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गुप्त नवरात्री ...द्वितीय महाविद्या माँ उग्रतारा मन्त्र साधना ..PART-01

1-दस महाविद्या में माँ का दूसरा रूप तांत्रिकों की प्रमुख देवी तारा का है, जिनकी सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ ने आराधना की थी। माँ तारा नील ग्रीवा हैं ।सृष्टि उत्पत्ति के समय प्रकाश के रूप में प्राकट्य हुआ इस लिए तारा नाम से विख्यात हुई। किन्तु देवी तारा को महानीला या नील तारा कहा जाता है क्योंकि उनका रंग नीला है। जिसके सम्बन्ध में कथा आती है कि जब सागर मंथन हुआ तो सागर से हलाहल विष निकला, जो तीनों लोकों को नष्ट करने लगा। तब समस्त राक्षसों देवताओं ऋषि मुनिओं नें भगवान शिव से रक्षा की गुहार लगाई। भूत बावन शिव भोले नें सागर मंथन से निकले कालकूट नामक विष को पी लिया।सर्वविघ्नों का नाश करने वाली ‘महाविद्या तारा’, स्वयं भगवान शिव को अपना स्तन दुग्ध पान कराकर हलाहल की पीड़ा से मुक्त करने वाली है। भगवती तारा के तीन स्वरूप तारा, एकजटा और नील सरस्वती हैं, शिव के दस रुद्रावतारों में दूसरा अवतार तारकेश्वर नाम से प्रचलित है। तारकेश्वर अवतार की शक्ति देवी तारा मानी जाती हैं, माँ तारा को भगवान शिवशंकर की भी माता माना गया है इसी कारण यह समस्त जगत की माँ हैं। इनकी साधना का प्रचलित मंत्र है, “ॐ ह्रीं स्त्रीं हुम फट”

2-देवी महा-काली ने हयग्रीव नमक दैत्य के वध हेतु नीला वर्ण धारण किया तथा उनका वह उग्र स्वरूप उग्र तारा के नाम से विख्यात हुआ। ये देवी या शक्ति, प्रकाश बिंदु के रूप में आकाश के तारे के समन विद्यमान हैं, फलस्वरूप देवी तारा नाम से विख्यात हैं। शक्ति का यह स्वरूप सर्वदा मोक्ष प्रदान करने वाली तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार के घोर संकटों से मुक्ति प्रदान करने वाली हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध ‘मुक्ति’ से हैं, फिर वह जीवन और मरण रूपी चक्र हो या अन्य किसी प्रकार के संकट मुक्ति हेतु

भगवान शिव द्वारा, समुद्र मंथन के समय हलाहल विष का पान करने पर, उनके शारीरिक पीड़ा (जलन) के निवारण हेतु, इन्हीं ‘देवी तारा’ ने माता के स्वरूप में शिव जी को अपना अमृतमय दुग्ध स्तन पान कराया था। जिसके कारण भगवान शिव को समस्त प्रकार के शारीरिक पीड़ा से मुक्ति मिली, देवी, जगत-जननी माता के रूप में और घोर से घोर संकटों कि मुक्ति हेतु प्रसिद्ध हुई। देवी तारा के भैरव, हलाहल विष का पान करने वाले अक्षोभ्य शिव हुए, जिनको उन्होंने अपना दुग्ध स्तन पान कराया। जिस प्रकार इन महा शक्ति ने, भगवान शिव के शारीरिक कष्ट का निवारण किया, वैसे ही देवी अपने उपासकों के घोर कष्टों और संकट का निवारण करने में समर्थ हैं तथा करती हैं।

मुख्यतः देवी की आराधना-साधना मोक्ष प्राप्त करने हेतु, वीरा-चार या तांत्रिक पद्धति से की जाती हैं, परन्तु भक्ति भाव युक्त सधाना ही सर्वोत्तम हैं, देवी, के परम भक्त बामा खेपा ने यह सिद्ध भी किया।

संपूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी ज्ञान इधर उधर फैला हुआ हैं, उनके एकत्रित होने पर इन्हीं देवी के रूप का निर्माण होता हैं तथा वह समस्त ज्ञान इन्हीं देवी का मूल स्वरूप ही हैं, कारणवश इनका एक नाम नील-सरस्वती भी हैं।


देवी का निवास स्थान घोर महा-श्मशान हैं, जहाँ सर्वदा चिता जलती रहती हो तथा ज्वलंत चिता के ऊपर, देवी नग्न अवस्था या बाघाम्बर पहन कर खड़ी हैं। देवी, नर खप्परों तथा हड्डियों के मालाओं से अलंकृत हैं तथा सर्पों को आभूषण के रूप में धारण करती हैं। तीन नेत्रों वाली देवी उग्र तारा स्वरूप से अत्यंत ही भयानक प्रतीत होती हैं।


प्रथम “उग्र तारा” अपने उग्र तथा भयानक रूप हेतु जानी जाती हैं। देवी का यह स्वरूप अत्यंत उग्र तथा भयानक हैं, ज्वलंत चिता के ऊपर, शव रूपी शिव या चेतना हीन शिव के ऊपर, देवी प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी हैं। देवी उग्र तारा, तमो गुण सम्पन्न हैं तथा अपने साधकों-भक्तों के कठिन से कठिन परिस्थितियों में पथ प्रदर्शित तथा छुटकारा पाने में सहायता करती हैं।


