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जगन्नाथ पुरी मंदिर का रहस्य ..PART-01




हिंदू धर्म के हिसाब से चार धाम बदरीनाथ, द्वारिका, रामेश्वरम और पुरी है। मान्यता है कि भगवान विष्णु जब चारों धाम पर बसे तो सबसे पहले बदरीनाथ गए और वहां.. वहां स्नान किया, इसके बाद वो गुजरात के द्वारिका गए और वहां कपड़े बदले, द्वार बदले। द्वारिका के बाद ओडिशा के पुरी में उन्होंने भोजन किया और अंत में तमिलनाडु के रामेश्वरम में विश्राम किया। चार पवित्र धामों में से एक जगन्नाथ पुरी है जो कि भारत के पूर्व में उड़िसा प्रदेश के पुरी शहर में समुंद्र तट के निकट स्थित है।पुरी में भगवान श्री जगन्नाथ का मंदिर है। वैसे तो यह मंदिर मुख्य रूप से भगवान ​कृष्ण को समर्पित है, जिन्हें जगन्नाथ जी के नाम से जाना जाता है, लेकिन उनके साथ यहां पर उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की ​भी साथ में पूजा की जाती है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्तिया लकड़ी की बनी हुई हैं, जिसे हर 12 साल बाद बदले जाने का विधान है। ‘जगन्नाथद्ध का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है।पुरी का जगन्नाथ मंदिर भक्तों की आस्था केंद्र और विश्वभर में प्रसिद्ध है। यह हिन्दुस्तान ही नहीं, बल्कि विदेशी श्रद्धालुओं के भी आकर्षण का केंद्र है। मं‍दिर का आर्किटेक्ट इतना भव्य है कि दूर-दूर के वास्तु विशेषज्ञ इस पर रिसर्च करने आते हैं। मान्यता है कि मंदिर की मूर्तियों का निर्माण राजा इंद्रदयुम्न के समय में विश्वकर्मा जी ने किया था। कई महान संत, जैसे आदि शंकराचार्य, रामानंद और रामानुजा मंदिर के निकट से जुड़े थे। रामानुज ने मंदिर के पास एमार मठ की स्थापना की और गोवर्धन मठ, जो चार शंकराचार्यों में से एक की सीट भी यहां स्थित है। यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पन्थ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।

जगन्नाथ मंदिर की पौराणिक कथा;-

04 FACTS;-

1-हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों स्कंध व ब्रह्म पुराण की पौराणिक कथाओं के अनुसार उड़िसा के पुरी शहर में भगवान नारायण ने पुरुषोत्तम नील माधव के रूप में अवतार लिया था। उस समय सबर जनजाति के कबिले के लोग नील माधव भगवान को अपना आराध्य भगवान मानते थे। कबिले के मुखिया विश्ववसु जी नील माधव भगवान के परमभक्त थे। इन्होंने ही सबसे पहले नीलमाधव भगवान की पूजा व अराधना की थी।जगन्नाथ भगवान की मूर्ति स्थापना को लेकर ऐसी मान्यता है कि मालवा के राजा इंद्रदुमन, भगवान श्री नारायण के परमभक्त थे उन्हें स्वयं भगवान नारायण ने उनके सपने में दर्शन दिए और उनसे एक भव्य मंदिर बनवाने को कहा।भगवान नारायण ने राजा इंद्रदुमन को सपने में बताया कि तुम्हें पुरी के समुद्र किनारे पर तुम्हे एक लकड़ी का लट्ठा मिलेगा और उसी से मूर्ति का निर्माण करवाना। इतना कहकर भगवान नारायण वहां से चले गए।

अगले दिन मालवा नरेश को समुद्र तट पर लकड़ी का लट्ठा मिल गया। परंतु वह उसे उठाकर लाने में असफल रहें तब उन्होंने सबर जनजाति के मुखियां विश्ववसु से उस लट्ठे को लाने का आग्रह किया जोकि नीलमाधव भगवान के परमभक्त थे। राजा इंद्रदुमन यह जानते थे विश्ववसु जी जैसे परमभक्त ही इस लट्ठे को ला सकते है।

2-इस मंदिर के उद्गम से जुड़ी परंपरागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी. यह इतनी चकाचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा. मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी।अब इंद्रदुमन के सामने ये प्रश्न था कि मूर्ति का निर्माण किससे करवाएं।पुराणों में लिखा है कि विश्वकर्मा भगवान ने एक वृद्ध मूर्तिकार के रूप में प्रकट हुये और उन्होंने मूर्ति बनाने की इच्छा प्रकट की, मालवा के राजा ने उन्हें मूर्ति बनाने के लिए चुना था पर वृद्ध मूर्तिकार ने एक शर्त रख दी थी कि वो इस काम को एक महीने में पूर्ण कर देंगे परंतु वह यह कार्य एक बंद कमरे में करेंगे और इस दौरान उस कमरे में कोई झाकेगा नहीं ;न कोई उसमें प्रवेश करेगा जब तक उनका कार्य पूर्ण नहीं हो जाता। उन्होंने कहा राजा जी आप भी इस नियम का पूर्ण पालन करेंगे राजा ने कहा महाराज वैसा ही होगा जैसा आप कहेंगे।

3-वृद्ध मूर्तिकार उसी समय, कमरे में बंद मूर्ति का निर्माण करने लगे फिर अंत में महीने का आखिरी दिन था और अन्दर से किसी भी प्रकार की कोई हलचल व आवाज भी नहीं आ रही थी। तो राजा को शंका होने लगी और उनके दिमांग में कई सवाल उठने लगे कि क्या हुआ अब तक तो मूर्ति बन जानी चाहिये थी।आखिकार राजा अपने शक को दूर करने के लिये सभी शर्तो को अंनदेखा कर दरवाजा खटखटाया और वो अंदर झाककर देखने लगे, जैसे ही दरवाजा खुला, राजा को वह वृद्ध व्यक्ति कमरें में नहीं मिला। उन्होंने पाया कि मूर्तियों का निर्माण पूर्ण नही हो सका है मूर्ति के हाथ-पांव भी नहीं बन पाये हैं। यह देखकर राजा अपने आपको कोसने लगा और बहुत दुखी हुआ और वह वृद्ध व्यक्ति भी नजर नहीं आ रहा था। इस घटना को प्रभु इच्छा मानकर राजा इंद्रदुमन ने उन मूर्तियों को उसी अवस्था में मंदिर में स्थापित कर दिया।आज भी प्रभु जगन्नाथ बलभद्र एवं सुभद्रा की मूर्तियां उसी अवस्था में है और यही एकमात्र कारण है की जगन्नाथ पुरी के मंदिर में मूर्तियां पत्थर या किसी अन्य धातु की नहीं बल्कि पेड़ के तने को इस्तेमाल करके बनाई गई। तभी से काष्ठ से बनी मूर्ति की ही पूजा की जाती है।

4-जगन्नाथ के बेत का रहस्य....चैत्र मास में आने वाले चारों सोमवार को तिसुआ सोमवार कहा जाता है। इन सोमवार को भगवान श्री जगन्नाथ की उपासना की जाती है।यह व्रत उन्हीं लोगों के घरों में किया जाता है जिनके घर का कोई भी सदस्य श्री जगन्नाथ धाम की यात्रा कर आ चुका हो। इस व्रत में टेसु के पुष्प से पूजा की जाती है। इसलिए इस व्रत को तिसुआ सोमवार

व्रत भी कहते हैं। पहले सोमवार को गुड़ से, दूसरे सोमवार को गुड़ और धनिया से, तीसरे सोमवार को पंचामृत से तथा चौथे सोमवार को कच्‍चा पक्‍का, हर तरह का पकवान बनाकर भगवान को भोग लगाया जाता है। इसके पश्चात पूजा की जाती है। माना जाता है कि इन चारों सोमवार पर श्रद्धा के साथ व्रत रखने से सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है। मान्यता है कि सुदामा ने सबसे पहले भगवान श्री जगन्नाथ का पूजन किया था। पूजन के लिए सुदामाजी जगन्नाथ धाम गए। रास्ते में कई पीड़ितों को आश्वासन दिया कि भगवान श्री जगन्नाथ के दरबार में उनके सुख के लिए मन्नत मांगेंगे। बताया जाता है सुदामा की श्रद्धा देखकर भगवान जगन्नाथपुरी के बाहर एक ब्राह्मण के भेष में खड़े हो गए। सुदामा ने ब्राह्मण से जगन्नाथ धाम का पता पूछा तो भगवान ने बताया कि उनके पीछे जो आग का गोला है उसमें प्रवेश करने के बाद ही भगवान के दर्शन होंगे। सुदामा आग के गोले में प्रविष्ट होने के लिए बढ़े तो भगवान ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए। सुदामा ने रास्ते में मिले सभी पीड़ितों के दुख दूर करने की प्रार्थना की तो भगवान जगन्नाथ ने उन्हें एक बेंत देकर कहा कि जिसे यह बेंत मारोगे उसके सभी कष्ट दूर हो जाएंगे। मान्यता है कि तब से चैत्र मास शुक्ल पक्ष शुरू होने पर श्रद्धालु भक्तिपूर्वक सोमवार को भगवान जगन्नाथ का पूजन-अर्चन करते हैं और उनके बेंत खाकर अपने कष्ट दूर करने की प्रार्थना करते हैं।

5-कपालमोचन स्थल जगन्नाथ मंदिर के दक्षिण पश्चिम में है। अमरनाथ मंदिर सिंह द्वारके सम्मुख स्थित हैं। श्री राधाकान्त मठ जिसे गंभीरनाथ भी कहते हैं ,स्वर्गद्वार से समुद्रतट की ओर जाते समय दिखलायी देता है। इसी मार्ग पर सिद्धबकुल सिंह द्वार के निकट नानक मठ है जहां पर गुरु साहिब नानक देव जी ने कुछ दिन प्रवास किये थे। यहीं पर गोवर्धन मठ ,स्थित है जिसे शंकराचार्य जी ने बनवाया था, बैकुंठ द्वार के निकट कबीरमठ ,स्थित है। बैकुंठ द्वार के दाहिनी तरफ हरिदास का चबूतरा है और उससे डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर टोटा गोपीनाथ जी का मंदिर स्थित है।

जगन्नाथ पुरी मंदिर का रहस्य ;-

16 FACTS;-

1-मंदिर की ऊंचाई 214 फुट है।

2-पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा।

3-मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है।

4-सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है।

5.-मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है।किसी भी वस्तु या इंसान, पशु पक्षियों की परछाई बनना तो विज्ञान का नियम है। लेकिन जगत के पालनहार भगवान जगन्नाथ के मंदिर का ऊपरी हिस्सा विज्ञान के इस नियम को चुनौती देता है।

