कुण्डलिनी जागरण...
कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा मनुष्य की चेतना स्तर ऊँचा उठाया जा सकता है।साधक अपनी प्रतिभा को इतना विकसित कर सकता है कि अपने प्राकृतिक स्वभाव से निकटतम सम्बन्ध स्थापित कर वैश्विक चेतना से एकाकार हो सकता है।कुंडलिनी वह रहस्यमय शक्ति है, जो व्यक्ति के शरीर में सूक्ष्म रूप में व्याप्त है। इसे जगाने की एक विधि है, जिसे गुरु परंपरा से सीखा जा सकता है। जब यह शक्ति जागने लगती है तो विभिन्न मुद्राएं, प्रणायाम या आसन आदि क्रियाएं अपने आप होने लगती है। कुंडलिनी विद्या को गुरु परंपरा से प्राप्त ज्ञान भी कहा जाता है।यदि साधक तीव्र जिज्ञासु हो और आसन प्राणायाम आदि को तीव्र गति से लंबे समय तक नियमित रूप से करता है तब भी कुंडलिनी जागृत हो जाती है। तंत्र के अनुसार कुण्डलिनी को कई तरह के उपायों द्वारा जाग्रत किया जा सकता है एक उपाय को छोड़कर, क्योंकि वह है जन्म से यदि किसी की कुण्डलिनी जाग्रत हो। कुण्डलिनी जागरण के उपायों का वर्णन इस प्रकार है। कुण्डलिनी जागरण के उपाय;-
1-जन्मजात कुण्डलिनी जागरण
2-मंत्र के द्वारा कुण्डलिनी जागरण
3-तपस्याके द्वारा कुण्डलिनी जागरण
4-जडी़ बूटियों द्वारा कुण्डलिनी जागरण
5-राजयोग द्वारा कुण्डलिनी जागरण
6-प्राणायाम द्वारा कुण्डलिनी जागरण
7-क्रियायोग द्वारा कुण्डलिनी जागरण
8-तांत्रिक दीक्षा द्वारा कुण्डलिनी जागरण
9- शक्तिपात द्वारा कुण्डलिनी जागरण
10-आत्मसमर्पण द्वारा कुण्डलिनी जागरण 1. जन्मजात कुण्डलिनी जागरण;-
03 POINTS;-
1-आत्मज्ञान सम्पन्न माता पिता के घर में ऐसी सन्तान हो सकती है जिसकी कुण्डलिनी जन्म से ही जाग्रत हो। अगर शिशु का जन्म आंशिक जाग्रति के साथ हो तो उसे संत कहा जाता है। परन्तु कुण्डलिनी के पूर्ण जाग्रति होने पर उसे अवतार या भगवान के पुत्र के रुप में जाना जाता है। जिस बच्चे के जन्म से कुण्डलिनी जाग्रत होती है, उसके विचार उच्च तथा स्पष्ट दृष्टिकोण वाले होते है, यह जीवन के प्रति पूर्णरूप से अनासक्त भाव वाला होता है, उसका दृष्टिकोण असामान्य होता है।योगाभ्यास के द्वारा मानव अपने जीवन के स्तर को उच्च कर सकता है, क्योंकि मनुष्य के जीन द्वारा ही कलाकारों, बौद्धिक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों, खोजकर्ताओं, वैज्ञानिकों आदि की रचना की जा सकती है, तो इसी प्रकार उच्च योगाभ्यास द्वारा जागृत कुण्डलिनी सम्पन्न व्यक्तियों की रचना भी की जा सकती है।यदि सौभाग्यवश माता पिता आत्मज्ञान सम्पन्न हों तो बचपन से ही कुण्डलिनी जागृत हो सकती है ।यह भी संभव है कि जन्म से ही सुषुम्ना, इडा़ , अथवा पिंगला जागृत हो ।
2-देव या प्रेत आत्मा अपने ही अनुकुल प्रकृति वाले शरीर में प्रविष्ट होती है।सामान्यतया देवात्मा अपने ही रक्त वाले मनुष्य शरीर मे ही प्रवेश करती है ।अन्य उत्कृष्ट आत्माओं को बुलाने के लिए माध्यम को उसके अनुकुल बनाना पडता है ।धार्मिक व्यक्ति मे प्रेतात्ता तथा दुष्ट व्यक्ति मे देवात्मा का प्रवेश सम्भव नही है ।हर आत्मा हर व्यक्ति के शरीर मे प्रवेश नही कर सकते ।दिव्य आत्माओं के लिए दिव्य एवं सशक्त शरीर आवश्यक है ।