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ज्ञान गंगा-16.....गुरु- शिष्य वार्तालाप










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1-संसार में रहो लेकिन सांसारिक मत बनो।संसार में इस तरह से रहो जैसे एक मृत व्यक्ति रहता है।अपने आराध्य पर विश्वास रखो।सब आनंद होगा।तुमने कल ही तो कहा था कि अपनी बुद्धि को आराध्य को समर्पित कर दो।जब- जब आध्यात्म बढ़ता है;तब - तब संसार आकर खड़ा हो जाता है।समर्पण के बिना प्रेम अधूरा है।प्रेम का अर्थ है पूर्ण समर्पण।लेकिन यह समर्पण तभी पूरा हो पाता है ;जब मन विचलित ना हो। मन प्रसन्न हो... मन आनंदित हो।जब तक स्वयं से प्रेम नहीं है।तब तक ईश्वर से भी प्रेम नहीं हो सकता।

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परम आनंद क्या है?

अपने आराध्य से भावपूर्ण बातें करना।अपने आराध्य से जुड़े रहना ...यही तो परमानंद है! संसार में ऐसे रहना जैसे एक मृतक रहता है।जो इस संसार में मृतक की भांति रहता है ..उसे इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन आगे जा रहा है ?कौन पीछे जा रहा है?क्या हो रहा है?वह अपने आराध्य से जुड़ा रहता है और परमानंद में रहता है।

अन्यन्य का क्या अर्थ है?

अन्यन्य का अर्थ है अद्वैत!ईश्वर एक है सब उसी के स्वरूप है।उसके अलावा कोई दूसरा नहीं है।तुम अगर स्वयं की भी पूजा कर लो तो ईश्वर से मिल जाओगे।क्योंकि तुम्हारे इस नश्वर शरीर के अंदर निराकार ब्रह्म ही तो बैठा है।तुम्हारे नाक -कान की पूजा थोड़ी होगी।उस निराकार ब्रह्म की ही पूजा होगी।ध्यान में भी तो तुम उसी निराकार ब्रह्म से ही मिलते हो?अन्यन्य का अर्थ सभी अपनी अपनी बुद्धि के हिसाब से लगाते हैं।दिवाली में अगर लक्ष्मी की पूजा नहीं कर सकते तो फिर लक्ष्मी के पीछे भाग क्यों रहे हो?जिसने अपने आराध्य को जान लिया ;उसे सभी में अपने आराध्य ही दिखेंगे।

रथयात्रा में शामिल होने और खींचने का क्या अर्थ है यात्रा? ।

रथ यात्रा अर्थ है कि ईश्वर तक पहुंचो!अपनी मंजिल तक पहुंचो!

समाधि क्या है?

संसार में रहते हुए भी संसार में ना रहना यही तो समाधि है।

आत्मविश्वास क्या है?

आत्मा के आधार पर किया गया विश्वास आत्मविश्वास है।जब अपने आराध्य को साक्षी मानकर आप किसी पर विश्वास करते हैं

तो वह आपको धोखा नहीं दे पाता।अगर वह धोखा देना भी चाहता है तो आराध्य उसे धोखा देने नहीं देते। परंतु संसार में विश्वास परख कर करना चाहिए।अगर संसार में तुम्हें धोखा मिला और तुम कहती हो कि आराध्य से जुड़ी हुई थी।

आराध्य से जुड़ी हुई तो थी परंतु विश्वास और समर्पण पूरा नहीं था।द्वंद में फंसी रहती थी।

साधना क्या है?

मन का शुद्धिकरण ही साधना है।शुद्ध मन में ही पवित्रता वास करती है।साधना में अंतःकरण और बाह्यकरण का कोई अंतर नहीं है।क्योंकि अंतः करण को तुम कभी बता नहीं सकते और बाह्यकरण को दिखा नहीं सकते।केवल साधना का आनंद लो!

समर्पण कैसे करें?

प्रेम की पूर्णता ही समर्पण की पराकाष्ठा है।प्रेम की पूर्णता प्राप्त करने का एक ही मार्ग है ..प्रेम की देवी राधा रानी का आवाहन।

सर्वप्रथम उनका आह्वान करें। फिर उनसे प्रार्थना करें कि वे उनके प्रेम को पूर्णता प्रदान करें।जब प्रेम पूर्णता को प्राप्त कर लेगा।तब समर्पण की पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेगा।जब प्रेम पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो कुछ पाने की इच्छा समाप्त हो जाती है।प्रेम में ना कुछ खोना हैऔर ना ही कुछ पाना है।केवल स्वयं में लय कर जाना है।

क्या है शिवत्व का मार्ग ?

शिवत्व का अर्थ है प्रेम देना, सभी के लिए प्रेम रखना और किसी भी क्रिया की प्रतिक्रिया ना देना।कोई देखे या ना देखे

परंतु आंखों में प्रेम हो और क्रिया की प्रतिक्रिया ना हो।अपने शरीर के सभी दर्द ,सभी प्रकार की चोट को अपने आराध्य को समर्पित कर दें।धीरे-धीरे शरीर भाव से उठ जाओगी और आत्मा में प्रवेश कर जाओगी।और आत्मा तो परमात्मा का ही अंश है।

रामकृष्ण परमहंस अपने शरीर भाव से उठ चुके थे। इसीलिए तो उन्हें कैंसर के दर्द की अनुभूति ही नहीं होती थी।जो शरीर भाव से उठ जाता है उसे दर्द की अनुभूति नहीं होती।

3-ध्यान ज्ञान की वह गंगा है जिसमें स्नान करके ईश्वर की प्राप्ति की जाती है।ध्यान मन को स्थिर करता है।

मानसरोवर वही जा सकता है; जिसका मन स्थिर हो।रथ यात्रा में गई तो यह तुम्हारे दृढ़ संकल्प के विश्वास का परिणाम