द्वितीय “नील सरस्वती” इस स्वरूप में देवी संपूर्ण ब्रह्माण्ड के समस्त ज्ञान कि ज्ञाता हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी ज्ञान इधर-उधर बिखरा हुआ पड़ा हैं, उन सब को एकत्रित करने पर जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती हैं, वे ये देवी नील सरस्वती ही हैं। इस स्वरूप में देवी राजसिक या रजो गुण सम्पन्न हैं। देवी परम ज्ञानी हैं, अपने असाधारण ज्ञान के परिणाम स्वरूप, ज्वलंत चिता के शव को शिव स्वरूप में परिवर्तित करने में समर्थ हैं।



तृतीय “एकजटा” यह देवी का तीसरे स्वरूप या नाम हैं, पिंगल जटा जुट वाली यह देवी सत्व गुण सम्पन्न हैं तथा अपने भक्त को मोक्ष प्रदान करती हैं मोक्ष दात्री हैं। ज्वलंत चिता में सर्वप्रथम देवी, उग्र तारा के रूप में खड़ी हैं, द्वितीय नील सरस्वती, शव को जीवित कर शिव बनाने में सक्षम हैं तथा तीसरे स्वरूप में देवी एकजटा जीवित शिव को अपने पिंगल जटा में धारण करती हैं या मोक्ष प्रदान करती हैं। देवी अपने भक्तों को मृत्युपरांत, अपनी जटाओं में विराजित अक्षोभ्य शिव के साथ स्थान प्रदान करती हैं या कहे तो मोक्ष प्रदान करती हैं।


देवी अन्य आठ स्वरूपों में ‘अष्ट तारा’ समूह का निर्माण करती है तथा विख्यात हैं,


१. तारा, २. उग्र तारा, ३. महोग्र तारा, ४. वज्र तारा, ५. नील तारा, ६. सरस्वती, ७. कामेश्वरी, ८. भद्र काली-चामुंडा।


सभी स्वरूप गुण तथा स्वभाव से भिन्न-भिन्न है तथा भक्तों की समस्त प्रकार के मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ, सक्षम हैं।


देवी उग्र तारा के स्वरूप का वर्णन


मां तारा, प्रत्यालीढ़ मुद्रा (जैसे की एक वीर योद्धा, अपने दाहिने पैर आगे किये युद्ध लड़ने हेतु उद्धत हो) धारण कर, शव या चेतना रहित शिव के ऊपर पर आरूढ़ हैं। देवी के मस्तक पंच कपालों से सुसज्जित हैं, नव-यौवन संपन्न हैं, नील कमल के समान तीन नेत्रों से युक्त, उन्नत स्तन मंडल और नूतन मेघ के समान कांति वाली हैं। विकट दन्त पंक्ति तथा घोर अट्टहास करने के कारण देवी का स्वरूप अत्यंत उग्र प्रतीत होता हैं। देवी का स्वरूप बहुत डरावना और भयंकर हैं तथा वास्तविक रूप से देवी, चिता के ऊपर जल रही शव पर आरूढ़ हैं तथा इन्होंने अपना बायाँ पैर शव रूपी शिव के छाती पर रखा हैं। देवी घोर नील वर्ण की हैं,


महा-शंख (मानव कपाल) की माला धारण किये हुए हैं, वह छोटे कद की हैं तथा कही-कही देवी अपनी लज्जा निवारण हेतु बाघाम्बर भी धारण करती हैं। देवी के आभूषण तथा पवित्र यज्ञोपवीत सर्प हैं, साथ ही रुद्राक्ष तथा हड्डियों की बानी हुई आभूषणों को धारण करती हैं। वह अपनी छोटी लपलपाती हुई जीभ मुंह से बाहर निकले हुए तथा अपने विकराल दन्त पंक्तियों से दबाये हुए हैं। देवी के शरीर से सर्प लिपटे हुए हैं, सिर के बाल चारों ओर उलझे-बिखरे हुए भयंकर प्रतीत होते हैं। देवी चार हाथों से युक्त हैं तथा नील कमल, खप्पर (मानव खोपड़ी से निर्मित कटोरी), कैंची और तलवार धारण करती हैं।



तारा देवी, ऐसे स्थान पर निवास करती हैं जहाँ सर्वदा ही चिता जलती रहती हैं तथा हड्डियाँ, खोपड़ी इत्यादि इधर-उधर बिखरी पड़ी हुई होती हैं, सियार, गीदड़, कुत्ते इत्यादि हिंसक जीव इनके चारों ओर देखे जाते हैं।


देवी तारा के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा


स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, देवी तारा की उत्पत्ति मेरु पर्वत के पश्चिम भाग में, चोलना नदी के तट पर हुई। हयग्रीव नाम के दैत्य के वध हेतु देवी महा-काली ने ही, नील वर्ण धारण किया था। महाकाल संहिता के अनुसार, चैत्र शुक्ल अष्टमी तिथि में ‘देवी तारा’ प्रकट हुई थीं, इस कारण यह तिथि तारा-अष्टमी कहलाती हैं, चैत्र शुक्ल नवमी की रात्रि तारा-रात्रि कहलाती हैं।