जो शरीर हमे मिला है उसका स्नायु संस्थान एक ही आत्मा की उर्जा को झेलने के लिए सक्षम है। यदि दूसरी आत्मा उसमे प्रविष्ट होती है तो उसकी अतिरिक्त शक्ति को यह स्नायुमंडल सहन नही कर सकता जिससे वह व्यक्ति बडी बैचैनी अनुभव करता है। फिर अनायास शक्ति के आगमन मे समस्थ स्नायुमंडल झंकृत हो जाता है जिससे पागलपन जैसे स्थिति उत्पन्न हो जाती है। व्यक्ति भयभीत हो जाता है व उसकी मृत्यु भी हो सकती है। इस अतिरिक्त शक्ति को सहन करने के लिए विभिन्न साधनाओ द्वारा स्नायुतन्त्र को सशक्त किया जाता है; तब किसी जीवात्मा का प्रवेश होता है। 2. मंत्र द्वारा कुण्डलिनी जागरण;-
कुण्डलिनी जागरण के दूसरे उपाय में नियमित मंत्र जप आता है। मंत्र जाप एक सरल, निरापद एवं बहुत ही शक्तिशाली मार्ग है, परन्तु यह साधना ऐसी साधना है जिसमें समय अधिक लगता है साथ ही इसमें धैर्य की आवश्यकता होती है।इसमें सबसे पहले योग के किसी योग्य गुरू से मंत्र लिया जाता है, जो साधना के मार्ग में पथ प्रदर्शित कर सके। किसी भी मंत्र के निरन्तर अभ्यास से आन्तरिक शक्ति में वृद्धि होती है। इससे जीवन में तटस्थता आती है। जिस प्रकार किसी शान्त जलाशय में कंकड़ फेका जाए तो उसमें तरंगे उत्पन्न होती है। उसी प्रकार मंत्र को लाखों करोड़ों बार दोहराने से मंत्र रूपी समुद्र में तरंगे उठती है और उसका प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है। इससे शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक तीनों स्तरों के शुद्धिकरण की प्रक्रिया होती है। मंत्र को कीर्तन के द्वारा जोर से गाकर भी या मानसिक रूप से श्वास के साथ भी दोहराया जा सकता है। सबसे सौम्य तरीका कुण्डलिनी जागरण का यही है। 3. तपस्या द्वारा कुण्डलिनी जागरण;-
तपस्या द्वारा कुण्डलिनी जागरण तीसरा उपाय है । तपस्या को वह चिता या अग्नि कहा जाता है..जिसमें तपकर हमारे शरीर एवं मन के कल्मश कसायों के निष्कासन की प्रक्रिया शुरू होती है। तपस्या के द्वारा शुद्धिकरण होता है।तपस्या एक मनोभावनात्मक या मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है तपस्या का मनोवैज्ञानिक पहलू बहुत ही महत्वपूर्ण है यदि व्यक्ति की इन्द्रिया भौतिक सुख सुविधा, भोग इत्यादि से तृप्त रहती है तो उसके मस्तिष्क तथा नाड़ी संस्थान के कमजोर रहने के कारण उसका चेतना का, ऊर्जा का स्तर भी कम पाया जाता है। ऐसी स्थिति में तप का मार्ग, अत्यन्त उपयोगी व महत्वपूर्ण फलदायी होता है, और कुण्डलिनी जागरण का मार्ग प्रशस्त करता है।इस तपस्या द्वारा होने वाले परिवर्तन प्रारम्भ में अपेक्षाकृत भयानक होते हैं। आरम्भ में आसुरी शक्तियों की प्रबलता होती है। कभी कभी अत्यन्त भय लगता है, संसार के प्रति आसिक्त, काम वासना क्रशकाय शरीर, ये लक्षण उभर कर आते हैं। परन्तु सिद्धियों के प्राकटय होने पर इन्द्रियों से परे अनुभव अर्थात दूसरे के विचार जाने जा सकते है।
4. जड़ी बूटियों द्वारा कुण्डलिनी जागरण;-
