क्या हैं प्राणिक हीलिंग?-
प्राण से तात्पर्य ‘‘जीवनीशक्ति’’ से है और यह लगभग सभी संस्कृतियों द्वारा मान्यता प्राप्त है। यह जापानी में ki कहा जाता है, चीनी में ची आदि।प्राण हमारे जीवन का सार तत्व है और हमारी प्रगति का मूल आधार है। यह प्राण तत्व हमारे अन्दर प्रचुर मात्रा में है। यदि हम अपने भीतर इस प्राण का चुम्बकत्व बढ़ा दें तो ब्रह्माण्डीय प्राण या विश्वप्राण को अभीष्ट मात्रा में धारण कर सकते हैं। मानव में निहित इस प्राणउर्जा के भण्डार को ‘‘प्राणमयकोश’’ कहा जाता है। सामान्यत: हमारी यह प्राणऊर्जा प्रसुप्त स्थिति में रहती है तथा इससे शरीर के निर्वाह भर के कार्य ही सम्पन्न हो पाते है ।किन्तु साधना के माध्यम से इस प्रसुप्त प्राण का जागरण संभव है।इस सृष्टि में विभिन्न रंग हैं और प्रत्येक रंग के अनगिनत भेद हैं, इन्ही में से कई हमें सुखद अनुभूति कराते हैं तो कुछ निराशा के प्रतीक भी होते हैं। प्राणिक हीलिंग एक अत्यंत शक्तिशाली विज्ञान है, एक आध्यात्मिक चिकित्सक को इस विज्ञान का प्रयोग करने से पूर्व ध्यान एवं योग की कुछ क्रियाओं का नियमित अभ्यास कर स्वयं को चेतना के एक स्तर पर लाना होता है।
प्राणिक हीलिंग की मदद से मनोविज्ञानिक रोगों भी का इलाज किया जाता है। हीलिंग की मदद से मनोविकार, मिर्गी, चिन्ता, उदासी, भय, आत्महत्या की प्रवृति, शराब या किसी अन्य नशे की लत आदि का उपचार संभव है।प्राणिक हीलिंग की मदद से डायबिटिज, एन्जाईना, हृदय रोग, गुर्दे की पथरी और विकार, आंतों की सूजन, अल्सर, रक्त स्त्राव, आधे सिर का दर्द आदि तथा सौन्दर्य सम्बन्धी विकार भी दूर करता है।प्राण चिकित्सा के अन्तर्गत उपचारक अपने हाथों के माध्यम से ब्रह्माण्डीय प्राणऊर्जा को ग्रहण करके हाथों द्वारा ही रोगी व्यक्ति में प्रक्षेपित करता हैं। इस प्रकार इस चिकित्सा पद्धति में चिकित्सक रोगी की प्राणशक्ति को प्रभावित करके उसे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है।प्राण चिकित्सा के द्वारा न केवल दूसरों का वरन् स्वयं का भी उपचार किया जा सकता है। इस प्रकार यह पद्धति स्वयं के लिये और दूसरों के लिये समान रूप से उपयोगी हैं।अपने अनेक बार अनुभव किया होगा कि जो लोग अत्यधिक प्राणवान् होते हैं, उनके आसपास रहने वाले लोग भी उनके सान्निध्य में स्वयं को ऊर्जावान एवं अच्छा महसूस करते हैं क्योंकि जिनमें प्राणऊर्जा की कमी होती है, वे अनायास ही अधिक उर्जा वाले व्यक्ति से जीवनीशक्ति ग्रहण करते हैं। इसलिये कमजोर एवं निर्बल प्राणशक्ति वाले ही स्वयं को अत्यधिक थका हुआ अनुभव करते हैं।
प्राणशक्ति अधिक से कम की ओर स्थान्तरित होती है ।न केवल इंसान वरन् कुछ पेड़-पौधे भी ऐसे हैं, जो अन्य पौधों की तुलना में अधिक प्राणऊर्जा छोड़ते है और इनके पीछे बैठने या लेटने पर हम स्वयं को अत्यधिक प्राणवान् अनुभव करते हैं। पीपल के पेड़ को अत्यधिक चैतन्य माना जाता है और यह एक ऐसा पेड़ है जो दिन एवं रात दोनों समय ऑक्सीजन छोड़ता है। इसलिये भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक दृष्टि से भी पीपल के वृक्ष का अत्यन्त महत्व है और इसकी पूजा की जाती है। प्राणियों एवं वनस्पतियों के समान कुछ स्थान विशेष भी अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक प्राणशक्ति से युक्त होते हैं। जैसे-मंदिर, चर्च, तीर्थस्थल में जाकर हमें अत्यधिक शांति महसूस होती है। यह सब प्राण ऊर्जा की ही विशेषता है।