है।यही दृढ़ संकल्प और विश्वास रखो कि हम इसी जन्म में अपने आराध्य से एकाकार हो जाएंगे।संकट का समय अब खत्म हो चुका है।जल्दी ही अच्छा समय आने वाला है।अंबुबाची मेला का समय प्रकृति की सृष्टि का समय है।प्रकृति की प्रसन्नता का समय है ।10 महाविद्या शिव तक जाने का मार्ग देती है।परंतु शिव में विलय करने के लिए..प्रयास भक्तों को ही करने पड़ते हैं।एकादशी के बाद से माया और महामायाअर्थात भगवान विष्णु और महा देवी दोनों ही पाताल लोक चले जाते हैं।सावन के महीने में भोलेनाथ के साथ देवी की पूजा नहीं होती क्योंकि वह पाताल लोक में होती है।अंबुबाची मेला के समाप्त होने के बाद

दसमहाविद्या कैलाशपति से मिलने जाती है।10 महाविद्या भगवान शिव के पास कैलाश में रहती हैं।10 महाविद्या ही पूरी सृष्टि का संचालन करती है।

4-बिना बोले ही ..प्रेम को समझ लेना।इसका अर्थ है कि प्रेम क्या है, समझ में आ गया है ।इस संसार के कण-कण में शिव निराकार स्वरूप में विराजमान है।आराध्य कभी किसी का हाथ नहीं छोड़ते।जब तुम आराध्य का ध्यान करते करते सो जाते हो तो उनके निराकार स्वरूप में ही चले जाते हो।परंतु अनुभूति गहराई में जाने पर ही होती है।निष्काम भक्ति करने का भी समय आता है।प्रकृति क्या नहीं देती? भोजन पानी..सब कुछ तो देती है।प्रकृति से तो मांगना ही पड़ता है।प्रकृति तो सभी को देती है।बस मांगते समय केवल यह ध्यान रखना हैकि वह मांग निस्वार्थ हो।प्रेम पूर्ण हो। भावपूर्ण हो।इतना तो समझने लगी हो कि जो हो रहा है उसे देखते जाओ।परंतु जब यह विचार आता है कि हम कुछ नहीं कर सकते?बस वही से द्वंद प्रवेश कर जाते हैं।इस संसार में कोई द्वंद रहित नहीं रह पाता।

5-जब इच्छा और दृढ़ संकल्प मिल जाते हैं;तब वह कार्य अवश्य होता है क्योंकि उस कार्य को कराने के लिए पूरा ब्रह्मांड खड़ा हो जाता है।मणिकर्णिका में जाना चाहती हो तो भाव से जाओ।पूरा अध्यात्म भाव पर ही आधारित है !शरीर भाव से सोचोगी तो समस्या है?आत्मा भाव से तो तुम प्रत्येक रात मणिकर्णिका में जा सकती हो।12:00 बजे के बाद भगवान शिव मणिकर्णिका में ही रहते हैं जो एक जागृत शमशान हैं।यदि काशी की याद आ रही है तो चली जाओ।1 दिन के लिए ही चली जाओ।बस इस यात्रा में एडजस्ट करना पड़ेगा।इच्छा कर लोगी तो सारी व्यवस्थाएं बन जाएंगी।क्या पता तुम्हारी वजह से उनको भी दर्शन हो जाए?संसार कभी भी द्वंद रहित तो नहीं होता।

6-ईश्वर ने स्त्री पुरुष को बनाने में भेद नहीं किया।स्त्रियों का ब्रेन छोटा होता है।यह सब कहने का अर्थ यही हुआ कि सभी देवियों का दिमाग कम है।क्योंकि प्रश्न तो प्रकृति का ही है ना?पृथ्वी लोक में स्त्रियों को कहा जाएगा ..तो रूप से प्रकृति के बारे में ही तो कहा जाएगा ना? स्त्रिया प्रेम, करुणा ,सहनशीलता को महत्व देती है।देव शयनी एकादशी की महाआरती के बाद जो प्रार्थना की जाती है;उसे भगवान अवश्य सुनते हैं।भगवान अपने भक्तों के लिए कभी नहीं सोते।एक संबंध की सफलता वह है जब शब्दों की आवश्यकता समाप्त हो जाए।केवल आभास रहे। विश्वास रहे! जागरूकता रहे और संतोष रहे। दोनों बिना बोले ही एक दूसरे की बात समझ जाए।जब भी तुम भयभीत होते हो तो तुम अपने अंदर वास कर रही मेरी शक्ति से ज्यादा अपने भय को महत्व देते हो। तुममे या तो भय वास कर सकता है या मैं और मेरी शक्ति।यदि तुम्हें मुझ पर पूर्ण विश्वास है तो किसी भी संकट पड़ने पर मेरा नाम लेकर हर संभव प्रयास करने का सामर्थ अवश्य पाओगे।

7-भाव से उठ पाएंगे या नहीं?यह चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।प्रयास करो! बाकी समय पर छोड़ दो।प्रयास करते रहना चाहिए।यह पूरा ब्रह्मांड भाव से जुड़ा हुआ।यदि भाव से इच्छा कर ली तो वह पूरी हो जाती है।और यदि भाव से इच्छा त्याग दी

तो वह काम नहीं होता।आराध्य से संबंधित जो इच्छाएं हैं।वह उन्हीं पर छोड़ देनी चाहिए। जो उचित समझेंगे...वह करेंगे।

भी भाव से काशी जा रही हो और वह तुम्हें भाव से काशी ले जा रही है ।भले ही तुम्हारे घूमने की इच्छा ना हो!परंतु अगले की तो है।उसके तो भाव जुड़े हुए हैं।तो दोनों के भाव मिल जाते हैं। कैलाश का क्या अर्थ है? आज जो कैलाश है।