जड़ी बूटियों द्वारा जागरण चौथा उपाय है। औषधि द्वारा कुण्डलिनी जागरण शक्तिशाली और सबसे आसान उपाय है, किन्तु इसकी जानकारी कम ही लोगों को है तथा यह उपाय सभी लोगों के लिए है भी नहीं। इन औषधियों का प्रयोग गुरू के निर्देशन में ही किया जाना चाहिएक्योंकि इसके बहुत ही दुष्प्रभाव भी देखने को मिलते है। यही कारण है कि औषधि बहुत ही खतरनाक तथा अविश्वसनीय उपाय माना जाता है।प्राचीन काल में सोण नामक एक द्रव का उल्लेख वेदों में मिलता है, यह रस एक लता से कृष्ण पक्ष में विशेष दिनों में निकाला जाता था। इसे कुछ दिनों तक मटके में दबाकर पूर्णिमा के दिन निकाल कर तथा छान कर प्रयोग किया जाता था। इससे परम चेतना के जागरण का अनुभव होता था साधको ने औषधियों के प्रयोग से पर्वतों दिव्य आत्माओं, तीर्थ स्थलों, महात्माओं के दर्शनों को प्राप्त किया था।औषधि द्वारा कुण्डलिनी जागरण में शरीर का तापमान गिर जाता है, चयापचय मंद पड़ जाता है। शरीर स्थिर हो जाता है, इस सभी के परिणामस्वरूप स्नायुओं के कार्य करने के ढंग में परिवर्तन हो जाता है। और इस प्रकार का जागरण अस्थायी होता है, अतः यह पद्धति लुप्त सी हो गयी, इसी कारण यह उपाय आज भी गुप्त है।
5. राजयोग द्वारा कुण्डलिनी जागरण;-
राजयोग द्वारा कुण्डलिनी जागरण पॉचवी विधि है मन को केन्द्रित करना, जब तक कर्मयोग और भक्तियोग द्वारा कर्मो का क्षय और भावनाएँ शुद्ध न हो जाए तब तक राजयोग द्वारा कुण्डलिनी जागरण नहीं हो सकता, क्योंकि यह बहुत ही कठिन विधि है। इसमें अत्यधिक धैर्य, अनुशासन, समय एवं सुरक्षा की आवश्यकता होती है।राजयोग द्वारा व्यक्तिगत चेतना वैश्व चेतना में पूर्णरूप विलीन हो जाती है। हठयोग व राजयोग के अभ्यास द्वारा स्थायी व सूक्ष्म अनुभव देखने को मिलते है। साधक में परिवर्तन होने लगते हैं। भूख, काम वासनायें छटने लगती है। सांसारिक, भौतिक पदार्थों से विरक्ति होती है, और अनासक्त भाव जागने लगता है।
6. प्राणायाम द्वारा कुण्डलिनी जागरण;-
03 POINTS;-
1-कुण्डलिनी जागरण का छटा उपाय प्राणायाम है। जब कोई साधक किसी शांत व ठंडे स्थान पर गहन प्राणायाम का अभ्यास करता है। जीवन यापन के लिए जितना उचित हो उतना आहार लेता है तब एकाएक विस्फोट की भाँति कुण्डली जागरण होता है, प्राणायाम द्वारा कुण्डलिनी तेजी से सहस्रार तक तुरन्त पहुँच जाती है।प्राणायाम एक प्रकार से यौगिक अग्नि को प्रज्जवलित करने के लिए है, यह केवल श्वास का अभ्यास नहीं है। इस अग्नि द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत होती है लेकिन प्राणायाम का अभ्यास बिना पर्याप्त तैयारी के किया जाये तो उत्पादित ऊर्जा उपर्युक्त केन्द्रों में नहीं पहुँच पाती है, इसलिए प्राण पर नियन्त्रण प्राप्त करने के लिए प्राण को मस्तिष्क के सामने हिस्से में पहुँचाने के लिए ही तीनों बंधों मूल बंध, जालन्धर, उडिडियान बंध का अभ्यास किया जाता है।प्राणायाम का अभ्यास मन पर स्वतः ही नियन्त्रण प्राप्त कर लेता है। किन्तु प्राणायाम से हुए परिवर्तन से अतिरिक्त ऊर्जा का उत्पादन होता है, सूक्ष्म शरीर का तापमान भी गिर जाता है, और मन का शीघ्र ही रूपान्तरण होता है।
