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गुप्त पूर्णिमाँ नवरात्रि”, क्या है इनका धार्मिक महत्व? और कैसे माँ पूर्णिमाँ करती हैं मनोकामनाओं को

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Aug 19, 2022
  • 6 min read

1-नवरात्र शब्द से 'नव अहोरात्र' अर्थात विशेष रात्रियों का बोध होता है। इन रात्रियों में प्रकृति के बहुत सारे अवरोध खत्म हो जाते हैं। दिन की अपेक्षा यदि रात्रि में आवाज दी जाए तो वह बहुत दूर तक जाती है। इसीलिए इन रात्रियों में सिद्धि और साधना की जाती है। हमारे शरीर में 9 छिद्र हैं। दो आंख, दो कान, नाक के दो छिद्र, दो गुप्तांग और एक मुंह। उक्त नौ अंगों को पवित्र और शुद्ध करेंगे तो मन निर्मल होगा और छठी इंद्री को जाग्रत करेगा। नींद में यह सभी इंद्रियां या छिद्र लुप्त होकर बस मन ही जाग्रत रहता है।नवरात्रि के विषय में जिज्ञासा लेकर एक बार षोढषी देवियो-अरुणी,यज्ञई,तरुणी,उरूवा,मनीषी,सिद्धा,इतिमा,दानेशी,धरणी,आज्ञेयि,यशेषी,ऐकली,नवेशी मद्यई,हंसी सहित नारद और सनकादिक मुनियों ने भगवती सत्यई पूर्णिमाँ से अपनी समाधिआत्मलोक में प्रश्न किया की ...'हे महादेवी आपकी चार नवरात्रियाँ है।यह चार माह है:- पौष, चैत्र, आषाढ और अश्विन। उनमे दो चैत्र और अश्विन की प्रत्यक्ष नवरात्रि संसारी लोगों के लिए बताई है और दो गुप्त नवरात्रियाँ तांत्रिकों या तांत्रिक साधना करने वालों के लिए पूजनीय बनाई है ।इनका सत्य रहस्य क्या और क्यों है कृप्या बताये'?

2-तब देवी पूर्णिमा बोली कि - 'हे आत्मतत्व प्राप्त महादेवीयों और देहातीत सनकादिक मुनियों जिस प्रकार मनुष्य के चार कर्म होते है-अर्थ-काम-धर्म और मोक्ष और उनके चतुर्थ धर्म होते है- ब्रह्मचर्य(शिक्षाकाल)-ग्रहस्थ(प्रयोगकाल)-वानप्रस्थ(ज्ञानदान गुरुकाल)-मोक्ष(आत्मसाक्षात्कार काल) और इन्ही की कर्म और धर्म व्याख्या करते ईश्वरीय उपदेश चार वेद् है और इन चारों कर्म धर्म को मानने वाले दो आत्मजीव-पुरुष और स्त्री है तथा इनकी तीसरी आत्मवस्था प्रलय और सृष्टि के मध्य की महालयावस्था बीज है। यो मनुष्य की त्रिगुण यानि तीन जीवंत अवस्था है- 1-पुरुष 2-स्त्री 3-बीज । जो प्रत्यक्ष जीवन में किन्नरों के रूप में संसार में है यो इन त्रिगुणों के चार+चार+चार=बारह भाग है। यही काल चक्र भी कहलाता है। जिसका संक्षिप्त संसारी रूप समय और इनके मध्य सन्धि यानि प्रलय और सृष्टि के बीच का शून्यकाल का नाम क्षण कहलाता है। यह क्षण अति रहस्य पूर्ण विज्ञानं योग है। जिसे सामान्य मनुष्य नही जानता है इसी “क्षण विज्ञानं” के चार स्तर है समय के मध्य वर्तमान युग की समय प्रणाली में देखे जा सकते है-12-3-6-9 का समय चक्र जिसे प्रातः-मध्य-साय-रात्रि भी कहते है।

ठीक यही कालचक्र में बारह युग है-चार पुरुषकाल जिनके नाम- 1-सतयुग 2-त्रैतायुग 3-द्धापर युग 4-कलियुग और चार स्त्री युग है- 1-सिद्धियुग 2-चिद्धियुग 3-तपियुग 4-हंसीयुग । और ठीक ऐसे ही चार बीज युग है। जिनके नाम इस प्रकार से है- 1-पुनर्जा युग 2-सोम युग 3-रास युग 4-सम युग । यो ये सारे पुरुष और स्त्री और बीज युग मिलाकर बारह युगों के उपरांत ही महाप्रलय आती है। इस महाप्रलय का यथार्थ अर्थ है कि अब पुरुष के सम्पूर्णत्त्व में स्त्री का सम्पूर्ण सहयोग होता है। जैसे- पुरुष प्रधान चारों युगों में सत्यनारायण से लेकर ब्रह्मा,विष्णु-शिव,राम,कृष्ण,महावीर,बुद्ध और विश्व धर्म में जरुथुस्त्र,पान कू,जीयस,आई जानामी,मूसा,ईसा,मोहम्मद,कलिक अवतार गुरु गोविंद सिंह। यो बारह पुरुष अवतार हुए है और अब वर्तमान में स्त्रीयुग का प्रथम युग... सिद्धियुग का प्रथम चरण का प्रारम्भ है। तभी चारों और स्त्री का सर्वभौमिक उन्नति सभी क्षेत्रों में हो रही है। इसी तीन पुरुष और स्त्री और बीज के चार युगों को प्रत्येक वर्ष में तीन+तीन+तीन+तीन के मध्य के चार सन्धिकालों को, जिनका नाम प्रलय और सृष्टि के मध्य का शून्यकाल बताया है।

