ज्ञान गंगा-18.....गुरु- शिष्य वार्तालाप
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1-तुम अच्छाई बुराई से उठना सीख रही हो।परंतु जरासंध अच्छाई बुराई में भेद ही नहीं करता।यहाँ उद्देश्य का अंतर है।
कोई ब्रह्मांड के कल्याण के लिए करता है तो कोई परिवार के कल्याण के लिए करता है। कोई केवल स्वार्थ के लिए करता है। तीनों में अंतर है।जरासंध केवल अपने स्वार्थ के लिए करता है। तुम प्रतिकार लेने के लिए कोई कार्य करो।तुम्हारा कार्य असफल हो जाएगा।सबमें आराध्य को देखो।सबको सेवा दो!कोई दुश्मन भी सामने आ जाए तो उसे भी भाव से सेवा दो।
किसके लिए कहा जा रहा है.. यह तो समय बताएगा। अपने भाव शुद्ध रखो।प्रेम ही प्रेम का आधार है।कुछ सीखो या ना सीखो
परन्तु प्रेम के ढाई अक्षर सीख लो।पूरा ब्रह्मांड इन्हीं ढाई अक्षरों से चलता है।जब एक आराध्य दूसरे आराध्य से प्रेम करता है तो दोनों के मिलन से प्रकाश उत्पन्न होता है।उस प्रकाश में डूब जाओ।शिव को राम नाम का सुमिरन प्रिय है।जब शिव को राम नाम का भजन सुनाओगी तब दो आराध्य का मिलन होगा और प्रकाश उत्पन्न होगा।राधा रानी तो प्रेम का स्त्रोत है।
2-प्रसन्न मन ही आराध को प्रसन्न कर सकता है।दुखी मन तो आराध्य को दुखी करता है।तुम्हारा दृढ संकल्प यात्रा कराएगा।यदि कहने में संकोच करोगी तो दृढ़ संकल्प कहां रहेगा?यदि तुम्हारे लिए पैसा खर्च किया जाएगा तो 10 गुना आ जाएगा। अभी तुम्हारी जिम्मेदारी है..अपने शिष्य को अनंत प्रेम की अनुभूति कराना।जब दो लोगों को अनंत प्रेम की अनुभूति हो जाती है तो मार्ग सरल हो जाता है।दृढ़ संकल्प ले लोगी तो तुम्हारे मार्ग स्वयं ही खुल जाएंगे।जब आराध्य साथ होते हैं तो किसी को कोई अभाव नहीं होता।सब कुछ आराध्य की इच्छा से होता है।संसार की बुरी घटनाएं मन को आहत करती है।सबका अपना-अपना प्रारब्ध है।ईश्वर से उसके कल्याण की प्रार्थना करो।ईश्वर को समर्पित कर दो और बाहर निकल आओ!जो सिखाया जा रहा है वह सीख जाओगी तो कंजूस नहीं कहोगी।शांत हो जाओ!व्याकुल न रहो।अभी परिस्थितियों में फंस जाती हो।
3-ईश्वर अनंत है।अनंत लोक है और अनंत लोको में त्रिदेव केअनंत रूप है।अगर उद्देश सही है तो गुरु के मुख से निकला हुआ प्रत्येक वाक्य सही ही होता है। तुमने जो कहना था कह दिया।आगे आराध्य की इच्छा पर छोड़ दो।हरछठ माता नाराज कैसे हो सकती हैं?पूजा तो भाव की होती हैं...कर्म की नहीं।व्रत नहीं रहे इसलिए छठ माता नाराज हो गए।यह तुम्हारी सोच है।ईश्वर जो करता है, अच्छे के लिए करता है।परन्तु समझ में देर से आता है।छठ माता नाराज हुई है या माता की कृपा हुई है ...यह तो समय बताएगा?