2-इस प्रकार कुण्डलिनी जागरण के कुछ विशेष अनुभव होते है। उन लोगों को डरावने अनुभव होते है जो मानसिक शारीरिक, दार्शनिक, भावनात्मक तौर पर तैयार नहीं होते हैं। प्राणायाम के द्वारा मंत्र का श्वास सुरति पर जाप करते हुए निराकार प्रकाश का या इष्ट देवता का ध्यान करते हुए स्वाधिष्ठान चक्र तक पहुँचने मे सफल होते है।स्वाधिष्ठान चक्र का स्थान पेडू मे है ।यहाँ पर सिंदुरी वर्ण का षट् दल कमल है जहां से छ ओर को नाडियों का जाल निकल कर शरीर मे फैलता है। इसकी ज्ञानेद्रिय रसना तथा कर्मेन्द्रिद्रिय लिंग है।यहां भुवःलोक है और जल तत्त्व का वास है। साधक के यहां स्थित होते ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार का प्रायः नाश हो जाता है।उसकी स्मरण शक्ति बहुत ही प्रखर हो जाती है तथा उसे कई अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है और उच्च लोक के देवताओं के दर्शन होते है ।उन सिद्धियों के द्वारा यदि वह यहां पर भी प्रलोभनों का शिकार हो गया तो नीचे गिर जाता है।
3-हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि जिस प्रकार डंडे की मार खाकर सांप सीधा डंडे की आकृति वाला हो जाता है, उसी प्रकार जालंधर बंध करके वायु को ऊपर ले जाकर कुंभक का अभ्यास करें। साधक धीरे धीरे श्वास छोड़ें। इस महामुद्रा से कुंडलिनी शक्ति सीधी (जागृत) हो जाती है।कुंडलिनी को सहस्त्रार तक पहुंचा कर उसे स्थित रखना है या समाधि को प्राप्त करना है, तब साधक को विकारों का त्याग करना पड़ता है। कुंडलिनी जागृत होने के बाद साधक निरंतर उसका अभ्यास करता है। यदि साधना काल में साधक अपने विकारों को योग के जरिए समाप्त नहीं करता तब वह शक्ति फिर निम्न चक्रों में पतन की आशंका बनी रहती है।
7. क्रियायोग द्वारा कुण्डलिनी जागरण;-
यह आधुनिक मनुष्य के लिए व्यवहारिक व सबसे सरल विधि है, सात्विक व्यक्ति राजयोग द्वारा कुण्डली जाग्रत कर सकता है किन्तु चंचल मन एवं राजसिक व्यक्ति ऐसा करने में सफल नहीं हो पाते है। जो लोग ग्लानि, कुंठा, तनाव के शिकार होते है ऐसे लोग क्रियायोग के द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत कर सकते है। यह उनके लिए उत्तम और प्रभावशाली विधि है।क्रियायोग द्वारा कुण्डली जागरण विस्फोटक न होकर सौम्य, शालीनता के साथ धीरे धीरे होता है। क्रियायोग द्वारा व्यक्ति अपने को कभी गलत समझता है तो कभी महान समझता है। वह कभी संसार के प्रति आकर्षित होता है तो कभी उसे विरक्ति होती है। कभी भूखों की तरह खूब खाने लगता है तो कभी कई दिनों तक भूखा भी रहता है। कभी उसे बहुत नींद आती है कभी रात में भी जागरण करता है। सुप्तावस्था व जागरण के ये लक्षण क्रियायोग द्वारा जागरण में दिखाई देते हैं।
8. तंत्र द्वारा कुण्डलिनी जागरण;-
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1-जो शिव और शक्ति के सिद्धान्तों को समझते है। जिन्होंने वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली हो। वे ही केवल इस विधि के अधिकारी होते हैं। तांत्रिक दीक्षा द्वारा कुण्डली जागरण बहुत ही गुप्त माना जाता है ।इस उपाय द्वारा कुण्डली जागरण में गुरू के मार्गदर्शन में कुण्डली जाग्रत होती रहती है। चेतना के विस्तार होने के साथ साथ परिवर्तन होता रहता है। इस विशेष विधि में सिर्फ तीन सैकेण्ड में कुण्डली का जागरण और उसका सहस्रार गमन एक साथ ही होते है। इस विधि में बहुत ही कम समय लगता है। परन्तु इस पथ के योग्य व्यक्तियों का मिलना कठिन है। क्योंकि संसार में ऐसे लोग कुछ ही मिलेंगे जिन्होंने काम वासनाओं को परास्त कर उन पर विजय प्राप्त कर ली हो।