ज्ञान गंगा-15.....गुरु- शिष्य वार्तालाप
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1-अपने विचारों को नारायण के पास छोड़ आई हो।इसलिए अब शिवत्व की ओर बढ़ो।शिवत्व से एकाकार हो जाओ।जीव भाव या विकार हटेंगे या नहीं हटेंगे .. अगर यह बता भी दिया जाए तो क्या कर्म करना छोड़ दोगी ? धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष ..यह चार पुरुषार्थ पृथ्वी लोक में ही बनाए गए हैं।इसलिए कर्म तो करना ही पड़ेगा।क्या इतना आश्वासन काफी नहीं कि तुम्हें दिशा निर्देश दिया जा रहा है?गर्मी है या सर्दी यह मन पर निर्भर करता है।अगर मन से मान लिया कि गर्मी है ..तो गर्मी है!और यदि मान लिया कि सर्दी है ..तो सर्दी है!
2-ज्ञान प्रेम, न्याय, समर्पण और धैर्य ... यह धर्म के 5 आधार हैं।शिवत्व का अर्थ है विकारों से निकलकर ऐसे स्थान पर खड़े हो जाना..जहां आराध्य के सिवा कुछ नहीं दिखता।गहरा विश्वास होता हैं कि जो कुछ भी हो रहा है सब सही हो रहा है।अपनी मृत्यु को देखकर भी भय नहीं होता।मृत्यु अटल सत्य है।जो कष्ट देता है वह सहने की क्षमता भी देता है।यह भी एक गहरा विश्वास है।तुम्हारी मंजिल भी निश्चित है और उसकी भी परंतु जिम्मेदारियों का अंतर है। इसलिए परिस्थितियों के हिसाब से एयर फायर हो जाता है और फायर वॉटर!
3-अभी तो यात्रा चल रही है।केवल यह ध्यान रखना है कि रास्ते से भटकना नहीं है।परिस्थितियां तो कठिन से कठिन आएंगी।परंतु विश्वास बनाए रखना है।जो कुछ भी हो रहा है ... सब सही हो रहा है।यही है गहरा विश्वास!मंजिल पर चलकर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।मोक्ष क्या है? अपने आराध्य में लय कर जाना ही मोक्ष है।विश्वास यह होना चाहिए कि अगर कालचक्र में फँस भी गए तो भी मेरे आराध्य हमें बचाने अवश्यआएंगे।जीसस क्राइस्ट , रामकृष्ण परमहंस इस प्रकार के विश्वास के सर्वोच्च उदाहरण है।
4-आनंद से आनंद लेकर ..उस सागर की गहराइयों में खो जाओ!जहां से परमानंद की प्राप्ति होती है।स्वयं को भी आनंदित करो!समर्पण से करुणा आती है!
5-सारी माया निकली तो महामाया से ही है।केवल रूप और कार्य अलग-अलग है।मनुष्य का आहार प्रकृति के द्वारा बनाया गया है। जो नॉनवेज खा रहे हैं..यह पशुता है...मनुष्य का आहार नहीं।दंड तो एक चींटी को मारने का भी दिया जाता है।तो जीव को मारकर खाने का दंड क्यों नहीं दिया जाएगा?उसे शरीर में इतनी बीमारियां होती है।और अंत में मृत्यु के समय दंड दे दिया जाता है। सब दिखाया जाता है कि तुमने क्या-क्या किया।जन्म और मृत्यु भी तो एक दर्द है।जिस तरह एक मां को बच्चे को जन्म देने में कष्ट होता है। उसी तरह एक मोती को जन्म देने में भी मोती के कीड़े को कष्ट होता है।प्रकृति में पेड़ पौधे भी निर्जीव नहीं है।पेड़ से एक पत्ती तोड़ने पर या फूल तोड़ने पर भी दर्द होता है। 2 साल पहले जो हुआ वह दंड ही तो दिया गया था।
धूमावती स्वरूप का अभिप्राय है कि जब प्रकृति का शोषण किया जाएगा..तब प्रकृति विकराल रूप रखेगी।उस समय स्त्री -पुरुष कुछ भी नहीं देखा जाएगा।कोरोना में भी स्त्री-पुरुष कुछ नहीं देखा गया।सबको दंड दिया गया।वास्तु के कारण पेड़ काटा तो क्या विनाश से बच गई?जो होना था वह तो हुआ ना..।विश्वास की पराकाष्ठा पर खड़ी हो ।सब कुछ अपने आराध्य पर छोड़ दो।मन में संशय मत रखो।प्रकृति को एक पेड़ उखड़ने पर भी कष्ट होता है।परंतु यह कष्ट मनुष्य तभी समझ पाता है।
जब किसी अपने को खोता है।
6-अनहद नाद त्रिदेव से ही निकलता है।और हर समय निकलता है।परंतु केवल वही लोग सुन पाते हैं जो साधना करते हैं।जब साधना बढ़ती है तो विचित्र प्रकार की आवाजें सुनाई पड़ती है।वह आवाज इतनी मधुर होती है कि उनसे बाहर निकलने का मन ही नहीं करता।संसार ही सार है।अपने अंतर्मन से क्यों नहीं जुड़ती हो ?अंतर्मन में यदि मूर्ति है तो इसका अर्थ है कि शांति है।बातचीत तो तभी की जाती है..जब आवश्यकता होती है ..समस्या होती है।तुम्हारे पास प्रेम की चाबी है।जिससे तुम अपनी यात्रा कर रही हो।उसी चाबी से अंतर्मन की गहराइयों को छू लो।संसार में मनुष्य ईश्वर के प्रेम के कारण नहीं सुधरता।बल्कि ईश्वर के भय के कारण सुधरता है।यही मनुष्य का स्वभाव है।