इस प्रकार विश्वव्यापी प्राण एक महान् तत्व है, जो संसार के समस्त जड़-चेतन पदार्थों में भिन्न-भिन्न मात्रा में पाया जाता है। हमारे शरीर में बहने वाला विद्युत प्रवाह इसी प्राण तत्व का अंश है।प्राण उर्जा कोई काल्पनिक विचार नहीं है।क्योकि जब रोगी व्यक्ति के मस्तक पर हाथ फेरा जाये तो उसे अच्दा अनुभव होता है। इसके पीछे यह वैज्ञानिक कारण है कि एक व्यक्ति की प्राण उर्जा दूसरे व्यक्ति में जो कमजोर या बीमार है, उसमें प्रविष्ट होकर उसे प्रसन्नता एवं आनन्द प्रदान करती है।
हम अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करके इस प्राणऊर्जा द्वारा अद्भुत कार्य कर सकते हैं। जिस प्रकार आतिशी शीशे द्वारा जब सूर्य की किरणों को एक जगह इकट्ठा किया जाता है, तो उर्जा के केन्द्रीकरण के कारण वहाँ अग्नि जल उठती है, इसी प्रकार प्राणचिकित्सा में, जब उपचारक द्वारा प्राण उर्जा को रोगी के अंगविशेष पर जब प्रक्षेपित किया जाता है तो इसके आश्चर्यजनक परिणाम आते हैं। प्राण उर्जा हमारे सम्पूर्ण शरीर में प्रवाहित होती है।प्राण के तीन मुख्य स्रोत बताये गये हैं- (1) सौर प्राणशक्ति (2) वायु प्राणशक्ति (3) भू या भूमि प्राणशक्ति।
सौर प्राणशक्ति -
सूर्य से प्राप्त होने वाली उर्जा को ‘‘सौरप्राणशक्ति’’ कहा जाता है। सूर्य प्राणउर्जा का अक्षय स्रोत है। इसे जगत् की आत्मा कहा जाता है। सूर्य के प्राणीमात्र में नवजीवन का संचार होता है। सूर्य से प्राणशक्ति प्राप्त करने के अनेक तरीके हैं। जैसे सूर्य या धूप स्नान, धूप में रखे हुये पानी या तेल का प्रयोग करके इत्यादि।यह अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है और पूरे शरीर energizes करता है। 5 या 10 मिनट के लिए sunbathing द्वारा सौर प्राण ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं । लेकिन बहुत ज्यादा सौर प्राण शरीर के लिए हानिकारक हो सकता है। धूप स्नान लेते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि प्रात: कालीन सूर्य की रोशनी ही हमारे लिये स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। अत्यधिक तेज धूप में लम्बे समय तक खड़े रहने पर हमारे शरीर को हानि पहुँच सकती है।
2-वायु प्राणशक्ति -
वायुमंडल में पाये जाने वाली उर्जा को वायुप्राणशक्ति या प्राणवायु कहते हैं। वायुप्राण को ग्रहण करने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम श्वसन क्रिया है। श्वसन क्रिया के द्वारा हम अधिकतम प्राण उर्जा को ग्रहण कर सकें इस हेतु हमारी श्वास-प्रश्वास दीर्घ हो, उथली नहीं। अत: प्राणायाम के द्वारा हम सहजतापूर्वक वायुप्राणशक्ति को ग्रहण कर सकते हैं। विशेष प्रकार का प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति वायु पा्रण को त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों के द्वारा भी ग्रहण कर सकते हैं।हवा में सांस लेने से, प्राण हमारे फेफड़ों द्वारा अवशोषित हो जाती है। यह ऊर्जा भी चक्र केन्द्रों द्वारा सीधे अवशोषित हो जाती है। यह वायु प्राण ऊर्जा धीमी गति से लयबद्ध और गहरी साँस लेने द्वारा अधिक प्राप्त करना संभव है।