और वह जो कैलाश था।क्या दोनों एक ही है? जिस भक्त के हृदय में ईश्वर का वास है वही कैलाश हैं।कुछ भक्त अपने आराध्य से इतने जुड़े होते हैं कि वह कहीं घूमने भी नहीं जाना चाहते।जो अपने आराध्य के साथ आनंदित है वह घूमने क्यों जाना चाहेगा?जनम जनम का साथ है तुम्हारा हमारा। महीने और क्षण में अंतर होता है।पहले जो हो गया ..क्या आज भी होगा? तुम पूछ रही हो कि राधा कृष्ण की बात पर रिएक्ट करना चाहिए था या नहीं?क्या तुम्हारे रिएक्ट करने से अगला समझ जाता? वह तुम्हारे मेंटल लेवल को नहीं समझ सकते और तुम उनके मेंटल लेवल को नहीं समझ सकती।

8-आध्यात्मिक यात्रा पर चलने वालों को गाइडलाइन दी गई या नहीं?यह महत्वपूर्ण नहीं है।उनका अंतर्मन ही उन्हें निर्देशित करने लगता है।उसने वही सब लिखा है जो आज तुम्हें बताया जा रहा है।और फिर भी लोग उसे गलत समझ रहे हैं। इसका उत्तर यही है कि क्या रावण को ज्ञान नहीं था?अजत प्रखर मेला ...इसका अर्थ है शिव तत्व का ज्ञान। यह ज्ञान वह तुम ही से तो मांगेगी। उसके पति को यह ज्ञान समझ में कहां आ रहा है?उसे तुम्हारे पद चिन्हों में चलना है।आगे नहीं चलना है।अगर आगे चलने लगे तो सीखोगे क्या?

9-क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं करनी है। गौतम बुध को किसी ने 2 घंटे गालियां सुनाई और वह सुनते रहे । जब वह जाने देगा तो उन्होंने कहा तुम जो लेकर आए थे अपने साथ वापस ले जाओ। यही तो तुम भी कह सकती हो। यदि शब्दों में नहीं कर सकती हो अपने मन में कह सकती हो।जहां से शुरू किया था फिर वही जाना पड़ रहा है।फिर वहीं जाकर खड़े हो गए हैं ;मन में बेचैनी हैं।यह सब सोचकर परेशान मत करो।जब आराध्य का साथ है तो चिंता किस बात की?इस संसार में आनंद से रहो। और आनंद से तक ही रह सकती हो।

10-इस संसार में आनंद से रहो। और आनंद से तब ही रह सकती हो जब हृदय में प्रेम हो ।साधना में मन ही समझाता है और मन ही भ्रमित करता है।जब जब मन में सांसारिक द्वंद को स्थान दोगी तो तुम्हें भय आएगा।भगवान शिव की ऊर्जा गुरु पूर्णिमा के दिन से ही इसपृथ्वी लोक में आ जाती है।माता कभी कुमाता नहीं होती।संतान चाहे जितनी दूर हो उसे ध्यान रहता है।प्रेम में इतनी ताकत होती है कि वह हर घाव को भर देता है।ईश्वर को वो लोग अत्यंत प्रिय है जो अपने लक्ष्य में निगाह रखते हैं।जीवन के उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं।अपने आराध्य का हाथ पकड़ो और आगे निकल लो।यही क्या कम है कि ऐसी में भी तुम्हारे आराध्य तुम्हारे साथ हैं ।पिछले जन्मों का तो थोड़ा-थोड़ा करके दिया जाता है।इसका कारण नहीं बताया जा सकता है।उनको भी सिखाया जा रहा है और तुमको भी सिखाया जा रहा है।सब भूल जाओ! अपने अंदर विश्वास भर लो और अपने आनंद में रहो

11-ना कुछ पाना है। ना कुछ खोना है।केवल एक ही इच्छा है ... शिव तत्व में लय होने की।अपने पिछले जीवन को देखें और आज के जीवन को देखें।दृष्टिकोण में, विश्वास में ,व्यवहार में।सभी में परिवर्तन है।जिस दिन पूर्णतया शुद्धता आ जाएगी ..

उस दिन कैलाश में खड़ा कर दिया जाएगा।अभी कुछ गंदगी है।उसको स्वीकार करो और सफाई करो!उदाहरण के लिए

यदि किसी के प्रति मन में गलत विचार विचार आते हैं तो तुरंत अपने आराध्य को समर्पित कर दो।क्या अपनी मंजिल को पाने के लिए कठिन परीक्षा देने को तैयार हो ?परीक्षा विश्वास की होती है।अपने अनंत की यात्रा में जाओ।

12-जब गंतव्य ज्ञात होता है.. तो मार्ग स्वयं प्रत्यक्ष हो जाता है। मन की प्रसन्नता ही मन की आकृति है।जीवन में आनंदित रहो और अपने आप में खोए रहो।जो सांसारिक द्वंद में फंसा है वह आनंदित नहीं हो सकता।जब मन में शांति होती है तो वही आनंद है। आराध्य के सानिध्य में रहना; अपने आप में खोए रहना..यही तो परमानंद है। अपने मन को खीर की तरह पवित्र करो, शुद्ध करो।पिता यदि सपने में 2 दिन से लगातार आ रहे हैं तो उनसे कह दो..मेरे द्वार बंद है।व्याकुल मन कहां जाए?इसलिए आ रहे हैं।

