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ज्ञान गंगा-17.....गुरु- शिष्य वार्तालाप


1-

1-मिलन की चाह को जिद्द बना लो।तुम्हारी जिद पूरी वही कर सकती हैं जो उनका हृदय हैं।अभी ज़िद भटक जाती है ।

मन की शुद्धता धीरे-धीरे ही आती है।पहले की तुलना में धीरे-धीरे मन शुद्ध हो रहा है।जब मिलन की चाह की जिद्द हो जाएगी ;तब कपड़ों की चाह तुच्छ लगने लगेगी।मिलन की चाह की जिद्द जल्द ही तुम्हें इस समस्या से निकाल सकती है ।वरना माया तुम्हें आगे नहीं बढ़ने देगी।और अध्यात्म तुम्हें पीछे नहीं लौटने देगा।जब तुम अपने आराध्य में विलय कर जाओगे।तब तुम बचोगे ही कहां?तुम्हें संसार का होश ही कहां रहेगा?भक्त अपने भगवान से रिश्ते बना लेता है। परंतु प्रेम संबंधों का मोहताज नहीं है।प्रेम में संबंध का कोई महत्व नहीं है।प्रेम में स्त्री -पुरुष ,पति -पत्नी ...यह सब कोई रिश्ते नहीं होते।जैसे-जैसे गहराई पकड़ते जाओगे।वैसे वैसे रहस्य उजागर होने लगेंगे।मनुष्य लोक तो होता ही भोग के लिए है।जब प्रेम की चाह की ज़िद हो जाती है तो स्वयं ही अंदरूनी परिवर्तन होने लगते हैं।प्रेम में तो दीवानापन होता ही है।प्रेम से आनंद प्राप्त होता है और आनंद ही तो ईश्वर है।जब गहराई पकड़ोगे तब यह प्रश्न नहीं पूछोगे।इन प्रश्नों के उत्तर तुम्हें स्वयं ही मिल जाएंगे।विचारों का द्वंद ही सपनों में भय बनकर आता है।अब अपने हृदय को समय दो! समय आ रहा है। अपने आराध्य में विलय कर जाओ।

2-प्रेम के सागर में ऐसे डुबकी लगाओ कि सब तरफ प्रेम ही प्रेम दिखाई पड़ने लगे।अगर प्रेम की चाहत है तो चाहत को जिद बना ले।परंतु यह प्रेम खुली आंखों से नहीं दिखेगा। यह प्रेम बंद आंखों से दिखेगा।आनंद प्रेम को पाना इतना सरल तो नहीं है? परंतु उद्देश्य सही है तो अवश्य प्राप्त होगा।प्रेम को श्रद्धा और निष्ठा से ऐसे सिंचाई करो कि अनंत प्रेम प्रकट हो जाए।जो हुआ उसे भूल जाओ।उसी घटना के द्वारा आगे के मार्ग प्रशस्त किए गए थे।अब तुम उस पर क्या चुनाव करते हो; यह तुम पर निर्भर करता है।जब प्रेम का प्रकाश क्षीण होता है, तो भौतिकता का अंधकार बढ़ जाता है।आनंद में रहो और आनंद का विस्तार करो।आनंद ही ईश्वर है।आनंद का विस्तार भाव के द्वारा किया जाता है।आनंद ही ईश्वर है।जब ह्रदय में आनंद की अनुभूति होती है तब हमें भाव से प्रार्थना करनी चाहिए.... हे आराध्य!पूरे ब्रह्मांड में इस आनंद का विस्तार हो!कोई भी हो,कुछ भी हो..हर जगह अपने आराध्य को देखो।ना कुछ अच्छा लगेगा ना कुछ बुरा लगेगा।कण-कण में अपने आराध्य ही दिखाई पड़ेंगे।अभी इसको मानती हो;लेकिन करती नहीं!जब कण-कण में अपने आराध्य दिखने लगेगे तो अंतर्मन की गहराइयों में खो जाओगी।ना कुछ अच्छा है ना कुछ बोला।सर्वत्र आराध्य ही आराध्य है।

3-तुमने यह बात अच्छी कही थी ..ना कोई हमारा है ना हम किसी के।यह ज्ञान हमें जन्म से पहले भी होता है और मृत्यु की बाद भी होता है।जब सपने खराब आए तो कहो इसमें हम क्या कर सकते हैं?हमारा रिश्ता अपने आराध्य से जन्मो जन्मो का हैं।

हम अनंत प्रेम में डूबे हुए है।इससे हमें क्या फर्क पड़ता है?मार्गदर्शन करते जाओ ..गिरे तो उठा दो।बाकी सब समय पर छोड़ दो।तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है?अंधेरों में भी जल रही रोशनी है?

4-मुक्ति और भक्ति क्या है?एक लाइन में उत्तर है कि जिस दिन यह समझ में आ गया कि मेरा यहां कुछ भी नहीं है।

ना कोई रिश्ता है ना कोई संपत्ति है।उस दिन तुम मुक्त हो गए।मेरे आराध्य ही सिर्फ मेरे हैं।जन्मों-जन्मों से उनसे रिश्ता है ।

इस दिन यह समझ में आ गया ..उस दिन तुम भक्त हो गए।आनंद में रहो और आनंद का विस्तार करो।ज्योतिष ज्ञान इसलिए दिया गया जो हो रहा है कि उसमें आनंद ढूंढ लो!क्या तुम्हारे माध्यम से मार्ग निर्देश देने का प्रयास नहीं किया गया ?

