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ज्ञान गंगा-14.....गुरु- शिष्य वार्तालाप


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1-कैलाश पृथ्वी पर है। परंतु क्षीरसागर एक लोक है।नियति का आधार मनुष्य का कर्म है।बस यह है कि इस जन्म के कर्म फल अगले जन्म में मिलते हैं।सर्वप्रथम ईश्वर ने ही इसका पालन किया।नारायण इसका उदाहरण है।शिव भी इसका उदाहरण है।

क्या शिव सती को जलने से बचा नहीं सकते थे?लेकिन उन्होंने नियति का सम्मान किया।शिव ने कोई गलती नहीं की थी।

परंतु उन्होंने नियति में हस्तक्षेप भी नहीं किया। नारायण ने श्राप धारण किया।यह उनके लिए आवश्यक नहीं था।परंतु उन्होंने किया।सर्वप्रथम ईश्वर ही नियति को भोग कर दिखाता है।देवता का अर्थ ही यही है... देने वाला। देवताओं का जन्म देने के लिए ही हुआ है।

2-प्रेम एक ऊर्जा हैं...प्रकाश है। परंतु एक विकार भी है।विकार इस अर्थ में क्योंकि प्रेम में स्वामित्व और आधिपत्य बनाने का प्रयास करते हैं।उदाहरण के लिए मिलने की इच्छा करना गलत नहीं है।परंतु रोज मिलने का आग्रह करना गलत है।

आराध्य पर विश्वास रखो।जब कुछ रास्ते बंद होते हैं तो नवीन रास्ते खुलते हैं।मन को व्याकुल मत करो!

3-अपनी स्पाइन को देखो।उसके सब चक्र को देखो!सभी चक्र प्रकाशित है।एक तरफ शिव और दूसरी तरफ शक्ति!फिर तुम कहां हो?यही साधना का अंतिम पड़ाव है। नियति के इस पड़ाव में भी आराध्य सहायता कर रहे हैं।नियति को बहुत कुछ समझने लगी हो!इस तरीके से तुमको स्वीकार करना आ जाएगा।रूप अनेक हैं। परंतु कर्म एक है।रूप अधिक है...प्रेम एक!सब एक ही जगह पहुंचते हैं।आत्मा का परमात्मा से मिलन एक ही है।शिवत्व का अर्थ ही यही है...तुम शिव में हो और शिव तुममें।

4-जब अंतर्मन की गहराइयों में प्रवेश करोगी तब तुम्हारी सांसे रुक जाएंगी ।इस संसार में... हवा के झोंके में, रात में जो झींगुर बोलता है- उसकी आवाज में और नारायण के शंख से शिव की भी वही ध्वनि निकलती है।तुम्हारे अंदर से भी यह ध्वनि सुनाई पड़ती है।जब तुम शिव नाम का जप करते हो तो एक प्रकाश में प्रवेश कर जाते हो।वहां सांसो की भी आवाज सुनाई नहीं पड़ती।जब एक ध्वनि तुम्हें सुनाई पड़ती है और तुम उसमें प्रवेश कर जाते हो तो तुम्हें एक तुम्हें प्रकार की अनुभूति होती है। वही अनुभूति.. जिसकी तुम्हें तलाश है।वह प्रकाश तुम्हारे शरीर के अंदर स्थित सभी शिवलिंग में प्रवेश कर जाता है और सभी शिवलिंग जागृत होने लगते हैं।तब हनुमान जी अपनी गदा से तुम्हारी सारी नकारात्मकता का अंत कर देते हैं।शिव के नाम की जगह तुम राम का नाम भी इस्तेमाल कर सकती हो।क्योंकि शिव को अपने आराध्य का नाम सुनना बहुत पसंद है।