3-भू प्राणशक्ति -
पृथ्वी या भूमि में पायी जाने वाली प्राणशक्ति को भू प्राणशक्ति कहते है। भूमि के माध्यम से हम निरन्तर भप्राणशक्ति को ग्रहण करते रहते हैं। यह प्रक्रिया स्वत: ही होती रहती है। भू प्राण को हम पैर के तलुवों के माध्यम से प्राप्त करते हैं। नंगे पैर भूमि पर चलने से भू प्राणउर्जा की मात्रा में वृद्धि होती है। इस प्रकार आप जान गये होंगे की सूर्य, वायुमंडल और भूमि-प्राणशक्ति के ये तीन मुख्य स्रोत हैं।जमीन प्राण पृथ्वी में मौजूद जीवन ऊर्जा से प्राप्त होता है। नंगे पांव चलने से यह ऊर्जा हमारे पैरों के तलवों द्वारा अवशोषित हो जाती है।यह प्राण ऊर्जा अधिक काम करने के लिए शरीर की क्षमता को बढ़ाने के लिए है।
प्राणिक हीलिंग उपचार की विशेषता;-
02 FACTS;-
1-उपचार की इस विधि में ना तो मरीज को स्पर्श किया जाता है और न ही किसी प्रकार की कोई दवा दी जाती है।यह कोई जादू ,अन्ध विश्वास या सम्मोहन कला नहीं है।यह कोई परासामान्य विद्या नहीं, बल्कि प्रकृति के उन नियमों पर आधारित है जिससे हम अनभिज्ञ हैं । यह एक वैज्ञानिक विद्या है जो प्राण ऊर्जा पर आधारित है । प्राण शरीर और इसमें स्थित चक्रों को देख कर रोग का पता लगाया जाता है। इलाज के पूर्व इसी द्वारा जांच की जाती है । इस ऊर्जा से कई प्रकार के रोगों का उपचार किया जाता है ।
2-रैकी, एक्यूप्रेशर, स्पर्श चिकित्सा, मानसिक उपचार, विश्वास उपचार, एक्यूपन्चर, चुम्बक थैरेपी, आदि अनेक चिकित्सा प्रणालियां प्राण ऊर्जा पर ही आधारित है।'प्राण' सूक्ष्म ऊर्जाएं होती है जो स्थूल शरीर बनाती है । इसी सूक्ष्म शरीर को आभामण्डल कहते हैं । किरलियन फोटोग्राफी द्वारा आभामण्डल का फोटो लेना इसका प्रमाण है । इसमे रोगी को स्पर्श नहीं किया जाता है न ही कोई दवाई दी जाती है ।बुरी ऊर्जा नष्ट करने के उपरांत प्राणिक हीलर दोनों हाथों से शुद्ध-वायु, पेड़-पौधे, वनस्पति एवं प्राणदाता सूर्य आदि से खगोलीय ऊर्जा को संग्रहीत कर रोगग्रस्त व्यक्ति के अंग विशेष संबंधी ऊर्जा-चक्र पर ध्यान केंद्रित करते हुए उसे ऊर्जा प्रदान करता है। ऊर्जा देने की प्रक्रिया को हीलिंग कहते हैं।प्राणिक हीलिंग उपचार के भी कई अलग अलग रूप हैं...
2-1-सीधा उपचार :-
इस प्रकार के उपचार में प्राणिक हीलर द्वारा रोगी को अपने ठीक सामने बैठाकर उपचार किया जाता है।हीलर रोगी को अपने समक्ष बैठाकर उसकी खराब ऊर्जा को इलाज करने वाला अपने हाथों से दूर करता है। इस पद्धति में रोगग्रस्त व्यक्ति के सामने की ओर एक पात्र में नमक मिश्रित जल रख दिया जाता है और माना जाता है कि उसके शरीर से निकाली गई बुरी ऊर्जा का उस जल में विलय कर दिया जाता है।
2-2-दूरस्थ उपचार :-
प्राणिक हीलिंग से उपचार का यह माध्यम उन लोगों के लिए ज्यादा कारगर साबित होता है जो इलाज कराने हीलर के पास नहीं आ पाते, इस प्रक्रिया में रोगी की अनुपस्थिति में भी उपचार संभव है।
2-3-स्वयं की हीलिंग: -
ध्यान देने वाली बता यह हैं कि प्राणिक हीलिंग का एक खास लाभ यह भी है कि इसकी मदद से ना सिर्फ आप खुद को प्रशिक्षित कर सकते हैं बल्कि स्वयं अपने को स्वस्थ भी रख सकते है।
प्राण चिकित्सा की विधि;-
02 FACTS;-
1-प्राणशक्ति उपचार या प्राणचिकित्सा अपने आप में कोई नयी चिकित्सा प्रणाली नहीं है, वरन् हमारे ऋषि-मुनियों, योगियों,