एक और देवी तारा के उत्पत्ति संदर्भ कथा ‘तारा-रहस्य नमक तंत्र’ ग्रन्थ से प्राप्त होता हैं; जो भगवान विष्णु के अवतार, श्री राम द्वारा लंका-पति दानव राज दशानन रावण का वध के समय से हैं।


सर्वप्रथम स्वर्ग-लोक के रत्नद्वीप में वैदिक कल्पोक्त तथ्यों तथा वाक्यों को देवी काली के मुख से सुनकर, शिव जी अपनी पत्नी पर बहुत प्रसन्न हुए। शिव जी ने महाकाली से पूछा, आदि काल में अपने भयंकर मुख वाले रावण का विनाश किया, तब आश्चर्य से युक्त आप का वह स्वरूप ‘तारा’ नाम से विख्यात हुआ। उस समय, समस्त देवताओं ने आप की स्तुति की थी तथा आप अपने हाथों में खड़ग, नर मुंड, वार तथा अभय मुद्रा धारण की हुई थी, मुख से चंचल जिह्वा बहार कर आप भयंकर रुपवाली प्रतीत हो रही थी। आप का वह विकराल रूप देख सभी देवता भय से आतुर हो काँप रहे थे,



आपके विकराल भयंकर रुद्र रूप को देखकर, उन्हें शांत करने के निमित्त ब्रह्मा जी आप के पास गए थे। समस्त देवताओं को ब्रह्मा जी के साथ देखकर देवी, लज्जित हो आप खड़ग से लज्जा निवारण की चेष्टा करने लगी। रावण वध के समय आप अपने रुद्र रूप के कारण नग्न हो गई थी तथा स्वयं ब्रह्मा जी ने आपकी लज्जा निवारण हेतु, आपको व्याघ्र चर्म प्रदान किया था। इसी रूप में देवी ‘लम्बोदरी’ के नाम से विख्यात हुई। तारा-रहस्य तंत्र के अनुसार, भगवान राम केवल निमित्त मात्र ही थे, वास्तव में भगवान राम की विध्वंसक शक्ति देवी तारा ही थी, जिन्होंने लंका पति रावण का वध किया।


देवी तारा से सम्बंधित अन्य तथ्य


सर्वप्रथम वशिष्ठ मुनि ने देवी तारा कि आराधना की थी, परिणाम स्वरूप देवी ’वशिष्ठाराधिता’ के नाम से भी जानी जाती हैं। सर्वप्रथम मुनि-राज ने देवी तारा की उपासना वैदिक पद्धति से कि, परन्तु वे देवी की कृपा प्राप्त करने में सफल नहीं हो सके। अलौकिक शक्तियों से उन्हें ज्ञात हुआ की देवी की आराधना का क्रम चीन देश में रहने वाले भगवान बुद्ध को ज्ञात हैं, वे उन के पास जाये तथा साधना का सही क्रम, पद्धति जानकर देवी तारा की उपासना करें।


तदनंतर वशिष्ठ मुनि ने चीन देश की यात्रा की तथा भगवान बुद्ध से आराधना का सही क्रम ज्ञात किया, जिसे चिनाचार पद्धति, वीर साधना या आगमोक्ता पद्धति (तंत्र) कहा गया। भगवान बुद्ध के आदेश अनुसार उन्होंने चिनाचार पद्धति से देवी की आराधना की तथा देवी कृपा लाभ करने में सफल हुए। (बंगाल प्रान्त के बीरभूम जिले में वह स्थान आज भी विद्यमान हैं, जहाँ मुनिराज ने देवी की आराधना की थी, जिसे जगत-जननी तारा माता के सिद्ध पीठ ‘तारा पीठ’ के नाम से जाना जाता हैं।)



‘तारा’ नाम के रहस्य से ज्ञात होता हैं, ये तारने वाली हैं, मोक्ष प्रदाता हैं। जीवन तथा मृत्यु के चक्र से तारने हेतु, यह नाम ‘तारा’ देवी के नाम-रहस्य को उजागर करता हैं। महाविद्याओं में देवी दूसरे स्थान पर विद्यमान हैं तथा देवी अपने भक्तों को ‘वाक्-शक्ति’ प्रदान करने तथा भयंकर विपत्तिओ से अपने भक्तों की रक्षा करने में समर्थ हैं। शत्रु नाश, भोग तथा मोक्ष, वाक् शक्ति प्राप्ति हेतु देवी कि साधना विशेष लाभकारी सिद्ध होती हैं।


सामान्यतः तंत्रोक्त पद्धति से साधना करने पर ही देवी की कृपा प्राप्त की जा सकती हैं।


देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध श्मशान भूमि से हैं, जो उनका निवास स्थान हैं। साथ ही श्मशान से सम्बंधित समस्त वस्तुओं-तत्वों जैसे मृत देह, हड्डी, चिता, चिता-भस्म, भूत, प्रेत, कंकाल, खोपड़ी, उल्लू, कुत्ता, लोमड़ी इत्यादि से देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। गुण तथा स्वभाव से देवी तारा, महा-काली से युक्त हैं।


