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चक्र और प्राणशक्ति उपचार

चक्र और प्राणशक्ति उपचार;-


07 FACTS;-


1-आभा मंडल को ऊर्जा-शरीर भी कहते हैं। हमारे तीन शरीर हैं - सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर और कारण शरीर। सूक्ष्म शरीर (आत्मा) अति सूक्ष्म व अदृश्य है। यह आत्मा ही चेतना का उत्सर्जन करती है जिसे प्राण भी कहा जाता है। स्थूल शरीर हमारा यह दृश्य शरीर है। यह शरीर ही हमारे क्रिया-कलापों का केंद्र है जिसमें शक्ति संचित है। यह सूक्ष्म शरीर को धारण करता है तथा अदृश्य रूप में कारण शरीर का भी केंद्र है। सूक्ष्म शरीर की उत्सर्जित चेतना अथवा प्राण के कारण यह जीवित रहता है। प्राण ऊर्जा के अशक्त होने से शरीर में प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है तथा रोगों का जन्म होता है। कारण शरीर अदृश्य रूप में स्थूल शरीर के बाहर उससे लिपटा रहता है। इस कारण शरीर पर मानसिक एवं भावनात्मक विचार प्रभाव डालते रहते हैं । किसी भी प्रकार की क्षति अथवा वाह्य या आंतरिक कारण पहले कारण शरीर पर प्रभाव डालता है जिससे आभा मंडल क्षति ग्रस्त हो जाता है तथा यह प्रभाव स्थूल शरीर पर प्रत्यावर्तित होकर उसे रुग्ण बना देता है।


2-हमारा कारण शरीर एक कवच की भांति स्थूल शरीर का एक प्रकार का आवरण है और जहां यह एक ओर मानसिक व भावनात्मक विचारों से प्रभावित होता है वहीं दूसरी ओर निरंतर ब्रह्मांडीय ऊर्जा से निकट संपर्क में रहता है। इस कारण ब्रह्माण् डीय-ऊर्जा में विद्यमान नकारात्मक एवं सकारात्मक ऊर्जाएं निरंतर कारण एवं स्थूल शरीर को प्रभावित करती रहती हैं। स्थूल शरीर पर रोगों का प्रभाव, शरीर के किसी स्थान विशेष पर नकारात्मक ऊर्जा के जमाव को दर्शाता है। इसमें शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास हो जाता है तथा शरीर के अंदर स्वाभाविक गति से प्रभावित होने वाले ऊर्जा पथ में अवरोध आ जाता है जिसे स्थानीय ऊर्जा चक्र प्रदर्शित कर देते हैं।आध्यात्मिक उपचारक उस स्थानीय चक्र पर एकत्रित नकारात्मक ऊर्जा को झाड़ कर उसे दैवीय अग्नि में भस्म कर देता है अथवा अंतरिक्ष में प्रवाहित कर देता है।इस प्रक्रिया में वह निरीक्षण करता हुआ यह पता करता रहता है कि वह चक्र नकारात्मक ऊर्जा के जमाव से मुक्त हुआ अथवा नहीं। फिर उसके बाद वह सकारात्मक ऊर्जा के प्रक्षेपण से उस चक्र को स्वस्थ एवं स्वाभाविक दशा में ले आता है। ये सभी क्रियाएं अदृश्य रूप में होती हैं जिनमें प्रवाहक अपने स्वयं के चक्रों एवं संकल्प शक्ति का प्रयोग करता है।