7- प्रेम इस ब्रह्मांड का सबसे बड़ा अस्त्र है ,कुंजी है।राधे रानी का प्रेम परिशुद्ध प्रेम है।जबकि संसार में प्रेम कामवासना पूरी करने का लक्ष्य।यह संसार राधा कृष्ण के प्रेम को समझ नहीं पाया।स्वयं से स्वयं की यात्रा करना ही संसार का सार है।इस संसार के कण-कण में ईश्वर विद्यमान है।शुद्ध प्रेम कण कण में ईश्वर को देख लेता है।उससे भी तो तुम्हें कुछ सीखने को मिला।
स्वयं से स्वयं की यात्रा करना ही संसार का सार है।जिसने जीवन का सार समझ लिया।उसी का जीवन सफल हो गया।
जीवन का सार है कि तुम जहां से आए हो।तुम्हें वहां वापसी करनी
8-उससे भी तो तुम्हें कुछ सीखने को मिला।इस संसार के कण-कण में ईश्वर विद्यमान है।शुद्ध प्रेम कण कण में ईश्वर को देख ही लेता है।यह संसार राधा कृष्ण के प्रेम को समझ नहीं पाया।राधा रानी ने अपने पिता के वचन को निभाने के लिए इतना बड़ा त्याग किया।परंतु क्या उनके पिता ने उनके त्याग को समझा? तुम्हारी नानी को भेजा गया था।उनके शब्द उनके शब्द नहीं थे।वे देवी के शब्द थे।यहां सभी को तराशा जाता है। मीरा ने भी कृष्ण को अपने जीवन काल में ही पति मान लिया था।तो वह किसी दूसरे को कैसे स्वीकार कर सकती थे? शादी तो राधा रानी ने भी की और मीरा ने भी।राधा रानी की भी व्यवस्था ईश्वर ने बनाई और मीरा की व्यवस्था ईश्वर ने बनाई।पूरा ब्रह्मांड ही प्रेम से बना है।पुरुष तो केवल एक ही है।एक स्त्री को पति भाव अपने पति के लिए ही रखना चाहिए।क्या उसके पति में ईश्वर नहीं?यदि एक स्त्री अपने पति से प्रेम करती है तो पति भी उसे इसी प्रकार सम्मान देता है।यदि अपने पति से प्रेम करती है तो क्या ईश्वर से प्रेम नहीं है?इस संसार में कितने गृहस्थ लोग हैं जिनके पति या पत्नी हैं ..बच्चे भी हैं और ईश्वर से प्रेम करते हैं।हां,वह किसी को बताते नहीं हैं-छिपाए रहते हैं।तुम्हें दिशा निर्देश दिया गया है-अभी भी दिया जा रहा है।शीलू के लिए तुम्हारी जिम्मेदारी हैं!तुम्हें सूचना दे दी जाएगी।बाकी तुम उसे समझाओ।
9-किसी समस्या के समय स्त्री पुरुष नहीं देखा जाता-सहायता ली जाती है।केवल भाव शुद्ध होने चाहिए।इसलिए पर पुरुष का क्या अर्थ है?देवी सती अपने पिता के बनाए नियमों के अधीन थी।इसीलिए भगवान उन्हें समझा रहे हैं।कलयुग कुछ बातों के लिए अच्छा है तो कुछ बातों के लिए खराब है।देवी का यदि त्याग है, और मेंरा विद्रोह है। यहाँ तो सभी को तराशा जाता है।
शिव के लिए जागना,शिव के लिए खाना, शिव के लिए सब कुछ करना... शिव में समायोजन कर लेना है।शिव की उच्च कोटि की ही भक्ति है।प्रभु तो ऐसे ही हैं।किसी को आनंद दे देते हैं तो किसी का आनंद छीन लेते हैं।एक धोबी के कारण सीता जी को निकाल दिया गया था। आज इस युग में धोबी तो घर घर में है;परंतु सीता नहीं है।
10-राम ने रावण को मारा फिर भी रावण को मुक्ति नहीं मिली। रावण तपस्या करता रहा.. 7 साल वर्ष बीत गए।लेकिन भोलेनाथ ने दर्शन नहीं दिए। भोलेनाथ से माता पार्वती बोली ; हे प्रभु क्या कारण है? आपने अभी तक रावण को दर्शन नहीं दिए। रावण तो आपका बहुत प्रिय भक्त है।आप इतने कठोर कैसे हो गए? भोलेनाथ मुस्कुराए ,बोले ..पाप तीन प्रकार के होते हैं-पाप, अतिपाप ,महापाप।पहले प्रकार के पाप वह हैं ..जिसमें व्यक्ति जाने अनजाने गलती कर देता है।तो उन पापों को प्रायश्चित कराके माफ कर दिया जाता है।दूसरे प्रकार के अतिपाप वह पाप हैं..जिसमें जानबूझकर पाप करता है। जैसे हत्या करा दी ,इत्यादि।उसमें दंड दिया जाता है। तीसरे प्रकार के पाप है महापाप!रावण ने महा पाप किया है । माता ने कहा रावण ने तो केवल केवल देवी सीता का अपहरण ही किया था।भोले नाथ बोले ..रावण ने जो किया वह अपने स्वरूप में नहीं किया। उसने एक साधु का भेष रखा।इस घटना का प्रभाव युगो तक रहेगा।यदि वह यह कार्य अपने स्वरूप में करता तो उसका पाप अतिपाप होता।परंतु साधु वेश होने के कारण उसका पाप महापाप है।