महापुरुषों के वरदानों-ेआशीर्वादों के रूप में अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है।प्राण चिकित्सा में सभी रोगों का मूल कारण एक ही माना जाता है और वह है-प्राणऊर्जा का असंतुलित होना। इसलिये सभी रोगों के इलाज की पद्धति भी एक ही है। प्राण चिकित्सा की सभी प्रक्रियायें मूलत: मार्जन एवं उर्जन की दो आधारभूत विधियों पर आधारित है। दूषित प्राण को शरीर से बाहर निकालना अर्थात् मार्जन या सफाई करना और स्वस्थ प्राण ऊर्जा को रोगी के शरीर में प्रवेश करना अर्थात उत्र्जन।
2-इस प्रकार प्राणचिकित्सा में हर रोग की दवा अलग-अलग नहीं है, वरन् रोग का निदान करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है अर्थात रोग शरीर के किस भाग में है? रोग की स्थिति क्या है? रोग शरीर में क्या विकृति उत्पन्न कर रहा है? इन सभी बातों को ध्यान में रखकर रोग का सफल निदान करने के बाद उपचार प्रारंभ करना चाहिये। उपचारक को इलाज करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जब रोग शरीर में प्रवेश करता है तो उसकी गति बाहर से भीतर की और एवं नीचे से ऊपर की ओर रहती है, लेकिन रोग जब ठीक होने की स्थिति में होता है तो उसकी गति बदल जाती है अर्थात् उसकी गति भीतर से बाहर की ओर एवं ऊपर से नीचे की ओर हो जाती है। अत: रोग की गति की दिशा के आधार पर हम यह आसानी से पता लगा सकते है कि इस समय रोग का प्रकोप हो रहा है या रोग ठीक हो रहा है।
प्राण चिकित्सा की सावधानियॉ;-
06 FACTS;-
1-प्राण चिकित्सा में सभी रोगों का मूल कारण एक ही माना जाता है और वह है-प्राणउर्जा का असंतुलित होना ।
रोगी की आन्तरिक आभा की जाँच के दौरान जिन अंगों की आभा में खोखलापन प्रतीत हो तो वहाँ उर्जा कम होती है। यह प्राणशक्ति के कम होने का संकेत है।
2-स्वास्थ्य आभा को जाँचने के लिये पहले वाली स्थिति में ही रहते हुये धीरे-धीरे थोड़ा आगे की ओर बढ़ना चाहिये।
अब उपचारक को अपने हथेलियों के मध्यभाग में ध्यान केन्द्रित करते हुये धीरे-धीरे रोगी की ओर बढ़ना चाहिये और रोगी की बाहरी आभा को महसूस करना चाहिये।
3-हाथों की संवेदनशीलता के लिये लगभग एक महीने की अवधि तक इस प्रकार का अभ्यास करना चाहिये।
सर्वप्रथम उपचारक को जीभ को तालू पर लगाना चाहिये। उपचारक को इलाज करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जब रोग शरीर में प्रवेश करता है तो उसकी गति बाहर से भीतर की और एवं नीचे से ऊपर की ओर रहती है, लेकिन रोग जब ठीक होने की स्थिति में होता है तो उसकी गति बदल जाती है अर्थात् उसकी गति भीतर से बाहर की ओर एवं ऊपर से नीचे की ओर हो जाती है। अत: रोग की गति की दिशा के आधार पर हम यह आसानी से पता लगा सकते है कि इस समय रोग का प्रकोप हो रहा है या रोग ठीक हो रहा है।अब जब हथेलियों में पुन: संवेदना महसूस होने पर रूक जाना चाहिये। ये संवेदन पहले की अपेक्षा थोड़े तीव्र हो सकते हैं। ये स्वास्थ्य आभा की निशानी हैं।
4-निदान - रोग की पहचान करना तथा उसके कारणों का पता लगाना।
5-प्रक्षेपित प्राणउर्जा - उपचारक या हीलर द्वारा रोगी को दी गई जीवनशक्ति
6-चक्र - उर्जा केन्द्र । प्राणचिकित्सा में 11 बड़े या प्रमुख चक्र तथा अन्य छोटे चक्र माने गये है।
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