3-केवल स्पर्श की क्रिया ही दिखाई देती है जिसमें वह स्थानीय एक या उससे अधिक चक्रों को स्पर्श करता है तथा शेष सभी क्रियाएं अदृश्य ही होती हैं। स्थूल शरीर के ऊर्जा पथ पर विद्यमान ऊर्जा चक्र, जो एक प्रकार से ऊर्जा परिभ्रमित पथ पर स्थापित एक ‘जंक्शन स्टेशन’ की भांति कार्य करते हैं, उस स्थान विशेष की ऊर्जा उत्सर्जन की स्थिति को दर्शाते हैं। ये ऊर्जा चक्र योग शास्त्र में वर्णित हैं ।यह सभी चक्र स्थान विशेष एवं पंच तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन चक्रों से ऊर्जा के अवरोधन अथवा अत्यधिक उत्सर्जन की स्थिति का पता चल जाता है तथा उस स्थान विशेष का पता लग जाता है जिसके ऊपर किसी रोग का प्रभाव है। उपचारक उस चक्र विशेष पर ऊर्जा के नकारात्मक प्रभाव को हटाकर, सकारात्मक ऊर्जा का प्रेक्षपण करता है जिससे वह स्थान रोग मुक्त एवं स्वस्थ हो जाता है। इसी क्रम में यह विधि बार-बार दोहराई जाती है जो रोग की अवधि व उसकी तीव्रता पर निर्भर करती है। कभी-कभी इसमें तत्काल प्रभाव दिखाई देने लगता है और कभी-कभी कई दिन व माह भी लग जाते हैं।


4-एक बार में इस उपचार में दस मिनट से 60 मिनट तक का समय लग जाता है जिसे उपचारक ही निर्दिष्ट करता है। इस उपचार विधि के उपचारक में सदाचार, परोपकारिता, परमात्मा में भक्ति, दया के भाव एवं अन्य कई प्रकार के दैवीय गुणों का होना आवश्यक है। दूसरों के प्रति प्रेम, करुणा, निःस्वार्थ सेवा आदि भावों से पूरित व्यक्ति ही इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा का सफल प्रवाहक एवं सम्प्रेषक बन पाता है। जब कोई प्रवाहक, रोगी पर इस ऊर्जा का प्रयोग करता है, तो वह रोगी और इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा के मध्य एक माध्यम के रूप में कार्य करता है। प्रवाहक अपनी संकल्प शक्ति एवं स्पर्श से इस ऊर्जा का प्रक्षेपण करता है, जिसमें यह ऊर्जा उसके आज्ञा चक्र से शरीर में प्रवेश करके उसकी हथेली के माध्यम से रोगी के शरीर में प्रवाहित होने लगती है। प्रवाहक अपनी संकल्प शक्ति से रोगी के ऊर्जा शरीर पर तथा अपने स्पर्श द्वारा रोगी के स्थूल शरीर पर, ऊर्जा का प्रक्षेपण करता है तथा कभी-कभी आवश्यकतानुसार अपने आज्ञा चक्र के अतिरिक्त विशुद्धि चक्र एवं मूलाधार चक्र का भी प्रयोग करता है।


5-ब्रह्मांडीय ऊर्जा, प्रज्ञावंत होने के साथ-साथ, विशुद्ध एवं सात्विक प्रेम का असीम भंडार है, जो कभी समाप्त नहीं होता। यह हमारी क्षमताओं में वृद्धि करने के अतिरिक्त जीवन में मानवीय सद्गुणों को विकसित करने में भी अपूर्व सहयोग प्रदान करती है। स्वभावतः इस ऊर्जा शक्ति का भंडार हमारे अंदर जन्म से ही होता है किंतु वैचारिक प्रदूषण के कारण इस ऊर्जा से हमारा संबंध विच्छेद होने लगता है। परंतु जब कोई इस सुषुप्त ऊर्जा को पुनः जाग्रत कर देता है तो यह संपर्क पुनः स्थापित हो जाता है तथा निरंतर अभ्यास से, विचारों की पवित्रता और सात्विकता के चलते आजीवन बना रह सकता है। एक ऊर्जा प्रवाहक रोग निदान के लिए, इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रयोग करके, किसी समय विशेष पर शरीर में हुई ऊर्जा की क्षति को पूरा करता है। इस समग्र विश्व की संरचना एवं उसके अस्तित्व के पीछे यही ब्रह्मांडीय ऊर्जा सतत् क्रियाशील है। ब्रह्माण्डीय ऊर्जा में शरीर की रासायनिक ग्रंथियों, शारीरिक अवयवों, स्नायुओं और अस्थियों की सृजनात्मक प्रक्रिया को सुचारू रूप से संतुलित करने की अपूर्व क्षमता है। यह शरीर के विजातीय तत्वों को पूर्ण रूप से निष्प्रभावी करके, प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करती है जिससे रोग की पुनरावृत्ति नहीं हो पाती।यह पद्धति सरल एवं दुष्प्रभावों से रहित है तथा अत्यंत प्रभावशाली है जिसमें किसी भी प्रकार की हानि एवं प्रतिकूलता की संभावना नहीं है।