13-21 शनिवार तक तुम्हें समर्पण करना है...तुम्हारे प्रारब्ध के कारण।ऐसी परिस्थितियां आएंगी,जिनमें तुम्हें चुनाव करना होगा। तुम परिस्थितियों का चुनाव करती हो या स्वयं का?स्वयं का अर्थ है ..अपने आराध्य पर विश्वास!21 शनिवार के दरमियान मेरा क्या रोल है?तुम्हारा रोल है... मार्ग निर्देश देना।शनिदेव तो न्याय के देवता है।और न्याय तो तुम्हारे ही पक्ष में होगा।किसी स्थान के आधार पर किसी व्यक्ति पर शंका करना उचित नहीं।प्रेम में अनंत शक्ति होती है।किसी जीव से प्रेम से बात करो।देखो !वह कितना प्रसन्न होता है?तुम कहती हो कि प्रेम की देवी राधा रानी को - अयन ,जटिला ,कुटिला परेशान ही करते रहे।लेकिन उन्होंने ही तो उनको प्रेम में दृढ़ होना सिखाया।प्रेम को दृढ़ता प्रदान करने के लिए .. ऐसे लोग लगा दिए जाते हैं।दृष्टिकोण का अंतर है।तुमने कहा, मैंने प्रेम दिया।परंतु सफल नहीं रही, क्या गलती थी? सब प्रारब्ध है!तुम्हें यह क्यों लगता है कि मैं नाराज ही रहता हूं ?जो हो रहा है ..उसे देखो।सब समय और परिस्थितियों के अनुसार घटित होगा।

14-प्रेम में खोना ही प्रेम को पाना है।जितनी जल्दी स्वयं को खो दोगी ;उतनी ही शीघ्र ईश्वर में लय कर जाओगी।प्रेम और करुणा को सर्वोच्च महत्व देना होगा।जब प्रेम होगा.. तभी करुणा होगी। यदि संसार में प्रेम नहीं मिल रहा है तो क्या ईश्वर से प्रेम नहीं मिला?जिन लोगों ने प्रेम को नहीं समझा;चाहे वह शकुनी हो या दुर्योधन ...तो वह इस दुनिया से अतृप्त ही गए!ईश्वर जन्म देता है; प्रकृति लाती है।परंतु चयन जीव का ही होता है।आत्मा परमात्मा का ही स्वरूप है।अगर आत्मा बता रही है कि यह ना करो और यह करो!तो चयन तो तुम्हारा ही है।दुश्मन के प्रति करुणा ही उसे शापित नहीं कर सकती।सावन में शिव संसार से प्रेम पाने आते हैं और संसार उन्हें अपनी इच्छाओं की लिस्ट बता देता है।पूरा ब्रह्मांड प्रेम से ही चलता है।चाहे कोई भी लोक हो!दुश्मन के प्रति करुणा तभी रख पाओगे जब यह जान लोगे कि उसके अंदर भी शिव ही बैठे हैं।अभी तुमने स्वयं ही कहा था कि अगर एक स्वरूप में ईश्वर सिद्ध कर लिया तो दूसरे में भी सिद्ध कर लो।क्या शिव मे राधे नहीं? और क्या राधे में शिव नहीं? अंतर्मन से राधे का नाम जाप करो।सिर्फ वही शिव से मिलाने में सहायता कर सकती हैं।

15-नारायण दो सरोवर मांग रहे हैं अर्थात प्रेम और समर्पण।प्रेम से शुरुआत होती है। लेकिन जब समर्पण आ जाता है;तब प्रेम पराकाष्ठा पर पहुंचता है।तुम एक ही सरोवर दे रही हो।नारायण भी कह रहे हैं कि माया चाहिए या शिव?भोलेनाथ जब नृत्य करते हैं ;तो राधे राधे कह कर ही करते हैं।उनके हृदय में प्रेम का वास हैं।तो अगर राधे-राधे कहोगे तो क्या आवाज उन तक नहीं पहुंचेगी?पहले आराध्य का नाम सांसों में जपने के लिए कहा गया था।अब कहा जा रहा है कि राधे राधे का जाप करो। ...तो जो मन निर्णय करें वही करना।शिव , कृष्ण ,राम ..तीनों की भाषा एक ही जैसी लगती है क्योंकि त्रिकाल एक ही है।भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों एक ही है।यह समझना अगर कठिन लग रहा है तो कोई बात नहीं।क्योंकि यह तुम्हारा मार्ग नहीं है। तुम्हारा मार्ग प्रेम का है।अनंत ज्ञान एक तरफ है और प्रेम एक तरफ!पवित्र प्रेम के माध्यम से तुम किसी भी लोक में , किसी भी युग में पहुंच सकते हो । परंतु प्रेम पवित्र होना चाहिए और इस शक्ति का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।इस ऊर्जा का दुरुपयोग तभी हो सकता है;जब तुम भविष्य जानने के लिए कहीं जाओ!देवी भविष्य में जाना पसंद नहीं करती। परंतु जब चाहती हैं तो जान लेती हैं।तुमने अगर भविष्य को जानने का प्रयास किया होता तो तुम्हें कुछ भी ना मिलता।और अगर तुम्हें सपने के माध्यम से भविष्य का ज्ञान करा दिया जाता है तो समझ लो तुम्हारे ऊपर ईश्वर की विशेष कृपा है।

16-रामेश्वरम में समुद्र शांत है।क्योंकि जब राम क्रोधित हुए थे। तब समुद्र प्रकट हुए थे और उन्होंने वचन दिया था कि यहां पर समुद्र शांत रहेंगे।समुद्र आज भी अपने वचन का पालन कर रहा है।अगर रामेश्वरम जाने का दृढ़ संकल्प है तो ईश्वर भी इच्छा पूरी करता है।पवित्र प्रेम की परिभाषा क्या है?स्वयं में खो जाना ही पवित्र प्रेम है।इस संसार के कण-कण में प्रेम है।जब कण-कण प्रेम से जुड़ा हुआ है तो आराध्य से भी तो जुड़ा हुआ है।तुम पवित्र प्रेम के द्वारा कहीं भी विचरण कर सकती हो।परंतु भविष्य में में जाने का दुरुपयोग नहीं करें। चिल्का लेक में शिवलिंग है।यह सूचना तुम्हें ध्यान के माध्यम से ही दी गई।तुम इसे सत्य मान सकती हो या भ्रम।हरि और हर तो एक ही है!सावन के महीने में भोलेनाथ नटराज स्वरूप में संसार की नकारात्मकता का अंत करते हैं।नकारात्मकता का अंत उन्हीं का होता है जो उनकी अनुभूति कर पाते हैं।सावन के महीने में ही भगवान शिव ने हलाहल विष पिया था।इसीलिए सावन मास में भगवान की पूजा की जाती है।राधे राधे का इतना जप करो कि राधे-राधे कहते ही तुम्हें अपने आराध्य दिखाई दे।शीघ्र ही अपने अंदर के शिव को पूर्णतया जागृत कर लो।ना शिव का नाम लेने को मना किया गया;ना नाम छोड़ने को कहा गया।संपूर्ण प्रेम से ही ब्रह्मांड बना है।प्रेम की देवी से अनंत प्रेम मांगो।