6-मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, लाखों लोगों तक को खिला सकते हैं।

7-मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है।भगवान जगन्नाथ के लिए तैयार किये जाने वाले भोग के लिए जिस बर्तन का प्रयोग होता है, उसे दोबारा कभी इस्तेमाल नहीं किया जाता है। खास बात यह भी कि भगवान का प्रसाद यहां पर आने वाले हजारों-हजार भक्तों के लिए न तो कम पड़ता है और न ही बाद में बचता है।

8-मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि को नहीं सुन सकते। आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें, तब आप इसे सुन सकते हैं। इसे शाम को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।

9- मंदिर का रसोईघर दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर है।

10-मंदिर का क्षेत्रफल 4 लाख वर्गफुट में है।इसकी ऊंचाई 214 फीट है।

11- प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है।

12-पक्षी या विमानों को मंदिर के ऊपर उड़ते हुए नहीं पाएंगे।आमतौर पर मंदिर, मस्जिद या बड़ी इमारतों पर पक्षियों को बैठे देखा होगा। लेकिन पुरी के मंदिर के ऊपर से न ही कभी कोई प्लेन उड़ता है और न ही कोई पक्षी मंदिर के शिखर पर बैठता है। भारत के किसी दूसरे मंदिर में भी ऐसा नहीं देखा गया है।

13-विशाल रसोईघर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाए जाने वाले महाप्रसाद का निर्माण करने हेतु 500 रसोइए एवं उनके 300 सहायक-सहयोगी एकसाथ काम करते हैं। सारा खाना मिट्टी के बर्तनों में पकाया जाता है। हमारे पूर्वज कितने बड़े इंजीनियर रहे होंगे, यह इस एक मंदिर के उदाहरण से समझा जा सकता है।

14-दो आषाढ़ के साल में बदली जाती है मूर्तियां...ब्रह्म पदार्थ का रहस्य

जब किसी वर्ष में दो आषाढ़ पड़ते हैं तब जगन्नाथजी, बलदेव और देवी सुभद्रा तीनों की मूर्तिया को बदल दिया जाता है।नई मूर्तियां स्थापित की जाती हैं।मूर्ति बदलने की इस प्रक्रिया से जुड़ा भी एक रोचक किस्सा है। मंदिर के आसपास पूरी तरह अंधेरा कर दिया जाता है। शहर की बिजली काट दी जाती है। मंदिर के बाहर CRPF की सुरक्षा तैनात कर दी जाती है। सिर्फ मूर्ती बदलने वाले पुजारी को मंदिर के अंदर जाने की इजाजत होती है। इन मूर्तियों को बदलने के लिए सिर्फ एक पुजारी को मंदिर में जाने की अनुमति होती है और उसके लिए भी पुजारी के हाथों में दस्ताने पहनाए जाते हैं और अंधेरे के बावजूद आंखों में पट्टी बांधी जाती है ताकि पुजारी भी मूर्तियों को ना देख सके। पुरानी मूर्ति से जो नई मूर्ति बदली जाती है उसमें एक चीज वैसी की वैसी ही रहती है वह है ब्रह्म पदार्थ। इस ब्रह्म पदार्थ को पुरानी मूर्ति से निकालकर नई मूर्ति में डाल दिया जाता है। ब्रह्म पदार्थ को लेकर यह मान्यता है कि अगर इसे किसी ने भी देख लिया तो उसकी तुरंत मौत हो जाएगी। बहुत से पुजारियों का कहना है कि मूर्तियां बदलते समय जब वह ब्रह्म पदार्थ को पुरानी मूर्ति से नई मूर्ति में डालते हैं तो उन्हें कुछ उछलता हुआ सा महसूस होता है। उन्होंने कभी भी उसे देखा नहीं लेकिन उसे छूने पर वह एक खरगोश जैसा लगता है जो उछल रहा है। मान्यता है कि जब भगवान कृष्ण ने अपना देह त्याग किया तो उनका बाकी शरीर तो पंच तत्वों में मिल गया अथार्त योगाग्नि में भस्म हो गया लेकिन उनका दिल सामान्य और जिंदा रहा।तभी से उनका दिल आज तक सुरक्षित है और यह भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के अंदर आज भी धड़कता है।

15-वार्षिक रथ यात्रा;-

04 POINTS;-

1-इस मन्दिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मन्दिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं।मान्यता है कि एक बार बहन सुभद्रा ने भगवान जगन्नाथ से नगर देखने की इच्छा जताई। बहन की इस इच्छा को पूरा करने के लिए भगवान जगन्नाथ और बलभद्र उन्हें रथ पर बैठाकर नगर दिखाने निकल गए। इस दौरान वे अपनी मौसी के घर भी गए जो गुंडिचा में रहती थीं। तभी से इस रथ यात्रा की परंपरा का शुभारंभ हुआ ।पुरी रथयात्रा के लिए बलराम, श्रीकृष्ण और देवी सुभद्रा के लिए तीन अलग-अलग रथ निर्मित किए जाते हैं। रथयात्रा में सबसे आगे बलरामजी का रथ, उसके बाद बीच में देवी सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ श्रीकृष्ण का रथ होता है। इसे उनके रंग और ऊंचाई से पहचाना जाता है।बलरामजी के रथ को 'तालध्वज' कहते हैं, जिसका रंग लाल और हरा होता है। देवी सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' या ‘पद्म रथ’ कहा जाता है, जो काले या नीले और लाल रंग का होता है, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को ' नंदीघोष' या 'गरुड़ध्वज' कहते हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है।भगवान जगन्नाथ का नंदीघोष रथ 45.6 फीट ऊंचा, बलरामजी का तालध्वज रथ 45 फीट ऊंचा और देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ 44.6 फीट ऊंचा होता है।

2-सभी रथ नीम की पवित्र और परिपक्व काष्ठ (लकड़ियों) से बनाए जाते हैं, जिसे ‘दारु’ कहते हैं। इसके लिए नीम के स्वस्थ और शुभ पेड़ की पहचान की जाती है, जिसके लिए जगन्नाथ मंदिर एक खास समिति का गठन करती है।इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या कांटे या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं होता है। रथों के लिए काष्ठ का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है और उनका निर्माण अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होता है।जब तीनों रथ तैयार हो जाते हैं, तब 'छर पहनरा' नामक अनुष्ठान संपन्न किया जाता है। इसके तहत पुरी के गजपति राजा पालकी में यहां आते हैं और इन तीनों रथों की विधिवत पूजा करते हैं और ‘सोने की झाड़ू’ से रथ मण्डप और रास्ते को साफ़ करते हैं।आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा आरम्भ होती है। ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं। कहते हैं, जिन्हें रथ को खींचने का अवसर प्राप्त होता है, वह महाभाग्यवान माना जाता है।कहते हैं इस दौरान भगवान अपने भक्तों का सुख-दुख लेने भ्रमण पर निकलते हैं। स्कन्द पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ-यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करते हुए, प्रणाम करते हुए मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाते हैं वे सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को जाते हैं। जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा देवी के दर्शन दक्षिण दिशा को आते हुए करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं।

3-जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा शुरू होकर पुरी नगर से गुजरते हुए ये रथ गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं।सन्ध्या तक ये तीनों ही रथ मन्दिर में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मन्दिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। गुंडीचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन को ‘आड़प-दर्शन’ कहा जाता है।गुंडीचा मंदिर को 'गुंडीचा बाड़ी' भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर है। इस मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता है कि यहीं पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था।आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ पुन: मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं।हर साल आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि से जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत होती है। वहीं 11वें दिन जगन्नाथ जी की वापसी के साथ इस यात्रा का समापन होता है। रथ यात्रा के शुरू होने से पहले भी कुछ परम्परा निभाई जाती है, जिसकी शुरुआत ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि से ही हो जाती है। इस दिन जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलराम को स्नान कराया गया। स्नान के बाद पारंपरिक रूप से तीनों देवों को बीमार माना जाता है और उन्हें राज वैद्य की देखरेख में स्वस्थ होने के लिए एकांत में रखा जाता है। इस दौरान उन्हें काढ़ा आदि का भोग लगाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि राज वैद्य की तरफ से दिए गए आयुर्वेदिक दवा से वे 15 दिनों में ठीक हो जाते हैं। इसके बाद रथ यात्रा शुरू की जाती है।

4-ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि पर जगन्नाथ जी, बलभद्र जी और सुभद्रा जी को 108 घड़ों के जल से स्नान कराया जाता है। इस स्नान को सहस्त्रधारा स्नान के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि 108 घड़ों के ठंडे जल से स्नान के बाद जगन्नाथ जी, बलभद्र जी और सुभद्रा जी तीनों बीमार हो जाते हैं। इसलिए उन्हें एकांतवास में रखा जाता है। जब तक वे तीनों एकांतवास में रहते हैं तब मंदिर के कपाट नहीं खुलते हैं।स्नान और बीमार होने के बाद जब 15 दिनों के लिए भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलराम और छोटी बहन सुभद्रा एकांतवास में रहते हैं, तो इस दौरान भक्त इनका दर्शन नहीं कर पाते हैं।भगवान 15 दिनों तक शयन कक्ष में विश्राम मुद्रा में रहते हैं। कहते हैं जैसे मनुष्यों के अस्वस्थ होने पर उनका इलाज होता है वैसे ही जगन्नाथ जी का भी एकांत में उपचार किया जाता है। इस दौरान उन्हें कई औषधियां दी जाती है। सादे भोजन जैसे खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। औषधी के रूप में काढ़ा पिलाया जाता है। यह परंपरा हर साल ज्येष्ठ पूर्णिमा से शुरू होती है।सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर के 24 तत्वों के ऊपर आत्मा होती है। ये तत्व हैं- पंच महातत्व, पाँच तंत्र माताएँ, दस इन्द्रियां और मन के प्रतीक हैं। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।

भगवान जगन्नाथ के रथो का संक्षिप्त वर्णन;-

भगवान जगन्नाथ जी का रथ

1. रथ का नाम > नंदीघोष

2. कुल काष्ठ की संख्या > 832

3. कुल चक्के > 16

4.रथ की ऊंचाई > 45 फीट

5. रथ की लम्बाई चौड़ाई> 34 फीट 6 इंच

6.सारथि > दारुक

7. रथ का रक्षक> गरुड़

8.रस्से का नाम > शंखचूड नागुनी

9. पताका का रंग > त्रैलोक्य मोहिनी

10. रथ के घोड़ों का नाम > वराह, गोवर्धन, कृष्णा, गोपीकृष्ण, न्रसिंह, राम, नारायण, त्रिविक्रम, हनुमान,रूद्र।

