णतः समर्पण /शरणागत होते हुये सत्संग एवं धर्म संस्थापनार्थ अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को लगाते हुये अनुगामी के रूप में रहता है। (3) योगी का कार्यक्षेत्र मात्र एक पिण्ड के अन्तर्गत ही रहता है परन्तु ज्ञानी का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड होता है। (4) योगी ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप आत्मा से मिलाकर जीवात्मा (हंसो) भाव से मात्र समाधि अवस्था तक ही रहता है। परन्तु ज्ञानी ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप आत्मा से मिलाते हुये परमात्मा से मिलाकर शरणागत भाव से शाश्वत् अद्वैत्तत्त्वबोध रूप में हो जाता है। (5) योगी-मात्र समाधि में ही आत्मामय (हंसो) रूप में रहता है, जैसे ही समाधि टूटती है, वह पुनः सोsहं रूप होते हुये अहंकारी रूप ‘अहम्’ तत्पश्चात् शरीर में फँस जाता है। ठीक इसी प्रकार ज्ञानी शरणागत रूप में ही ‘मुक्त’ अमरता, परमपद, परमतत्त्वमय, पापमुक्त, बन्धन मुक्त, सच्चिदानन्दमय (आत्मतत्त्वम्) रूप में रहता है परन्तु शरणागतभाव के टूटते ही वह पुनः मिथ्याज्ञानभिमानी रूप ‘अहम्’ शरीर में फँस जाता है।
NOTE;-
जहाँ पर दो नदियाँ मिलकर तीसरा रूप लेकर बहती हैं तो वह मिलन-स्थल ही संगम है। परन्तु जहाँ पर तीनों नदियाँ- गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हों, उसकी महत्ता का वर्णन नहीं किया जा सकता। उसमें भी जहाँ अक्षय-वट हो, वह भी भारद्वाज ऋषि जैसे उपदेशक के साथ, तो उसकी महिमा में चार चाँद ही ला देता है। परन्तु यह सारी महिमा मात्र कर्मकांडियों के लिए ही है... योगियों-महात्माओं और ज्ञानियों के लिए नहीं, क्योंकि कर्म-कांड की मर्यादा तभी तक रहती है, जब तक कि योग-साधना नहीं जानी और की जाती और ज्ञान में तो ये कर्मकांडी और योगी-महात्मा सभी आकर विलय कर जाते हैं।
इसलिए योग की इतनी चर्चा करने के बाद भी श्रीकृष्ण ने कहा कि जो मुझमें श्रद्धायुक्त है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं।
... SHIVOHAM....
Comments