11-मन की शुद्धता में इतनी ताकत है कि पूरे ब्रह्मांड को ला कर रख देती है।अपने मन की पवित्रता के द्वारा अपनी यात्रा पूरी करो।जो तुम्हारे आराध्य को प्रिय है;वह तुम्हें भी प्रिय होना चाहिए।सभी के आराध्य सभी के अंदर ही होते हैं।जिसको जो रूप पसंद है.. उसी रूप में।पूरा ब्रह्मांड ही प्रेम से बना है।हरि और हर एक ही है।चाहे इधर से चलो या उधर से ... गंतव्य तो एक ही है! स्वयं की यात्रा करने वाला तुच्छ नहीं होता।व्रत करो या ना करो, इसका महत्व नहीं!आत्मा को परमात्मा से मिलाने का प्रयास करें।जिस दिन अंदर वाला और बाहर वाला दोनों ही एक हो जाएंगे ;उस दिन यात्रा पूरी हो जाएगी।बाहर का अर्थ है ...कण-कण में ईश्वर को देखो।
12-कैलाश में सबको न्याय मिलता है...ऐसा नहीं है। सभी जगह न्याय हैं।केवल कर्म और परिणाम का अंतर है।स्त्री जननी है। सवा लाख पुण्य पूर्ण करने के उपरांत स्त्री का जन्म मिलता है।स्त्री का जन्म हुआ है।तो स्त्री कैसे पाप योनि हो सकती है?क्या आदिशक्ति महादेव के लिए नर्क का द्वार है?लोगों की बातें मत सुनो।तुलसीदास को तो दुख दिया गया था। तुलसीदास यह भूल गए कि एक स्त्री के कारण ही वह वहां तक पहुंचे हैं।मन की सुनो !
13-मंथन अंधकार से प्रकाश की, आत्मबोध की यात्रा है।आत्मबोध का पहला चरण है कि यह स्वीकार करना कि मेरे अंदर ईर्ष्या ,क्रोध , लोभ आदि विकार उपस्थित हैं।यह स्वीकार करना ही विष ग्रहण करने के समान है।इस विष को स्वीकार करने के बाद मंथन से जो भी प्राप्त हो उसका संसार के कल्याण के लिए उपयोग करें ...ना कि निजी कल्याण के लिए।संसार के कल्याण के लिए जो संसाधनों का उपयोग करेगा ;उसे अमृत अवश्य प्राप्त होगा।
14-नीला पर्वत , नीली बांसुरी और नीले महादेव अर्थात नीलकंठेश्वर।यदि मन और बुद्धि अलग-अलग जा रहे हैं तो मन भी अपने आराध्य से जोड़ लो।तुम्हारे मन में हमेशा द्वंद चला करता है।आराध्य स्वीकार करेंगे या नहीं करेंगे।आराध्य तक पहुंच पाएंगे या नहीं पहुंच पाएंगे।वास्तव में भक्तों को केवल यह ध्यान रखना चाहिए कि वे अपने आराध्य पर पूर्ण समर्पण कर दें। आराध्य स्वीकार करेंगे या नहीं करेंगे। इससे कोई मतलब नहीं है।हमें केवल समर्पण करना है।यदि सानिध्य चाहिए तो सानिध्य तो समर्पण से ही मिलता है।मन और बुद्धि की लड़ाई में तुम अदृश्य हो जाओ।मन तुम्हें दुखी करके खुश होता है।और जब तुम खुश होते हो तो दुखी हो जाता है।यह विचार करना ही बंद कर दो कि स्वीकार ना किया तो?केवल यह सोचो कि हमें पूर्ण समर्पण करना है।स्वीकार किया तो ठीक और ना करें तो ठीक।उसकी चिंता करना बंद कर दो।
15-आराध्य के शीश में विराजमान चंद्रमा पूर्णमासी को पूर्ण होता है।तो उसका प्रकाश शीतलता ही प्रदान करेगा।तुमने अपने मन में चंद्रमा के प्रति भाव खराब कर रखें है।ज्येष्ठ पूर्णिमा को जगन्नाथ स्वामी पृथ्वी में पधारते हैं।यह उनके लिए पृथ्वी पर जाने का दिन है।15 दिन तक वो पृथ्वी पर ही रहते हैं।इस समय ध्यान में जाकर जो उनकी सेवा करता है।उसे उनका साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है।15 दिन उनकी सेवा करो।15 दिन जगन्नाथ स्वामी बीमार रहते हैं क्योंकि वह अपने सभी भक्तों की नकारात्मकता को ले लेते हैं।और भक्तों का मार्ग प्रशस्त करते हैं।न जाने कितने साधु उनके नकारात्मकता लेते ही समाधि में चले जाते हैं।जब तक अपने द्वंद समाप्त नहीं करोगी ,तब तक समाधि में कैसे प्रवेश कर लोगी?जगन्नाथ को एक सामान्य मनुष्य की तरह ही कष्ट होता है। इसमें कोई माया नहीं चलती।भक्त की नकारात्मकता को बैलेंस बनाने के कारण उन्हें यह कष्ट उठाना पड़ता है।उनके आराध्य भी उनकी नियति को नहीं बदल सकते।परंतु उनकी सेवा कर सकते हैं।उनके चरण दबा सकते हैं-उनका सिर दबा सकते हैं।तीनो लोग थोड़ी बीमार है।केवल नारायण ही बीमार है।जब आराध्य बीमार होंगे तो भगवान भी उदास तो होंगे ही !