5-आराध्य के नाम जप के छह अंग है।पहला है ..मन की आंखों से नाम को देखना।दूसरा है....नाम के स्वर को सुनना।तीसरा है ......नाम को धीरे धीरे बोलना।चौथा है ... मन की निगरानी में रखना ताकि कोई विचार प्रवेश ना करें। पांचवा है... नाम को लय में बोलना।इसका कारण है कि मन को सात्विकता पसंद नहीं आती।रजोगुण पसंद है।जब हम लय से बोलते हैं तो मन को पसंद आता है।छठवां है ...आराध्य का रूप ध्यान।अगर एकदम से रूप ध्यान ना कर सको तो किसी लॉकेट या फोटो का इस्तेमाल करो।अब बार-बार मन की आंखों से देखो ।इस प्रकार नाम जाप के छह अंग है।नाम जाप से विचित्र अनुभूति होती है और स्थिरता की प्राप्ति होती है।

6-जो हो रहा है देखो...।चिंतन और मनन होना चाहिए ...परन्तु सिर्फ अध्यात्म के लिए।व्याकुल मन क्या चाहता है? ओम भी तुम्हारा और ओमकार भी !ओम...ओमकार की प्रतिध्वनि है। ईश्वर निराकार ही है।उसे जो जिस रूप में चाहता है।वे उसे उसी रूप में मिलते है।सभी कार्य धीरे-धीरे ही होते है।

7-श्री कृष्ण पत्नियों को भील ने नहीं बल्कि समय ने लूटा।समय रहते वह कृष्ण को पहचान नहीं पाई । जो लूट ली गई उन्होंने स्वयं को त्यागा।जो बच गई उन्होंने उधव कुंड में शरीर को त्यागा।सूप नखा श्री राम से मिलना चाहती थी।परंतु श्रीराम में विलय नहीं करना चाहती थी।इसलिए उनकी मिलन की इच्छा पूरी कर दी।ईश्वर से विलय की इच्छा करनी चाहिए।और विलय तभी संभव है ...जब मिलोगे।जो बच्चा तुमने देखा वह बच्चा स्वयं तुम्हारे अंतर्मन का है।14 जनवरी से तुम्हारे विलय की यात्रा प्रारंभ होगी।जब मन शुद्ध होता है तो दूसरों के कष्ट का एहसास हो जाता है।तुम किसी के लिए कुछ नहीं कर सकती परंतु प्रार्थना तो कर सकती हो?इसलिए प्रार्थना कर दो।

8-परमात्मा प्रेम चाहते हैं । प्रेम में पागल बने बिना वे मिल नहीं सकते । भक्त भगवान को पाने के लिए जितना व्याकुल होता है, भगवान भी उन्हें अपनी शरण में लेने के लिए उससे कम व्याकुल नहीं होते हैं । जिन भक्तों का जीवन प्रभुमय हो, रोम-रोम में भगवान का प्रेम बहता हो, वे भक्त प्रेममय प्रभु की करुणामयी और कृपामयी गोद में बैठने और उनका साक्षात्कार करने के अधिकारी बनते हैं ।

9-जीवन एक संघर्ष है।जो जीत गया ,उसे जीवन मिल गया। जो हार गया,वह मृत्यु को प्राप्त हो गया।प्रकाशस्वरूप हो जाओ।प्रकाश को अपने अंदर भर लो।सब कुछ अपने आराध्य पर समर्पित कर दो।

10-लहसुन प्याज तामसी भोजन है।जैसा भोजन होता है .. वैसा ही हमारा स्वभाव होता है।सब कुछ प्रकृति से ही उत्पन्न हुआ है।

जो भी भोजन ईश्वर को समर्पित करके खाया जाता है वह सात्विक हो जाता है।क्या तुम जानती हो क्या सही है और क्या गलत ?किसी भी गलत काम को आत्मा रोकती है।सुना तो ठीक है और नहीं तो तुम्हारा कर्म फल!