मानना या ना मानना ...यह तो आप पर निर्भर करता है।ज्योतिष आपके कर्मों पर और उद्देश्य पर निर्भर करती है।अगर कर्म और उद्देश्य सही है तो मृत्यु भी टल जाती है।किसी ने अपने अंतर्मन की आवाज सुनकर को दारा कारक को एक्टिवेट नहीं किया।बल्कि अपनी मन की गणना के अनुसार किया।

5-प्रेम ...इस जीवन में राधे रानी ही तुम्हारे प्रेम को परिपूर्ण कर सकती हैं।शीघ्र ही अपनी यात्रा को पूर्ण करो।जब प्रेम शुद्ध होता है तो प्रेम आनंद में परिवर्तित हो जाता है।भगवान को भगवान मत समझो, रिश्ते बना लो।वरना भगवान से एक दूरी बनी ही रहेगी।जब प्रेम परिपूर्ण हो जाएगा तो स्वयं ही रहस्य समझ में आ जाएगा कि प्रेम में संबंधों का महत्व नहीं होता।परंतु अभी रिश्ते बना लो।कभी भी अपने अंदर से ईश्वर तत्व समाप्त मत होने देना।स्त्रियों में ईश्वर तत्व ज्यादा होता है।शिव तत्व- ईश्वर तत्व एक ही बात है।जब एक स्त्री खाना खिला कर तृप्ति पाती है तो यह शिवत्व ही तो है!स्त्रियों के अंदर करुणा अधिक होती है।यह भी शिवत्व ही तो है!स्वामी प्रेमानंद ने अपनी किडनी का नाम राधा कृष्ण रख दिया है।तुम अपने मन का नाम राधा कृष्ण रख दो।तुम्हारा मन स्थिर हो जाएगा।अभी मन स्थिर नहीं है।जब मन अस्थिर हो तो तुम यही तो कहोगी ..हे राधा कृष्ण हमें कहां फंसा दिया?हे प्रभु हमें निकालो!तो समर्पण सीख जाओगी।शीघ्र ही प्रेम की पराकाष्ठा में पहुंचे।प्रेम की पराकाष्ठा में पहुंचने के लिए विश्वास अति आवश्यक है क्योंकि विश्वास ही चमत्कार है।फैजाबाद में श्री कृष्ण मूर्ति प्राप्त हुई यह विश्वास ही तो है।यदि तुम्हारा विश्वास है तो तुम्हारे घर की मूर्तियां तुमसे बातें करने लगेंगी।अपने विश्वास को इस सीमा तक लाओ। देवी पार्वती प्रेम की देवी को महत्व देती है। यह उन्हीं की महानता है। इस संसार में प्रेम को लाने वाली तो वही है।अपने उद्देश्य की प्रबलता को और तीव्र करो।स्वयं में तुम भी हो और तुम्हारे आराध्य भी।और तुम दोनों ही अर्धनारीश्वर हो!निराकार भी तुम और आकार भी तुम! भक्त भी तुम और भगवान का दर्पण भी तुम!पंच तत्वों के मंदिर चाहे जाओ और चाहे ना जाओ।परंतु प्रेम के सागर में चली जाओ।

6-अंश और अंशी...अंशी का अर्थ है जन्म देने वाला।और अंश का अर्थ है जन्म पाने वाला जैसे कि हम लोग!स्त्रियों का गहना लज्जा ही तो है।यदि किसी स्त्री ने लज्जा का ही त्याग कर दिया तो फिर उसके बाद बचा ही क्या?अर्धनग्न वस्त्र पहनना..उचित है या नहीं? यह सब मत सोचो!बस केवल देखो!कुंभ के मेले में जाना है या नहीं? यह तुम्हारे दृढ़ संकल्प पर निर्भर करता है।अभी भी सपने में स्पीकिंग क्लास दिखाई जा रही है।यह आने वाले समय का रहस्य है।इसे बताया नहीं जा सकता।मन की एकाग्रता को भंग मत होने दो।अपनी दृष्टि बना लो।पशु- पक्षी ...किसी में भी अपने आराध्य को देखो!दृष्टि यह रहे तो पूरी सृष्टि में तुम्हें आराध्य ही दिखेंगे।जहां चाहे उनसे बात कर लो।जहां भी दृढ़ संकल्प होता है।वह इच्छा अवश्य पूरी कर दी जाती है।इसका अनुभव तो तुम्हें भी हो चुका है।चाहे कहीं घूमने जाओ या ना जाओ ... परंतु प्रेम के सागर में डुबकी लगा लो।जो अपने कर्ज को अदा करने के लिए कर्ज लेता है।उसकी व्यवस्था ईश्वर स्वयं ही बना देते हैं।आज के समय में लोग कर्ज वापस ही कहां करना चाहते हैं?सब प्रारब्ध के अनुसार होता हैं। जो भी होता है सब आराध्य की इच्छा के अनुसार होता हैं ।तुम अपने अनुसार सलाह दोगी और वह अपने अनुसार कार्य करेंगी।तुम्हारा मन इसलिए अशांत हो गया क्योंकि तुमने कभी ऐसा किया ही नहीं।इसलिए मन की एकाग्रता को भंग मत होने दो।