सिद्ध पुरूषों ने अपने शिष्यो के प्रलोभनों से मार्ग भ्रष्ठ होने की संभावनाओं पर विचार किया और अनेक साधन उपाय क्रियाएं आविष्कृत की ..जिनके द्वारा साधक इन बाधाओं को पार कर सके। साधना का अंतिम लक्ष्य सहस्त्रसार में शिव व शक्ति तक पहुँचना है। शिव निष्क्रिय शव रूप मे तथा शक्ति इस शरीर की क्रियाओं का संचालन करती है और समष्टि रूप मे इस सारे ब्रह्माण्ड का संचालन करती है।बालक भाव से उस शक्ति की मां के रुप मे साधना करना और उससे याचना करना कि वह विघ्न बाधाओ को पार कराकर अपने पास तक पहुंचाने मे सहायता करें। मां की साधना मे पथभ्रष्ट होने की आशंका ही नही है। आज तक इस पृथ्वी पर और भारत भूमि पर सहस्त्रो की संख्या मे इस तांत्रिक साधना से सिद्ध होने वाले योगी पुरूष हो चुके है।
2-कुण्डलिनी काली और दुर्गा ....यदि जागृत कुण्डलिनी को नियंत्रित न किया जा सके तो उसे काली कहते है। किन्तु यदि उसे नियंत्रित करके अर्थ पूर्ण बनायाजा सके तो यही शक्ति दुर्गा कही जाती है। काली नग्न है एंव काले या धूम्र रंग की एक देवी है जो 108 मानव खोपडियो की माला पहने हुए है तथा जिन्हें विभिन्न जन्मो का प्रतीक मानते है। काली की लपलपाती हई लाल जीभ रजोगुण का प्रतीक है व इसका गोलाकार घूमना रचनात्मक गतिविधि का संकेत है। इस प्रकार विशेषं प्रतीको के द्वारा देवी साधकों को संकेत देती है कि वे रजोगुण को नियंत्रित रखे। बाये हाथ में धारण की हुई बलि की तलवार और नरमुण्ड सृष्टि के विनाश के सूचक है। अधंकार और मृत्यू का अर्थ प्रकाश और जीवन की अनुपस्थिति कतई नही है वरन वे ही इनके मूल है। पुरूष स्थिर है और शक्ति तत्व क्रियाशील होता है। अतः साधक ब्रह्माण्डीय शक्ति की उपासना स्त्री रुप मे करते है क्योकि यह पक्ष गतिशीलता का प्रतिनिधित्व करता है।पुराणो मे काली शक्ति के जागरण का विवरण विस्तार से पाया जाता है। जब काली जागृत होकर क्रोध से लाल हो जाती है तो सभी देवता दानव चकित और शांन्त हो जाते है। वे यह भी नही जानते कि देवी क्या करने जा रही है।
3-वे भगवान शिव से उन्हे शांत करने की प्रार्थना करते है। किन्तु रक्त और मांस की प्यासी काली क्रोध मे दहाडती हुई भगवान शिव की छाती पर मुहँ खोलकर खडी हो जाती है। जब देवता उन्हे शांत करने की स्तुति आदि करते है तब जाकर कही उनका क्रोध शांत होता है।इसके बाद उच्च, अधिक सौम्य तथा अचेतन की प्रतीक दुर्गा शक्ति प्रकट होती है ।माँ दुर्गा सिहँ पर सवार एक सुन्दर देवी है। उनकी आठ भूजाएँ है जो आठ तत्वो का प्रतीक है ।माँ दुर्गा नरमुण्डो की माला धारण करती है जो उनकी शक्ति और बुद्धिमता की प्रतीक है। सामान्यतया ये नरमुण्ड संख्या मे , 52 होते है ये संस्कृत वर्णमाला के उन 52 अक्षरोंका प्रतिनिधित्व करते है जो कि नाद के रूप मे शब्द ब्रह्म की बाह्य अभिव्याक्तियां है।माँ दुर्गा जीवन की सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से छुटकारा दिलाने वाली एवं मूलाधार से मुक्त होने वाली शक्ति और शान्ति की दात्री मानी जाती है।
यौगिक दर्शन के अनुसार अचेतन कुण्डलिनी का प्रथम स्वरूप काली एक विकराल शक्ति है।