यही चार रात्रियाँ है। जिनमे नव रात्रि और दस दिन मिलाकर नवरात्रि कहलाती है। यही क्षण का महा रूप है। यही एक महातत्व अद्धैत ईश्वर रूपी महाबीज से द्धैत का एक रूप पुरुष और एक रूप स्त्री और तीसरा रूप त्रितत्व बीज किन्नरों की सृष्टि होती है और एक बार इन्ही सब त्रितत्वों का उस एक्त्त्व अद्धैत ईश्वर जिसका नाम प्रेम है। उसमेँ प्रलय होकर शांति होती है ये एक प्रकार से स्त्री और पुरुष की प्रेमावस्था का नाम ही है। यो ये चारों नवरात्रियाँ को प्रत्येक मनुष्य को अवश्य मनानी चाहिए। क्योकि इसी चारों काल में- 1-काल 2-महाकाल 3-अकालतत्व 4-महाक्षण की प्राप्ति होती है। जिसमे जप-तप-दान करने से प्रत्येक मनुष्य को अपनी आत्मा का साक्षात्कार होता है। उसे पता चलता है की- कोहम- मैं कौन हूँ? मेरा क्या आत्म उद्धेश्य है? सोहम-मैं वही शाश्वत आत्मा हूँ। और सत्यास्मि यानि मैं अजर अमर आजन्मा सम्पूर्ण सत्य निराकार यानि अति सूक्ष्म से सूक्ष्म और साकार आत्म तत्व हूँ। मैं अपने आत्म आनन्द को स्वं जन्मा हूँ और अपने आत्म आनन्द को सारे आत्मकर्म करता हूँ और अंत में मैं अपने आत्म आनन्द में ही शेष हो जाता हूँ। यही मेरी स्वं सृष्टि से लेकर मेरा स्वं में प्रलय और मोक्ष कहलाता है। यो मनुष्य को अपने प्रथम से नौ आत्म प्रश्नों यानि विभक्ति के नौ भावों की यानि नौ उत्तरों- 1-कोहम् 2-सोहम 3-ब्रह्मास्मि 4-हरिओम 5-शिवोहम् 6-आस्मि 7-अस्मि 8-स्मि 9-सत्यास्मि के रूप में प्राप्ति ही “नवधा भक्ति” का नाम नवरात्रि कहलाता है। यो प्रत्येक नवरात्रि अमावस के अंत में प्रथम दिन यानि प्रतिपदा से नवम दिन पूर्ण होकर दसवें दिन दशहरे को सम्पूर्ण होती है और इन नवधा भक्ति की सप्तसती मुझ पूर्णिमा पर समाप्त होती है। यो ये चार पूर्णिमा-

1-चैत्र नवरात्रि के उपरांत की प्रथम पूर्णिमा “प्रेम पूर्णिमा”

2-ज्येष्ठ नवरात्रि के उपरांत की पूर्णिमा “गुरु पूर्णिमा”

3- अश्विन नवरात्रि के उपरांत की पूर्णिमा “महारास पूर्णिमा ”

4-माघ या पौष में पड़ने वाली अंतिम नवरात्रि के उपरांत की पूर्णिमा “मोक्षीय पूर्णिमा” आदि अनेक धार्मिक नामों और महत्त्वपूर्ण अर्थो से पड़ती है।