बलदेव जी का रथ;-

1.रथ का नाम > ताल ध्वज

2.कुलकाष्ठ संख्या > 763

3.कुल चक्के > 14

4. रथ की ऊंचाई > 44 फीट

5. रथ की लम्बाई चौड़ाई > 33 फीट

6. सारथि > मातली

7.रथ के रक्षक > वासुदेव

8. रस्से का नाम > बासुकी नाग

9.पताका का रंग > उन्नानी

10.रथ के घोड़ों के नाम > तीव्र ,घोर, दीर्घाश्रम, स्वर्ण नाभ ।।

सुभद्रा जी का रथ;-

1. रथ का नाम > देव दलन

2. कुल काष्ठ > 593

3. कुल चक्के> 16

4.रथ की ऊंचाई> 45 फीट

5. रथ की लम्बाई चौड़ाई> 31 फीट 6 इंच।

6. सारथि > अर्जुन

7. रथ के रक्षक> जय दुर्गा

8. रस्से का नाम > स्वर्ण चूड नागुनी

9. पताका का रंग > नन्द अम्बिका

10. रथ के घोड़ों के नाम > रुचिका, मोचिका, जीत, अपराजिता ।।

16-जगन्नाथ मन्दिर के मन्दिर

विमला शक्तिपीठ ;-

02 POINTS;-

1-विमला शक्तिपीठ ओडिशा राज्य के पुरी शहर के जगन्नाथ मन्दिर मे है।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी विमला जगन्नाथ पुरी की अधिष्ठात्री देवी हैं । यह उनका तीर्थ क्षेत्र है। विमला देवी को सती का आदिशक्ति स्वरूप माना जाता है और भगवान विष्णु उन्हें अपनी बहन मानते हैं। जगन्नाथ धाम को धरती का वैकुंठ कहा जाता है और माना जाता है कि श्रीविष्णु यहां कृष्ण रूप में साक्षात विराजमान हैं। विमला मंदिर जगन्नाथ मंदिर की दाईं ओर पवित्र कुंड रोहिणी के बगल में स्थित है। मन्दिर का मुख पूर्व दिशा की ओर है, और बलुआ पत्थर और लेटराइट से निर्मित है। देवी विमला की मूर्ति के चार हाथ हैं। ऊपरी दाहिने हाथ में माला धारण किए हुए हैं।उनको तरह-तरह के 56 प्रकार के नैवेद्यों का भोग लगाया जाता है।इसी भोग को महाप्रसाद कहते हैं।लेकिन एक रहस्य यह भी है कि खुद को समर्पित महाभोग भगवान जगन्नाथ खुद भी पहले नहीं खा सकते हैं।यह भोग सबसे पहले विमला देवी ग्रहण करती हैं।देवी विमला शक्ति स्वरुपणी है जो जगन्नाथ जी को निवेदन किया गया नैवेद्य सबसे पहले ग्रहण करती है। उसके बाद ही सब लोगो मे प्रसाद महाप्रसाद के रूप मे बंट जाता है।

2-यह शक्तिपीठ बहुत प्राचीन माना जाता है।विमला शक्तिपीठ जगन्नाथ मंदिर के दक्षिण-पश्चिमी कोने में पूर्व की ओर स्थित है। मार्कण्डेय तालाब के पास पुरी में एक सप्त मातृका मंदिर भी मौजूद है।देवी विमला और याजपुर नगर में स्थित विरजा एक ही शक्ति मानी जाती है। विरजा देवी के मन्दिर से विमला देवी के मन्दिर तक का पुरा स्थान विरजमण्डल के रूप मे माना जाता है। मान्यता है कि यहां पर मां सती की नाभि गिरी थी।इस शक्तिपीठ में मां सती को 'विमला' और भगवान शिव को 'जगत' कहा जाता है।देवी सती देवी शक्ति (सद्भाव की देवी) का अवतार हैं।निचला दाहिना हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में है और निचले बाएं हाथ में अमृत भरा एक कलश है।विमला मंदिर में ब्राह्मी, माहेश्वरी, आंद्री, कौमारी, वैष्णवी, वराही और माँ चामुंडा की भी प्रतिमाएं हैं।मंदिर के शिखर को 'रेखा देउला' कहा जाता है, जिसकी ऊंचाई 60 फ़ीट है। इसकी बाहरी दीवार पांच भागों में विभाजित है, और मन्दिर के चार प्रमुख हिस्से हैं - मन्दिर का शिखर (विमानम); सम्मेलन सभामंडप (जगमोहन); पर्व-महोत्सव सभामंडप (नटमंडप) और भोग मंडप (आहुति सभामंडप)।

NOTE;-

अन्य पुरी मंदिर ;-

20 FACTS;-

1-गुंडिचा मंदिर पुरी;-

03 FACTS;-

1-पुरी में श्री जगन्नाथ मंदिर के अलावा सबसे प्राचीन मंदिर गुंडिचा मंदिर को माना जाता है। पूरी में भगवान श्री जगन्नाथ की रथ यात्रा जगन्नाथ मंदिर से शुरू होती है और गुंडिचा मंदिर पर समाप्त होती है। रथ यात्रा की वजह से पूरी में स्थित गुंडिचा मंदिर का धार्मिक महत्व और बढ़ जाता है। पुरी में गुंडिचा मंदिर का निर्माण श्री जगन्नाथ मंदिर के संस्थापक महाराजा इंद्रद्युम्न की पत्नी महारानी गुंडिचा के द्वारा करवाया गया था। गुंडिचा मंदिर के निर्माण से जुड़ी हुई कथा के अनुसार महाराजा इन्द्रद्युम्न की पत्नी महारानी गुंडिचा की भगवान श्रीकृष्ण में बहुत आस्था थी। कहा जाता है की महारानी गुंडिचा की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण ने महारानी गुंडिचा को आशीर्वाद दिया था कि वर्ष में एक बार वह महारानी के घर पर जरूर आयेंगे। ऐसा माना जाता है की उस समय के बाद से ही पुरी में भगवान श्री जगन्नाथ की यात्रा शुरू हो गई थी।

2-गुंडिचा मंदिर को भगवान श्री जगन्नाथ की मौसी का घर भी माना जाता है। रथ यात्रा के बाद जब भगवान श्री जगन्नाथ अपनी मौसी के घर गुंडिचा मंदिर पहुंचते है तब भगवान श्री जगन्नाथ और उनके भाई और बहन का चावल से बने हुए एक विशेष प्रकार के पकवान ‘पोदापीति’ से स्वागत किया जाता है। गुंडिचा मंदिर श्री जगन्नाथ मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर बना हुआ है।

रथ यात्रा के समय भगवान श्री जगन्नाथ अपने भाई और बहन के साथ सात दिनों के लिए गुंडिचा मंदिर में रहने के लिए जाते है। गुंडिचा मंदिर के परिसर में बहुत सुंदर उद्यान बना हुआ है इसलिए गुंडिचा मंदिर को भगवान श्री जगन्नाथ का उद्यान घर भी कहा जाता है। जगन्नाथ मंदिर की तरह गुंडिचा मंदिर का निर्माण भी कलिंग वास्तुशैली में किया गया है। मंदिर निर्माण के समय पत्थरों पर बहुत ही महीन कारीगरी का प्रदर्शन किया गया है। मंदिर निर्माण के लिए हल्के भूरे रंग के पत्थरों का उपयोग किया गया है।

3-मंदिर की सुरक्षा की दृष्टि मंदिर के चारों तरफ 20 फ़ीट ऊंची और 5 फ़ीट चौड़ी दीवार का निर्माण किया गया है। मंदिर परिसर में बने कक्षो को जगमोहन, नटमंडप, विमना और भोगमंडप के नाम से जाना जाता है। गुंडिचा मंदिर में प्रवेश के लिए दो द्वार बने हुए है पश्चिम दिशा में स्थित द्वार मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार है और पूर्व दिशा में स्थित द्वार को नचना द्वार कहा जाता है। रथ यात्रा के समय भगवान श्री जगन्नाथ पश्चिमी द्वार से गुंडिचा मंदिर में प्रवेश करते है और पूर्व द्वार से मंदिर से बाहर आते है। पूरी में प्रतिवर्ष आयोजित की जाने वाली रथ यात्रा को नवदिन यात्रा, घोसायात्रा और गुंडिचा यात्रा के नाम से भी जाना जाता है। रथ यात्रा के समय भगवान श्री जगन्नाथ के दर्शन करना बहुत शुभ माना जाता है। रथ यात्रा के समय भगवान श्री जगन्नाथ के दर्शन को अड़पा दर्शन के नाम से जाना जाता है। गुंडिचा मंदिर की देखरेख जगन्नाथ मंदिर प्रशासन के अधीन आती है।

2-लोकनाथ मंदिर पुरी; -

03 POINTS;-

1-यह बहुत ही प्रसिद्ध शिव मन्दिर है ...जगन्नाथ मन्दिर से एक किलोमीटर दूर है।पुरी में स्थित लोकनाथ मंदिर भगवान शिव को समर्पित सबसे प्राचीन मंदिर है। लोकनाथ मंदिर ओडिशा के सबसे प्रमुख शिव मंदिरों में से एक माना जाता है। 11वीं शताब्दी में निर्मित लोकनाथ मंदिर के अंदर स्थापित शिवलिंग से जुड़ी हुई पौराणिक कथा के अनुसार स्वयं भगवान राम ने इस शिवलिंग की स्थापना की थी। कहा जाता है की भगवान राम सीतामाता की खोज करते हुए इस स्थान पर आये थे।इस स्थान पर पहुंचने पर भगवान राम को शिव जी के दर्शन करने की इच्छा होती है तो वह इस स्थान पर भगवान शिव की आराधना करने बैठ जाते है। उसी समय पास के सबरपल्ली गांव के लोगों को जब भगवान राम के बारे में पता चलता है तो वह लोग शिवलिंग की प्रतिकृति के रूप में लौकी (कद्दू) लेकर आते है। उसके बाद भगवान राम उस लौकी को शिवलिंग के रूप में स्थापित करके के भगवान शिव की पूजा करते है।

2-उस समय के बाद से जिस स्थान पर भगवान राम ने शिव जी की पूजा की थी उसे लुकानाथ कहा जाने लगा और आगे चल कर लुकानाथ का नाम बदलकर लोकनाथ हो गया। लोकनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग हमेशा जलमग्न ही रहता है इस कारण ऐसा माना जाता है माँ गंगा भगवान शिव के शिवलिंग के ऊपर से धारा के रूप में बहती रहती है। लोकनाथ मंदिर में शिवलिंग के दर्शन सिर्फ शिवरात्रि से पहले आने वाली पिंगोधर एकादशी के समय ही किये जा सकते है।उस दिन कुछ समय के लिए शिवलिंग को जल से बाहर निकाला जाता है। पिंगोधर एकादशी के दिन लोकनाथ मंदिर में हजारों की संख्या में भक्त शिवलिंग के दर्शन करने के लिए मंदिर आते है। ऐसा माना जाता है की शिवलिंग के दर्शन करने पर स्वास्थ्य से जुड़ी सभी तरह की समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है। गुंडिचा मंदिर की ही तरह लोकनाथ मंदिर भी चार भागों में बंटा हुआ है जिन्हें – नटमंडप, विमना, भोगमंडप और जगमोहन के नाम से जाना जाता है।