6-संपूर्ण सूक्ष्म शरीर या आध्यात्मिक शरीर एक दूसरे के साथ ऊर्जा चैनलों के माध्यम से जुड़ा हुआ है, इन ऊर्जा चैनल को नाड़ी कहा जाता है, नाड़ी का अर्थ है धारा। नाड़ी वह चैनल हैं जो रीढ़ की हड्डी के स्तंभ या केंद्रीय चैनल से प्राणिक ऊर्जा लेते हैं। इसी में प्राणिक ऊर्जा बहती रहती है।मानव ढांचे में कई हजारों नाडिय़ां हैं, लेकिन इनमें 72 को महत्वपूर्ण माना जाता है और 10 को प्रमुख माना जाता है। हालांकि वे सभी रीढ़ की हड्डी के भीतर सूक्ष्म ऊर्जा निकाय की सबसे महत्वपूर्ण 3 मुख्य नाडिय़ों से जुड़ी हैं। उन्हें इडा नाड़ी, पिंगला नाड़ी और सुषुम्ना नाड़ी कहा जाता है। इडा स्त्री चैनल है, पिंगला पुरुष चैनल है और सुषुम्ना केंद्रीय, आध्यात्मिक चैनल है। यिन और यांग, इडा और पिंगला की तरह सूक्ष्म रूप में प्रकृति, मन और शरीर की दो प्रमुख शक्तियां होती हैं। इडा में चेतना की मानसिक शक्ति होती है और पिंगला नाड़ी भौतिक शरीर के महत्वपूर्ण जीवन शक्ति को शामिल करती है। सुषुना नाड़ी सभी का सबसे सूक्ष्म चैनल है, यह रीढ़ की हड्डी के माध्यम से चल रहा है और चारों ओर इडा और पिंगला कई बिंदुओं पर पार कर जाते हैं ताकि ऊर्जा चक्र या चक्र विकसित हो सके।


7-चीन के मास्टर चो कोक् सुई ने प्राणशक्ति से उपचार की कला को वैज्ञानिक रूप दिया। उनकी यह कला शरीर के 11 चक्रों पर आधारित है। इस सिद्धान्त के अनुसार मानव शरीर चक्रों से संचालित होता है। चक्र तेजी से घूमने वाले ऊर्जा केन्द्र हैं, जो प्राणशक्ति को सोखकर, शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाते हैं। चक्रों को ठीक प्रकार से कार्य न करने आपका स्‍वास्‍थ्‍य प्रभावित हो सकता है।


11 चक्र ;-


1-मूलाधार चक्र;-


यह चक्र रीढ़ के अन्तिम छोर पर स्थित होता है। मूलाधार चक्र मांसपेशियों और अस्थि तन्त्र, रीढ़ की हड्डी साफ रक्त के निर्माण, अधिवृक्क ग्रन्थियों, शरीर के ऊतक और आन्तरिक अंगों को नियन्त्रित करता है। यह चक्र जननांगों को भी प्रभावित करता है। इस चक्र के गलत ढंग से कार्य करने पर जोड़ों का दर्द, रीढ़ की हड्डी का रोग, रक्त के रोग, कैंसर, हड्डी का कैंसर, ल्यूकेमिया, एलर्जी, शरीर विकास की समस्या, जीवनशक्ति की कमी, जख्म भरने में देरी और हडि्डियों के टूटन की शिकायत होती है। जिन व्यक्तियों को मूलाधार चक्र बहुत अधिक सक्रिय होता है, वे हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ्य होते हैं और जिनका मूलाधार चक्र कम सक्रिय होता है वे नाजुक और कमजोर होते हैं।मूलाधार चक्र लगभग अनदेखी पीले प्राण की एक छोटी मात्रा के साथ ज्यादातर लाल और नारंगी प्राण है।