देवी उग्र तारा, अपने भक्तों के जीवन में व्याप्त हर कठिन परिस्थितियों से रक्षा करती हैं। देवी के साधक नाना प्रकार के सिद्धियों के युक्त होते हैं, गद्ध-पद्ध-मयी वाणी साधक के मुख का कभी परित्याग नहीं करती हैं, त्रिलोक मोहन, सुवक्ता, विद्याधर, समस्त जगत को क्षुब्ध तथा हल-चल पैदा करने में साधक पूर्णतः समर्थ होता हैं। कुबेर के धन के समान धनवान, निश्चल भाव से लक्ष्मी वास तथा काव्य-आगम आदि शास्त्रों में शुक देव तथा देवगुरु बृहस्पति के तुल्य हो जाते हैं, मूर्ख हो या जड़ वह बृहस्पति के समान हो जाता हैं।



साधक ब्रह्म-वेत्ता होने का सामर्थ्य रखता हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव के की साम्यता को प्राप्त कर, समस्त पाशों से मुक्त हो ब्रह्मरूप मोक्ष पद को प्राप्त करते हैं। पशु भय वाले इस संसार से मुक्ति लाभ करता हैं या अष्ट पाशों (घृणा, लज्जा, भय, शंका, जुगुप्सा, कुल, शील तथा जाति) में बंधे हुए पशु आचरण से मुक्त हो, मोक्ष (तारिणी पद) को प्राप्त करने में समर्थ होता हैं।


देवी काली तथा तारा में समानतायें


देवी काली ही, नील वर्ण धारण करने के कारण ‘तारा’ नाम से जानी जाती हैं तथा दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। जैसे दोनों शिव रूपी शव पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये हुए आरूढ़ हैं, अंतर केवल देवी काली शव रूपी शिव पर आरूढ़ हैं तथा देवी तारा जलती हुई चिता पर आरूढ़ हैं। दोनो। दोनों का निवास स्थान श्मशान भूमि हैं, दोनों देवियों की जिह्वा मुंह से बाहर हैं तथा भयंकर दन्त-पंक्ति से दबाये हुए हैं, दोनों रक्त प्रिया हैं, भयानक तथा डरावने स्वरूप वाली हैं,


भूत-प्रेतों से सम्बंधित हैं, दोनों देवियों का वर्ण गहरे रंग का हैं एक गहरे काले वर्ण की हैं तथा दूसरी गहरे नील वर्ण की। दोनों देवियाँ नग्न विचरण करने वाली हैं, कही-कही देवी काली कटे हुई हाथों की करधनी धारण करती हैं, नर मुंडो की माला धारण करती हैं वही देवी तारा व्यग्र चर्म धारण करती हैं तथा नर खप्परों की माला धारण करती हैं।



दोनों की साधना तंत्रानुसार पंच-मकार विधि से की जाती हैं, सामान्यतः दोनों एक ही हैं इनमें बहुत काम भिन्नताएं दिखते हैं। दोनों देवियों का वर्णन शास्त्रानुसार शिव पत्नी के रूप में किया गया हैं तथा दोनों के नाम भी एक जैसे ही हैं जैसे, हर-वल्लभा, हर-प्रिया, हर-पत्नी इत्यादि, ‘हर’ भगवान शिव का एक नाम हैं। परन्तु देवी तारा ने, भगवान शिव को बालक रूप में परिवर्तित कर, अपना स्तन दुग्ध पान कराया था। समुद्र मंथन के समय कालकूट विष का पान करने के परिणाम स्वरूप, भगवान शिव के शरीर में जलन होने लगी तथा वे तड़पने लगे, देवी ने उन के शारीरिक कष्ट को शांत करने हेतु अपने अमृतमय स्तन दुग्ध पान कराया। देवी काली के सामान ही देवी तारा का सम्बन्ध निम्न तत्वों से हैं।


श्मशान वासिनी तामसिक, विध्वंसक प्रवृत्ति से सम्बंधित रखने वाले देवी देवता मुख्यतः श्मशान भूमि में वास करते हैं। व्यवहारिक दृष्टि से श्मशान वह स्थान हैं, जहाँ शव के दाह का कार्य होता हैं। परन्तु आध्यात्मिक या दार्शनिक दृष्टि से श्मशान का अभिप्राय कुछ और ही हैं, यह वह स्थान हैं जहाँ ‘पंच या पञ्च महाभूत’ या देह में विद्यमान स्थूल तत्त्व, चिद्-ब्रह्म में विलीन होते हैं। आकाश, पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि इन महा भूतों से संसार के समस्त जीवों के देह का निर्माण होता हैं, समस्त जीव शरीर या देह इन्हीं पंच महाभूतों का मिश्रण हैं। श्मशान वह स्थान हैं जहाँ पञ्च भूत या तत्त्व के मिश्रण से निर्मित देह, अपने-अपने तत्त्व में विलीन हो जाते हैं।


तामसी गुण से सम्बद्ध रखने वाले देवी-देवता, श्मशान भूमि को इसी कारण-वश अपना निवास स्थान बनाते हैं। देवी काली, तारा, भैरवी इत्यादि देवियाँ श्मशान भूमि को अपना निवास स्थान बनती हैं, इसका एक और महत्त्वपूर्ण कारण हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से श्मशान विकार रहित हृदय या मन का प्रतिनिधित्व करता हैं, मानव देह कई प्रकार के विकारों का स्थान हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, स्वार्थ इत्यादि, अतः देवी उसी स्थान को अपना निवास स्थान बनती हैं जहाँ इन विकारों या व्यर्थ के आचरणों का दाह होता हैं। मन या हृदय भी वह स्थान हैं या कहें तो वह श्मशान हैं, जहाँ इन समस्त विकारों का दाह होता हैं अतः देवी काली-तारा अपने उपासकों के विकार शून्य हृदय पर ही वास करती हैं।