4- जिनका शिव के उपर खडे होना उनके द्वारा आत्मा पर संपूर्ण को व्यक्त करता है ।कुछ लोग कभी कभी मानसिकता अस्थिरता के कारण अपने अचेतन शरीर के सम्पर्क मे आ जाते है जिसके फलस्वरूप उन्हे अशुभ और भयानक भूत पिशाच दिखाई पडने लगते है। जब मनुष्य की अचेतन शक्ति अर्थात काली का जागरण होता है तो यह ऊध्र्व गमन के बाद उच्च चेतना दुर्गा जो आन्नदप्रदायनी है का रूप धारण कर लेती है।कुंडलिनी के जागरण से साधक समस्त तंत्र क्रियाओं का विजेता बन जाता है। कोई भी तंत्र साधना उसके लिए दुष्कर नहीं रह जाती है, बल्कि तंत्र की सिद्धियां उसकी ओर स्वतः खिंची चली आती हैं। प्रत्येक तंत्र साधक को कुंडलिनी का ज्ञान होना अनिवार्य है। जिस प्रकार समस्त पृथ्वी, वन, पर्वत आदि के आधार अहिनायक विष्णु हैं, उसी प्रकार समस्त योग और तंत्र का आधार कुंडलिनी है।जब यह कुंडलिनी जाग जाती है, तब इसकी ऊर्ध्वगति आरंभ हो जाती है और एक तत्व को दूसरे तत्व में विलीन करती हुई यह परम शिव से जा मिलती है।
5-विष्णु को शेषशायी दिखाया गया और शिव के साथ सर्प लिपटे प्रदर्शित किए गए। ये सब पुरुष और प्रकृति, शिव और शक्ति के संयोग के प्रतीक हैं। भारतीय ऋषियों ने इस पृथ्वी को शेषनाग के फन पर रखी बताया है। यह सर्पशक्ति का प्रतीक है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में कहा गया है कि अपने ही गुणों (सत, रज, तम) से आच्छादित इस देवात्मक शक्ति के दर्शन ऋषियों ने ध्यान द्वारा किए। यह देवात्म शक्ति, जिसे विष्णु की शैया, शिव के आभूषण या पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग के रूप में चित्रित किया गया, मानव देह में स्थित है। यह शरीर इसी देवात्म शक्ति पर आधारित है। कुंडलिनी शक्ति का निवास मूलाधार चक्र में बताया गया है। यह मूलाधार चक्र रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले छोर में है, जिसे गुदास्थि भी कहते हैं। तंत्रशास्त्रों में इसका जो उल्लेख मिलता है, उसमें कहा गया है कि यहां स्वयंभूलिंग, जिसके साढ़े तीन कुंडल मारकर कुंडलिनी शक्ति सोई पड़ी है, उसका सिर स्वयंभूलिंग के सिर पर है और वह अपनी पूंछ को अपने मुंह में डाले हुए है। हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि इस शक्ति का निवास योनिस्थान में है। कुछ अन्य का मत है कि यह त्रिकस्थि और गुदास्थि के मध्य के त्रिकोण में निवास करती है। कुंडलिनी के निवास स्थान के बारे में एक सर्वमान्य और निश्चित मत यह है कि यह छियानवें अंगुल होता है। मूलाधार चक्र इस शरीर-यष्टि के मध्य में अर्थात 48वें अंगुल पर है। योगी या तंत्र साधक जब इस शक्ति को जगा देता है, तब कुंडल खुल जाते हैं, बंधन कटने लगते हैं और ऊर्ध्वगति आरंभ हो जाती है।
9. शक्तिपात द्वारा कुण्डलिनी जागरण;-