7-प्रसन्नता ही स्थिरता का आधार है।इसलिए शांत और प्रसन्न रहो।प्रसन्नता ही तुम्हें स्थिरता प्रदान करती है।प्रसन्न रहने से व्यक्ति स्थिर रहता है।योग निद्रा वह निद्रा है जिसमें हम अपने आराध्य से एकाकार होते हैं।जिस मिलन से हमें संतुलन प्राप्त होता है।मृत्यु के समय भी संसार ही खड़ा रहता हैं।संसार तो कॉटे ही चुभाया करता है।सभी के अपने -अपने शिव है।प्रत्येक भक्त के शिव अपने-अपने है।जब एक साधक अपने शिव जागृत कर लेता है तो अनंत शिव से मिल जाता है।जो करते हैं सब आराध्य ही करते हैं।फिर चिंता किस बात की? जैसे-जैसे साधना बढ़ती है वैसे वैसे संसार में कठिनाइयां भी बढ़ने लगती है।

मन को स्थिर रखो।रात्रि के समय अगर ज्योतिष का कोई ज्ञान बताया गया है तो इसका अर्थ है किसी को गाइडलाइन देनी है।

8-शरणागति पर काफी चर्चा हुई है।जो व्यक्ति अपने आराध्य पर विश्वास और अपने आराध्य की शरणागति में होता है।तो चाहे कोई ग्रह खराब हो या ...प्रारब्ध खराब हो।परंतु अपने आराध्य की शरणागति से वही होता है जो उसके लिए अच्छा होता है।

विचलित मन प्रसन्न नहीं होने देता।प्रार्थना के समय घुंघरू की आवाज सुनने का अर्थ है कि प्रेम की शक्ति जागृत हुई है।जहां आराध्य होते हैं;वहां सभी विभिन्न शक्तियां आती हैं।मैसेज है कि प्रेम में डूब जाओ।जो प्रेम जानता है उसे प्रेम में घुंघरू की आवाज सुनाई पड़ती है।प्रेम तो हृदय से ही निकलता है । जिसको अपने आराध्य पर विश्वास होता है और जो अपने आराध्य की शरण में होता है।उसे दुख नहीं होता।क्योंकि वह जानता है कि आराध्य जो भी करेंगे.. अच्छा ही करेंगे!सब कुछ आराध्य की इच्छा से ही होता है।जब इच्छा के साथ दृढ़ संकल्प जुड़ जाता है तो वह इच्छा अवश्य पूरी हो जाती है।उस वार्तालाप में हम इतना ही प्रकाश डाल सकते हैं कि ना ही कुछ अच्छा है और ना ही कुछ बुरा।जो भी होता है सबआराध्य की इच्छा से होता है।

कोई भी संस्कृति हो ..प्रेम से ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग सभी के लिए खुले हैं।

9-काम भाव को प्रेम भाव में बदल देना चाहिए।संसार में उत्तर मत दो।मौन हो जाओ!तुम्हारा लक्ष्य निर्धारित है।अपने लक्ष्य में ही स्थिर रहो!अभी तुम अच्छाई और बुराई की दृष्टि से देखती हो । जिस दिन पूर्णता में पहुंच जाओगे;उस दिन ना कुछ अच्छा होगा ना कुछ बुरा।सभी व्यक्ति अपनी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही काम करते हैं।अपनी प्रेम की यात्रा पूरी करो और वापसी करो।इस संसार में प्रकृति सभी जगह है।प्रकृति सभी की व्यवस्था करती है।कुछ भी अच्छा नहीं है और कुछ भी बुरा नहीं! ज्ञान सिखाता है और प्रेम मिलाता है।प्रेम में कोई प्रश्न उत्तर नहीं होते ...केवल शून्यता होती है।अच्छाई बुराई से उठने की बात सभी से नहीं कही जाती।कोई आस्तिक तो सुन भी लेगा।परंतु एक नास्तिक तो तुम्हें पागल ही कहेगा।यदि प्रेम में हो तो यह बात समझ में आ जाती हैं।हृदय की धड़कन से एकाकार हो जाओ!जो प्रेम में होता है... अच्छाई बुराई में भेद नहीं देखता।प्रेम में ही खो जाता है।सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है।सब विचारों को भूल जाओ और प्रेम में खो जाओ।प्रेम की सरलता ही प्रेम का मिलन है।

10-स्थिर मन ही अपने आराध्य की उर्जा से एकाकार हो सकता है।शरीर भाव से हट जाओ!अनंत की उर्जा से एकाकार हो जाओ।स्वयं में तुम्हारी दृढ़ता ही लोगों को प्रोत्साहन देगी।फिर उसको मान लिया तो रास्ते खुल जाएंगे।राजा को देखा है तो

इसका अर्थ है जीवन बदलने वाला है।आनंद की एकाग्रता भंग हुई।इसलिए ध्यान नहीं लग रहा।तुम्हारा आशीर्वाद है तो ध्यान लगने लगेगा।जो व्यक्ति अपने गुरु की शरण में पहुंच जाता है। तो गुरु कुछ भी कहे थे जो गुरु की बात परमात्मा की बात समझ कर मान लेता है;उसका स्वयं ही कल्याण हो जाता है।गुरु गोविंद का दोहा तो सुना ही होगा।गुरु के लिए युग की बात नहीं होती।सतयुग -कलयुग सब भाव है! भगवान कृष्ण ने तो अपने गुरु के पांव पखारते है।जहां तक तुम अपनी बात कह रही हो तो यह समझ लो कि आराध्य की इच्छा के बिना कुछ नहीं होता।यदि कल्पना में भी आराध्य का साथ है तो वह भी आनंद है।मन बहुत विचलित है।परंतु प्रसन्नता अंदर ही होती है।उसे मत जाने दो।झटके ही अटके काम को बनाते हैं। तुम्हारे जीवन में इन्हीं रास्तों से चलकर साधना का मार्ग मिलेगा।यही तुम्हारा प्रारब्ध है और यहीं पर तुम्हारे विश्वास की भी परीक्षा ली जाएगी। हृदय ही सदा आराध्य का स्थान है।उसमें झटके ना लो।समस्या होती है तो समाधान भी उसी के साथ होता है।इस जब समस्या आती है तो मार्ग भी साथ में ही होता है।अब यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम क्या चुनाव करते हो? किस मार्ग का चुनाव करते हो?