चिता मृत देह के दाह संस्कार हेतु, लकड़ियों के ढेर के ऊपर शव को रख कर जला देना, चिता कहलाता हैं। साधक को अपने श्मशान रूपी हृदय में सर्वदा ज्ञान रूपी अग्नि जलाये रखना चाहिए, ताकि अज्ञान रूपी अंधकार को दूर किया जा सके।


देवी का आसन देवी शव रूपी शिव पर विराजमान हैं या कहे तो शव को अपना आसन बनाती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप ही शव में चैतन्य का संचार होता हैं। बिना शक्ति के शिव, शव के ही सामान हैं, चैतन्य हीन हैं। देवी की कृपा लाभ से ही, देह पर प्राण रहते हैं।


करालवदना या घोररूपा देवी काली, तारा घनघोर या अत्यंत काले वर्ण की हैं तथा स्वरूप से भयंकर और डरावनी हैं। परन्तु देवी के साधक या देवी जिन के हृदय में स्थित हैं, उन्हें डरने के आवश्यकता नहीं हैं, स्वयं काल या यम भी देवी से भय-भीत रहते हैं।


पीनपयोधरा देवी काली-तारा के स्तन बड़े तथा उन्नत हैं, यहाँ तात्पर्य हैं कि देवी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से तीनों लोकों का पालन करती हैं। अपने अमृतमय दुग्ध को आहार रूप में दे कर देवी अपने साधक को कृतार्थ करती हैं।



प्रकटितरदना देवी काली-तारा के विकराल दन्त पंक्ति बहार निकले हुए हैं तथा उन दाँतो से उन्होंने अपने जिह्वा को दबा रखा हैं। यहाँ देवी रजो तथा तमो गुण रूपी जिह्वा को, सत्व गुण के प्रतीक उज्ज्वल दाँतो से दबाये हुए हैं।


मुक्तकेशी देवी के बाल, घनघोर काले बादलों की तरह बिखरे हुए हैं और ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे कोई भयंकर आँधी आने वाली हो।


संक्षेप में देवी तारा से सम्बंधित मुख्य तथ्य


मुख्य नाम : तारा।


अन्य नाम : उग्र तारा, नील सरस्वती, एकजटा।


भैरव : अक्षोभ्य शिव, बिना किसी क्षोभ के हलाहल विष का पान करने वाले।


भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान राम।


कुल : काली कुल।


दिशा : ऊपर की ओर।


स्वभाव : सौम्य उग्र, तामसी गुण सम्पन्न।


वाहन : गीदड़।


सम्बंधित तीर्थ स्थान या मंदिर : तारापीठ, रामपुरहाट, बीरभूम, पश्चिम बंगाल, भारत; सुघंधा, बांग्लादेश तथा सासाराम, बिहार, भारत।


कार्य : मोक्ष दात्री, भव-सागर से तारने वाली, जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से मुक्त करने वाली।


शारीरिक वर्ण : नीला।


द्वितीय महाविद्या तारा की कृपा से सभी शास्त्रों का पांडित्य, कवित्व प्राप्त होता हैं, साधक बृहस्पति के समान ज्ञानी हो जाता हैं। वाक् सिद्धि प्रदान करने से ये नील सरस्वती कही जाती हैं, सुख, मोक्ष प्रदान करने तथा उग्र आपत्ति हरण करने के कारण इन्हें ताराणी भी कहा जाता हैं।


देवी की साधना एकलिंग शिव मंदिर (पाँच कोस क्षेत्र के मध्य एक शिव-लिंग), श्मशान भूमि, शून्य गृह, चौराहे, शवासन, मुंडों के आसन, गले तक जल में खड़े हो कर, वन में करने का शास्त्रों में विधान हैं। इन स्थानों पर देवी की साधना शीघ्र फल प्रदायक होती हैं, विशेषकर सर्व शास्त्र वेत्ता होकर परलोक में ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करता हैं।



मत्स्य सूक्त के अनुसार कोमलासन (जिसका मुंडन संस्कार न हुआ हो या छः से दस मास के भीतर के गर्भच्युत मृत बालक), कम्बल का आसन, कुशासन अथवा विशुद्ध आसन पर बैठ कर ही देवी तारा की आराधना करना उचित हैं। नील तंत्र के अनुसार पाँच वर्ष तक के बालक का मृत देह भी कोमलासन की श्रेणी में आता हैं, कृष्ण मृग या मृग तथा व्याघ्र चर्म आसन पूजा में विहित हैं।


लक्ष्मी, सरस्वती, रति, प्रीति, कीर्ति, शांति, तुष्टि, पुष्टि रूपी आठ शक्तियां नील सरस्वती की पीठ शक्ति मानी जाती हैं, देवी का वाहन शव हैं।


ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव तथा परमशिव को षट्-शिव (६ शिव) कहा जाता हैं।


तारा, उग्रा, महोग्रा, वज्रा, काली, सरस्वती, कामेश्वरी तथा चामुंडा ये अष्ट तारा नाम से विख्यात हैं। देवी के मस्तक में स्थित अक्षोभ्य शिव अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।