सुन्न होना।

11-दिल की प्रसन्नता धैर्य प्रदान कर देती है।मृत्यु वह मीठा फल है जिसका आनंद एक भक्त प्रतिदिन लेता है ....सब कुछ अपने आराध्य को समर्पित करके।प्रत्येक दिवस वह मृत्यु का मीठा फल खाता है।तुम्हारे शिष्य को कुछ याद नहीं रहता।कारण क्या है?कारण है विश्वास!उसको विश्वास है कि उसे तो सब बता ही दिया जाएगा।यही विश्वास तुम्हारा ईश्वर की तरफ होना चाहिए।

12-स्वयं को स्वयं समझना सबसे बड़ा अहंकार है।शिव शक्ति मनुष्य रूप में आए हैं।वह यहां स्वयं से स्वयं की यात्रा करते है।तुम योगी भले ही ना हो। तुम्हारे हृदय में बैठे शिव तो योगी ही हैं। सभी के हृदय में आधे में शिव है और आधे में शक्ति।परंतु जागृत नहीं है।जिस दिन जागृत हो गए उस दिन तुम कहां होगी?केवल शून्यता होगी।अभी व्याकुलता है,परेशानियां है।एकाग्रता भंग होती है तो इसका अर्थ है कि तुम हो! जिस दिन अपने स्वरूप को समझ लिया।तो फिर तुम कहां ?तुम शून्य होगी!लेकिन अभी विकार स्वरूप हो।जब अपने स्वरूप को जान लिया तो विकार कहां बचेंगे? शून्यस्वरूप समाधि में प्रवेश कर जाओगे।

13-अंतर्मन में प्रवेश करना ही समाधि है!सब भाव का खेल है।प्रेम विश्वास समर्पण से सब कुछ हो सकता है।चलो तुम्हें यह तो समझ में आ गया कि पवन बनकर आराध्य से एकाकार हुआ जा सकता है।जब स्वयं से स्वयं का परिचय हो गया तो फिर जन्म क्यों होंगे?शून्यता में प्रवेश हो जाएगा।

14-जप माले करने हैं यानी जप करना हैं।तो जब अंतर्मन में रहो तो अंतर्मन में रहो। और जब बाहर हो ...तब बाहर रहो!

जो बच्चा यहां से जाता है, उसकी नियति ही है यहां वापस आना।

15-यदि मन प्रसन्न है तो आत्मा भी प्रसन्न है।और आत्मा शिव है तो मन माया है !माया के मध्य में शिव है।माया जाएगी कहां?माया जाएगी तो अपने आराध्य के ही पास में।माया चाहे जितनी परिक्रमा करें।पहुंचेगी तो अपने प्रभु के पास ही!शिव कभी नहीं कहते कि माया का त्याग करो।और माया कभी नहीं कहती कि शिव का त्याग करो । दोनों को ही समझना पड़ेगा।माया आनंद है और शिव परमानंद! पहले आनंद तो ले लो। तभी तो परमानंद मिल पाएगा।माया का अर्थ क्या है?यदि तुमने जल भी पिया तो माया ही तो है! तुम माया का त्याग नहीं कर सकते।जो माया में रह रहा है।वह माया का त्याग कैसे कर सकता है?यहां कोई भी अजन्मा नहीं है।जिसका भी जन्म हुआ है।वह माया में ही है।अघोर पंथ भी परिवर्तित हो रहा है।परिवर्तन तो माया का स्वभाव ही है।माया में रहती हो तो समस्याएं भी तो माया से ही कहोगी।केवल भाव शुद्ध होने चाहिए।