3-मुख्य मंदिर पत्थरों से बना हुआ है और जमीन से लगभग 30 फ़ीट ऊपर उठा हुआ है। मंदिर की दीवारों पर हिन्दू धर्म के अलग-अलग देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाई गई है। मंदिर के भीतरी भाग में एक छोटा मंदिर और बना हुआ है जिसमे सूर्यनारायण भगवान और चंद्रनारायण भगवान की मूर्तियाँ को रखा गया है। मंदिर परिसर में स्थित सत्यनारायण मंदिर के अंदर भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी के अलावा पीतल से बनी हुई मूर्तियों को भी स्थापित किया गया है।लोकनाथ मंदिर में श्रावण सोमवार के समय बहुत बड़ा मेला लगता है जिस स्थानीय निवासियों और श्रद्धालुओं द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है की लोकनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग श्री जगन्नाथ मंदिर के खजाने और सोने के आभूषणों के संरक्षक है इसलिए जगन्नाथ मंदिर परिसर में लोकनाथ की उत्सव मूर्ति को स्थापित किया गया है।

3-अलारनाथ मंदिर पुरी;-

03 POINTS ;-

1- अलारनाथ मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित एक प्राचीन मंदिर है। अलारनाथ मंदिर पुरी से 22 किलोमीटर दूर ब्रह्मगिरि में बना हुआ ओडिशा में स्थित भगवान विष्णु के सबसे प्रमुख प्राचीन मंदिरों में से एक है। अलारनाथ मंदिर किसी धार्मिक पर्यटन स्थल के हिसाब से बहुत ज्यादा प्रसिद्ध नहीं है। लेकिन भगवान विष्णु में आस्था रखने वाले सभी श्रद्धालु पूरे साल अलारनाथ मंदिर के दर्शन करने के लिए आते रहते है।ऐसा विश्वास है की अलारनाथ मंदिर की निर्माण पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर से भी दो सौ वर्ष पहले हुआ था। मंदिर निर्माण से जुड़ी पौराणिक कथा के अनुसार कहा जाता है की जब भगवान ब्रम्हा इस जगह पर आये थे तो उन्होंने एक पहाड़ की चोटी पर भगवान विष्णु की पूजा की थी। इतिहासकारों के अनुसार राजस्थान के अलवर जिले के तत्कालीन शासकों ने इस स्थान पर अलारनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था।

2-इसी वजह से इस मंदिर को अलारनाथ मंदिर या फिर अलवरनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। अलारनाथ मंदिर और उड़ीसा के चैतन्य महाप्रभु की जगन्नाथ यात्रा से जुड़ा हुआ प्रसंग यहाँ पर बहुत प्रसिद्ध है। एक बार चैतन्य महाप्रभु जब अपने पुरी प्रवास पर थे तो वह नित्य भगवान श्री जगन्नाथ के दर्शन करने के लिए करने के लिए जगन्नाथ मंदिर में जाया करते थे।

उन्ही दिनों भगवान जगन्नाथ और उनके भाई, बहन के विग्रह को 15 दिन की अन्नवारा अवधि के समय मंदिर के एक गुप्त कक्ष में रख दिया जाता है। गुप्त कक्ष में भगवान के विग्रह को स्थापित करने की वजह से चैतन्य महाप्रभु भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने में असमर्थ थे।पता करने पर किसी उन्हें सुझाव दिया की अगर वह अन्नवारा अवधि के समय भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने की जगह ब्रह्मगिरि में स्थित अलारनाथ मंदिर में स्थापित भगवान की पूजा करते है तो भी उन्हें जगन्नाथ भगवान का आशिर्वाद प्राप्त होता है।

3-इसीलिए लिए आज भी अन्नवारा अवधि के समय जितने भी श्रद्धालु भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने में असमर्थ होते है वह सभी लोग इस दौरान अलारनाथ मंदिर के दर्शन करने के लिए जाते है।अन्नवारा अवधि के समय अलारनाथ मंदिर में हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ भगवान का आशिर्वाद प्राप्त करने के लिए इकट्ठी होती है। अलारनाथ मंदिर में भगवान विष्णु का विग्रह अपने चारों हाथों में चक्र, शंख, गदा और पद्म को धारण किये हुए है। भगवान विष्णु के चरणों में उनके वाहन गरुड़ की प्रतिमा को भी स्थापित किया गया है।भगवान विष्णु के अलावा मंदिर परिसर में चैतन्य महाप्रभु, सत्यभामा और रुक्मिणी की मूर्तियां भी स्थापित की गई है। अलारनाथ नाथ मंदिर के पीछे बनी हुई झील में प्रतिवर्ष 21 दिनों के लिए चंदन यात्रा का आयोजन किया जाता है।

4-मार्कंडेश्वर मंदिर पुरी ;-

मार्कंडेश्वर मंदिर पुरी के पवित्र मंदिरों में से एक है, जिसे 13वीं शताब्दी में बनाया गया था। यह मंदिर, अपने दिव्य वातावरण के साथ, भगवान शिव के बावन पवित्र मंदिरों का घर है, जो सराहनीय है। यदि आप एकांत और शांति की तलाश में हैं, तो यह मंदिर पुरी में घूमने के लिए सबसे लोकप्रिय स्थानों में से एक है।इस स्थल को उस स्थान के रूप में जाना जाता है जहां ऋषि मार्कंडेय ने ध्यान किया था। मार्कंडेश्वर मंदिर पुरी के पांच प्रसिद्ध शिव मंदिरों में से एक है, और शिव पूजा के लिए 52 पवित्र स्थानों में से एक है। मंदिर का प्रवेश द्वार दस भुजाओं वाले नटराज की आकृति से सुशोभित है।गर्भगृह के सामने देवी पार्वती, भगवान मुरुगा और श्री गणेश की जटिल नक्काशीदार छवियां हैं।मंदिर के कोनों में विभिन्न अवतारों में भगवान शिव के मंदिर हैं। मंदिर के बगल में मार्कंडेय सरोवर एक पानी की टंकी है जिसे पुरी के पंच तीर्थों में से एक माना जाता है।इतिहासिक प्रमाणों के अनुसार मार्कंडेश्वर मंदिर का निर्माण गंगवंश के शासकों द्वारा 12वीं शताब्दी के दौरान किया गया था। मंदिर से जुड़ी हुई पौराणिक कथा के अनुसार एक बार जब भगवान शिव ने ऋषि मार्केंडेय के प्राणों की रक्षा की थी। तब उसके बाद ऋषि मार्केंडेय ने इस स्थान पर भगवान शिव के मंदिर का निर्माण करवाया था। मार्कंडेश्वर मंदिर, जगन्नाथ मंदिर में आयोजित किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों जैसे बलभद्र जनमा, शीतल सस्ति, चंदन यात्रा और कालियालय से जुड़ा हुआ है। मार्कंडेश्वर मंदिर के पास स्थित मार्केंडेय तालाब का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों और स्नानादि के लिए किया जाता है।

5-भास्करेश्वर मंदिर;-

भास्करेश्वर मंदिर 7 वीं शताब्दी का प्राचीन शिव मंदिर है जिसमें नौ फीट लंबा शिवलिंग स्थापित है। मंदिर की एक अनूठी विशेषता, शिवलिंग के आकार के अलावा मंदिर की वास्तुकला भी है, जो बौद्ध स्तूप जैसा दिखता है। यह माना जाता है कि स्तूप को नष्ट करने के बाद भास्करेश्वर मंदिर को बनाया गया है। धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण, भास्करेश्वर मंदिर का उल्लेख वृहलिंगम के पवित्र ग्रंथों में भी किया गया है

6-साखीगोपाल मंदिर;-

03 POINTS;-

1-पुरी ओडिशा में एक हिंदू मंदिर है, जिसके मुख्य देवता भगवान श्री कृष्ण हैं। साखी (साक्षी भी कहा जाता है) (गवाह) जब आप पुरी जगन्नाथ मंदिर जाते हैं तो गोपाल मंदिर को जरुर दर्शन करना चाहिए। मंदिर पुरी से सिर्फ 20 किलोमीटर दूर, पुरी-भुवनेश्वर हाईवे पर स्थित है।खड़े मुद्रा में श्याम सुंदर भगवान श्री कृष्ण और देवी राधा के दर्शन बहुत ही मनमोहक लगते हैं। मंदिर जगन्नाथ मंदिर की शैली में ही बनाया गया है।यहां भगवान कृष्ण की मूर्ति एक दुर्लभ प्रकार के अविनाशी पत्थर से बनी है जिसे ब्रज कहा जाता है।एक मिथक यह है कि मंदिर भगवान कृष्ण के पोते राजा वज्र के आदेश से एक विदेशी पत्थर से उकेरी गई देवताओं की 16 मूर्तियों में से एक को संदर्भित करता है। यह मंदिर अपने प्रसाद के लिए एक अनूठा विष्णु मंदिर है - क्योंकि भोजन का प्रसाद चावल का बनने की बजाए गेहूं से बना होता है। मंदिर आंवला नवमी महोत्सव के वार्षिक उत्सव के लिए प्रसिद्ध है, जो देवी राधा के पैर छूने की रस्म से जुड़ा हुआ है।साखी गोपाल नाम इस किंवदंती से लिया गया है कि भगवान कृष्ण प्रेम संबंध में एक युवा भक्त के विवाह के पक्ष में गवाही देने के लिए गवाह के रूप में आए थे, जिस पर सवाल उठाया जा रहा था।

2-पौराणिक कथा के अनुसार, गाँव के एक गरीब युवक, जिसे गाँव के मुखिया की बेटी से प्यार हो गया। हालांकि, उच्च आर्थिक स्थिति का होने के कारण, मुखिया ने इस युवक और उसकी बेटी के बीच विवाह का विरोध किया। मुखिया और युवक समेत ग्रामीण काशी की यात्रा पर निकले थे | गाँव का मुखिया बीमार पड़ गया और साथी ग्रामीणों ने उसे छोड़ दिया। युवक ने उसकी इतनी अच्छी देखभाल की कि वह जल्द ही ठीक हो गया और कृतज्ञता में, अपनी बेटी की शादी युवक से करने का वादा किया। जैसे ही वे गाँव लौटे, मुखिया अपने वादे से मुकर गया, युवक से अपने दावे के समर्थन में एक गवाह पेश करने के लिए कहा।