2-काम चक्र;-


यह चक्र जननांग क्षेत्र में स्थित होता है। यह जननांगों व ब्लैडर को नियन्त्रित करता और ऊर्जा प्रदान करता है। इस चक्र के कार्य में गड़बड़ी होने पर काम सम्बंधी समस्याएं पैदा होती है। स्वाधिस्तान चक्र नारंगी प्राण के साथ साथ लाल प्राण के दो अलग अलग रंग है।


3-कटि चक्र;-


यह चक्र नाभि के ठीक पीछे पीठ में स्थित होता है। यह मूलाधार चक्र से आने वाली सूक्ष्म प्राणशक्ति को ऊपर की ओर भेजने के लिए रीढ़ की हड्डी में पंपिंग स्टेशन की तरह कार्य करता है। यह गुर्दे और अधिवृक्क ग्रन्थियों को नियन्त्रित करने का कार्य करता है। इस चक्र के कार्य में गड़बड़ी होने पर गुर्दे की बीमारी, जीवनशक्ति में कमी, उच्च रक्तचाप और पीठ दर्द होते हैं।कटि चक्र ज्यादातर लाल प्राण और प्राण नीले और पीले रंग की बहुत छोटी मात्रा के साथ नारंगी प्राण से भरा है।


4-नाभि चक्र;-


यह चक्र नाभि पर स्थित होता है। यह छोटी व बड़ी आन्त और एपेण्डिक्स को नियन्त्रित करता है। इस चक्र के ठीक से कार्य न करने पर कब्ज, एपेण्डिसाइटिस, शिशु-जन्म में कठिनाई, ओजिस्वता में कमी, एवं आन्त सम्बंधी रोग होते हैं।नाभि चक्र पीला है। नारंगी प्राण के रूप में ग्रीन, ब्लू, लाल और बैंगनी प्रमुख रंग है।


5-प्लीहा चक्र;-


यह बायीं निचली पसली के मध्य में स्थित होता है। इसमें गड़बड़ी से सामान्य कमजोरी व रक्त सम्बंधी बीमारी होती है।मणिपुर चक्र पसलियों के बीच खोखले क्षेत्र में स्थित है और एक पीछे और एक सामने का हिस्सा है। यह दस पंखुड़ियों के साथ है ...ज्यादातर लाल, पीला, हरे और नीले नारंगी और बैंगनी रंग के साथ।


6-सौर जालिका चक्र;-


यह चक्र छाती के डायफ्राम, अग्नाशय, जिगर, आमाशय, फेफड़े, हृदय को नियन्त्रित करता है। इस चक्र के गलत ढंग से कार्य करने पर मधुमेह, अल्सर, यकृतशोथ, हृदय रोग होते हैं। तिल्ली चक्र मुख्य रूप से लाल और पीले रंग का है .सूक्ष्म रंगों के साथ नीले, हरे, बैंगनी और नारंगी रंग है।


7-हृदय चक्र;-


छाती के मध्य में स्थित होता है। यह हृदय, थायमस ग्रन्थि और रक्त संचार तन्त्र को नियन्त्रित करता है। इसकी गड़बड़ी से हृदय, फेफड़ा, रक्त सम्बंधी


रोग होते हैं। सामने गोल्डन और लाइट रेड हार्ट चक्र है और पीछे स्वर्ण हार्ट चक्र शामिल हैं,अथार्त लाल, नारंगी और पीले।


8-कंठ चक्र;-


यह गले के बीच में होता है, जो थायराइड ग्रन्थि, गला और लिंफेटिक तन्त्र को नियन्त्रित करता है।इसकी गड़बड़ी से घेंघा, गले में खराश, दमा आदि रोग होते हैं।विशुद्धि चक्र ज्यादातर ब्लू प्राण.. कुछ हरे और बैंगनी रंग के साथ है।