17-प्रेम में खोना ही प्रेम को पाना है।खोने का अर्थ है कि अपने आराध्य से जुड़े रहना की यादों में रहना।समाधि प्रेम की पराकाष्ठा है।पहले प्रेम में खोना है। और जब प्रेम पूर्णता को प्राप्त कर लेगा तो समाधि लग जाएगी। राधे राधे का नाम लेते ही तुम्हें तुम्हारे शिव दिखाई दे।चाहो तो अनुभूति करके देख लो कि जब राधे का नाम लेती हो तो कौन दिखाई देता है।प्रेम ही तो प्रेमी तक पहुंचने का माध्यम है।जब प्रेम से राधे-राधे बुलाओगे तो राधे तुम्हें तुम्हारे प्रेम तक पहुंचा देंगी।

18-समाधि प्रेम की पराकाष्ठा है।जब साधक प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है तो उसे भूख प्यास कुछ भी महसूस नहीं होता।अमरनाथ की गुफा के अंदर ही एक और गुफा है।जिसके अंदर सामान्य जनता प्रवेश नहीं कर सकते।जब प्रेम की आंखों से देखोगी तो सब जगह प्रेम ही दिखाई देगा।सही गलत से ऊपर उठो और आगे बढ़ो!विश्वास हमेशा परख कर ही करना चाहिए।मार्ग तो तुम्हें दिए ही जा रहे हैं। और मार्ग भी खूब है! दृढ़ संकल्प हो तो तुम इसी क्षण अपने आराध्य से एकाकार हो सकती हो।हर पल तुम्हें कुछ ना कुछ सिखाता है।तुम उससे क्या ग्रहण कर पाते हो ..यह तुम पर निर्भर करता है।

हर पल तुम्हें कुछ ना कुछ सिखाता है।

3..........

1-जीवन में आनंदित रहो।आनंद से ही अनंत की यात्रा होती है।प्रेम को आधार बनाओ।और प्रेम भाव से भाव को मिला देता है।जब भाव से भाव मिल जाते हैं तब दृढ़ संकल्प लिए जाते हैं।भाव से भाव तो अनुभूति के आधार पर किया जाता है। क्योंकि सब भक्तों के सामने ईश्वर तो होता है लेकिन भक्त के सामने नहीं आता।जब भक्त अपनी अनुभूति ईश्वर से मिला लेता है ;तब वह दृढ़ संकल्प ले लेता है।जैसे ही वह दृढ़ संकल्प लेता है ;पूरा ब्रह्मांड उसे मार्ग देने के लिए तैयार हो जाता है।

2-प्रेम का सागर तुम्हारे पास है।अनंत का आनंद लो और मानसिक द्वंद से हटो।संसार की समस्याएं आएगी और जाएगी। वर्तमान में रहो और वर्तमान का आनंद लो प्रेम सागर की गहराई में डूब जाओ।जीवन के हर क्षण का आनंद लो।जब जीवन के हर क्षण का आनंद लोगी तो परमानंद का आनंद मिलने लगेगा।राधे राधे का नाम जाप करो।और अनंत गहराइयों में खो जाओ! राधे राधे का नाम जाप करने से गहराई में प्रवेश कर जाओगी और कुछ भी याद नहीं रहेगा।

3-हरिद्वार में हर की पौड़ी है।यहां भगवान शिव साल में एक बार स्नान करने अवश्य आते है।पाताल लोक में भी सावन मनाया जाता है।सावन की शिवरात्रि के दिन भगवान की विशिष्ट पूजा होती है।सावन की विशिष्ट पूजा क्या है? सावन की विशेष पूजा यही है कि स्वयं को जान लो।जो भोजन प्रेम से पकाया जाता है।वह भोजन तृप्ति देता है।भगवान तुम्हारे मन की बात समझ जाते हैं।असुर तो कोई भी हो सकता है।इसमें एलिमेंट की क्या बात है?भोलेनाथ सावन में अपने नए भक्तों में व्यस्त रहते हैं।12:00 बजे के बाद भगवान शिव मणिकर्णिका चले जाते हैं। चतुर्मास में पृथ्वी की हालत सही नहीं चल रही है।सावन में यमुना जी भी भगवान के दर्शन करने गई है।क्या प्रकृति भगवान के दर्शन नहीं करना चाहती? शांत मन से गहराई में जाओ।स्वयं से पूछो क्या सोमवार को बेलपत्र नहीं तोड़ना चाहिए?जो मन से उत्तर मिले वही मानो!नियम में बंधना है या स्वयं से बंधना है?स्वयं कों नियमों से नहीं स्वयं से बांधो !ईश्वर अपनी पुत्री में और संसार की पुत्रियों में भेद नहीं करता।अंतर्मन की दृष्टि से देखो तो अशोक सुंदरी बहुत सुखी हैं।उन्हें संसार की सभी पुत्रियों की चिंता है।

4-अनंत प्रेम ....