इस विधि में शक्तिपात द्वारा कुण्डली जागरण होता है। इसका प्रयोग गुरू द्वारा किया जाता है। इसके द्वारा जागरण अति शीघ्र क्षणिक व अस्थायी होता है। जब गुरू इसके द्वारा जागरण करता है तब समाधि का अनुभव होने लगता है। व्यक्ति बिना सीखें सभी आसन, प्राणायाम, मुद्रा व बंध इत्यादि का अभ्यास करने लगता है। उसके मंत्र स्वतः सिद्ध हो जाते है। शास्त्रों का ज्ञान स्वत: हो जाता है, त्वचा कोमल, कान्तियुक्त व स्थूल शरीर में परिवर्तन होने लगते हैं। आँखें दिव्य व चमकीली तथा शरीर से विशिष्ट प्रकार की गंध उठने लगती है। शक्तिपात स्थूल शरीर से ही नहीं किया जा सकता है। इसे स्पर्श, माला, फूल, रूमाल, फल अथवा खाने की कोई वस्तु इत्यादि के माध्यम से किया जा सकता है। इसमें गुरू चेतना के विकास के स्तर को ध्यान में रखकर शक्तिपात करता है। यह एक आध्यात्मिक उन्नति को प्रकट करता है। 10. आत्मसमर्पण द्वारा कुण्डलिनी जागरण- आत्मसमर्पण कुण्डलिनी जागरण का दसवां रास्ता है इसके लिए साधना विशेष की आवश्कता नहीं होती। प्रकृति पर सब कुछ समर्पित कर दिया जाता है। यह भाव रखकर कि जागरण प्रकृति स्वयं करा रही है। इसके लिए मैं उत्तरदायी नहीं हूँ। जो मिल रहा है उसी में सन्तोष करना, स्वीकार करना, इस मार्ग को आत्मसमर्पण के नाम से जाना जाता है।
इस मंत्र से जग जाएगी आपकी कुण्डलिनी शक्ति;-
कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य की सबसे रहस्यमयी और बेहद शक्तिशाली उर्जा है। जिसके जग जाने से व्यक्ति पुरुष से परम पुरुष हो जाता है। कुण्डलिनी शक्ति को जगाना कोई आसन काम नहीं। बड़े-बड़े योगियों की भी उम्र बीत जाती है। तब जा कर कहीं कुण्डलिनी को जगा पाते हैं।किन्तु आप के लिए एक सरल उपाय भी है।जो इसको जगा कर आपको महापुरुष बना सकती है। अपने गुरु से शक्तिपात ले कर या आशीर्वाद ले कर मंत्र सहित कुण्डलिनी ध्यान करना शुरू करें। कुछ दिनों के प्रयास से ही कुण्डलिनी उर्जा अनुभव होने लगेगी ।किन्तु इसका एक नियम भी है वो ये है की आपको नशों से दूर रहना होगा।मांस मदिरा या किसी तरह का नशा गुटका, खैनी, पान, तम्बाकू, सिगरेट-बीडी, मदिरा सेवन से बचते हुए ही ये प्रयोग करें, तो सफलता जरूर मिलेगी।इस प्रयोग को सुबह और शाम दोनों समय किया जा सकता है।ढीले वस्त्र पहन कर गले में कोई भी माला धारण कर लें और हाथों में मौली बाँध लें जो आपको मनो उर्जा देगी। फिर सुखासन में बैठ जाएँ, पर जमीन पर एक आसन जरूर बिछा लें।यदि संभव हो तो आसन जमीन से ऊंचा रखें। अब आँखें बंद कर तिलत लगाने वाले स्थान पर यानि दोनों भौवों के बीच ध्यान लगाते हुए मंत्र गुनगुनाये।
मंत्र-
हुं यं रं लं वं सः हं क्ष ॐ
इस मंत्र में प्रणव यानि की ॐ का उच्चारण मंत्र के अंत में होता है जबकि आमतौर पर ये सबसे पहले लगाया जाने वाला प्रमुख बीज है। अब लगातार लम्बी और गहरी सांसे लेते हुए मंत्र का उच्चारण करते रहें तो आप देखेंगे की तरह-तरह के अनुभव आपको इस कुण्डलिनी मंत्र से होने लगेंगे। धीरे-धीरे स्पन्दन बढ़ने लगेगा।इस अवस्था में फिर गुरु का मार्गदर्शन मिल जाए तो ये उर्जा किसी भी कार्य में लगायी जा सकती है।.भौतिक जगत में लगा कर आप अनेक प्रकार के भोग-भोग सकते हैं या चाहें तो योगिओं की भांति अनन्त का ज्ञान प्राप्त कर दुखों से मुक्त हो परम आनदमय मृत्यु रहित जीवन जी सकते है।कुण्डलिनी उर्जा का प्रयोग सदा अच्छे कार्यों में ही करना चाहिए अन्यथा उद्दंडता करने पर ये प्रकृति आपका विनाश भी कर सकती है।
....SHIVOHAM...
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