16-दिमाग में बैठी हुई चीजें तो ईश्वर भी निकाल नहीं सकते।चंद्रमा का स्वभाव है ..शीतलता।जिस तरह से जल अपनी आद्रता का स्वभाव नहीं छोड़ सकता; सूर्य अपने ताप का स्वभाव नहीं छोड़ सकता।उसी तरह चंद्रमा भी अपनी शीतलता नहीं छोड़ सकता।चंद्रमा तो शिव भक्तों की सहायता ही करते हैं।जीवन में पूर्णमासी में जो हुआ है..उसे भूल जाओ!वह सब तुम्हें तराशा गया था।यदि तुम्हें उस तरह से तराशा ना जाता तो आज तुम यहां ना खड़ी होती।दर्शन और दर्पण एक ही है..यह एक करना है।दर्शन भी तुम हो और दर्पण भी ..तुम ।
17-परिस्थितियां ना तुम्हारे नियंत्रण में है ना हमारे नियंत्रण में।अनंत प्रेम ही मन के नियंत्रण की कुंजी है। विचलित मत होअन्यथा दंड दिया जाएगा।जो तुम्हें सहयोग करेगा उसके पास कहां से धन आ जाएगा; वह नहीं समझ पाएगा।जो तुम्हारा विरोध करेगा उसे...।मन में गंध मत आने दो।दुर्भाग्य शाली शब्द का प्रयोग अपने लिए कभी मत करना।किसी एक ने किया था ..उसको तुम देख चुकी हो।दूसरा भी कर रहा है।उसको समझ में आएगा ..तुम्हारे जाने के बाद।ईश्वर अपने भक्तों को भूखा नहीं देख सकता।इसलिए वह कहीं से भी उनके खाने पीने की व्यवस्था करता है।यदि व्यथित होगी तो तुम्हारे आराध्य को भी ध्यान में समस्या होगी।
18-मन को नियंत्रण करने के लिए केवल एक ही विधि है ...अनंत प्रेम।केवल अनंत प्रेम से ही मन को नियंत्रित किया जा सकता है।112 विधियो से ऊपर है... सर्वोपरि है- अनंत प्रेम।तो सर्वोपरि को महत्व दोगी या विधियो को ?ऐसा नहीं है कि नारायण राक्षसों की सहायता नहीं करते ? क्या नारायण ने बली की सहायता नहीं करी?परंतु राक्षस ऐसा काम ही करते हैं कि....।उसे कहोअपना काम तत्परता से करें ...मार्ग मिलेंगे।यह सच है कि नियति के अनुसार होता है परंतु नियति अवसर भी तो देती है।
किसी न किसी रूप में समझाती है कि यह काम ना करो ।क्या उसे समझाया नहीं क्या?परंतु उसने सबकी बातें अनसुनी करके किया।तो फिर कर्म का परिणाम भी तो आएगा?