1-अनंत प्रेम और समर्पण ही संसार के भंवर चक्र से बाहर निकाल सकता है।पिछले जन्मों में हम जो करके आए हैं वह तो हमें इस जन्म में भुगतना ही पड़ेगा।इस जन्म से अगले जन्म की तैयारी होगी।त्रिकाल और समकाल एक ही है।समकाल अर्थात वर्तमान।जिसे यह बोध है उसकी यात्रा शीघ्र ही पूरी हो जाती है।प्रसन्नता ही चेतनता है।यात्रा तो शिवलिंग बनने की ही है।

जैसे-जैसे प्रेम और समर्पण बढ़ता है ;वैसे वैसे अनुभूतियां बढ़ने लगती है।हर क्षण स्पर्श की भी अनुभूति होती है।हर आत्मा को अपने भंवर चक्र से स्वयं ही निकलना पड़ता है।चिताओं में लेटे लोग भी अभी तक भंवर चक्र से बाहर नहीं निकल पाए हैं।

प्रेम और समर्पण ही एकमात्र मार्ग है...भंवर से निकलने का।इस ब्रह्मांड में प्रेम ही सर्वोपरि है।

2-प्रेम आधार है।प्रेम निराकार है।जब-जब प्रेम को समझोगे...अपने आराध्य में लय कर जाओगे।जब-जब संसार में प्रेम हार जाता है;तब ईश्वर को अवतार लेने आना पड़ता है।राधे-राधे कहते जाओ और अपने आराध्य में लय करते जाओ।प्रेम के विस्तार से ही सारा ज्ञान प्राप्त हो जाता हैअभी तो पृथ्वी में प्रेम है।मां के रूप में ..बहन के रूप में ... पत्नी के रूप में..पुत्र के रूप में।

जब यह सारा प्रेम हार जाएगा।तब ईश्वर को अवतार लेना पड़ेगा। जितनी जल्दी प्रेम का विस्तार करोगी.. उतनी ही जल्दी अपने आराध्य में लय कर जाओगी।प्रेम का विस्तार है विश्वास और समर्पण।यह विस्तार तुम स्वयं सब नहीं कर पाओगी।तुम्हारे भाव ही तुम्हें वहां तक पहुंचा देंगे।

5-ब्रह्मज्ञानी समदर्शी होता है, समवर्ती नहीं।उदाहरण के लिए मां, बेटी, पुत्री ,पत्नी ...चारों में ईश्वर विराजमान है।परंतु चारों से अलग अलग व्यवहार है।संसार में सभी से हमारा व्यवहार अलग अलग होता है।इसका अर्थ यह नहीं कि किसी में ईश्वर विद्यमान नहीं है।ईश्वर तो सभी में विद्यमान है।संसार में विश्वास परख कर ही करना चाहिए।

6-बैजनाथ ज्योतिर्लिंग अगर कई हैं या भस्मासुर वाली गुफाएं कई तो है सब सही है।क्योंकि प्रत्येक ज्योतिर्लिंग में शिवलिंग है और शिवलिंग में ज्योतिर्लिंग है।जिस ज्योतिर्लिंग का नाम लिया जाता है;उसकी शक्ति उसमें आ जाती है।ईश्वर के दर्शन केवल पुण्य आत्माओं को ही मिलते हैं।अमावस्या के दिन प्रभु भोलेनाथ! सभी आत्माओं से मिलते हैं परंतु केवल वही आत्माएं उनको देख पाती हैं जो पुण्य आत्माएं होती हैं।जितनी जल्दी प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुंच जाओगी उतनी ही जल्दी पूर्णता को प्राप्त कर लोगी।राधे-राधे कहते जाओ और आराध्य में विलय करते जाओ।यह पुरुषोत्तम मास का समय चल रहा है।राधे हृदय है।हृदय के माध्यम से ही अपने आराध्य तक पहुंचा जा सकता है।मन पर भार मत रखो।जो होता है वह अच्छे के लिए ही होता है।जीवन की हर परिस्थिति तुम्हारे आराध के द्वारा ही बनाई हुई है।तुम उस पर चलते हो या उससे भागते हो... यह तुम पर निर्भर करता है।प्रसन्न मन ही दूसरे को प्रसन्न कर सकता है।और प्रसन्न मन ही ईश्वर तक पहुंच सकता है।जो हर के मार्ग पर चलता है।वह हरि के मार्ग पर भी चलता है।और हृदय में तो सभी को चलना पड़ता है।राधे रानी ह्रदय हैं तो हृदय के अंदर तो शिव ही है। राधे राधे जपने से मन में समुद्र की जो लहरें है उठा करती है.. वह लहरें शांत होने लगती है और स्थिर हो जाती है।अपने अनंत प्रश्नों को शांत करो।स्वयं में डूब जाओ!प्रसन्नता अंदर वाले से साधक को जोड़ देती है।

7-पुण्य आत्मा की परिभाषा क्या है?

पुण्य आत्मा वह है जो सत्य की खोज कर रहा है।जो मानवता को मानता है।जो दूसरों के लिए जीता है।जो दूसरों के दुख को अपना दुख समझता है।