11-रमता जोगी बहता पानी...रमता जोगी बहता पानी का अर्थ यह है कि सन्यासी की चलत फिरत नदी के बहाव जैसी है जिसे रोका नहीं जा सकता। पानी रुका तो निर्मल, पावन और शुद्ध नहीं रहेगा। इसी प्रकार यदि जोगी के पैर थमे तो ज्ञानगंगा का स्रोत भी अवरुद्ध हो जाएगा।।

12-चिंता चिता के समान होती है।जब सारी चिंताएं अपने आराध्य पर छोड़ दी है।तो फिर क्यों सोच रही हो?प्रत्येक क्षण का आनंद लें।जब प्रत्येक क्षण का आनंद ले लोगी तो अपने आराध्य से मिलन हो जाएगा। संसार कहता है भोलेनाथ तांडव करते हैं।और आनंद तांडव तो कभी-कभी ही करते हैं।लेकिन संसार नहीं जानता कि भोलेनाथ को अपने आराध्य का रास कितना प्रिय है । अनंत प्रेम को अपने अनंत रास से मिला दो। प्रत्येक क्षण मृत्यु है।इसलिए प्रत्येक क्षण का आनंद लें।प्रत्येक क्षण का आनंद ही आराध्य से मिलन है।भोलेनाथ की जटाओं में हजारों आत्माओं के प्रेम का गठबंधन है।स्वयं से एकाकार होना ही रास है।प्रेम की पराकाष्ठा ही प्रेम का मिलन है।क्या तुमने वह कहानी सुनी है?एक राजा एक रानी.. दो।नींबू लाए तीन।बिना कांटे नींबू को बराबर से बांटना है।जो बीच का नींबू है वह प्रेम है। प्रेम को आगे बढ़ाना है या पीछे ले जाना है ?जब प्रेम को आगे बढ़ाते हैं तो पीछे वाले नींबू की शक्ति भी उसी के साथ जुड़ जाती है।राजा भी तुम हो और रानी भी तुम।3 नींबू त्रिकोण भी है और त्रिकाल भी है।परंतु प्रेम मध्य में है।भूतकाल में जो भी हुआ।वह तुम्हारा शोषण नहीं था।वह तुम्हारे आगे का मार्ग प्रशस्त किया गया था।जब आगे की ओर बढ़ोगे तो भूतकाल स्वयं ही भूलती जाओगी।याद ही नहीं रहेगा।प्रेम की शक्ति से आगे बढ़ो। ईश्वर की प्रेम की शक्ति ही परम शक्ति है।ऊर्जा फंसने के कारण शिथिलता आई।यदि तुम्हारा मन यह कह रहा है तो वही सत्य है।जो स्वयं की सहायता करता है ;उसकी सहायता ईश्वर भी करता हैं।दुनिया में तीन तरीके के लोग हैं।कुछ लोग स्वयं के अनुभव से सीखते हैं।कुछ लोग दूसरों के अनुभवों से सीखते हैं और कुछ लोगों को समय सिखाता है।तुम्हारी श्रेणी पहली वाली है।इसका अर्थ है कि तुम स्वयं के अनुभवों से सीखते हो।

13-प्रेम के सागर में डूब जाओ!इस क्षण का और आने वाली क्षण का आनंद लो।प्रेम का अंधड़ प्रेम की कहानी स्वयं लिख देता है।सही गलत से ऊपर उठो।कौन सा दिया जलेगा?कौन दिया जलाएंगा?यह सब समय पर छोड़ दो।अपने अंतर्मन का दिया जला लो।तुम्हारे अंतर्मन का दिया ही तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक पहुंचा देगा।बाहर के दिए पर ध्यान मत दो।परिवर्तन प्रकृति का नियम है।जो किया गया था ..वह भी अच्छा था।जो किया जा रहा है.. वह भी अच्छा। इस संसार में कभी भी किसी के प्रति प्रेम और भाव को खराब मत करो।आधार को आकार दे दो।परोपकार स्वयं ही हो जाएगा।इस संसार का आधार प्रेम ही है।जब तुम चीटियां या किसी गाय को मारते हो तो तुम्हारा अंतर्मन तुम्हें दिखाता है..धिक्कारता है।तुम अंदर वाले डायरेक्टर की बात नहीं सुनते।तो निर्णय तुम्हारा है।यह मारने की इच्छा डायरेक्टर ने नहीं दी है।डायरेक्टर की कहानी पर रोल कौन करेगा?यह निर्णय भी तो एक्टर का होता है।डायरेक्टर किसी को पकड़- पकड़ कर नहीं लाता कि तुम यह रोल करो।किसको कौन सा रोल करना है या नहीं करना है?यह सब एक्टर का चुनाव है।किसी लड़के ने अपनी मां को मारा है।ऐसी स्थिति में लड़के पर तुम्हें प्रेम नहीं आ रहा है।तो तुम्हें गालियां भी नहीं देनी चाहिए।किसी भी परिस्थिति में भाव और प्रेम खराब मत करो।यहां पर इस संसार में कोई किसी को बांध नहीं सकता।चुनाव करो कि क्या करना है?गिफ्ट से किसी को खरीदा नहीं जा सकता।अपने आराध्य पर छोड़ दो जो होगा अच्छा ही होगा।

14-अगर मन कहता है कि नशा है ...तो नशा है!अगर मन कहता है, बीमारी है तो बीमारी है।क्योंकि शरीर में तो बहुत बीमारी है।नशा है तो नशे का आनंद लो।अनंत प्रेम में डूब जाओ।प्रेम का आनंद लो ..प्रेम ही बन जाओ।और तब प्रेम बनकर देखो!