यो यही आत्मज्ञान की प्राप्ति इस चतुर्थ नवरात्रियों में प्राप्त होती है। ये चार नवरात्रियों में चैत्र नवरात्रि “अर्थ” को और अश्विन नवरात्रि “धर्म” नामक धर्म को प्रदान करने के कारण संसारी यानि भौतिक कहलाती और मनाने का उपदेश दिया है। और ज्येष्ठ नवरात्रि “काम” और पौष नवरात्रि “मोक्ष” नामक धर्म को प्रदान करने के कारण गुप्त यानि आध्यात्मिक नवरात्रि कहलाती है जिन्हें संसारिक कर्मो से विरक्त मनुष्य अपनी आत्म उन्नति को क्रम बद्ध प्रकार से करने के कारण तांत्रिक यानि चौसठ प्रकार की तन्मात्राओं के ज्ञान और क्रम से करने वालों को करने का उपदेश किया है। जबकि ये सभी मनुष्यों को मनानी चाहिए और इन चार पूर्णिमाओं को जो भी भक्त मनाता है। वो अवश्य सम्पूर्णता को प्राप्त होता है।यो हे देवियो और सनकादिक मुनियों सहित नारद आदि सभी सन्तों और सभी श्रदालु भक्त मेरे सहित श्रीभगपीठ पर जल सिंदूर का जलाभिषेक अथवा सामान्य विधि से केवल मुझे व् मेरी दोनों संतान अरजं और हंसी और श्रीभग पर जल सिंदूर से नवरात्रि के आलावा नित्य पूजन समय तिलक कर अपने तिलक लगता है। उसके सम्पूर्ण ग्रहदोष कालसर्प,पितृदोष,संतान पीड़ा,निसंतान दोष, धन आदि के सभी ऋण, पति पत्नी के परस्पर अनावश्यक विरोध, घर में वास्तु दोष, अनेक काल अकाल संकट रोग आदि, शत्रु के द्धारा किये गए तंत्र मंत्र यंत्र आदि के गुप्त मुठ चौकी उच्चाटन वशीकरण आदि सभी तत्काल नष्ट हो कर सर्व सुखों की प्राप्ति होती है यो संशय रहित होकर मेरे कहे इन अभय वचनों को नित्य आचरण में लाओ'।

NOTE;-

महावतार सत्यई पूर्णिमाँ के ये महावचनों को सभी ने श्रद्धा पूर्वक सुना और इस अभयदान और सर्व संकटों के सबसे सरल उपाय नित्य तिलक लगाने के नियम से भक्तों का किस प्रकार कल्याण होगा इस विश्वास पर अपना जय घोष करते हुए अपने अपने स्थानों को प्रस्थान किया। तो सभी श्रद्धालु भक्तों अपने अपने पूजाघर में श्रीमद् महावतार सत्यई पूर्णिमाँ के चित्र को प्रतिष्ठित करें और उस पर नित्य जल सिंदूर का तिलक करते हुए अपने भी तिलक लगाये और सर्व संकट से मुक्ति पाते हुए सभी भौतिक आधात्मिक लाभ ले और पूर्णिमा के दिन और रविवार के दिन अखंड घी की ज्योत अपने पूजाघर में जलाये और खीर का भोग देवी को लगा स्वयं ग्रहण करें और साय को घर में जो भी बने वो भोजन खाये। यही पूर्णिमाँ का सहज व्रत की कल्याण कारी विधि है। और इस पौष के उपरांत वाली मोक्ष नवरात्रि को भी नव दिन की अखण्ड ज्योत और पूजन अवश्य करें। नवरात्रि का प्रारम्भ- प्रातः ब्रह्म महूर्त में देवी-सत्यई पूर्णिमाँ की स्थापना और जल और सिंदूर से उनको और उनकी गोद में विराजमान-पुत्री-हंसी और पुत्र-अरजं(अमोघ) को भी तिलक लगा कर पूजा करें और सत्य ॐ पूर्णिमाँ चालीसा और आरती करें और सत्यास्मि ग्रन्थ का पाठ अपने समयानुसार कम या अधिक करें।

1-देवी-अरुणी और यज्ञई की पूजा करें।

2- देवी-तरुणी और उर्वा की पूजा करें।

3-देवी-मनीषा और सिद्धा की पूजा करें।

4-देवी-इतिमा और दानेशी की पूजा करें।

5-देवी-धरणी और आज्ञेयी की पूजा करें।

6-देवी-यशेषी और एकली की पूजा करें।

7-देवी-नवेषी और मद्यई की पूजा करें।

8-देवी-हंसी की पूजा करें।

9-महादेवी पूर्णिमाँ की पूजा करते हुए नवरात्रि का पारण यानि आत्मसात समापन करें।।

विशेष:- नवरात्रि जप के लिए सम्पूर्ण सिद्धिदात्री महामंत्र- ॐ अरुणी,यज्ञई,तरुणी,उर्वा,मनीषा,सिद्धा,इतिमा,दानेशी,धरणी,आज्ञेयी,यशेषी,एकली,नवेषी,मद्यई,हंसी,सत्यई पूर्णिमाँयै नमः स्वाहा।।यदि ये महामंत्र स्मरण नहीं हो तो भक्त-सिद्धासिद्ध महामंत्र-“सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट् स्वाहा”” से नवरात्रि का सम्पूर्ण फल प्राप्त कर सकते है।।


.....SHIVOHAM....








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