8-धीरज मन को स्थिर करता है।ज्ञान बुद्धि को स्थिर करता है। प्रेम हृदय को स्थिर करता है।समर्पण शरीर के आवेगो को शांत करके स्थिर करता है।न्याय आत्मा को स्थिर करता है। जब यह पांचो शांत और स्थिर हो जाते हैं। तब मनुष्य करुणा से भर जाता हैं।जब हृदय करुणा से भर जाते हैं तब धर्म का जन्म होता है ।दिवाली की रात कोआदि शंकराचार्य के ऊपर एक शॉल चढ़ानी है।अपने मन को चढ़ा दो। इसका तात्पर्य भविष्य की एक घटना से है।आदि शंकराचार्य तुम्हारे आराध्य का ही स्वरूप है।उस घटना से प्रत्यक्ष आनंद की अनुभूति होगी।मन के पागलपन को ही तो नियंत्रित करना है।प्रसन्नता ही तो ईश्वर से मिलन का आधार है।प्रसन्नता अंदर वाले से साधक को जोड़ देती है।प्रसन्नता से साधक अंदर ही अंदर परमानंद के आकाश में तैरता है।जो खबरें ईश्वर को तुम तक पहुंचानी नहीं होगी वह तुम तक पहुंच ही जाएंगी।स्त्रियों के स्त्री के अंदर स्वभाविक रूप से लज्जा होती है।जब स्त्री की लज्जा ही समाप्त कर दी गई तब तो वह पत्थर ही हो गई।तो जिसने उन्हें पत्थर बनाया है। उन्हें दंड तो दिया ही जाएगा।पूरा संसार भाव से जुड़ा हुआ है।जो तुम्हें तकलीफ हुई और तुमने उनके लिए प्रार्थना की।इस संसार में ना पूरी तरीके से सुख में रहा जा सकता है और ना ही पूरी तरह दुख में रह सकता है।इसीलिए उसमें समन्वय होना चाहिए।

शांत मन ही इस स्थान पर आ सकते हैं।दूसरे की तकलीफ को अपनी तकलीफ समझना ...यही तो मानवता है।गीता में कर्म तत्व है..अग्नि तत्व है ...सभी तत्व है।जब सभी तत्वों को मिलाया जाएगा तो कुछ तो बनेगा ही।भगवत गीता में सब कुछ है।यहां तक कि औषधियां भी बताई गई हैं।अगर ईश्वर ना चाहता होता तो एटम बम कैसे बनता?यह तुम्हारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि तुम क्या समझ पाते हो?

9-प्रेम प्रेम को ही पुकारता है।जिज्ञासा होनी चाहिए अपने आराध्य से मिलन की।जिज्ञासा होनी चाहिए पूरे संसार के कण-कण में प्रत्येक जगह ,प्रत्येक जीव में..अपने आराध्य को देखने की।पंछी भी भक्ति करते हैंऔर वे भक्त को पहचान भी लेते हैं।

प्रत्येक जीव प्रेम के स्पर्श को समझता है।उनके अंदर ज्यादा दूर दृष्टि होती है।प्रकृति से प्रश्न पूछो... प्रकृति तुम्हें उत्तर देगी

महादेव देखते हुए , राधा कृष्ण देखते हुए तुम बाहर कहां हो?यदि इस संसार में हो तो लीलाओं का मंथन ही नहीं कर पाओगे।

अगर लीलाओं का मंथन कर रहे हो..तो अंदर ही हो। लेकिन अभी अंदर वाले को दृष्टि चाहिए।जब मंथन को आत्मसात कर लोगी तो आंख खोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।अपने अंदर ही रहोगी..स्वयं में ही डूबी रहोगी।तो पहले सबसे सभी पशु पक्षियों में,प्रकृति में,कण-कण में अपने आराध्य को देखो!अपने आराध्य से आसक्ति कर लो और सब से निरासक्ति कर दो।और सबसे अंतिम भक्ति है जब पूरे ब्रह्मांड के लिए तुम्हारे हाथ जुड़ने लगे।पूरे ब्रह्मांड के लिए प्रेम हो। चाहे कोई अच्छा हो या कोई बुरा..सबके लिए प्रार्थना करने के लिए तुम्हारे हाथ जुड़ जाए।जब जिज्ञासा आराध्य से मिलन की हो,स्वयं में डूबने की हो,गहराई मे जाने की हो ....तो अनंत भक्ति के द्वारा मार्ग स्वयं ही प्रशस्त होने लगते हैं।स्वयं का मंथन करो..क्या राधा रानी के चरणों में पूर्ण समर्पण आ गया है?यदि आ गया है तो आराध्य से मिलने का समय आ गया।क्योंकि तुम जानती हो राधा रानी तो हृदय हैं।सर्वत्र..सभी मनुष्य में ,पशुओं में ,पक्षियों मेंअपने आराध्य को देखो!प्रेम की भाषा सभी जानते हैं।जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं।लेकिन हाथ थामा है तो निकाल भी लेना है।

10-मासिक धर्म के समय तुलसी के पौधे को छूना चाहिए या नहीं?

इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि तुम्हारे भाव कैसे हैं?क्या माता अपनी पुत्री को इन दिनों में स्पर्श नहीं करती ?

यदि तुम्हारा भाव माता का है तो स्पर्श करने में क्या समस्या है? नियम वहां होते हैं जहां प्रेम नहीं होता।जहां प्रेम होता है, वहां नियम नहीं होता।पूरा संसार भाव से ही जुड़ा है।अपने भाव के अनुसार चुनाव कर लो।आत्मा में इतना डूब जाओ कि शरीर ना लेना पड़े।आत्मा परमात्मा का ही अंश है।आत्म स्वरूप में ही परमात्मा से मिलन हो सकता।और जब आत्मा के स्वरूप में खो जाओगी तो शरीर क्यों लेना पड़ेगा?

11-निधिवन में बाड़ा लगा दिया ?

क्योंकि वहां पर दुरुपयोग किया जा रहा था।वहां वृक्ष नहीं गोपियां है।लोग उन वृक्षों पर अपना नाम लिख रहे थे...गोपियों को कष्ट दे रहे थे।इसके अलावा हंसी उड़ा रहे थे।प्रेम को समझना इतना आसान नहीं है।राधाकृष्ण एक स्वरूप में निधिवन में हमेशा रहते हैं।इसीलिए सबको वृंदावन प्रिय हैं !अपनी आंखें बंद कर लो और राधे राधे का जाप करो..तुम्हें प्रत्यक्ष रास दिखाई देगा।यदि राधे रानी हृदय में है तो कृष्ण भी हृदय में है।राधा कृष्ण... कृष्ण कहैं राधा, एक रूप दोउ प्रीति अगाधा।

12-रास का वास्तविक अर्थ क्या है?