महा-शंख माला जो मनुष्य के ललाट के हड्डियों से निर्मित होती हैं तथा जिस में ५० मणियाँ होती हैं, से देवी की साधना करने का विधान हैं। कान तथा नेत्र के बीज के भाग को या ललाट का भाग महा-शंख कहलाता हैं, इस माला का स्पर्श तुलसी, गोबर, गंगा-जल तथा शाल-ग्राम से कभी नहीं करना चाहिये।



देवी की कृपा से साधक प्राण ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करता है



गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए


देवी अज्ञान रुपी शव पर विराजती हैं और ज्ञान की खडग से अज्ञान रुपी शत्रुओं का नाश करती हैं


लाल व नीले फूल और नारियल चौमुखा दीपक चढाने से देवी होतीं हैं प्रसन्न


देवी के भक्त को ज्ञान व बुद्धि विवेक में तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पता!


माँ तारा की कृपा से साधक प्राण ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करता है


गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए


देवी अज्ञान रुपी शव पर विराजती हैं और ज्ञान की खडग से अज्ञान रुपी शत्रुओं का नाश करती हैं


महाविद्या तारा के मन्त्र से होता है बड़े से बड़े दुखों का नाश देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है।


1. बिल्व पत्र, भोज पत्र और घी से हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है


2.मधु. शर्करा और खीर से होम करने पर वशीकरण होता है


3.घृत तथा शर्करा युक्त हवन सामग्री से होम करने पर आकर्षण होता है।


4. काले तिल व खीर से हवन करने पर शत्रुओं का स्तम्भन होता है।


विशेष पूजा सामग्रियां– पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है। सफेद या नीला कमल का फूल चढ़ाना,रुद्राक्ष से बने कानों के कुंडल चढ़ाना, अनार के दाने प्रसाद रूप में चढ़ाना, शंख को देवी पूजा में रखना भोजपत्र पर ह्रीं लिख करा चढ़ाना, दूर्वा, अक्षत, रक्तचंदन, पंचगव्य, पञ्चमेवा व पंचामृत चढ़ाएं, पूजा में उरद की दाल व लौंग काली मिर्च का चढ़ावे के रूप प्रयोग करें।


2-देवी सकल ब्रह्म अर्थात परमेश्वर की शक्ति है, देवी की प्रमुख सात कलाएं हैं जिनसे देवी ब्रहमांड सहित जीवों तथा देवताओं की रक्षा भी करती है ये सात शक्तियां हैं

१) परा २) परात्परा ३) अतीता ४) चित्परा ५) तत्परा ६) तदतीता ७) सर्वातीता

इन कलाओं सहित देवी का धन करने या स्मरण करने से उपासक को अनेकों विद्याओं का ज्ञान सहज ही प्राप्त होने लगता है,देवी तारा के भक्त के बुद्धिबल का मुकाबला तीनों लोकों मन कोई नहीं कर सकता, भोग और मोक्ष एक साथ देने में समर्थ होने के कारण इनको सिद्धविद्या कहा गया है |देवी तारा ही अनेकों सरस्वतियों की जननी है इस लिए उनको नील सरस्वती कहा जाता है।देवी का भक्त प्रखरतम बुद्धिमान हो जाता है जिस कारण वो संसार और सृष्टि को समझ जाता है।अक्षर के भीतर का ज्ञान ही तारा विद्या है।भवसागर से तारने वाली होने के कारण भी देवी को तारा कहा जाता है।देवी बाघम्बर के वस्त्र धारण करती है और नागों का हार एवं कंकन धरे हुये हैदेवी का स्वयं का रंग नीला है और नीले रंग को प्रधान रख कर ही देवी की पूजा होती है।देवी तारा के तीन रूपों में से किसी भी रूप की साधना बना सकती है। समृद्ध, महाबलशाली और ज्ञानवानसृष्टि की उत्पत्ति एवं प्रकाशित शक्ति के रूप में देवी को त्रिलोकी पूजती है। ये सारी सृष्टि देवी की कृपा से ही अनेक सूर्यों का प्रकाश प्राप्त कर रही है।शास्त्रों में देवी को ही सवित्राग्नी कहा गया है ।देवी की स्तुति से देवी की कृपा प्राप्त होती है।

स्तुति:–प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासा पराखड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा,खर्वा नीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युताजाड्यन्न्यस्य कपालिके त्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं

देवी की कृपा से साधक प्राण ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करता हैगृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिएदेवी अज्ञान रुपी शव पर विराजती हैं और ज्ञान की खडग से अज्ञान रुपी शत्रुओं का नाश करती हैंलाल व नीले फूल और नारियल चौमुखा दीपक तारा देवी यंत्र चढाने से देवी होतीं हैं प्रसन्नदेवी के भक्त को ज्ञान व बुद्धि विवेक में तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पतादेवी की मूर्ती पर रुद्राक्ष चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती हैमहाविद्या तारा के मन्त्रों से होता है बड़े से बड़े दुखों का नाश |

श्री सिद्ध तारा महाविद्या महामंत्र


ह्रीं स्त्रीं हुं फट


इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं जैसे १- बिल्व पत्र, भोज पत्र और घी से हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती २:-मधु. शर्करा और खीर से होम करने पर वशीकरण होता ह३.घृत तथा शर्करा युक्त हवन सामग्री से होम करने पर आकर्षण होता है।३:-काले तिल व खीर से हवन करने पर शत्रुओं का स्तम्भन होता है।