अनंत के साथ अनंत काल तक डूबे रहो...प्रेम का झूला झूलते हुए।मेहंदी प्रेम का प्रतीक होती है।मेहंदी में प्रेम के रहस्य छिपे होते हैं।कैलाश मे हरियाली तीज मनाई जाती है।माता अपनी सखियों से मेहंदी लगवाती हैं।भगवान भोलेनाथ के नंदी जी मेहंदी लगाते हैं।और रास, नृत्य - संगीत का उत्सव मनाया जाता है।

15-प्रेम की फिजाओं में डूब जाओ।प्रेम के मोती इकट्ठा कर लो।लेकिन संसार तुम्हें कांटे ही चुभाएगा।अब यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है कि तुम इन प्रेम के मोतियों का आनंद उठाओगे या कांटों की चुभन का दुख उठाओगे।पानी तो आकाश से एक जैसा ही बरसता है।लेकिन तुम्हारी पात्रता पर निर्भर करता है कि तुम कितना पानी इकट्ठा कर लेते हो।जीवन में जब अभाव होता है ..तभी तो भाव होता है।तब तुम उस भाव को पाने की खोज करते हो।शून्य हो जाओ... ना कुछ पाने की इच्छा शेष हो और ना कुछ खोने की इच्छा शेष हो!प्रेम में डूब जाना है।हरियाली तीज प्रेम का त्यौहार है।किसी ने वचन लिया और किसी ने वचन दिया।जब दुख होता है तो सुख का इंतजार होता है।दुख से ही सुख का महत्व समझ में आता है।तुमने किसी को प्रसन्नता दी है।लेना देना किसी का नहीं रखा रहता सिर्फ भाव पहुंचते हैं।सब भाव से जुड़ा हुआ है।प्रेम का एक कण भी प्रेम के उस अनंत सागर तक पहुंचा देता है।तुम्हारे आराध्य हर पल तुम्हारे पास है।हर पल उनकी अनुभूति करो।हर क्षण को आनंद का क्षण बना लो।आनंद के कण से परम आनंद तक पहुंच जाओ!एक शिव भक्त के अंदर सभी के प्रति प्रेम भाव होने चाहिए।प्रेम पूर्ण

भाव होने से अगर इस अवस्था में रोम रोम से अपने आराध्य का नाम निकले...तो शिव शक्ति दोनों की अनुभूति हो जाएगी। अर्धनारीश्वर की अनुभूति हो जाएगी।

2.....

1-कोई शिवपुराण कथा करा रहा है तो कोई भागवत कथा.... है तो सब भाव का ही खेल।और कोई केवल भाव से जुड़ा है।

गणेश पुराण में गणेश ब्रह्म है तो शिव पुराण में शिव ब्रह्म है।देवी पुराण में देवी ब्रह्म है और भागवत में विष्णु ब्रह्म है।इसका अर्थ तो यही है ना ब्रह्म एक है और वह सभी में है।बरसात तो समान रूप से होती है।जिसके पास जितनी पात्रता होती है..वह जल इकट्ठा कर लेता है।यह सब कुछ मत सोचो..अपने आनंद में रहो और योग निद्रा में जाओ।जब योग निद्रा में जाते हो; तब यह संसार नहीं होता।प्रकाश ही प्रकाशित होता है।

2-अपने प्रेम का ध्यान कौन नहीं रखता?प्रेम स्वयं ही एक ध्यान है।अनन्य भक्ति और अनंत भक्ति दोनों का स्रोत एक ही है.. प्रेम!अनन्य भक्ति भेद भक्ति है।उसमें भेद है!अनंत भक्ति में गहराइयों में उतरना पड़ता है।प्रेम तो एक से ही होता है।परंतु अनंत होता है।अनंत भक्ति बहुत कठिन है। परंतु हम सभी प्राप्त कर सकते है।अनन्य भक्ति में दृढ़ता सिखाई जाती है।जब दृढ़ संकल्प होगा..तभी प्रेम की प्राप्ति होगी।अपने आराध्य से मिलना है..अपने आराध्य के पास जाना है ..केवल एक ही लक्ष्य होता है।अनन्य भक्ति मन की भक्ति है।अनन्य भक्ति मन पर आधारित है तो अनंत भक्ति भाव पर आधारित है।स्वामी हरिदास ने

दृढ़ निश्चय पर जोर दिया ताकि दृढ़ निश्चय के द्वारा अनंत प्रेम से जुड़ सकें।मंजिल तो अनंत प्रेम ही है।हरिदास ने अनन्य प्रेम के दृढ़ निश्चय के द्वारा अनंत प्रेम तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त किया था। परंतु ऐसा नहीं हो पाया।किसी को प्रणाम करो ना करो..बस भाव अच्छे रखो। छोटा बड़ा सबके मन के भाव है।राधा रानी प्रेम है।जो प्रेम से जुड़ जाता है वह कृष्ण से जुड़ जाता है।और जो कृष्ण से जुड़ जाता है..वह शिव से जुड़ जाता है।प्रेमानंद जी राधा जी के भक्त हैं।दो दिन पहले तुम्हारे शिष्य ने सिंगार से पहले राधा रानी का आह्वान किया।तो वह सिंगार स्वयं राधारानी ने किया।बिंदी इसलिए छोड़ दी क्योंकि रोली का तिलक लगाया जाना था।सब भाव पर आधारित है।गलती तो बतानी ही चाहिए।शिष्य गुरु से आगे नहीं होता है।