19-तुमने दर्पण में जो औरा अपने पीछे देखा ;वह औरा समर्पण बढ़ने पर आगे की ओर आ जाएगा।स्वयं में पूर्ण विश्वास जगाओ!देवलोक में प्रकाश के शरीर होते हैं।उनकी आवश्यकता नहीं होती है बल्कि वे परोपकार करते हैं।उनका मुख्य भोजन हवन है।हवन से उन्हें ऊर्जा प्राप्त होती है।अगर भगवान राम का अवतार मनुष्य को सामाजिक जीवन बताने के लिए है तो भगवान कृष्ण का अवतार स्वयं के अंदर ब्रह्म स्वरूप देखने के लिए है।जिस दिन तुम्हारे अंदर के शिवलिंग जागृत हो जाएंगे-उस दिन तुम ब्रह्म स्वरूप हो जाओगे।जब अंदर के शिव जागते हैं तो किसी मोबाइल की आवश्यकता नहीं होती।खराब स्वप्न इसलिए देखें क्योंकि मन में द्वंद में चल रहा था।मन एकाग्र नहीं था।जो हो रहा है...उसको देखो! यह किसी के कर्म फल है।
सब समय पर छोड़ दो।सपने में कीचड़ देखा था तो क्या कमल तक पहुंच पाए?भोलेनाथ की आंखें सबको ज्ञान देती हैं।
20-इच्छा बनाए रखना।संसार से बनाए रखना और आत्मा को जगाए रखना।इन तीनों बातों को महत्व दो।यदि संसार मे इच्छा नहीं बनाई तो जीने का मतलब नहीं रह जाएगा। यदि ईश्वर से मिलन की इच्छा बनाए रखोगी तो जीवन चल जाएगा।संसार से बनाए रखना यानी संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करना। जितना मौन रहोगी -उतना ही अपने अंतर्मन से जुड़ी रहोगी।जितना ज्यादा बोलोगी.. चिल्लाओगी!उतना ही संसार को जगाओगी।आत्मा को जागृत रखने के लिए अपने आराध्य का ज्यादा से ज्यादा सुमिरन करना चाहिए। मन के अंदर द्वंद चल रहे तो उन्हें नियंत्रित करना होगा। परंतु मन में द्वंद चल रहे हैं .. यह स्वीकार करना भी बड़ी बात है।
21-लोग कहते हैं कि हमसे करा दिया गया ?परंतु नियति कर्मों पर आधारित होती है।जब आप कुछ करने जाते हैं तो अंतर्मन तुरंत मना करता है।जब आप नहीं सुनते तो किसी दूसरे से कहलाया जाता है।और फिर भी आप नहीं सुनते?तो इसका अर्थ क्या हुआ? आपने अपनी नियति स्वयं बनाई..अपने कर्म से ..अपने निर्णय से।इसमें ईश्वर का दोष नहीं होता।तुम 48 घंटे मानसिक द्वंद में रही।और इसी समय अगर बुलावा आ जाता तो?तो तुम धरती से इसी लड़ने झगड़ने में चली जाती।
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1- भोलेनाथ अगर सो जाए तो संसार का क्या होगा?ध्यान ही उनका विश्राम है।प्रकृति से ही पुरुष का जन्म हुआ है।
सबसे पहले तो प्रकृति ही आई है।इस ब्रह्मांड को प्रकृति और पुरुष दोनों ही चला रहे हैं। दोनों एक ही है।
2-प्रसन्न मन ही ईश्वर की खोज कर सकता है।इसलिए प्रसन्न रहो!ईश्वर यही चाहते हैं कि मेरे भक्त प्रसन्न रहें।जब ईश्वर के भक्त प्रसन्न होते हैं तो ईश्वर भी प्रसन्न होते हैं।ईश्वर की फोटो देखकर ही प्रसन्न हो। कोई चाहता है कि तुम प्रसन्न रहो तो इसीलिए प्रसन्न रहो।तो क्या ये कारण पर्याप्त नहीं है?जब अंतर्मन से जुड़ जाओगी तो यह शिकायत समाप्त हो जाएगी।
तुम्हें अंतर्मन से जुड़ना ही सिखाया जा रहा है।यह मेरे मन में तो नहीं आया?यह भ्रम मत करो!मन क्या है?मन में भी तभी आता है जब ईश्वर चाहता है।इसलिए कभी भ्रम मत करो! श्री कृष्ण तो हर मुसीबत में प्रसन्न रहते हैं।यदि उनकी मुस्कुराहट चली जाती है तो संसार में तांडव होता है।जीवन तो एक संघर्ष है।दुख में भी प्रसन्नता ढूंढ लो।दुखी मन यह ढूंढ लेता है कि हमसे बोला नहीं गया और प्रसन्न मन अपने कारण ढूंढ लेता है।
3-जगन्नाथ मंदिर में भगवान के हल्दी का लेप लगाया जा रहा है।भगवान संसार की नकारात्मकता का शमन करते हैं।इसलिए कमजोर हो जाते हैं।आज संसार में हर जगह नकारात्मकता है।प्रत्येक व्यक्ति में नकारात्मकता है।संसार को त्यागना सरल नहीं है।और हृदय के अंदर बसे संसार को त्यागना तो और भी कठिन है।गौतम बुद्ध ने भी बहुत तपस्या की थी।बहुत कठिनाइयां सहन की थी।