देवी के तीन प्रमुख रूपों के तीन महा मंत्रमहाअंग है देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं तारा ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती हैसफेद या नीला कमल का फूल चढ़ानारुद्राक्ष से बने कानों के कुंडल चढ़ानाअनार के दाने प्रसाद रूप में चढ़ानासूर्य शंख को देवी पूजा में रखनाभोजपत्र पर ह्रीं लिख करा चढ़ानादूर्वा,अक्षत,रक्तचंदन,पंचगव्य,पञ्चमेवा व पंचामृत चढ़ाएंपूजा में उर्द की ड़ाल व लौंग काली मिर्च का चढ़ावे के रूप प्रयोग करेंसभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ:—– ॐ क्रोद्धरात्री स्वरूपिन्ये नम:


१:- देवी तारा मंत्र – ह्रीं स्त्रीं हुं फट


२:-देवी एक्जता मंत्र – ह्रीं त्री हुं फट


३:- नील सरस्वती मंत्र – ह्रीं त्री हुं


सभी मन्त्रों के जाप से पहले अक्षोभ्य ऋषि का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिएसबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करेंयन्त्र के पूजन की रीति है पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं, ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करेंदेवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करेंतारा शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैंतारा शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए-

तारणी तरला तन्वी तारातरुण बल्लरी,तीररूपातरी श्यामा तनुक्षीन पयोधरा,तुरीया तरला तीब्रगमना नीलवाहिनी,उग्रतारा जया चंडी श्रीमदेकजटाशिरा

देवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करेंअब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र १:- देवी तारा का भय नाशक मंत्र ॐ त्रीम ह्रीं हुं नीले रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें पुष्पमाला,अक्षत,धूप दीप से पूजन करेंरुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करेंमंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता हैनीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखेंपूर्व दिशा की ओर मुख रखेंआम का फल प्रसाद रूप में चढ़ाए शत्रु नाशक मंत्र ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: हुं उग्रतारे फट नारियल वस्त्र में लपेट कर देवी को अर्पित करेंगुड से हवन करेंरुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करेंएकांत कक्ष में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता हैकाले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखेंउत्तर दिशा की ओर मुख रखेंपपीता फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं

जादू टोना नाशक मंत्र हुं ह्रीं क्लीं सौ: हुं फट देसी घी ड़ाल कर चौमुखा दीया जलाएंकपूर से देवी की आरती करेंरुद्राक्ष की माला से ११ माला का मंत्र जप करें

लम्बी आयु का मंत्र हुं ह्रीं क्लीं हसौ: हुं फट रोज सुबह पौधों को पानी देंरुद्राक्ष की माला से ५ माला का मंत्र जप करें शिवलिंग के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता हैभूरे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें पूर्व दिशा की ओर मुख रखेंसेब का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं

सुरक्षा कवच का मंत्र हुं ह्रीं हुं ह्रीं फट देवी को पान व पञ्च मेवा अर्पित करेंरुद्राक्ष की माला से ५ माला का मंत्र जप करेंमंत्र जाप के समय उत्तर की ओर मुख रखेंकिसी खुले स्थान में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता

काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखेंउत्तर दिशा की ओर मुख रखें पपीता केले व अमरुद का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएंदेवी की पूजा में सावधानियां व निषेध-

बिना अक्षोभ ऋषि की पूजा के तारा महाविद्या की साधना न करेंकिसी स्त्री की निंदा किसी सूरत में न करेंसाधना के दौरान अपने भोजन आदि में लौंग व इलाइची का प्रयोग नकारेंदेवी भक्त किसी भी कीमत पर भांग के पौधे को स्वयं न उखाड़ेंटूटा हुआ आइना पूजा के दौरान आसपास न रखे श्रीं स्त्रीं गन्धं समर्पयामि , श्रीं स्त्रीं पुष्पं समर्पयामि | , श्रीं स्त्रीं धूपं आध्रापयामि , श्रीं स्त्रीं दीपं दर्शयामि। , श्रीं स्त्रीं नैवेद्यं निवेदयामि |

साधक को पूजन में तेल का दीपक लगाना चाहिए तथा भोग के रूपमें कोई भी फल या स्वयं के हाथ से बनी हुई मिठाई अर्पित करे. इसके बाद साधक निम्न रूप से न्यास करे. इसके अलावा इस प्रयोग के लिए साधक देवी विग्रह का अभिषेक शहद से करे.

करन्यास

श्रीं स्त्रीं अङ्गुष्ठाभ्यां नम: श्री महापद्मे तर्जनीभ्यां नम: पद्मवासिनी मध्यमाभ्यां नमः

ॐ द्रव्यसिद्धिं अनामिकाभ्यां नम: स्त्रीं श्रीं कनिष्टकाभ्यां नमः हूं फट करतल करपृष्ठाभ्यां नमः

हृदयादिन्यास

श्रीं स्त्रीं हृदयाय नम: श्री महापद्मे शिरसे स्वाहा ,श्री पद्मवासिनी शिखायै वषट् श्री द्रव्यसिद्धिं कवचाय हूं स्त्रीं श्रीं नेत्रत्रयाय वौषट् हूं फट अस्त्राय फट्

न्यास के बाद साधक को देवी तारा का ध्यान करना है.