3-भगवान गोपाल, युवक की भक्ति से प्रभावित होकर, एक शर्त पर वादा करके गवाही देने के लिए सहमत हुए: कि युवक नेतृत्व करे और वह उसका अनुसरण करे, लेकिन युवक को कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए। वह रेत के एक टीले से गुजरते हुए गाँव का रास्ता ले गया। जैसे ही वे गुजरे, वह व्यक्ति भगवान के कदमों को नहीं सुन सका और वापस मुड़ गया। तुरंत भगवान मौके पर जड़े पत्थर की मूर्ति में बदल गए। गांव वाले बहुत प्रभावित हुये कि भगवान ने खुद युवक के इस दावे का समर्थन किया फिर युवक की शादी कर दी गई है; बाद में उन्हें भगवान गोपाल के सम्मान में बने मंदिर के पहले पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया, जो साक्षी के रूप में आए (संस्कृत में साक्षी के रूप में जाना जाता है)।

7-बेदी हनुमान मंदिर पुरी;-

03 POINTS;-

1-पुरी के समुद्र तट के किनारे पर स्थित बेदी हनुमान मंदिर पुरी के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। यह प्राचीन मंदिर हिन्दू धर्म में सबसे पूज्नीय माने जाने भगवान हनुमान को समर्पित है। बेदी हनुमान मंदिर को पुरी में दरिया महावीर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस प्राचीन मंदिर का नाम बेदी हनुमान मंदिर रखने के पीछे एक बहुत ही दिलचस्प पौराणिक कथा जुड़ी हुई है।ऐसा माना जाता है की समुद्र किनारे पर बना हुआ दरिया हनुमान मंदिर पुरी को समुद्र के प्रकोप से बचाता है और किसी भी प्रकार से समुद्र का पानी शहर में प्रवेश करने से रोकते है। एक बार श्री जगन्नाथ भगवान के दर्शन करने के लिए समुद्र के देवता वरुण ने पुरी में प्रवेश कर लिया और उनके पीछे-पीछे समुद्र के पानी ने भी शहर के अंदर प्रवेश कर लिया । समुद्र के पानी ने जब शहर में प्रवेश किया तो इस वजह से पुरी शहर और जगन्नाथ मंदिर को बहुत भारी नुकसान पहुँचा। समुद्र के प्रकोप से बचने के लिए पुरी के निवासियों ने भगवान जगन्नाथ से प्रार्थना की। उसके बाद भगवान जगन्नाथ ने हनुमानजी से पूछा की उनकी होते हुए समुद्र के पानी मंदिर और शहर में प्रवेश किया कैसे प्रवेश किया।

2-हनुमानजी ने भगवान जगन्नाथ को बताया की वह भगवान श्रीराम के दर्शन करने के लिए अयोध्या गए हुए थे इसी वजह से समुद्र का पानी मंदिर और शहर में प्रवेश कर गया।हनुमानजी की इस अनिश्चित यात्रा के बारे में सुनने पर भगवान जगन्नाथ ने उनके हाथ और पैरों को रस्सी से बांध दिया ताकि वह दोबारा पुरी को छोड़ कर कहीं और ना जा सके। पौराणिक कथा के अनुसार उसी समय से इस प्राचीन मंदिर को बेदी हनुमान मंदिर के नाम से जाना जाने लगा। बेदी हनुमान मंदिर के गृभगृह में स्थापित हनुमानजी जी की मूर्ति के बाएँ हाथ में मिठाई है और दाएँ हाथ में एक गदा पकड़ी हुई है।मंदिर के बाहरी भाग पर हिन्दू धर्म के अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनी हुई है। हनुमानजी जी की माता अंजनी की मूर्ति भी मंदिर के पश्चिमी भाग की दीवार पर बनी हुई है जिसमें वह एक छोटे बच्चे को गोद में खिला रही है। मंदिर के दक्षिणी भाग की दीवार पर गणेश जी की मूर्ति भी बनाई गई है।

8-सोनार गौरंगा मंदिर

जगन्नाथ मंदिर के पास सोनार गौरांगा मंदिर में श्री राम, जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा के मंदिर हैं, इसमें भगवान विष्णु के अन्य अवतार भी शामिल हैं।चक्रतीर्थ मार्ग पर स्थित, दरिया हनुमान और सोनार गौरांग मंदिर पुरी के सबसे प्रसिद्ध मंदिर हैं, जिन्हें अक्सर पर्यटकों द्वारा पसंद के स्थान के रूप में देखा जाता है। यह मंदिर हिंदू धर्म के लोगों के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है।मंदिर में श्री राम, भगवान जगन्नाथ, बलराम, और सुभद्रा के मंदिर हैं, जिनमें भगवान विष्णु के अन्य अवतार भी शामिल हैं। मंदिर के भीतर फोटोग्राफी प्रतिबंधित है। छुट्टियां मनाने आने वाले लोग अक्सर यहां आना पसंद करते हैं।

9-कोणार्क का अद्भुत सूर्य मंदिर;-

देश के सबसे बड़े और भव्य 10 मंदिरों में से एक कोणार्क का सूर्य मंदिर, जो भारत की प्राचीन धरोहरों में से एक है। यूनेस्को ने सन् 1984 में इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी है। भगवान सूर्य को समर्पित इस मंदिर की आश्चर्यचकित कर देने वाली संरचना इस प्रकार की गई है जैसे 12 विशाल पहियों पर आधारित एक विशाल रथ को 7 ताकतवर बड़े घोड़े खींच रहे हों। इस रथ पर भगवान सूर्य नारायण विराजमान है। हमारी भारतीय मुद्रा 10 के नोट में इस मंदिर की छबि अंकित की गई है। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूर्य से निकली लालिमा से पूरा मंदिर लाल-नारंगी रंग से सराबोर हो जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब ने कोढ़ के उपचार के लिए चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर बारह वर्ष तपस्या करके सूर्य देव को प्रसन्न किया। जब सूर्यदेव उनके रोग का अन्त किया। तब साम्ब ने कोणार्क में सूर्य भगवान का एक मन्दिर निर्माण का संकल्प लिया। उन्हें चंद्रभागा नदी में देवशिल्पी श्री विश्वकर्मा की बनाई हुई सूर्यदेव की एक मूर्ति मिली। जिसे साम्ब ने अपने बनवाये मित्रवन के एक मन्दिर में इस मूर्ति को स्थापित कर दिया।

10-माँ रामचंडी मंदिर;-

कुशभद्रा नदी के तट पर स्थित है। पीठासीन देवता देवी रामचंडी कोणार्क क्षेत्र की रक्षक हैं। यह ओडिशा के पुरी जिले में कोणार्क से केवल 5 किमी दूर है।यह ओडिशा के प्रसिद्ध शक्ति पीठों में से एक है। सुंदर मां चंडी, एक छोटे से मंदिर में रेत के टीले से छिपी हुई कमल के फूल पर बैठी हैं।

भुवनेश्वर शहर के मन्दिर ;-

1-लिंगराज मंदिर;-

04 POINTS;-;-

1- भुवनेश्वर शहर को मंदिर शहर के रूप में भी जाना जाता है यहां पर 700 से अधिक मंदिर मिल सकते हैं। इनमें से अधिकांश मंदिर भगवान शिव को समर्पित हैं। भुवनेश्वर नाम शिव के संस्कृत नाम त्रिभुबनेश्वर से आया है, जिसका अर्थ है "तीनों लोकों का भगवान"। पुराने हिंदू धर्मग्रंथ कहते हैं कि भुवनेश्वर भगवान शिव के पसंदीदा स्थानों में से एक था, जहां वे एक विशाल आम के पेड़ के नीचे समय बिताना पसंद करते थे। भुवनेश्वर में कई मंदिर 8 वीं -12 वीं शताब्दी ईस्वी से निर्मित किए गए थे, उस समय के दौरान शैव धर्म (भगवान शिव की पूजा) धार्मिक दृश्य पर हावी था।भगवान शिव और बिन्दु सागर का लिंगराज मंदिर सभी धार्मिक संस्थानों के केंद्र हैं। जगन्नाथ मंदिर की तरह, गैर-हिंदुओं को मंदिर परिसर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। मंदिर परिसर में केवल हिंदुओं को प्रवेश की अनुमति है।यह मंदिर भुवनेश्वर के सबसे पुराने और अद्भुत मंदिरों में से एक है। लिंगराज मंदिर हिन्दू धर्म के आराध्य देव भगवान शिव के एक रूप हरिहर को समर्पित है। हरिहर का मतलब है -हरि है विष्णु जिन्हें शिव ने हरा है। यह मंदिर वैसे तो भगवान शिव को समर्पित है परन्तु शालिग्राम के रूप में भगवान विष्णु भी यहां मौजूद हैं। यह भारत का ऐसा इकलौता मंदिर है, जहां भगवान शंकर और भगवान विष्णु दोनों के ही रूप बसते हैं। इस मंदिर को लेकर एक कथा प्रचलित है, जिसका पुराणों में भी जिक्र मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव ने माता पार्वती से भुवनेश्वर शहर की चर्चा की। तब माता पार्वती ने निश्चय किया कि वह भुवनेश्वर शहर को खोज कर ही लौटेंगी। गाय का रूप धारण कर माता पार्वती भुवनेश्वर शहर की खोज में निकल पड़ी। जब माता शहर की खोजबीन कर रही थी तब दो राक्षस जिनका नाम लिट्टी एवं वसा था, माता पार्वती के पीछे पड़ गए और उनसे शादी का प्रस्ताव रखने लगे। हालांकि माता पार्वती ने उन्हें मना कर दिया, बावजूद इसके वह उनका पीछा करते रहे।