16-आत्मवान होने का अर्थ है--होश, विवेक, जागृति। तुम्हारे कृत्य तुम्हारे भीतर से निकलने लगें। अभी तुम्हारे कर्म, कर्म नहीं हैं, प्रतिकर्म हैं। प्रतिकर्म यानी रिएक्शन। कोई कुछ करता है, उसकी प्रतिक्रिया में तुम्हारे भीतर कुछ होता है। अगर कोई प्रेम करता है, तो तुम प्रेम करते हो। और कोई घृणा करता है, तो तुम घृणा करते हो।शत्रु को भी प्रेम करो। यह कोई नीति की शिक्षा नहीं बल्कि धर्म का गहनतम सूत्र है।वास्तव में, मित्र को तो प्रेम करना प्रतिक्रिया है, वह तो सभी करते हैं। शत्रु को घृणा करना भी प्रतिक्रिया है। वह तो सभी करते हैं। जिसने शत्रु को प्रेम कर लिया, वह मालिक हो गया। उसने प्रतिक्रिया तोड़ दी। वह अपने कर्म का खुद मालिक हो गया।शत्रु तो पूरी चेष्टा कर रहा है, कि तुम उसे घृणा करो। लेकिन तुमने प्रेम का प्रवाह पैदा कर दिया। अगर तुम अपने शत्रु को प्रेम कर पाओ तो तत्क्षण तुम यंत्रवत्ता से मुक्त हो गए। तब तुम्हारे प्रतिकर्म खो गए। अब तुम कर्मवान हुए।और प्रतिकर्म बांधते हैं, कर्म नहीं बांधता।वास्तव में, प्रतिकर्मों से ही कर्मों की शृंखला बनती है। जब कोई व्यक्ति होशपूर्वक कर्म करता है तो उससे कोई बंधन पैदा नहीं होता।

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1-अंतर्मन से जो भी बात होती है। तो विश्वास है... तो बात होती है।वर्ना भ्रम है.. बात नहीं होती।अपने सभी प्रश्नों के उत्तर तुम्हें अंतर्मन में ही मिलेंगे।जितना- जितना विश्वास बढ़ता जाएगा ..उतना ही अंतर्मन में प्रश्नों के उत्तर मिलते जाएंगे।

2-शिवलिंग की परिक्रमा चाहे आधी करो या पूरी सब भाव की बात है। सभी के अंदर शिव शक्ति हैं। लेकिन जागृत नहीं! तो यह जागृत करने वाला कौन है?जागृत करने वाली है तुम्हारी इच्छा।जब संसार में कहीं चैन नहीं मिलता।मन व्याकुल हो उठता है।तब शिव की याद आती है।और तब तुम्हारी इच्छा जागृत होती है।तुम्हारी इच्छा ही तुम्हारे अंदर बैठे शिव शक्ति को जाग्रत करती है।

3-अपनी आंतरिक व्याकुलता कोअपने आराध्य को समर्पित कर दो।जब भी मन व्याकुल हो -अपने अंदर ह्रदय में स्थित शिवलिंग के प्रकाश में डूब जाओ। मन शांत हो जाएगा।हर व्यक्ति को अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है।क्या सही क्या गलत? नियति जो कराती है, सब करना पड़ता है।अपने अंदर के शिवलिंग का आकार बढ़ाओ।स्थिर होकर ,एकाग्र हो जाओ।अपने कर्तव्यों को पूरे मन से निभाओ।जगन्नाथ पुरी से कांसे का कटोरा लाई हो। यह एक पहेली है जो सपने में दिखाई गई है।इस पहेली का अर्थ समय आने पर पता चलेगा।

4-अपने हृदय के अंदर मिट्टी का शिवलिंग बनाओ।यदि पहले कभी मिट्टी का शिवलिंग नहीं बनाया है तो बनाकर अभ्यास कर लो!जब मिट्टी का शिवलिंग बन जाए तो देखो क्या शिवलिंग से प्रकाश निकल रहा है।क्या वह प्रकाश पूरे शरीर में फैल रहा है?उसी प्रकाश में डूब जाओ और योग निद्रा में जाओ।