3-माता पिता के प्रति कभी भाव खराब नहीं होने चाहिए।सपने में बताया गया है तो सही है। तुम्हारे सामने कुछ ..दूसरे के सामने कुछ और तीसरे के सामने कुछ।परंतु माता-पिता के प्रति अगर भाव खराब किए तो साधना रुक जाएगी।इसलिए सब के प्रति प्रेम भाव रखो।सबकी अपनी -अपनी यात्रा है। तुम उनकी यात्रा को नहीं समझ सकती और वह तुम्हारी यात्रा को नहीं समझ सकती।संबंध रखना या ना रखना..यह महत्वपूर्ण नहीं है।महत्वपूर्ण यह है कि हम किसी के प्रति भाव खराब ना करें। शिव ना छोटे हैं और ना कृष्ण बड़े।दोनों ही एक दूसरे के आराध्य हैं।लेकिन जो ऐसा कुछ बोल रहा है ..उसके प्रति भाव मत खराब करो।युगल घाट.. अगेर घाट ....दृढ़ निश्चय होगा तो अवश्य पहुंच जाओगी।अनंत प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुंचो ।तुम्हारी शिष्य प्रेम के मामले में कमजोर है।यदि यह तुम्हारा भाव है कि आज मेरे आराध्य आज मेरा सिंगार करें..तो अवश्य ही आराध्य तुम्हारा सिंगार करेंगे।सब भाव का ही तो खेल है। चाहे कोई हो.. भाव मत खराब करो।बहू हो बेटा हो ...कोई भी हो।

4-जो राधा रानी की भक्ति करता है;उसे कृष्ण मिल जाते हैं ।और जिसे कृष्ण मिल जाते हैं उसे शिव मिल जाते हैं।प्रत्यक्ष अनुभूति में अभी समय है।कहा जाता है कि प्रेम में कुछ मांगा नहीं जाता..लिया नहीं जाता।ऐसा नहीं है। प्रेम में सब कुछ होता है। बस प्रेम में सब कुछ प्रेम के लिए होता है।प्रेम के लिए मांगा जाता है, प्रेम के लिए दिया जाता है।बस आपका प्रेम राधा कृष्ण के प्रेम की तरह होना चाहिए।जो अनंत प्रेम के मार्ग पर चलना चाहता है। उसे मार्ग अवश्य दिया जाता है।प्रेम में जलना भी पड़ता है।अनंत प्रेम में अनंत परीक्षाएं भी होती हैं।भोलेनाथ तो बहुत ही सरल है।उन्हें कहीं भी बैठा दो ..वह बैठ जाते हैं

अनंत प्रेम की गहराई में डूब जाओ।जिस तरह से बच्चा भटक जाता है तो माता-पिता उसके वापस आने का इंतजार करते हैं।

उसी प्रकार ईश्वर भी इंतजार करते हैं।किसी भी अंग को काटा नहीं जा सकता..उसका उपचार किया जा सकता है।कोई उपचार कितने जन्म में होगा? ..यह तो स्वयं की की खोज पर निर्भर है।

5-स्वयं को बंधनों से मुक्त कर दो।बंधन से मुक्त करना.. संसार से मुक्त होना नहीं है।जहां -जहां तुमने अपने बंधन बना रखे हैं .. उन -उन बंधनों से मुक्त हो जाओ और अपनी प्रेम की गहराई में डूब जाओ।अनंत प्रेम की खोज हो रही हैं !बंधन से निकलो

इसका अर्थ है कि जो हो रहा है आराध्य की इच्छा से हो रहा है।केवल दृष्टा रहो!अब तुम्हारा निवृत्ति का समय है। तुमने अपने कर्तव्य का निर्वाह कर लिया है।अब यह सब उनकी जिम्मेदारी है।कौन कहां रहता है, किसके साथ क्या होता है?इसमें तुम कुछ भी हस्तक्षेप नहीं कर सकती हो।अपने अनंत प्रेम में डूब जाओ।अब तुम्हारा यही कर्तव्य है।जितनी जल्दी यह बात समझ लो।उतनी ही जल्दी बंधन से बाहर आ जाओ।कौन क्या कर रहा है, कौन क्या नहीं कर रहा? यह सब तुम्हारा हेडक नहीं है।तुम्हारे आराध्य का हैडक है।कहीं ना कहीं उसे यह पता है कि तुम्हारे ऊपर पैसे खर्च करने से उसे वापस अवश्य मिल जाएंगे।परंतु पुरुष अहंकार है..कह नहीं सकते।तुम इन चीजों का बंधन अपने ऊपर मत लो।निवृत्ति मार्ग वाले केवल दृष्टा ही रहते हैं।

