क्या है सत्संग का रहस्य ? भक्त के लक्षण क्या है?
सत्संग क्या है?-
04 FACTS;-
1-सत्य में ही तुम जन्मे हो और सत्य से ही जन्में हो।इस जगत में हम अपने से अपरिचित क्यों रह जाते हैं? औरों से परिचित हो जाते हैं, अपने से अपरिचित! कारण इतना ही है कि अपने से हमारी कोई दूरी नहीं है। वहां कौन बने जानने वाला और कौन बने ज्ञान का विषय? कौन हो ज्ञाता, कौन हो ज्ञेय? कौन हो द्रष्टा, कौन हो दृश्य? वहां तो दोनों एक हैं। वहां द्रष्टा ही दृश्य है। और इसीलिए मुश्किल है।इस क्षण जो घट रहा है यह सत्संग है। इधर एक का शून्य तुमसे बोल रहा है, उधर दूसरे का शून्य सुन रहा है। बोलना तो बहाना है। इस निमित्त एक शून्य दूसरे शून्य से मिल रहा है। दो शून्य मिल कर जहां एक हो जाते हैं वहां सत्संग है। और दो शून्य पास आएं तो एक हो ही जाते हैं। दो शून्य मिल कर दो शून्य नहीं होते, एक शून्य होता है। हजार शून्य मिल कर भी एक ही शून्य होगा, हजार नहीं।यह तो मिटने की कला है।वही मिटना महानिर्वाण है, समाधि है। लेकिन तुम अपने को बचा रहे हो ..छिपा रहे हो। तृष्णा से मुक्त होने का मार्ग ही जीवन का राज है। तृष्णा बेपेंदी की बाल्टी है।इसीलिए यहां पीने से प्यास बढ़ती है। भरो, खड़खडाओ कुएं में खूब खींचो, जिंदगी नहीं, अनेक जिंदगी खींचते रहो—खाली के खाली रहोगे! जब भी बाल्टी आएगी, खाली हाथ आएगी। कुएं बदल लो, इस कुएं से उस कुएं पर जाओ .. यही लोग कर रहे हैं। मगर कुओं का क्या कसूर जब बाल्टी वही की वही है।
2-तृष्णा बेपेंदी की बाल्टी ही नहीं है बल्कि उलटी बात है। जैसे कोई घी डाले आग में आग बुझाने को! जितनी तुम तृष्णा करते हो, जितनी तुम वासना करते हो, जितनी तुम कामना करते हो, उतनी ही कामना और प्रज्वलित होती है। तृष्णा में और नया ईंधन गिर जाता है।अगर इसको समझ लिया तो जीवन के राज समझ गए। तुम्हें तृष्णा की व्यर्थता दिखाई पड़ गई तो तृष्णा हाथ से छूट जाएगी। और जहां तृष्णा /कामना /वासना हाथ से छूट गई, तो वहां जो शेष रह जाता है.. वही आत्मा है। तुम ही बचे। एक सन्नाटा बचा! तुम्हारे भीतर वासनाओं का ही शोरगुल है। यह कर लूं ,वह कर लूं ,यह हो जाऊं ,वह हो जाऊं ..यही सब तो तुम्हारे भीतर शोरगुल है । इसी शोरगुल के कारण तुम अपने को भी नहीं देख पा रहे हो। और अपने को ही नहीं देख पा रहे हो, इसलिए किसी को भी नहीं देख पा रहे हो। इसीलिए तो तुम अंधे हो। तुम्हारी आंखों पर धूल ही तुम्हारी तृष्णा की है।इस बाल्टी के फेंक देने का नाम ही ध्यान है। तृष्णारहित चैतन्य का नाम ध्यान है। क्योंकि जहां वासना नहीं है; वहां विचार का जन्म ही नहीं होता। वासना के बीज में ही विचार के अंकुर निकलते हैं। विचार तो वासना का सहयोगी है, उसका साथ देने आता है।
3-इसलिए जब तुम्हें कोई वासना पकड़ लेती है तभी तुम्हारे मन में बहुत विचार उठने लगते हैं ।जब वासना कम होती है तो विचार भी कम होते हैं। और जब वासना बिलकुल नहीं होती तो विचार भी बिलकुल नहीं होते। लोग पूछते हैं, विचारों से कैसे छूटें? वे प्रश्न ही गलत पूछ रहे हैं। विचार तो पत्तों की तरह हैं। पूछो, वासना से कैसे छूटें? तृष्णा को देखो, समझो, पहचानो। तृष्णा के बाहर कोई मार्ग नहीं है। और चूंकि बाहर के मार्ग बताए गए हैं, इससे बड़ी उलझन बढ गई है। पहले धन पाने में लगे थे कि धन पा लूं तो सुख मिलेगा, अब सोचते हो कि राधे राधे जप लूं तो तृष्णा से छूट जाऊं ..सुख मिलेगा। दौड़ वही की वही है— वही सुख पाना है। नहीं; इसलिए परम बुद्धों ने अलग से मार्ग नहीं दिए हैं। कोई कहता है जाओ गंगा स्नान कर आओ। कोई कहता है मंदिर में दान कर आओ। कोई कहता है ब्राह्मणों को भोजन करा दो। कोई कहता है कन्याओं को भोजन करा दो। न मालूम कितनी—कितनी तरकीबें लोगों ने निकाल ली हैं और तुम तरकीबों में फंस जाते हो। तुम यह भी नहीं सोचते कि तृष्णा जैसी चीज गंगा में डुबकी लगाने से छूट जाएगी? जो गंगा के किनारे रहते हैं और रोज डुबकी लगाते हैं, वे भी तृष्णा से उतने ही आतुर हैं।ये उपाय तुम्हारी तृष्णा के केवल नये परिधान बन जाएंगे।