5-ज्ञान क्या है और अज्ञान क्या है? हमें ज्ञान और अज्ञान की मूल विशेषताओं को समझना चाहिए।ज्ञान की मूल परिभाषा है कि जो व्यक्ति को उदार ,निर्भीक ,सहनशील और विनम्र बनाए वही ज्ञान है और वही धर्म है ।जिसके कारण स्वार्थ ,विनाश ,क्रूरता, अशांति में वृद्धि हो ...वह अज्ञान है।जो ज्ञान है, वही धर्म है ;जो अज्ञान है वही अधर्म है।ज्ञान का मूल उद्देश्य ही परोपकार है। ज्ञान हमें दूसरों के दुख और सुख के प्रति संवेदनशील बनाता है ।जो दूसरों की भावनाओं का अनादर करें ;उसे अज्ञान कहते हैं।अज्ञान के कारण व्यक्ति सांसारिक ताने बुनता जाता है। माया में उलझता जाता है। अज्ञान परम सत्य से दूर ले जाने का माध्यम है किंतु ज्ञान ज्ञान व्यक्ति को परम सत्य की ओर ले जाता है। ज्ञान मुक्ति दायक है ;मोक्ष का मार्ग है।ज्ञान का मूल उद्देश्य परोपकार ,सृजन करना और दूसरों की भावनाओं का सम्मान करना है

6-जीवन के उतार-चढ़ाव में घबराओ मत! संघर्ष करो!तुम्हारा मन क्या कह रहा है? ज्ञान और अज्ञान में भेद तथा धर्म और अधर्म में भेद एक ही बात है।अपने आराध्य के प्रति समर्पण ही वह क्रिया है जो ईश्वर से मिला देती है।जो अपने आराध्य के प्रति समर्पित है ;उसके कर्म धर्म के ही होंगे।समर्पित व्यक्ति किसी के प्रति गलत नहीं कर सकते ।

7-स्वयं के प्रति विश्वास की क्या परिभाषा है? वही परिभाषा है... जो अपने आराध्य के प्रति विश्वास की परिभाषा है।समय से पहले और समय से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता।आराध्य के प्रति हम क्या सोचते हैं? यही ना कि वह जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे। कल्याण ही करेंगे।कुछ सिखाएंगे ,कुछ प्रारब्ध काटेंगे परंतु करेंगे तो कल्याण ही।

8-गीता कितने लोग सुनते हैं, कहां समझ पाते हैं? अर्जुन भी कहां समझ पाए? अर्जुन इसलिए पेड़ में खड़े हैं क्योंकि उन्होंने स्वयं को जानने की यात्रा नहीं की।स्वयं से स्वयं की यात्रा ...जो उन्होंने नहीं की।छीर सागर का जल खारा नहीं होता।जहां प्रभु विराजमान हो..वहां जल कैसे खारा हो सकता है?

9-जब जो होना है ..वह होकर रहेगा। डूबना स्वीकार करोगी?या तिनके का सहारा लोगी ?डूबते को तिनके का सहारा।तिनके का सहारा तुम्हारी आस्था पर निर्भर है। समय से पहले कुछ नहीं होता।प्राण उतारना चढ़ाना...सब सीख जाओगी।

10-स्वयं पर विश्वास ही स्वयं की खोज है।स्वयं पर विश्वास करो।स्वयं पर विश्वास का अर्थ है स्वयं को जानना।जैसे-जैसे विश्वास बढ़ता जाएगा। वैसे- वैसे आशीर्वाद बढ़ता जाएगा।आराध्य की परीक्षा सरल नहीं होती।मन को व्याकुल मत करो।जल्दी ही अच्छी खबरें आने वाली है।तुम्हारे घर वह आने वाली है।तुम अपने आराध्य की शरण में हो।तो आराध्य भी तो अपने शरणागत का ध्यान रखेंगे।अपने अंदर इस प्रकाश को इतना ज्यादा संरक्षित कर लो कि बाहरी माया तुम्हें व्याकुल ना कर सके।जितनी जल्दी समर्पण पूर्ण समर्पण कर दोगी ..उतनी ही जल्दी यात्रा पूरी हो जाएगी।स्वयं पर इतना विश्वास करो कि समर्पण अपने आप हो जाए।अंदर प्रकाश भरो! और अंतर्मन की यात्रा करो!