2-अंत में माता पार्वती ने उन दोनों राक्षसों का वध कर दिया। लड़ाई के बाद जब माता पार्वती को प्यास लगी तो भगवान शिव अवतरित हुए और भगवान शिव ने कुआं बना कर सभी पवित्र नदियों का आह्वान किया। यहाँ पर उन्होंने बिन्दुसागर सरोवर का निर्माण किया और भुवनेश्वर शहर की खोज हुई। कहा जाता है कि भगवान शिव और माता पार्वती लंबे समय तक इस शहर में निवास करते रहे। बिंदुसार सरोवर के निकट ही लिंगराज का विशालकाय मंदिर है। सैकड़ों वर्षों से भुवनेश्वर यहीं पूर्वोत्तर भारत में शैव सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र रहा है। कहते हैं कि मध्ययुग में यहाँ सात हज़ार से अधिक मंदिर और पूजा स्थल थे, जिनमें से अब क़रीब पाँच सौ ही शेष बचे हैं। लिंगराज का अर्थ होता है लिंगम के राजा, जो यहां भगवान शिव को कहा गया है। वास्तव में यहां शिव की पूजा कृतिवास के रूप में की जाती थी और बाद में भगवान शिव की पूजा हरिहर नाम से की जाने लगी।मौजूदा मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा जजाति केशरि ने 11वीं शताब्दी में करवाया था जो सोमा वंश के थे। उसने तभी अपनी राजधानी को जयपुर से भुवनेश्वर में स्थानांतरित किया था। इस स्थान को ब्रह्म पुराण में एकाम्र क्षेत्र बताया गया है। किंतु इसके कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी ज्यादा पुराने हैं। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है। लिंगराज मंदिर कुछ कठोर परंपराओं का अनुसरण भी करता है। यहाँ पर गैर-हिंदू को मंदिर के अंदर प्रवेश की अनुमति नहीं है। हालांकि मंदिर के ठीक बगल में एक ऊंचा चबूतरा बनाया गया है, जहाँ से दूसरे धर्म के लोग मंदिर को देख सकते है।

3-लिंगराज मंदिर की पूजा पद्धति के अनुसार सबसे पहले बिंदु सरोवर में स्नान किया जाता है, फिर क्षेत्रपति अनंत वासुदेव के दर्शन किए जाते हैं, जिनका निर्माण काल नवीं से दसवीं सदी का रहा है। इसके बाद गणेश पूजा की जाती है। गणेश पूजा के बाद गोपालनी देवी व शिवजी के वाहन नंदी की पूजा की जाती है। फिर लिंगराज के दर्शन के लिए मुख्य स्थान में प्रवेश किया जाता है, जहाँ आठ फ़ीट मोटा तथा क़रीब एक फ़ीट ऊँचा ग्रेनाइट पत्थर का स्वयंभू लिंग स्थित है। शिवलिंग का बाहरी रूप पारम्परिक शिवलिंग जैसा गोलाकार है जिसमें से एक ओर से पानी जाने का मार्ग है लेकिन बीचों-बीच लिंग न होकर चाँदी का शालीग्राम है जो विष्णु जी है। ये देखने में ऐसा प्रतीत होता है जैसे गहरे भूरे लगभग काले शिवलिंग की काया के बीच में सफेद शालिग्राम शिव के हृदय में विष्णु समाए है। इसीलिए इन्हें हरिहर कहा जाता है। लिंगराज मंदिर में शिव-विष्णु एक साथ होने से यहाँ ऑक के फूल और तुलसी एक साथ चढ़ाए जाते है। ओडिशा में जगन्नाथ पुरी जाने से पहले पौराणिक मान्यता के अनुसार लिंगराज मंदिर में हरिहर के दर्शन किए जाने चाहिए। भीतर मुख्य गर्भगृह में हरि को हरने वाले इस हरिहर के अतिरिक्त लिंगराज मन्दिर के विशाल प्रांगण में अनेकों देवी-देवताओं के छोटे-छोटे मन्दिर है। इनमें गणेश, पार्वती, महालक्ष्मी, दुर्गा, काली, नागेश्वर, राम, हनुमान, शीतला माता, संतोषी माता, सावित्री, व यमराज के मंदिर शामिल है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार लिंगराज मंदिर से होकर एक नदी गुजरती है। इस नदी के पानी से मंदिर का बिंदु सागर टैंक भरता है। इसके बारे में कहा जाता है कि यह पानी शारीरिक और मानसिक बीमारियों को दूर करता है। लोग अक्सर इस पानी को अमृत के रूप में पीते हैं और उत्सवों के समय भक्त इस टैंक में स्नान भी करते हैं।

4-लिंगराज मंदिर के आसपास का मंदिर

इस मंदिर के चारों ओर कई छोटे-छोटे मंदिर हैं लेकिन 'वैताल' मंदिर इनमें विशेष महत्‍व रखता है। इस मंदिर की स्‍थापना 8वीं शताब्‍दी के आसपास हुई थी। इस मंदिर में चामुंडा देवी की मूर्ति स्‍थापित है। यह मूर्ति देखने में काफी भयावह प्रतीत होती है। यह मंदिर चतुर्भुजाकार है। इस मंदिर में तांत्रिक, बौद्ध तथा वैदिक परम्‍परा सभी के लक्षण एक साथ देखने को मिलता है।

2-मुक्‍तेश्‍वर मंदिर समूह, भुवनेश्वर;-

राजा-रानी मंदिर से 100 गज की दूरी पर मुक्‍तेश्‍वर मंदिर समूह है।मुक्‍तेश्‍वर मन्दिर भुवनेश्वर के ख़ुर्द ज़िले में स्थित है। मुक्‍तेश्‍वर मन्दिर दो मन्दिरों का समूह है: परमेश्‍वर मन्दिर तथा मुक्‍तेश्‍वर मन्दिर। मुक्तेश्वर मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है और यह मन्दिर एक छोटी पहाड़ी पर बना हुआ है इस मन्दिर तक पहुंचने के लिए लगभग 100 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। यहाँ भगवान शिव के साथ ब्रह्मा, विष्णु, पार्वती, हनुमान और नंदी जी भी विराजमान हैं। मन्दिर के बाहर लंगूरों का जमावड़ा लगा रहता है। इन दोनों मंदिरों की स्‍थापना 650 ई. के आसपास हुई थी। परमेश्‍वर मंदिर सबसे सुरक्षित अवस्‍था में है। यह मंदिर इस क्षेत्र के पुराने मंदिरों में सबसे आकर्षक है। इसके जगमोहन में जाली का खूबसूरत काम किया गया है। इसमें आकर्षक चित्रकारी भी की गई है। एक चित्र में एक नर्त्तकी और एक संगीतज्ञ को बहुत अच्‍छे ढ़ंग से दर्शाया गया है। इस मंदिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग है। यह शिवलिंग अपने बाद के लिंगराज मंदिर के शिवलिंग की अपेक्षा ज्‍यादा चमकीला है।

परमेश्‍वर मंदिर की अपेक्षा मुक्‍तेश्‍वर मंदिर छोटा है। इस मंदिर की स्‍थापना 10वीं शताब्‍दी में हुई थी। इस मंदिर में नक्‍काशी का बेहतरीन काम किया गया है। इस मंदिर में की गई चित्रकारी काफी अच्‍छी अवस्‍था में है। एक चित्र में कृशकाय साधुओं तथा दौड़ते बंदरों के समूह को दर्शाया गया है। एक अन्‍य चित्र में पंचतंत्र की कहानी को दर्शाया गया है। इस मंदिर के दरवाजे आर्क शैली में बने हुए हैं। इस मंदिर के खंभे तथा पि‍लर पर भी नक्‍काशी की गई है। इस मंदिर का तोरण मगरमच्‍छ के सिर जैसे आकार का बना हुआ है।इस मंदिर के दायीं तरफ एक छोटा सा कुआं है। इसे लोग 'मारीची कुंड कहते हैं। स्‍थानीय लोगों का ऐसा कहना है कि इस कुंड के पानी से स्‍नान करने से महिलाओं का बाझंपन दूर हो जाता है।

3-श्री केदार गौरी मंदिर ;-

दो मंदिरों का समूह है श्री केदारेश्वर मंदिर और श्री केदारगौरी मंदिर है, मुक्तेश्वर मंदिर के मंदिर के पास स्थित है। यह भुवनेश्वर के आठ अस्तसंबु मंदिरों में से एक है।केदार गौरी मंदिर वास्तव में एक परिसर है जिसमें दो अलग-अलग मंदिर हैं, एक भगवान शिव को समर्पित है और दूसरा देवी पार्वती को। किंवदंती यह मानती है कि देवी पार्वती के साथ भगवान शिव वाराणसी से इस स्थान पर आए थे, क्योंकि उन्होंने अधिक शांत स्थान पसंद था।केदार गौरी मंदिर परिसर के दो मंदिरों में से एक केदार मंदिर है। इस मंदिर की स्थापत्य विशेषताएं मुक्तेश्वर मंदिर परिसर में स्थित सिद्धेश्वर मंदिर से मिलती जुलती हैं। दक्षिणमुखी इस मंदिर में केदारेश्वर नाम का शिवलिंग स्थापित है। इसमें रेखा प्रकार विमान और पीठ प्रकार जगमोहन है। मंदिर योजना पर पंच रथ और ऊंचाई पर पंचांग बड़ा है। बाहरी दीवार के चारों ओर गणेश, कार्तिकेय और पार्वती जैसी पार्श्वदेवता की मूर्तियाँ हैं।

गौरी मंदिर परिसर का दूसरा मंदिर है और भगवान शिव की पत्नी गौरी को समर्पित है। इस मंदिर की बाहरी दीवारों पर जटिल नक्काशी की गई है। इस पूर्वमुखी मंदिर में खाखरा देउला प्रकार का विमान और पीठा प्रकार का जगमोहन है।

परिसर में शिव, हनुमान, दुर्गा और गणेश के तीन छोटे मंदिर भी हैं। मंदिर परिसर में दो तालाब भी हैं जिनका नाम खिरा कुंड और मारीचि कुंड है, जिनके बारे में कहा जाता है कि इनमें पवित्र शक्तियां हैं। ऐसा माना जाता है कि खीरा कुंड का पानी पुरुष को जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त करता है जबकि मारीचि कुंड का पानी महिला की बांझपन को ठीक करता है।

4-श्री अनंत वासुदेव मंदिर;-

श्री अनंत वासुदेव मंदिर भगवान विष्णु के अवतार, भगवान कृष्ण को समर्पित एक हिंदू मंदिर है। भगवान विष्णु को समर्पित अनंत-वासुदेव मंदिर 13 वीं शताब्दी के दौरान रानी चंद्रिका द्वारा बनाया गया था । यह मंदिर वैष्णव प्रतीकों को दर्शाता है, और भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर जैसा दिखता है। इसके अंदर भगवान कृष्ण, भगवान बलराम और देवी सुभद्रा की मूर्तियाँ हैं। बलराम की मूर्ति सात फनों वाले सर्प के नीचे स्थापित है, सुभद्रा के हाथों में गहनों का एक पात्र है, और भगवान कृष्ण ने गदा, चक्र, कमल और शंख धारण किया हुआ है। इसके अलावा, मंदिर में शिखर नामक लघु मंदिर स्थापित हैं और अधिकांश स्त्री-रूपी मूर्तियां अत्यधिक सुसज्जित हैं। अनंत वासुदेव भगवान विष्णु का ही एक नाम है, और किंवदंती है कि इस मंदिर के निर्माण से पहले भी यहाँ भगवान विष्णु की एक मूर्ति की पूजा की जाती थी। स्थानीय लोगों का मानना है कि यह किंवदंती यह साबित करती है कि इस स्थान पर एक पुराना मंदिर मौजूद था।