9-भृकुटि चक्र;-


यह चक्र भौंह के मध्य स्थित होता है। यह पीयूष ग्रन्थि व अन्त:स्रावी ग्रन्थि को नियन्त्रित करता है। इसके ठीक ढंग से कार्य न करने पर मधुमेह हो सकता है। यह आंख व नाक को भी प्रभावित करता है।अजना चक्र 2 भागों और 2 रंग में है।


10-ललाट चक्र;-


यह चक्र ललाट यानि माथे के बीच स्थित होता है। यह पीनियल ग्रन्थि और तन्त्रिका तन्त्र को नियन्त्रित करता है। इसके ठीक तरह से कार्य न करने पर यादाश्त में कमी, लकवा और मिरगी जैसे रोग हो सकते हैं।


ललाट चक्र है, हल्के जामुनी,ब्लू, लाल, ऑरेंज, पीले और हरे रंग का ।


11-ब्रह्म चक्र;-


यह सिर के तालू पर स्थित होता है। यह पीनियल ग्रन्थि, मस्तिष्क और पूरे शरीर को नियन्त्रित करता है। इसकी गड़बड़ी से मानसिक रोग हो सकते हैं।


सहस्रार चक्र के भीतर हल्के जामुनी और गोल्डन प्राण है।बारहवां चक्र एक गोल्डन बॉल , या एक स्वर्ण ज्योति की तरह लगता है।


THE KEY NOTES;-


1-जब तक अंतरिक्ष से प्राण ऊर्जा का तार शरीर से जुड़ा रहता है तब तक मनुष्य जीवित रहता है। उस तार के टूटते ही जीव मर जाता है। यही जीवन और मृत्यु का रहस्य है। प्राण ऊर्जा को दीर्घकाल तक शरीर से संरक्षित रखने के लिए शरीर को स्वस्थ और प्रसन्न रखना अनिवार्य है। आशावादी दृष्टि और प्रसन्नता से प्राण ऊर्जा बढ़ती रहती है।जब आप प्रसन्न रहते हैं तो जीवन में उत्साह रहता है, किसी भी काम को करने में खुशी मिलती है। इसी से जीवनी शक्ति बढ़ती जाती है। प्राण शक्ति के संचय के लिए प्रसन्नता अमृत का काम करती है। दूसरी ओर जो लोग दुखी रहते हैं, हमेशा उदास रहते हैं, उनकी जीवनी शक्ति घटती रहती है। उदास रहना शरीर के लिए बहुत हानिकारक है। उदास, हताश और तनाव में रहने वाले व्यक्ति का जीवन बहुत कम होता है।

2-हंसमुख लोगों की प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है, करुणा उसी व्यक्ति में उत्पन्न होगी जो हमेशा खुश रहेगा।उनकी एंडोक्राउन अधिक सक्रिय व सतेज रहती है। मानसिक तनाव में रहने वाला व्यक्ति कभी भी दयालु नहीं हो सकता। उसमें करुणा का भाव लेश मात्र भी नहीं मिलेगा। वही व्यक्ति दयालु हो सकता है जिसने मन को वश में कर लिया हो। इसके लिए स्वयं को बदलना पड़ेगा। मनुष्य की संकल्प शक्ति से बड़ी शक्ति कोई नहीं। यदि वह संकल्प कर ले, तो कुछ ही समय में काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि पर विजय प्राप्त कर लेगा, मन उसके वश में होगा और हृदय में करुणा का सागर लहराएगा। बिना किसी क्रिया के सिर्फ मन को वश में करके ध्यान किया जाए, तो संभव है मनुष्य में स्पर्श के द्वारा चिकित्सा के गुण आ जाएं ।लेकिन प्राणिक हीलिंग का आधार सूर्य शक्ति (प्राण वायु)और करुणा है।इसीलिए जप और प्राणायाम के द्वारा प्राप्त विश्वव्यापी शक्ति, जिसे प्राण शक्ति (सूर्य) कहते हैं, को अपने में समाविष्ट करने के बाद ही प्राणिक हीलिंग की क्षमता प्राप्त होगी।


..CONTD...


..SHIVOHAM...


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