11-क्या सोच रही हो? यदि कुछ खास नहीं सोच रही तो सोच क्यों रही हो? जब सब बच्चे भगवान के ही हैं।तो कट्टरवाद क्यों?एक सत्य कहानी सबको दिखाई जा रही है।यह कौन सा कम है?कोई योगी है और कुछ कर रहा है।तो यह कैसे निश्चित होगा कि क्या सही है कि क्या गलत है?यह तो समय बताएगा।जो हो रहा है वह नियति है...केवल देखो!कट्टरवाद तो असुर करते हैं।देवता और असुरों की यही तो लड़ाई है। यह लड़ाई युगों से चली आ रही है। असुर समझते ही कहां है?

12-सही- गलत सब मन के अंदर ही तो होता है।सही गलत के पार जाना... इसका अर्थ है कि मन के पार जाना।मन भ्रम को सत्य बताता है और सत्य को भ्रम बताता है।मन के पार जाना है तो केवल यह विश्वास होना चाहिए कि आराध्य की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता।संसार में जो कुछ भी हो रहा है सब उन्हीं की इच्छा से हो रहा है।अपने सभी सही गलत कर्म अपने आराध्य को समर्पित कर दो।केवल देखो!फॅसो नहीं।तुम्हें तो सही और गलत का अंतर पता ही है। अगर तुम हृदय विदारक दृश्य नहीं देख पाती हो तो इसका अर्थ है कि दूसरे के दर्द को महसूस कर लेती हो।दूसरे के दर्द को केवल वही महसूस कर पाता है जो अपने आराध्य के नजदीक होता है।जिनके हृदय में छल कपट नहीं होता ..वे सब इन दर्दनाक घटनाओं और खबरों से भागते हैं।और जिनके ह्रदय में छल कपट होता है ;वह सब इसमें और ज्यादा घुसते हैं।इस पिक्चर पर विचार पूछे जाएं तो कुछ मत कहो !जो दिखाया गया है वह सत्य है।परंतु जिनके साथ ऐसा हुआ है ...उन सब का लेना देना है।लेकिन यह बात तो तुम उनसे कह सकती हो जो तुम्हारी बात समझते हैं।

13-ईश्वर और मनुष्य के बीच भय के संबंध होने के कारण ही दूरियां हैं।सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं।जब उन्हें अपने गलत कर्मों के फल मिलते हैं तो पीड़ा से ईश्वर को पुकारते हैं।लेकिन भय के कारण ...ना की प्रेम के कारण।ब्रह्म परमानंद में रहते हैं।परंतु जब कोई उन्हें दिल से पुकारता है तो वह तुरंत सुनते हैं-समझाते हैं, सहायता करते हैं। जिनके आराध्य से दिल के रिश्ते होते हैं-ईश्वर तुरंत उनकी सहायता करते है।और उन्हें प्रताड़ना भी नहीं सहनी पड़ती है। परंतु जो भय से पुकारते हैं उसके लिए ईश्वर अपने परमानंद का त्याग नहीं करता है।अंतर केवल दिल के रिश्ते और भय के रिश्ते का है।ईश्वर से अगर दिल का रिश्ता हो जाए तो ईश्वर और मनुष्य में अंतर ही कहां रह जाएगा?वह स्वयं शिव हो जाएगा।ईश्वर से भय है या प्रेम है ..यह तो आप स्वयं ही निश्चित कर सकते हैं।

14-रिश्ते सिर्फ शरीर से होते हैं।शरीर के बाद कोई रिश्ता नहीं...।तुम्हारे सपने में बार-बार आ रहे हैं। इसका अर्थ है कि तुमने दिल में जगह दे रखी है।यदि तुमने कृतज्ञता व्यक्त की.. तो कृतज्ञता केवल उसी के लिए व्यक्त की जाती है जिसको दिल में जगह दे रखी है।दिल में जगह सिर्फ आराध्य को दो।आराध्य ही सभी प्रकार की सहायता करते हैं ...किसी भी रूप में।

15-धूमावती स्वरूप का मैसेज है कि भक्त बनो ...विभक्त मत करो।उस समय संसार में अराजकता फैली हुई थी।उस अराजकता का नाश करने के लिए देवी ने धूमावती स्वरूप धारण किया था।प्रेम की गली अति संकरी है।