5-परशुरामेश्वर मंदिर;-

02 POINTS;-

1-परशुरामेश्वर मंदिर एक प्राचीन हिंदू मंदिर है जो बिंदू सागर तालाब, केदार गौरी विहार, ओल्ड टाउन भुवनेश्वर के पास स्थित है। मंदिर हिंदू भगवान शिव को समर्पित है और ओडिशा के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। मंदिर की दीवारों में छह-सशस्त्र देवी दुर्गा की नक्काशीदार छवि है। यह सप्तमातृका(सात देवी-देवताओं का एक समूह) छवियों वाले भुवनेश्वर मंदिरों में पहला है। परशुरामेश्वर मंदिर को शैलोदभावाओं ने बनवाया था, जिनके परिवार के देवता शिव थे। इस मंदिर में एक विमना, गर्भगृह और एक बाड़ा है, जिसकी छत के ऊपर वक्रतापूर्ण गोला है, जिसकी ऊंचाई 40.25 फीट (12.27 मीटर) है। यह पहला मंदिर है जिसमें एक अतिरिक्त संरचना है जिसे जगमोहन कहा जाता है, पहले के मंदिरों की तुलना में केवल विमना था।मंदिर हिंदू मंदिर वास्तुकला की नागर शैली के शुरुआती उदाहरणों में से एक है जो ऊर्ध्वाधर संरचना पर जोर देता है, जैसा कि भुवनेश्वर का मुक्तेश्वर, लिंगराज मंदिर, राजरानी मंदिर और कोणार्क में सूर्य मंदिर के रूप में देखा जाता है।परशुरामेश्वर मंदिर, राजरानी मंदिर और वैताल देवला के साथ 7 वीं और 8 वीं शताब्दी ईस्वी के दौरान देवदासी परंपरा के अस्तित्व की पुष्टि करता है। देवदासियाँ अपने जीवन के लिए एक देवता या एक मंदिर की पूजा और सेवा के लिए समर्पित लड़कियां थीं और आमतौर पर एक उच्च सामाजिक स्थिति का आनंद लेती थीं।

2-यद्यपि परशुरामेश्वर मंदिर शैव मंदिर है; इसमें कई शक्ति देवताओं की छवियां शामिल हैं, जैसे कि इसकी दीवारों पर बने हुए पार्श्वदेवता हैं। मंदिर की दीवारों में छह-सशस्त्र देवी दुर्गा की नक्काशीदार छवि है। यह सप्तमातृका चित्र, सात देवी-देवताओं के समूह में शामिल भुवनेश्वर मंदिरों में से पहला है। ये चित्र गणेश और वीरभद्र के निरूपण के बीच स्थित हैं। गणेश को छोड़कर, अन्य सभी छवियों को उनके वैहनियों के साथ दर्शाया गया है। एक आठ-सशस्त्र नृत्य अर्धनारीश्वर, शिव-पार्वती की एक छवि और मंदिर की दीवार पर गंगा और यमुना के चित्र भी पाए जाते हैं।पोर्च के आधार के आसपास आयताकार में विष्णु, इंद्र, सूर्य और यम की छवियां भी हैं। दक्षिणी दीवार पर उनके मोर वाहन पर सवार कार्तिकेय की एक मूर्ति मौजूद है। अन्य उल्लेखनीय नक्काशियां राक्षस रावण को वश में करने की हैं, जो शिव के निवास स्थान कैलास पर्वत को उखाड़ने की कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं। मंदिर में विभिन्न तांडवों में शिव को नटराज के रूप में चित्रित किया गया है।

जगन्नाथ के आसपास घूमने लायक पर्यटन स्थल;-

जब आप पुरी दर्शन करने का प्लान बनाये तो कम से कम 3 दिन का समय अवश्य निकालिए।ऐसा माना जाता है,कि अगर कोई व्यक्ति पुरी में 3 दिन और 3 रात तक रुकता है तो उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है।पहले दिन जगन्नाथ मंदिर, बीच और अन्य प्रमुख मंदिर के दर्शन कीजियेगा। दूसरे दिन पर्यटन बस से मन को लुभाने वाला चन्द्रभागा, कोणार्क का अद्भुद सूर्य मंदिर, भगवान शिव का लिंगराज मंदिर, भगवान बुद्ध का धौलिगिरि, जैन मुनियों की उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफाएं और सफेद शेर व दुर्लभ वन्यजीवों का नंदन कानन अभ्यारण्य देखियेगा। तीसरे दिन चिल्का लेक और समुद्र का संगम एवं डाल्फिन देखने का मौका नहीं गवाएं।

08 FACTS;-

1-भगवान बुद्ध का धौलिगिरि हिल्स;-

धौलिगिरि हिल्स, भुवनेश्वर से लगभग 8 किमी दूर एक शांत स्थल है। इसी धौली पहाड़ी पर कलिंग साम्राज्य और मौर्य साम्राज्य का विशाल युद्ध हुआ था, जिसके भीषण रक्तपात से आहत होकर सम्राट अशोक ने बौध धर्म अपना लिया था। अब यहाँ गुंबद के आकार वाले शांति पैगोडा या धौली शांति स्तूप स्थित है। इस धौली शांति स्तूप में भगवान बुद्ध के पैरों के निशान वाले पत्थर और बोधि वृक्ष मौजूद हैं। इसके निकट एक पहाड़ी के शिखर पर एक बड़े चट्टान में अशोक के शिलालेख भी उत्कीर्ण है।

2-जैन मुनियों की उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफाएं;- लिंगराज मंदिर के दर्शन के बाद हमारा अगला पड़ाव उदयगिरी और खंडगिरी, भुवनेश्वर से करीब 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। इस दोनों पहाड़ियों में कई गुफाएं हैं, जिनमें से अधिकांश गुफाएं जैन भिक्षुओं और राजा खारवेल के कारीगरों ने पहाडियों में पत्‍थरों को काट कर गुफाएं बनाई हैं।इन गुफाओं का निर्माण प्रसिद्ध चेदी राजा खारवेल जैन मुनियों के निवास के लिए करवाऐ थे। इन गुफाओं में की गई अधिकांश चित्रकारी नष्‍ट हो गई है। उदयगिरि में 18 गुफाएं और खंडगिरि में 15 गुफाएं हैं। ये गुफाएं प्राचीन भारत की स्थापत्य कला की साक्षी होने के साथ-साथ प्रेम, करुणा और धार्मिक सहिष्णुता की संदेश वाहक भी हैं। पहली शताब्दी ईसा पूर्व से पहले की बनी ये उदयगिरि और खंडगिरि की गुफाएं भारत के आश्चर्यो में से एक है। पहली गुफा रानी गुफा में बाहरी बरामदे की बनावट और मंदिर की मूर्तिकला बनी हुई है। इसके ऊपर गणेश गुफा में दीवारों पर हाथी की मूर्तियां और सीताहरण की घटना उत्कीर्ण की गई है। इन गुफाओं के अलावा अनंत गुफा, व्याघ्र गुफा, सर्प गुफा और जैन गुफा भी हैं। ये गुफाएं एक-दूसरे के साथ सीढ़ियों से जुड़ी हुई हैं।गुफा संख्‍या 4 जिसे रानी गुफा के नाम से भी जाना जाता है, दो तल का है। यह एक आकर्षक गुफा है। इसमें बनाई गई कई मूर्त्तियां अभी भी सुरक्षित अवस्‍था में हैं। इस गुफा में सफाई का उत्तम प्रबंध था। ऐसा लगता है कि इसे बनाने वाले कारीगरों का तकनीकी ज्ञान काफी उन्‍नत था।गुफा संख्‍या 10 में जिसे गणेश गुफा भी कहा जाता है वहां गणेश की मनमोहक मूर्त्ति है। इस गुफा के दरवाजे पर दो हाथियों को दरबान के रूप में स्‍थापित किया गया है। लेकिन खन्डगिरि गुफा में बनी हुई जैन तीर्थंकरों की सभी मूर्त्तियां नष्‍ट प्राय अवस्‍था में है। इन गुफाएं को देखते समय वानर सेना से सावधान रहे और खाने पीने की वस्तुएं न निकालें।

3- 'चौसठ योगिनी' मंदिर;-

हीरापुर भुवनेश्‍वर से 15 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव है। इसी गांव में भारत का मंदिर 'चौसठ योगिनी' स्थित है।निकट ही खंडगिरि और उदयगिरि गुफाएं है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्‍दी में हुआ था। इसका उत्‍खनन 1958 ई. में किया गया था।यह मंदिर गोलाकार आकृति के रूप में बनी हुई है जिसका व्‍यास 30 फीट है। इसकी दीवारों की ऊंचाई 8 फीट से ज्‍यादा नहीं है। यह मंदिर भूरे बलूए पत्‍थर से निर्मित है। इस मंदिर में 64 योगिनियों की मूर्त्तियां बनाई गई है। इनमें से 60 मूर्त्तियां दीवारों के आले में स्थित है। शेष मूर्त्तियां मंदिर के मध्‍यम में एक चबूतरे पर स्‍थापित है। इस मंदिर का बाहरी दीवार भी काफी रोचक है। इन दीवारों में नौ आले हैं जिनमें महिला पहरेदार की मूर्त्तियां स्‍थापित है।प्रवेश शुल्‍क: 10 रु. मात्र। समय: 10 बजे सुबह से शाम 5 बजे तक। सभी दिन खुला रहता है।

4-चिल्का लेक ;-

भारत की सबसे बड़ी और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी समुद्री झील, चिल्का लेक जाने के लिए आपको एक दिन पहले ही बस बुक करना होगा।यह पुरी जिले के दक्षिण-पश्चिम में 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। चिल्का झील की लम्बाई 70 किलोमीटर और चौड़ाई 15 किलोमीटर है।चिल्का झील के पास एक प्राचीन मंदिर भी बना हुआ है। यह प्राचीन मंदिर देवी कालजई को समर्पित है, स्थानीय निवासी इस मंदिर को कालजई मंदिर के नाम से जानते है। लगभग 90 मिनिट के सफ़र के बाद आप डाल्फिन व्यू प्वाइंट पर पहुचते है। यहां सब नाव वाले एक दूसरे के सहायक होते है। जैसे ही पानी में डाल्फिन की हलचल होती है, सभी नावें स्पीड बढ़ा कर उसी तरफ भागने लगती है। यहाँ आप समुद्र में गोते लगाती इरावाडी डॉल्फिन, कॉमन डॉल्फिन, बॉटल नोज़ डॉल्फिन और व्हाइट नोज़्ड डॉल्फ़िन को देख सकते हैं।कुछ देर बाद बोट आपको एक आइलैंड पर उतर देगी। इस आइलैंड पर 40 मिनिट का स्टॉप होगा। यहाँ पर आपको चिल्का झील और समुद्र के संगम का अविस्मर्णीय द्रश्य दिखाई देगा।अब आपका वापसी का काफी लम्बा सफर शुरू होता है। सफ़र के दौरान बीच में कई टापू के साथ साथ समुद्र का मुहाना भी दिखायी देता है। इस झील में सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा आपको एक अलग ही अनुभव देता है। चिल्का झील के तटीय क्षेत्र में सुनहरा सियार, चित्तीदार हिरण, काला हिरन और हाइना जैसे कई जंगली जानवर और जलीय क्षेत्र में मछलियों की 225 से अधिक प्रजातियां, झींगे, छिपकलियां व समुद्री वन्यजीव भी आप देख सकते हैं। किनारे पर पहुचकर आप रेस्टोरेंट में नाश्ता या खाना खा सकते है। लगभग 2 घंटे के सफ़र में अपने मन में इस विशाल चिल्का लेक की यादों को समेटे हुये आप पुरी पहुँच जायेगे।