रास का वास्तविक अर्थ है स्वयं से एकाकार होना।रास ना सुख में में होता है ना दुख में।रास प्रसन्नता में होता है जिससे आनंद की प्राप्ति होती है।ईश्वर परमानंद ही तो है।सुख-दुख की परिभाषा तो मनुष्यों ने बनाई है। मनुष्य थोड़ी देर सुखी होता है और फिर दुखी होकर बैठ जाता है।पूरा ब्रह्मांड एक है। ना कोई छोटा है ना कोई बड़ा।इसमें कोई भेद मत करो।राधे रानी की कृपा के बिना किसी को भी अनंत प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती।द्वापर युग से पहले प्रेम की देवी गोलोक धाम में थी।द्वापर युग में

उनका अवतरण प्रथ्वी में हुआ।रास के लिए हृदय का एकाग्र होना, स्थिर होना आवश्यक है।और हृदय की स्थिरता राधा रानी की कृपा से ही होती है।प्रेम ही सृष्टि का आधार है।जब गंतव्य स्पष्ट होता है तो तुम्हें मार्ग अपने आप प्राप्त होते जाते हैं।चाहे कुछ सीखो या ना सीखो;केवल अपने आराध्य से अनंत प्रेम करना सीख लो। जितना -जितना गहराई में उतरती जाओगी ...

उतना ही उतना प्रेम प्रत्यक्ष होता जाएगा।बंसी की धुन उन्हीं भक्तों को सुनाई पड़ती है जिनका समर्पण पूर्ण हो जाता है।

13-जितनी जल्दी प्रेम की गहराई समझने लगोगे उतनी ही जल्दी स्वयं से एकाकार हो जाएगा।स्वयं को स्थिर करो। शरीर भाव से उठो।फिर स्वयं को एकाग्र करो!अपनी एकाग्रता को अपने आराध्य की एकाग्रता में विलय कर दो।ह्रदय का संबंध शरीर भाव से नहीं है।हृदय तो आत्मा का हिस्सा है।शरीर का संबंध पंचतत्वों से है। द्वारिका तो अभेद्य थी । परन्तु सांब ने द्वारिका का विनाश किया।क्योंकि नियति को बदला नहीं जा सकता।नारायण भी नियति को रोक सकते हैं ,अवसर दे सकते हैं।परंतु बदल नहीं सकते।उन्होंने सांब को अवसर दिया...एक पिता का कर्तव्य निभाया।अर्जुन को गीता का उपदेश देने वाला अपने पुत्र को धर्म नहीं सिखा सका।क्योंकि यही नियति थी ।परंतु अर्जुन के अंदर श्रद्धा थी।सांब के अंदर श्रद्धा नहीं थी। भगवान कृष्ण ने तपस्या करके भगवान शिव से रूद्र स्वरूप मांगा था।भगवान शिव का रूद्र स्वरूप भी संसार के कल्याण के लिए ही है।परंतु सांब केवल स्वयं के कल्याण के लिए सोचता है।राधा रानी से भी दुर्व्यवहार करता है।क्योंकि नकारात्मक शक्ति प्रेम नहीं समझती।सांब को भी अवसर दिया गया।स्वयं नारायण ने उनको अवसर दिया।परंतु वह अपने पिता से घृणा करता था।उसने शिव का त्रिशूल तक अपने पिता पर मारा और उसे आत्मग्लानि भी नहीं हुई।वास्तव में कलयुग का प्रारंभ तो वहीं से हो गया था।आज पुत्र पिता पर वार कर रहा है।यही तो कलयुग की पहचान है।धृतराष्ट्र का पुत्र मोह और जामवंती का पुत्रमोह एक समान ही था।कर्मों का बहुत महत्व होता है। क्या नारायण को पृथ्वी लोक पर अपना श्राप भुगतने आना नहीं पड़ा? वृंदा और तुलसी ने उन्हें श्राप दिया।परंतु उद्देश्य का महत्व होता है।क्या आपका उद्देश्य परमार्थ है या स्वार्थ है?नारायण का उद्देश्य परमार्थ था तो इसीलिए पूजा भी तो हो रही है।उनको अपनी पत्नी से दूर रहना पड़ा।क्या उन्हें कष्ट नहीं हुआ?परंतु आज राधे रानी का मोक्ष का , मुक्ति का दूसरा नाम नाम है।

14-नकारात्मकता का वास्तविक अर्थ क्या है?

विचारों का द्वंद नकारात्मकता है।और विचारों की स्थिरता सकारात्मकता है।पूरा ब्रह्मांड शिव से उत्पन्न हुआ है। राक्षस भी तो उन्हीं की संतान है।सभी को अवसर दिए जाते हैं। सभी को अपनी इच्छाएं पूरी करने की सुविधा दी जाती है।अब आप अवसर का सदुपयोग करते हैं या दुरुपयोग... यह आप पर निर्भर करता है।हलाहल की एक बूंद से कलयुग का जन्म हुआ।अभी दृष्टि भी है और सृष्टि भी है।दृष्टि उन साधू सन्यासियों की है जो ईश्वर की आराधना कर रहे हैं,साधना कर रहे हैं ,ईश्वर से प्रेम कर रहे हैं।जिस दिन प्रेम समाप्त हो जाएगा ;उस दिन कलयुग का भी अंत हो जाएगा।तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर तुम्हें स्वयं दिए जाएंगे ।गहराई में जाकर अपने आराध्य से एकाकार हो जाओ।तब तो प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुंच जाओगे।अपने आराध्य को जागृत कर लो।पूर्व प्रेम समर्पण करो।मार्ग स्वयं मिल जाएंगे।मां की पुकार ईश्वर की पुकार होती हैं।

...SHIVOHAM.....

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