4-जब अपने अंदर के शिव से एकाकार हो जाओगी तो कैलाशपति से भी मिल सकती हो।तब माता भी बहुत प्रसन्न होती है।जो भगवान शिव की भक्ति करता है ;उसका माता बहुत ध्यान रखती हैं।तुम अपने अंतर्मन में आराध्य से एकाकार नहीं कर पाई क्योंकि विश्वास और समर्पण की कमी है।विश्वास और समर्पण ही ऐसी चाबी है;जिससे पूरे ब्रह्मांड का रहस्य खुल जाता है।अगर यह सोचोगी कि हमें अपने पूर्व जन्म के कर्म भुगतने हैं..तो फिर भुगतने पड़ेंगे।और यह सोचोगी कि मंजिल मेरे सामने हैं मेरे आराध्य ही मेरा हाथ पकड़ कर पार लगा देंगे .. तो वही हो जाएगा।तुम्हारी नियति यही है कि सांसारिकता में रहते हुए अपनी मंजिल तय करना..आवागमन से मुक्त होना।अभी तुम्हें यह पता है कि हम मार्ग में चल रहे हैं..कांटे भी हैं और पत्थर भी।विचार और द्वंद कांटे और पत्थर ही हैं।विचार और द्वंद से मुक्त हो जाओ तो अपने आराध्य से एकाकार हो जाओगी।जब भी विचार चलें..अपने आराध्य को समर्पित कर दो।थोड़ी देर में देखोगी कि विचार गायब हो जाएंगे।ईश्वर जो करते हैं वह अच्छा ही करते हैं।जो तुम्हें चाहेगा... वह तुम्हारे पास रहेगा।जो नहीं चाहेगा ..उसे दूर कर दिया जाएगा।चाहे वह पति हो या पुत्र हो या कोई और।
5-विश्वास रखो! कि एक दिन तुम्हें प्रेम की संपूर्णता का आभास अवश्य होगा।जो दुखी है वह भक्त नहीं है।जो भक्त है, वह दुखी नहीं है।प्रसन्न मन भर जाता है। प्रसन्नता का परिणाम है विनम्रता।प्रसन्न मन विनम्र हो जाता है।वह ही सभी में अपने आराध्य को देख सकता है।महान और तुच्छ कुछ नहीं होता।इसी शरीर के अंदर वह महान बैठा हुआ है।तो तुम इसे तुच्छ कैसे कह सकते हो?जो आत्मा के मार्ग पर चलता है..वह महान ही है।पूरा ब्रह्मांड उसकी प्रतीक्षा करता है।ऐसा क्यों सोचती हो कि केवल संसार के लिए काम करने वालों की ही ब्रह्मांड प्रतीक्षा करता है।देवी- देवता भी मृत्यु लोक में जन्म लेने को तरसा करते हैं ताकि वे अपने आराध्य की आराधना कर सके।तो क्या देवलोक में आराधना नहीं कर सकते? देवलोक में भी आराधना कर सकते हैं।परंतु वहां की अपनी जिम्मेदारियां है।इसके अलावा वहां जन्म मृत्यु नहीं होती अर्थात मृत्यु का भय नहीं होता।
6-
समर्पण कब पूरा होता है ?
समर्पण पूरा होता है ... तुम्हारे रोम -रोम से तुम्हारे आराध्य का नाम निकलना चाहिए।
प्रसन्नता की परिभाषा क्या है?
प्रसन्नता तब है जब तुम अपने आराध्य का रूप देखकर प्रसन्न हो।जब तुम अपने अंतर्मन में स्थित आराध्य से एकाकार होकर प्रसन्न हो।ना तुम रूप दर्शन कर पा रही हो और ना ही आराध्य से एकाकार हो पा रही हो तो इसका अर्थ है कि तुम दुखी हो!
विश्वास की परिभाषा क्या है?
विश्वास की चरम सीमा है एक क्षण के लिए भी कष्ट ना होना।जीवन में जो कुछ भी हो;परंतु तुम्हें कष्ट महसूस ना हो।तुम यही कहो कि आराध्य कभी गलत नहीं करते।जो उन्होंने किया है ;उसका मार्ग भी वही निकालेंगे। जो नर और नारायण पर विश्वास करता है या जो हरि और हर को एक मानता है ..तो एक अगर हाथ पकड़ कर चलाता है तो दूसरा कठिनाई आने पर गोद में ले लेता है।यदि कठिनाइयां आने पर कष्ट हो रहा है परंतु यह मानती हो कि ईश्वर कभी गलत नहीं करते तो अभी विश्वास करने का प्रयास कर रही हो। अपने आराध्य पर इतना विश्वास हो कि एक क्षण के लिए भी कष्ट ना लगे..तो विश्वास पूर्ण है।जो भी कठिनाइयां आए ..सब अपने आराध्य को समर्पित कर दो..कि वही जाने।इतिहास गवाह है कि अध्यात्म में चलने वालों का मार्ग बहुत कठिन होता है।
शिवत्व की परिभाषा क्या है?
शिवत्व का अर्थ है निस्वार्थ भाव से सेवा देना, संसार में सबको प्यार बांटना, अपने दुश्मन के लिए भी प्रार्थना करना।जब संसार में प्यार बांटोगे तो ऐसा नहीं है कि सब प्रेम ही देंगे।कुछ लोग गालियां भी देंगे।लेकिन ईश्वर तुम्हें अपना लेंगे ।तो क्या उचित है ?ईश्वर तुम्हें अपना ले या गालियां देने वाले को गालियां देकर अपना सर्किल चलाना।चुनाव तुम्हारा है।निस्वार्थ भाव से सेवा सिद्ध करने के लिए तुम्हारा प्रार्थना करना ही पर्याप्त है।
व्यक्तित्व को कैसे निखारे ?