5-चंद्रभागा समुद्रतट पुरी;-

चंद्रभागा समुद्र तट की पुरी से दूरी मात्र 27 किलोमीटर है और कोणार्क से इस बीच की दूरी मात्र 5 किलोमीटर है। चंद्रभागा समुद्र तट पुरी और कोणार्क का प्रमुख और सबसे सुंदर समुद्र तट में से एक माना जाता है। स्थानीय लोग चंद्रभागा समुद्र तट को कोणार्क समुद्र तट के नाम से भी जानते है। बंगाल की खाड़ी में मिलने वाली चंद्रभागा नदी की वजह से इस समुद्र तट का नाम चंद्रभागा समुद्र तट रखा गया है।समुद्र तट की मिट्टी का रंग सफेद है, इस समुद्र तट पर आने वाले पर्यटक अपना अधिकांश समय धूप सकने और नीले पानी में सूर्यास्त देखते हुए व्यतीत करते है। चंद्रभागा समुद्र तट पुरी और कोणार्क का सबसे प्रमुख पर्यटक स्थल माना जाता है। इस समुद्र तट पर एक पुराना लाइट हाउस भी बना हुआ है जो की यहाँ आने वाले सभी पर्यटकों का ध्यान अपनी और आकर्षित करता है।

6-बेलेश्वर समुद्र तट ;-

बंगाल की खाड़ी पर स्थित बेलेश्वर समुद्र तट ओडिशा के सबसे शांत और साफ समुद्र तट में से एक माना जाता है। यह समुद्र तट पुरी से लगभग 17 किलोमीटर दूर बेलेश्वर नाम के स्थान पर स्थित है। बेलेश्वर नाम के स्थान की वजह से इस समुद्र तट को बेलेश्वर समुद्र तट या फिर बालेश्वर समुद्र तट के नाम से जाना जाता है।बेलेश्वर समुद्र तट पुरी के सबसे प्रसिद्ध समुद्र तटों में से एक माने जाते है।बेलेश्वर समुद्र तट के पास बहने वाली नुआनाई नदी जब बंगाल को खाड़ी में गिरती है तब यह दृश्य बहुत खूबसूरत दिखाई देता है। समुद्र तट के एक तरफ साफ सुथरा और नीला समुद्र दिखाई देता है। और समुद्र तट के दूसरी तरफ घने पेड़ इस जगह की सुंदरता को और बढ़ा देते है।बेलेश्वर समुद्र तट के पास स्थित बेलेश्वर महादेव नाम का एक प्राचीन शिव मंदिर भी बना हुआ है। इस प्राचीन शिव मंदिर में महाशिवरात्रि के समय हजारों की संख्या में श्रद्धालु भगवान शिव के दर्शन करने के लिये आते है।

7-नंदनकानन;-

हरे-भरे जंगलों के बीच 400 हेक्टियर में फैला नंदनकानन जू के साथ-साथ बॉटनिकल गार्डन भी है। इसकी प्राकृतिक सुंदरता, 126 प्रजाति के जंगली जानवर और कुछ दुर्लभ हरे-भरे पेड़-पौधे आपको सुरक्षित जंगल में घूमने की अनुभूति देते हैं। यह मात्र एक चिड़ियाघर ही नहीं बल्कि एक विशाल वन्य जीव उद्यान या अपने आप में पूरा का पूरा जंगल है। नंदन कानन विशेष रूप से सफेद बाघों के लिए प्रसिद्ध है। बाघों में जीन दोष के कारण शावक का रंग सफेद हो जाता है।यही सफ़ेद दुर्लभ रूप के कारण बंगाल टाइगर विश्व प्रसिद्ध है। आप यहाँ सफेद बाघों के अलावा कई दुर्लभ जीव गिद्ध, मेलेनिस्टिक टाइगर, पांगोलिन, लुप्तप्राय रटेल आदि देख सकते है। यहाँ पर झील में घड़ियाल, हिप्पो और अलग-अलग प्रजाति के हज़ारों पक्षी प्राकृतिक निवास में आपके स्वागत के लिए तैयार मिलते हैं।ध्यान रहे नंदन कानन सोमवार को बंद रहता है, इसलिए इस सफ़र पर सोमवार को न निकले।बाकि दिनों में अक्टूबर से मार्च सुबह 8 से 5 बजे तक और सालभर सुबह 7.30 से 5.30 तक खुला रहता है।

8-चंडी मंदिर कटक;-

चंडी मंदिर कटक, महानदी नदी के तट के पास स्थित , ओडिशा के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। इसलिए यह पर्यटकों और आगंतुकों के लिए एक उल्लेखनीय धार्मिक स्थान है। चंडी मंदिर एक तरह से आकर्षक है और भक्तों और कट्टरपंथियों का पूरा ध्यान रखता है।

हवाई जहाज से जगन्नाथपुरी कैसे पहुंचे; –

जगन्नाथ मंदिर का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा भुवनेश्वर है, जो देश के काफी सारे हवाई अड्डे से जुड़ा हुआ है।जगन्नाथ मंदिर का सबसे नजदीकी एयरपोर्ट उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर एयरपोर्ट है, जहां से जगन्नाथ मंदिर की दूरी करीब 61 किमी. है। भुवनेश्वर एयरपोर्ट से पूरी जाने के लिए आप बस, टैक्सी या ट्रेन इनमें से किसी भी एक साधन की सुविधा ले सकते हैं।

ट्रेन से जगन्नाथ मंदिर कैसे पहुंचे -

जगन्नाथ मंदिर का करीबी रेलवे स्टेशन पुरी रेलवे स्टेशन है, जो देश के विभिन्न शहरों से जुड़ा हुआ है। अगर आपको पुरी रेलवे स्टेशन के लिए डायरेक्ट ट्रेन ना मिले, तो आप अपने शहर से भुवनेश्वर रेलवे स्टेशन के लिए ट्रेन पकड़ सकते हैं। भुवनेश्वर रेलवे स्टेशन से आप दूसरी ट्रेन पकड़ कर या बस के माध्यम से पुरी जा सकते हैं।पुरी रेलवे स्टेशन से जगन्नाथ मंदिर की दूरी करीब 2 किलोमीटर है।जिसे आप कैब लेकर आसानी से कंप्लीट कर सकते हैं। भुवनेश्वर रेलवे स्टेशन से जगन्नाथ मंदिर की दूरी करीब 60 किमी. है और इस दूरी को तय करने के लिए आपको ट्रेन, बस और टैक्सी तीनों साधनों की उपलब्धि बहुत ही आसानी से मिल जाएगी।

IN NUTSHELL....

अन्य पुरी मंदिर ;-

1-गुंडिचा मंदिर पुरी -जगन्नाथ के मुख्य मंदिर परिसर से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित

2-लोकनाथ मंदिर पुरी-जगन्नाथ मंदिर से 1.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित

3-अलारनाथ मंदिर पुरी-पुरी से 22 किलोमीटर दूर ब्रह्मगिरि में

4-मार्कंडेश्वर मंदिर पुरी

5-भास्करेश्वर मंदि

6-साखीगोपाल मंदिर-पुरी स्टेशन से 1.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित

7-बेदी हनुमान मंदिर पुरी-पुरी में ही सागर तट पर स्थित

8-सोनार गौरंगा मंदिर

9-कोणार्क का अद्भुत सूर्य मंदिर-जगन्नाथ मन्दिर से 21 मील उत्तर-पूर्व समुद्रतट पर चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित

10-माँ रामचंडी मंदिर

भुवनेश्वर मंदिर ;-

1-लिंगराज मंदिर

2-मुक्‍तेश्‍वर मंदिर समूह--राजा-रानी मंदिर से 100 गज की दूरी पर मुक्‍तेश्‍वर मंदिर समूह

3-श्री केदार गौरी मंदिर- ओल्ड टाउन भुबनेश्वर

4-श्री अनंत वासुदेव मंदिर

5-परशुरामेश्वर मंदिर-ओल्ड टाउन, भुवनेश्वर

जगन्नाथ के आसपास घूमने लायक पर्यटन स्थल;-

1-भगवान बुद्ध का धौलिगिरि हिल्स-भुवनेश्वर से लगभग 8 किमी दूर स्थित

2-जैन मुनियों की उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफाएं -भुवनेश्वर से करीब 6 किलोमीटर की दूरी

3- 'चौसठ योगिनी' मंदिर-हीरापुर एक छोटा सा गाँव है जो भुवनेश्वर से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है

4-चिल्का लेक-पुरी जिले के दक्षिण-पश्चिम में 70 किलोमीटर की दूरी पर

5-चंद्रभागा समुद्रतट पुरी-पुरी से दूरी मात्र 27 किलोमीटर

6-बेलेश्वर समुद्र तट-पुरी से लगभग 17 किलोमीटर दूर

7-नंदनकानन

8-चंडी मंदिर कटक बीजू पटनायक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा जो मंदिर से लगभग 35 किलोमीटर दूर है।

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BY TAXI....

Day 1:-1- Jagannath temple,2-Gudicha temple,3-Sonara gouranga,4-Bedi hunuman temple,5-pachamukhi hanuman temple @2000/-

Day 2:- 1-Ramchandi Temple, 2-Chandrabhag sea beach, 3-konark sun temple,4-Sakhigopal temple, 5-Dhaulighri, 6-Lingaraj temple,7-KEDARGOURI temple 8-shedhswar temple, 9-Mukteshwar temple, 10-Khandagir, 11-Udayageri,@3000/-

Day 3:- 1-Chilika Lake ..Dolphin ...Rajahansha sea beach, 2-Alaratha temple,@1500/-

Day 4:-1-Cuttack se Cuttack chandi temle ,2-Chusathi jogeni temple drop puri @ 3800/-

...SHIVOHAM...

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