क्या हो रहा है क्या नहीं हो रहा? उस से मतलब नहीं रखते।

6-जो राधे की भक्ति करता है...वह राधे की सखी हो जाता है।उसे श्री कृष्ण की कृपा स्वयं ही प्राप्त हो जाती है।प्रत्येक जीव में अपने आराध्य को देखो!किसी के प्रति बैर भाव ना रखो।इस संसार में प्रेमी प्रेमिका चांद तारे तोड़ कर लाने की बात करते हैं। और यह सत्य भी है!परिशुद्ध प्रेम से चांद तारे भी तोड़ कर लाए जा सकते हैं।प्रेम में इतनी शक्ति होती है।श्री कृष्ण वृंदावन लौटकर नहीं गए क्योंकि वह जानते थे कि वहां से दोबारा वापस नहीं आ पाएंगे।श्री कृष्ण वापिस कैसे आते? उन्हें अपना कर्म क्षेत्र भी तो बनाना था। विरह में वह शक्ति होती है कि प्रेम की अनंत सीढ़ियां चढ़ा देती है।आज गोपियों का नाम लिया जाता है।क्योंकि उनके जीवन में कृष्ण का विरह था।यशोदा मैया यह जानती थी कि कृष्ण उनका पुत्र नहीं है।फिर भी उसे अनंत प्रेम- ममता करती थी श्री कृष्ण की लीलाएं उनके हृदय में चलती ही रहती थी।आज उनको यशोदा नंदन ही कहा जाता है।गर्ग संगीता में जो लिखा गया है वह सत्य है। झूठ कैसे हो सकता है?राधा कृष्ण में उनको विवाह दिखाना था तो दूसरे ढंग से दिखा दिया।पर दोनों ही सही है।आज राधा कृष्ण गोलोक धाम में रहते हुए भी पृथ्वी लोक में ही है।सब जगह उनकी लीलाओं का स्मरण हो रहा है।यदि उनकी लीलाओं के स्मरण का अंत हो गया तो एक युग का भी अंत हो जाएगा

7-वृंदावन आने की इच्छा है ना? दृढ़ संकल्प हो तो तुम कल भी वृंदावन आ सकती हो।प्रेम उस क्षितिज के समान है जो एक लोक से दूसरे लोक तक जोड़ देता है।इसीलिए मृतकों को भी प्रेम पहुंचाने के दिन बनाए गए है ताकि वह जिस लोक में भी हो ..प्रेम उन तक पहुंच जाए।प्रेम के सरोवर में डुबकी लगा लिया।अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण कर दो तो मिलन हो जाएगा।

प्रेम निशब्द है।प्रेम में बिना बोले ही बहुत कुछ कह दिया जाता है।कमी यही है कि बंधन है।और बंधन क्या है?बंधन यह है कि तुम किसी की सहायता नहीं कर सकती।केवल प्रार्थना कर सकती हो।समुद्र से भय क्यों?मन में कुछ बैठा लिया है तो समस्या का समाधान कैसे होगा?मन से हटा दो।समुद्र तुम्हें संरक्षण दे रहा है।

8-ईश्वर प्रेम है और प्रेम से प्रेम बनकर ही मिला जा सकता है।अनंत प्रेम का अनंत से नाता जोड़ लो।चाहे भोलेनाथ हो या नारायण ...कभी भी भक्तों को अपने चरणों को छूने से नहीं रोकते।ऐसा नहीं है कि मनुष्य उनके चरण स्पर्श नहीं कर सकता।कि ईश्वर ने मनुष्यों से दूरी बना रखी है।चरण स्पर्श करने की अनुमति उन्हीं भक्तों को होती है जो उसके लायक होते हैं।

आम आदमी को उसकी आवश्यकता ही नहीं होती।और क्या चरण स्पर्श से सांसारिक कार्य नहीं बनते?यह व्यक्ति की प्रवृत्ति

पर निर्भर करता है।उनकी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है।प्रेमानंद जी अपने पैर इसलिए नहीं छूने देते क्योंकि उनको बीमारी है।ज्यादा लोगों से मिलेंगे तो उन्हें इंफेक्शन हो जाएगा।प्रेमानंद जी अपनी अनुभूति बांटकर लोक कल्याण तो कर ही रहे है।कोई व्यक्ति केवल अपने बारे में सोचता है ;कोई अपने परिवार के बारे में सोचता है ;जो इससे आगे जाता है वह जनकल्याण के बारे में सोचता है।जो जन कल्याण से आगे जाता है वह लोक कल्याण के बारे में सोचता है।और आगे पूरे ब्रह्मांड के कल्याण के लिए सोचता है।यह व्यक्ति की यात्रा निर्धारित करती है कि वह कहां पर है?चाहे आध्यात्मिक व्यक्ति हो और चाहे सांसारिक!ईश्वर भेद नहीं करते।

9-सावन चला जाएगा और नया साल आएगा।समय कभी रुकता नहीं है।प्रतिक्षण मृत्यु का क्षण है।इसलिए प्रत्येक क्षण का आनंद लो।जो सुख मिल रहा है.. वह आराध्य की कृपा से ही मिलता है।इसलिए उस सुख का आनंद लो!केवल एक बात सीख लो!जो हो रहा है..वह आराध्य की इच्छा से हो रहा है।तुम उसमें कुछ हस्तक्षेप नहीं कर सकती...सहायता नहीं कर सकती। दृष्टा हो जाओ।सलाह मांगी जाती है तो अपने आराध्य को बीच में रखकर सलाह दो।अपने आराध्य का आवाहन करो।

तब स्वयं को समर्पित करके सलाह दो!और इसके बाद तुरंत अपने काम में वापस चले जाओ।तुम्हारा काम क्या है, तुम जानते हो।जो भी तीर्थ यात्रा करना चाहती हो...दृढ़ संकल्प कर लोगी तो अवश्य पूरा हो जाएगा।कहां से पैसा आ जाएगा?कहां से व्यवस्था बन जाएगी?समझ भी नहीं पाओगी।अभी एक समस्या है!जो संकल्प व्यथित हो कर लिया जाता है ..वह व्यथा ही बन जाता है।हृदय में केवल प्रेम रखो।तो ना कुछ अच्छा लगेगा ना कुछ बुरा।सावन के अंतिम दिन चल रहे हैं।सावन की पूर्णमासी आने वाली है और आज एकादशी है!पूरे ब्रह्मांड में उत्सव मनाया जा रहा है।हरि अनंत हरि कथा अनंता।सभी प्रेम रस में डूबे हुए हैं।हरि की अनंत कथाओं में डूबे हुए हैं।