कैसे करना है?--अपने व्यक्तित्व को उसी तरह निखारो जिस प्रकार से दर्पण के सामने अपने चेहरे को निखारती हो।
जब तुम्हारे रोम -रोम से आराध्य का नाम निकलने लगे तो समझ लेना कि व्यक्तित्व निखरने लगा है।
7-अपनी मनःस्थिति को भी अपने आराध्य को समर्पित कर दो।मन की व्याकुलता को परम आनंद से, अपने आराध्य से जोड़ लो।चलते ,फिरते ,बैठते अपने आराध्य से अपने सखा की तरह सब बातें करते रहो।जिसने शिवत्व को खोज लिया ;उसकी मौज हो गई।नारायण ने पांच विकारों को बंधक बना दिया है।परंतु फिर भी जो विकार बचे हैं..उनको पहचानो!स्वयं ही अपना विश्लेषण करो।जितनी जल्दी से शिवत्व को सीख लोगी;उतना ही अपनी यात्रा की तरफ आगे बढ़ जाओगी।सब के प्रति अच्छाई का भाव रखो!दुश्मन के भी कल्याण के लिए प्रार्थना करो।जब तक नहीं सीखगी ..तब तक ईश्वर सिखाता रहेगा।जीवन के रहस्य को धीरे-धीरे समझो।जीवन संघर्षों का पुल है।यह आप पर निर्भर करता है कि आप इस पुल पर कैसे चलते हैं?जीवन के सार को समझने का प्रयास करना इतना आसान नहीं है।और जो इसको समझने का प्रयास करता है ;उसके लिए श्राप भी वरदान मर जाता है।देखना आवश्यक नहीं है।अनुभूति आवश्यक है। यही तो सिखाया जा रहा है।बनवास भी तो 14 वर्ष का होता है।
8-वृंदावन हर समय मन में घूमता रहता है।तो वृंदावन को हृदय में बसा लो। उस स्थान पर जाना आवश्यक नहीं है।भाव से उसी स्थान पर पहुंच जाओ।वृंदावन के कण-कण में राधे हैं।जहां राधे हैं वही कृष्ण का घर है।जितना समर्पण बढ़ाओगी;उतनी ही अनुभूति भी तेजी से बढ़ेगी।समय तो आने दो;तभी तो इच्छा पूरी होगी।आप नहीं सीख पाए तो क्या हुआ?भाव तो शुद्ध हो रहे हैं।बस यही आवश्यक है!सपने इसलिए दिए जाते हैं कि इन पर विचार करोगी कि नहीं?तुम उनमें फंस जाती हो।प्रसन्नता ही ईश्वर है।द्वंद होते ही तभी हैं ;जब संसार हावी होता है।आध्यात्मिक द्वंद भी होते ही तब हैं जब संसार हावी होता है।यह क्यों सोचती हो कि तुमने रुद्राक्ष दिए?तुमसे दिलवाए गए।सारा अध्यात्म तो भाव का है।जब भाव सही नहीं है तो हटवा दिए गए।जो भक्तों की राह में कांटे बोते हैं;उन्हें हटा दिया जाता है।जो भक्तों को सहयोग देते हैं;उन्हें मार्ग दे दिया जाता है।अपने दिमाग को, बुद्धि को ईश्वर को समर्पित कर दो।तुम्हारे विचार चलाने से कुछ नहीं होने वाला। जैसे-जैसे समर्पण बढ़ता जाएगा ;वैसे- वैसे मार्ग खुलते जाएंगे और अनुभूति भी बढ़ती जाएगी।बहन महामाया और भाई.. माया यह दोनों ही तो चलाते हैं।शिव तो सुचारू रूप से चलता रहे यह देखते हैं।जो उसमें बाधा लगाते हैं, उसको हटा दिया जाता है।संसार में कर्तव्य करो परंतु हृदय में आराध्य हो।जो कुछ होता है, आराध्य की इच्छा से होता है।अपने उद्देश्य पर ध्यान दो। हमें अपने आराध्य से जुड़े रहना है ...पास रहना है।बस यही विचार करो!जब उद्देश्य आराध्य का सानिध्य है तो फिर सांसारिक विचार क्यों? फिर किस बात का विचार करना है?