4-लोग एक गुरु से दूसरे गुरु के पास,एक आश्रम से दूसरे आश्रम, एक धर्म से दूसरे धर्म में जाते हैं। बस खोज चल रही है कि...तृष्णा कैसे छूटे?वास्तव में,तृष्णा छोड़ने का और कोई उपाय नहीं है।तृष्णा को ही समझ लो ..उसकी व्यर्थता को देख लो कि तृष्णा कभी भरी ही नहीं जा सकती। इस सत्य को तुम अपनी आंखों से देख लो; बस उस देखने में ही तृष्णा गिर जाती है ..तुम्हारे हाथ से बाल्टी छूट जाएगी।तुम्हें नई बाल्टी नहीं पकड़ानी है ; पुरानी बाल्टी छूट जाए और तुम्हारे हाथ खाली रह जाएं। तुम चकित होकर पाओगे जैसे ही तृष्णा छूट जाती है और नई तृष्णा नहीं पकड़ती, ध्यान लग जाता है , समाधि की सुगंध उड़ने लगती है। आनंद की वर्षा शुरू हो जाती है।दूसरे से सुख नहीं मिलता; सुख स्वयं में छिपा है, वहां खोजना है। और तुम्हारे पास सुख हो तो तुम दूसरों को भी बांट सकते हो।ध्यान से प्रेम की संभावना प्रकट होती है। ध्यान का दीया जलता है तो प्रेम का प्रकाश फैलता है। और दो व्यक्तियों के भीतर ध्यान का दीया जला हो तो विवाह में भी एक आनंद है। वह आनंद भी ध्यान से आ रहा है, विवाह से नहीं आ रहा है ..यह खयाल रखना जरूरी है। और जब तक ऐसा न हो तब तक विवाह एक मजाक है।विवाह के पूर्व ..वर्ष, दो वर्ष गहन ध्यान की प्रक्रिया से गुजरना जरूरी है। फिर इसके बाद विवाह भी विकास का एक अपूर्व अवसर बन सकता हैं ।
भक्त के लक्षण क्या है?-
भक्त का पहला लक्षण है, इस जगत के संबंध में अकारण प्रसन्न रहना, शाश्वत तृप्ति। चाहे जो हो जाए, लाख विपरीतता आने पर भी मुखमंडल पर मुस्कान बनी रहे। भक्त और दुखी, ये दोनों विपरीतार्थक शब्द हैं। आनन्द स्वरूप परमात्मा से जुड़ा हुआ मनुष्य भी यदि दुखी है, तो वो कैसा भक्त है? "मैं तो अच्छा ही करता हूँ, फिर मेरे साथ बुरा क्यों होता है? मेरा क्या कसूर है?" ऐसा कहना ही कसूर है। जो हो रहा है वह भगवान की इच्छा से हो रहा है, उसे गलत समझना ही कसूर है। दूसरी बात, हम अच्छा करें, तो कोई अहसान है किसी पर? अच्छा तो करना ही चाहिए। अगर बुरा करें तो कल हमें ही हानि है, अच्छा करें तो कल हमें ही लाभ है। अच्छा अपने स्वभाववश, अपने ही लाभ के लिए है। दूसरे पर इस बात का क्या दबाव है? तीसरे, जब हमें किसी से कुछ बुरा सुनने को मिला, तो सामने वाले के होठ हिले, बस इसी से हमें भ्रम हो गया कि वो बोल रहा है। जबकि वो नहीं बोलता, वह तो निमित्त मात्र है, हमारा प्रारब्ध ही उनसे वैसा बुलवा लेता है। यदि हम यहाँ न होते, कहीं और, किन्हीं और लोगों के साथ होते, तो वे भी ऐसा ही बोलते। क्योंकि लोग तो बेशक बदल जाते, हमारा माथा तो यही रहता। यह जो बात इनसे कहलवा रहा है, उनसे कहलवा लेता। अगर हमारे भाग्य में गाली खाना न लिखा हो तो कोई हमें गाली नहीं दे सकता है। दूसरा कारण नहीं है। हमारे छोटे से परिवार में भी, कोई किस बात से प्रसन्न होता है, किस बात से नाराज होता है, हम नहीं समझते। पूरी दुनिया में कितने लोग हैं, हमें तो दो चार को ही अपना बनाना है। क्या हम में इतना भी सामर्थ्य नहीं कि इन्हें रिझा सकें? तो भगवान को कैसे रिझाएँगे? जो यहाँ फेल है, वो वहाँ भी फेल है। अपने समय का विभाजन सही प्रकार से कर के, सब कार्यों को बढ़िया से बढ़िया निभाना है। हर काम में प्रेम उतरना चाहिए। हम इनकी नहीं, इनके रूप में भगवान की ही सेवा करते हैं। फिर कोई एकाध गलती हो भी जाए तो गलती नहीं, आखिर गलती उसी से होती है जो कुछ करने निकलता है। बाकी तो उम्र दूसरे की बुराई करने में ही निकाल देते हैं । हमें तो उन भगवान के कड़े से कड़े वचन भी प्राण प्रिय होने चाहिएँ। मीरा ने मुस्कुराते हुए जहर भी पी लिया था।
...SHIVOHAM....
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