10-प्रेम कठिन परीक्षा लेता है।बंधन केवल दुख देता है।लाभ हानि देखना एक बंधन ही है। जिस दिन लाभ हानि से ऊपर उठ जाओगी।उस दिन बंधन से भी बाहर निकल आओगी ।केवल दृष्टा होना है।किसी भी चीज का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।ज्ञान को मन के अंदर बसा लो।लिखने से यह है कि जिसको आवश्यकता होगी उसे प्राप्त हो जाएगा।परंतु दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।परेशानी इसलिए है क्योंकि जब-जब प्रारब्ध आता है , परेशानी आएगी। संबंध आगे बढ़ने नहीं देंगे।अध्यात्म पीछे आने नहीं देगा। यह आवश्यक नहीं है, जप करो ...ध्यान करो।परंतु मन से अवश्य ही जुड़े रहो।मन से जुड़ना ही महत्वपूर्ण है।ना कि जाप और ध्यान।तुम्हारी गलती यह है कि तुम्हारा मन विचलित हो जाता है, स्थिर नहीं रहता।जब मन विचलित हो जाता है तो स्वयं भी विचलित हो जाती है। मनुष्य बंधन में ही फंसा रहता है।बंधन से ही काम ,क्रोध, लोभ ,मोह सब उत्पन्न हो जाते हैं।कुछ भी अच्छा नहीं है, कुछ भी बुरा नहीं है।सब कुछ आराध्य का है।जब वर्तमान में दृष्टा हो जाओगे तो भविष्य में भी दृष्टा हो जाओगे।दृष्टा रहना सीख लो।स्वयं में आनंदित रहो।राधे राधे कह कर डांस करो।प्रत्येक क्षण का आनंद लो।पूर्णमासी तो प्रेम का दिवस है।गहरी अनुभूति में जाओ।जिस दिन गहरी अनुभूति हो जाएगी। उस दिन कोई कष्ट ही नहीं होगा।तुम्हें दृष्टा होना सिखाया जा रहा है।जितनी जल्दी हो ..दृष्टा होना सीख लो।समय किसी का इंतजार नहीं करता।

11-हवा में जन्माष्टमी के उत्सव की महक है क्योंकि भादों का पहला दिन है।अनंत प्रेम से प्रेम करो। प्रसन्नता ही आराध्य से मिलन का आधार है।बृज की रानी तो राधा रानी जी ही है।माता ने उग्रपथ को अधिकार दे दिया था।परंतु उग्रपथ उन्हीं को मुखिया मानते थे।उन्हें मंदिर में रहना पड़ा क्योंकि पब्लिक क्या-क्या करती है?यह तो सभी साधक समझ सकते है।साधकों के अपने ही लोग उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि उनका स्वयं से ही विश्वास हट जाए।परंतु एक साधक जहां रहता है वही प्रसन्न रहता है।देवी मंदिर में रहकर तो प्रसन्न हीं थी ना?उन्होंने स्वयं ही मंदिर स्वीकार किया था।यदि वे ऐसा ना करती तो प्रेम झूठ सिद्ध हो जाता और वह ऐसा नहीं कर सकती थी।वह तो मंदिर में भी प्रसन्न थी। कम से कम उन्हें अपने कृष्ण का नाम लेने में तो रोक नहीं लगाई जा रही थी।बाहर तो उन्हें नाम लेने पर भी रोक लगाई जाती थी।एक साधक पर किसी चीज का प्रभाव नहीं होता।वह स्वयं में ही आनंदित रहता है।कोई क्या कह रहा है इसका उसे फर्क नहीं पड़ता?

12- जब हम किसी पवित्र स्थान में जाते हैं।तो वहां की उर्जा से कनेक्ट हो जाते हैं।यदि हम पल्ला, चुनरिया ,कपड़ा रखते हैं तो ऊर्जा अंदर ही अंदर एडजस्ट हो जाती है। वह ऊर्जा ऐसे बाहर- बाहर भी जा सकती हैं। महिलाएं बुजुर्ग का सम्मान करने के लिए भी पल्ला रख लेते हैं।प्रेमानंद जी के यहां ऐसा कोई नियम नहीं है। महिलाएं स्वयं ही करती है।प्रेम में कोई नियम और बंधन नहीं होते।सामाजिक रीतियां है।अभी सांसारिक अच्छाइयां बुराइयां में फंस जाती हो।जब हृदय में आराध्य के साथ होने की अनुभूति कर लोगी तो ना कुछ अच्छा लगेगा ना कुछ बुरा।जिसने तुम्हारे साथ बुरा किया है ..उसके प्रति भी अच्छे भाव रखो। रास प्रेम का है।प्रेम से जो भी कर दो वही रास है !दृढ़ संकल्प में चमत्कार की शक्ति है।इस जन्माष्टमी को अपने हृदय में बैठे आराध्य को बाहर लाओ।और स्वयं से एकाकार हो जाओ।प्रेम की नगरी वृंदावन तो तुम्हारे ह्रदय के अंदर ही है।अपने हृदय की प्रेम नगरी में रास करो।


..SHIVOHAM....



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