9-जिस साहित्य की तुम लोग बात कर रही थी ;वह साहित्य मन की शुद्धता होने पर ही समझ में आता है। प्रकृति का भोग कौन नहीं करता? उसमें प्रकृति के प्राकृतिक स्वरूप का वर्णन किया गया है।ईश्वर ने स्त्री पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किया।जगन्नाथ रथ यात्रा में भीड़ की वजह से स्त्रियां खुद ही नहीं जाती है।उनके लिए कोई रोक नहीं है।पूर्ण रूप से मन की शुद्धता होने पर ही तो वह साहित्य समझ में आएगा।जो थोड़ी सी नकारात्मकता बच गई हो ;उसे प्रकाश की सहायता से दूर करो। ।
10-संसार में रहो लेकिन सांसारिक मत बनो।संसार में इस तरह से रहो जैसे एक मृत व्यक्ति रहता है।
अपने आराध्य पर विश्वास रखो।सब आनंद होगा।तुमने कल ही तो कहा था कि अपनी बुद्धि को आराध्य को समर्पित कर दो।
जब- जब आध्यात्म बढ़ता है ;तब- तब संसार आकर खड़ा हो जाता है।
11-स्वयं की पूजा ही स्वयं की खोज है।स्वयं को कोसना छोड़ दो।मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह पास्ट में जाता है तो केवल नकारात्मक बातें याद रखता है।सुखद क्षण भूल जाता है।उदाहरण के लिए अभी थोड़ी देर पहले ही तुमने कहा कर्ज था। पर क्या तुम उस समय अपने आराध्य से जुड़ी थी। यदि जुड़ी थी तो कर्ज भी तुम्हें ईश्वर के नजदीक तो लाया।यदि जीवन में गलतियां हुई है तो एक दिन बैठकर अपनी सारी गलतियां अपने आराध्य को बता दो।परंतु बार-बार पास्ट में जाना सही नहीं है।स्वयं को कोसना सही नहीं है।स्वयं का सम्मान करो।इसी नश्वर शरीर के अंदर तुम्हारे आराध्य भी बैठे हुए हैं ।तुम्हारेआराध्य इसी शरीर के अंदर बैठे हैं तो समस्या का समाधान भी वही करेंगे। श्रीकृष्ण को भी अपनी सभी समस्याओं का समाधान निकालना पड़ा था। उन्हें तो प्रतिदिन समस्याओं का सामना करना पड़ता था।
12-जब आत्मा परमात्मा से मिलने आती है तो परमात्मा भी स्वयं को रोक नहीं पाता। फिर चाहे मंदिर बंद हो या खुला।बहुत जल्द तुम्हारा समय बदलने वाला है।तुम शीघ्र ही कामाख्या मंदिर जाने वाली हो।प्रेम का अर्थ है पूर्ण समर्पण।लेकिन समर्पण तभी पूरा हो पाता है ;जब मन विचलित ना हो। मन प्रसन्न हो मन आनंदित हो।जब तक स्वयं से प्रेम नहीं है; तब तक ईश्वर से भी प्रेम नहीं हो सकता।
...SHIVOHAM.....
मनुष्य को दुःख क्यों होता है?-
अज्ञान,अस्मिता, राग और द्वेष के बाद अंतिम क्लेश है,अनुरक्ति /अभिनिवेश । अभिनिवेश का अर्थ मृत्यु नही अपितु मृत्युभय है, और इससे कोई जीवधारी चाहे महाज्ञानी ही क्यों न हो, कोई नही बच सकता।सभी प्राणियों की यह सर्वकालिक कामना होती है कि मै रहूँ । ऐसा पूर्व जन्म के अनुभव के कारण होता है।अर्थात् इस कामना से पहले पूर्वजन्म के मरण का अनुभव प्रकट होता है, क्योंकि अभी इस जन्म मे तो मरा नही है और यह क्लेश स्वभावतः वर्तमान् रहनेवाला है, पर जब तक पड़ा नही है तब तक याद नही आता। मरणत्रास एक ऐसा क्लेश है जो पहली और अंतिम बार प्रकट होता है।। तथा कीट पतंग और ज्ञानी सहित समस्त जीव धारियों मे प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाणों से विद्यमान होता है। अज्ञेय, आत्मनाश, कल्पनारूपी मरणभय पहले जन्मों मे अनुभव किए गये मरणदुःख का अनुमान कराता है। यह क्लेश जैसा अत्यन्त मूर्खों मे देखा जाता है,वैसे ही जीवन का आदि और अन्त को जाननेवाले ज्ञानियों मे भी बना रहता है, क्योंकि ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही मे पूर्वजन्मलब्ध मरणदुःखानुभव के कारण यह वासना समानरूप होता है।
समाधानः-
अविवेक के विद्यमान रहते हुए भी कोई कार्य तभी किया जा सकता है, जब उसका आत्मा सूक्ष्मशरीर से घिरा हुआ होता है। तथा सूक्ष्मशरीर रहने पर, भोग्य-भोक्तृभाव, का न हो पाना असंभव है। इसलिए यह मानना होगा कि भोग्य-भोक्तृभाव के होने मे सूक्ष्मशरीर ही निमित्तकारण है।लिङ्गशरीर के अठारह अवयव हैं, अर्थात् अठारह अवयवों का समुदाय ही 'लिङ्गशरीर' है। जिसमे पाँच तन्मात्राएँ और तेरह तत्त्व (करण) सम्मिलित हैं। आधारभूत तत्त्वों की प्रधानता की दृष्टि से इसी सूक्ष्मशरीर को कारण शरीर भी कहते हैं, क्योंकि पाँच तन्मात्र तत्त्व इस शरीर के आधार हैं, और सम्पूर्ण स्थूलजगत के कारण हैं।जीवात्मा के सम्पूर्ण भोग और त्याग स्थूलशरीर के सहयोग से सूक्ष्म शरीर पर ही निर्भर होते हैं। यद्यपि प्रलयकाल मे लिङ्गशरीर नही होता तथापि उसका कारणभूत अविवेक, कर्म आदि, पूर्वसर्ग से जन्य है। उस अकाट्य को जड़ से उखाड़ना साधारण पुरुषार्थ न होकर परम पुरुषार्थ है।
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