और प्रेम की संकरी गली में ही प्रवेश करना पड़ता है।शीघ्र ही उस अंतर्मन की संकरी गली में प्रवेश कर जाओ।

प्रत्येक क्षण अपने इरादे से जुड़े रहो।संसार में रहते हुए भी सांसारिक माया से दूर रहो।वर्तमान में जियो।संसार बुरा नहीं है।यदि दृष्टिकोण बदल लिया तो संसार अच्छा लगने लगता है।दृष्टिकोण बदलने का अर्थ है कि यह विश्वास रखना कि इस संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब मेरे आराध्य की इच्छा से ही हो रहा है।जब

तुम्हे अपने जीवन के उतार-चढ़ाव परेशान करने लगे तो अपने आराध्य के उतार-चढ़ाव को याद कर लो।

और अपने जीवन के उतार-चढ़ाव आराध्य को समर्पित कर दो।उतार-चढ़ाव के द्वारा ही व्यक्ति को तराशा जाता है।संसार में यदि उतार-चढ़ाव नहीं होंगे तो तराशा कैसे जाएगा? ईश्वर को भी कितने संघर्ष करने पड़े? कितने उतार-चढ़ाव देखने पड़े? यदि ईश्वर उतार-चढ़ाव को याद कर लो।मनुष्य गलतियां तो करता ही है।लेकिन सीखता भी तो गलतियों ही से है।प्रेम में समर्पण बढ़ जाएगा तो यात्रा भी पूरी हो जाएगी।

16-सातों पटरानी में से कोई भी साथ नहीं गया।जिसका जितनी मात्रा में दोष था उतनी ही मात्रा में उसको दंड मिला।जामवंती के पास शक्तियां थी ... जब तक वह प्रेम करती थी। जब वह ईर्ष्या में फंस गई तो शक्तियां भी चली गई।जिसकी संतान विनाशकारी निकल जाए उससे बड़ा दंड क्या हो सकता है?जब सबने राधा को पुकारा ....उनको समझा।इसके बाद अपने शरीर का त्याग कर दिया।ईश्वर के साथ रहने से उसका बोध नहीं हो जाता।ईश्वर का बोध करने के लिए साधना करनी पड़ती है।जिस दिन तुम्हें पूरा ईश्वर का बोध हो जाएगा।उस दिन तुम -तुम नहीं रहोगी।क्या पांडव जैसे योद्धा युग परिवर्तन का कार्य करते हैं? ईश्वर जब अवतार लेता है ..धरती में आता है तो अपने समर्थक के साथ आता है।यह अलग बात है कि समर्थक संसार में आकर सकारात्मक या नकारात्मक रहे।

17-कोई भी धर्म आसुरी नहीं है।उसे आसुरी बना दिया गया है।ओम ही अल्लाह भी है।इस तरह की खबरों के प्रति उदासीन हो जाओ तथा कोई विचार व्यक्त मत करो।मनुष्य तो अपने बच्चों और दूसरे के बच्चे में भेद कर लेता है।लेकिन ईश्वर के तो सभी बच्चे हैं।वह कैसे भेद कर सकता है?

18-भक्त अपना अस्तित्व मिटाता है तभी उसे ईश्वर से मिल पाता है।परंतु राधे रानी तो प्रेम की देवी है।कृष्ण को तो पालन भी करना है और संहार भी करना है।परंतु प्रेम की देवी यदि प्रेम करना छोड़ देंगी.. तब तो संसार में असंतुलन हो जाएगा।

एक भक्त और प्रेम की देवी में तो अंतर है ना?जो एक भक्त को करना है.. वहीं प्रेम की देवी नहीं कर सकती।संसार में जगत माता तो कोई नहीं बनना चाहता? क्या कोई संसार में जगत माता बनना चाहता है?माता तो सबकी चिंता करती है।उसका एक बच्चा भी रोता है तो उसे दुख होता है।बच्चे को समझाया जाता है। फिर.. छोड़ दिया जाता है।

....SHIVOHAM.....








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