ध्यायेत कोटि दिवाकरद्युति निभां बालेन्दु युक् शेखरां

रक्ताङ्गी रसनां सुरक्त वसनांपूर्णेन्दु बिम्बाननाम्

पाशं कर्त्रि महाकुशादि दधतीं दोर्भिश्चतुर्भिर्युतां

नाना भूषण भूषितां भगवतीं तारां जगत तारिणीं

इस प्रकार ध्यान के बाद साधक देवी के निम्न मन्त्र की १२५ माला मन्त्र जाप करे. साधक यह जाप शक्ति माला, मूंगामाला से या तारा माल्य से करे तो उत्तम है. अगर यह कोई भी माला उपलब्ध न हो तो साधक को स्फटिक माला या रुद्राक्ष माला से जाप करना चाहिए.


१:-ऐं ह्रीं स्त्रीं हुं फ़ट।। २:- हौं तारा तूरी स्वाहा ॥३:- ऐं हौं ह्रीं क्रीं हुं फ़ट


किसी भी एक मंत्र का जाप रात्रि काल में ९ से ३ बजे के बीच करना चाहिये.

साधना से पहले गुरु से तारा दीक्षा लेना लाभदायक होता है



द्वितीय महाविद्या माँ उग्रतारा मन्त्र साधना अघोर साधना जो कि बहुत उग्र साधना बहुत ही अच्छी और शीघ्र सफलता प्रदान करने वाली साधना है ,नवीन साधकों को इस साधना को करने से पहले अपने आधार को मजबूत कर लेना चाहिएनहा धोकर साफ प्लेट में तारा देवी का तारा यंत्र सामने रक्ख कर धुप दीप लगा कर ही मंत्र जाप करें


साधना को करने के पहले गणेश, शिव व चामुंडा गुरू मंत्र का जाप होना अति आवश्यक है जिस से इस साधना की ऊर्जा को शरीर में ग्रहण कर सके, ग्रहण काल में करें तो ज्यादा अच्छा है तथा पूज्य गुरुदेव से अनुमति प्राप्त करके ही इस साधना में संलग्न होना चाहिए ।नहा धोकर साफ प्लेट में तारा देवी का तारा यंत्र सामने रक्ख कर धुप दीप लगा कर ही मंत्र जाप करें


साधना को करने के पहले गणेश, शिव व चामुंडा गुरू मंत्र का जाप होना अति आवश्यक है जिस से इस साधना की ऊर्जा को शरीर में ग्रहण कर सके, ग्रहण काल में करें तो ज्यादा अच्छा है तथा पूज्य गुरुदेव से अनुमति प्राप्त करके ही इस साधना में संलग्न होना चाहिए ।


गणेश मंत्र

ऊँ गं गणपत्ये नमः


5 माला


शिव मंत्र

ऊँ नमः शिवाय


10 माला जाप


गुरू मंत्र

ऊँ ह्रीं गुरूवे नमः


5 माला जाप के बाद ही मिल मंत्र का जाप करें.


उग्र तारा महामंत्र:-


।। ॐ ह्ल्रीं ह्ल्रीं उग्र तारे क्रीं क्रीं फट् ।।


अक्षोभ्य मंत्र:-


।। ॐ स्त्रीं आं अक्षोभ्य स्वाहा ।।


माला लाल हकीक अथवा रुद्राक्ष ।

दिशा दक्षिण।

आसन मृगचर्म का हो तो अति उत्तम है नहीं तो ऊनी लाल आसन का उपयोग कर सकते हैं

तिथि ग्रहण काल।

जाप संख्या 108 माला।


उग्र तारा तंत्र मंत्र साधना

सर्वप्रथम गुरु मंत्र से हवन करो और भस्म बनाओ ।

ये क्रिया ग्रहण काल से पहले किसी दिन कर लेना।ग्रहण के दिन उस भस्म में सिंदूर और शुध्द जल व इत्र घोलकर एक पिंड बनाओ ।

पिंड का निर्माण करते समय पिंड में माँ तारा एवं गुरुदेव का ध्यान करो यही पिंड माँ तारा का प्रतीकात्मक यन्त्र है।

अब इसी पिंड से सिन्दूर लेकर अपने मस्तक पर तिलक करो।

पिंड को लाल कपड़ा बिछाकर जो की श्रुति हो एक मिटटी के बर्तन या मिट्टी की प्लेट में स्थापित करना है और पंचोपचार पूजन कर लाल पुष्प अर्पित करन हैं ।

शरीर पर कमर से ऊपर कोई भी सिला हुआ वस्त्र नहीं होना चाहिए ।

लाल धोती का उपयोग कर सकते हैं अगर बंद कमरे में दिगंबर अवस्था में कर सको तो सर्वोत्तम है।

साधना से पूर्व गुरु मंत्र की 11 माला और अक्षोभ्य मंत्र की 11 माला अवश्य करना।

साधना की समाप्ति पर गुरुदेव को जप समर्पित करो, माँ को दंडवत प्रणाम करो और माँ से अपने हृदय कमल में निवास करने हेतु प्रार्थना करो।

...SHIVOHAM....









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