4-प्रेम की सरलता ही प्रेम की पराकाष्ठा है।प्रेम की सरलता दो कार्य पर संभव होती है।पहला यह कि प्रेम में खो जाओ।दूसरा सभी में अपने आराध्य को देखो।सभी में अपने आराध्य को तभी देख पाओगी जब तुम्हारे आराध्य जागृत होंगे।जब तुम्हारे आराध्य जागृत होंगे तो दूसरे के भी जागृत हो जाएंगे।प्रेम की सरलता के लिए प्रेम में खोना अति आवश्यक है।जब कोई
भक्त प्रेम में खो जाता है तो स्वयं ही सरल होने लगता है।वृंदावन मोक्ष धाम है क्योंकि प्रेम ही मोक्ष है।यमुना जी श्री कृष्ण के प्रेम की साक्षी है और उनकी अर्धांगिनी है।इसीलिए सारे सन्यासी यहां मोक्ष पाने आते हैं।यदि समस्या है तो उसका समाधान भी है।
5-राधा को जानना और राधामय होना दोनों अलग-अलग बातें हैं।प्रीत से प्रीत करना और स्वयं से प्रीत करना... जानो कि तुम कहां हो?स्वयं को प्रेम में खोकर स्वयं को छोड़ देना और प्रेम को जानकर स्वयं को छोड़ देना।देखो अपने आप को तुम कहां पर हो?अगर आराध्य से प्रीति है तो स्वयं से प्रीति क्यों नहीं?आराध्य तो सब में ही है और आप भी तो स्वयं में ही है।अगर प्रेम आधार है तो सब कुछ मिल जाएगा।इन आंखों से आराध्य को नहीं देखा जा सकता।यह आंखें तो केवल संसार दिखाती है।
राधा रानी भी जब आंखें बंद कर लेती थी तब मन की आंखों से कृष्ण से बातें करती थी।आराध्य को देखा नहीं जा सकता।
केवल उनकी अनुभूति की जा सकती है।आनंद में ही आनंदकर है।जब तक तुम्हारा अंत नहीं होता तब तक अनंत से प्रेम नहीं होता।तुम्हारा अंत का अर्थ है...तुम्हारे विकारों का अंत!इस समय छठी महोत्सव तक पानी बरस रहा है।इसका अर्थ है कि कृष्णा प्रसन्न है।जो बात समझ में नहीं आई है..वह बात समय आने पर समझ में आ जाएगी।मनुष्य के सभी विकारों का अंत केवल प्रेम से संभव है।केवल दृष्टा हो जाओ।दृष्टा होने के लिए केवल एक ही योग्यता होना आवश्यक है।और वह योग्यता है... प्रेम!जब अनंत से प्रेम होता है तब व्यक्ति दृष्टा हो जाता है।परंतु प्रेम परिशुद्ध होना चाहिए।
6-प्रेम की सुंदरता ही प्रेम की प्रसन्नता है।प्रेमानंद जी ने सच ही कहा है कि प्रत्येक साधक को परीक्षा देनी होती है।हनुमान सिंह पोद्दार को उदर का कैंसर हुआ।रामकृष्ण परमहंस को गले का कैंसर।प्रतिदिन गोवर्धन की परिक्रमा करने वाले एक साधक को लकवा मार गया।जब साधक की परीक्षा होती है तब या तो वह भटक जाता है या आत्मसमर्पण कर देता है।मन ही मन की सहायता कर सकता है।मन में अच्छे विचार डालोगी तो बार-बार अच्छे विचार दिखाएगा।यदि मन में गलत विचार डालोगी तो बार-बार गलत विचार दिखाएगा।मन ही व्यक्तित्व का दर्पण है।एक साधक के मन में हर वक्त अपने आराध्य की एक छवि होती है।साधक अपने आराध्य की उस छवि के साथ प्रत्येक क्षण रह सकता है।प्रेम करने वाला यह नहीं पूछता कि यह कैसे संभव होगा? प्रेम में ऐसे खो जाओ कि स्वयं प्रेम ही बन जाओ।अनंत प्रेम की अनंत अनुभूति का आनंद लो।अनंत प्रेम में भय नहीं होता।जब अनंत प्रेम होता है तो अनंत धैर्य भी होता है।राधा रानी प्रेम का सिंदूर लगाती हैं।अपना अंत करके अनंत हो जाओ।
7-सांब तो नकारात्मकता का प्रतीक है।मन मे नकारात्मक विचार आएंगे तो सांब दिखाई देगा।अनंत से प्रेम करोगे ..तो अनंत हो जाओगे।आराध्य जब किसी का हाथ पकड़ते हैं तो छोड़ते नहीं हैं।अगर प्रेम में कमियां हैं तो स्वयं से प्रश्न पूछो।तुमने शब्दों को पकड़ा...भाव को नहीं।जो सपने दिखाए गए थे, वे सत्य थे।कोई भ्रम नहीं था।भ्रमित तो अब हो!अपने आप में ही उलझ गए हो।क्या एक पति सखा नहीं हो सकता?क्या एक सखा पति नहीं हो सकता?क्या एक प्रेमी पति नहीं हो सकता? क्या एक पति प्रेमी नहीं हो सकता? क्या करवा चौथ का व्रत एक सखा के लिए नहीं रहा जा सकता?प्रेम की यात्रा बहुत कठिन है।इसमें पड़ाव आते रहते हैं।आराध्य साकार से निराकार हो जाता है।हम आत्म चिंतन करने के लायक नहीं है ...यह कहकर कोई अपने कर्तव्यों से नहीं बच सकता।आत्मचिंतन करने के लायक तो बनना ही होगा?आत्मचिंतन से प्रश्नों के उत्तर तो ढूंढने ही होंगे।जीवन के रहस्य बताए नहीं जा सकते।समय सब प्रश्नों के उत्तर दे देता है।यह मानना कि कोई गलती की है ..सही नहीं!
8-मानव और अपमान दोनों जोड़े में आते हैं।यदि सम्मान मिला है तो होशियार हो जाओ क्योंकि अपमान मिलने वाला है। परमानंद क्या है?परमानंद है...अपने आराध्य के बारे में सोचना।अपने आराध्य के संग रहना और अपने आराध्य की अनुभूति करना। राधा रानी प्रेम का सिंदूर लगाती हैं।परमानंद क्या है? परमानंद है ...अपने आराध्य के बारे में सोचना।अपने आराध्य के संग रहना और अपने आराध्य की अनुभूति करना।यदि प्रेम का आधार है तो प्रेम का आकार बन जाता हैऔर जब प्रेम का आकार बन जाता है तो विकार नष्ट हो जाते हैं।तीजा माता सती के विवाह का दिन है और माता पार्वती की साधना की शुरुआत का दिन।आज के दिन ही माता पार्वती ने अपनी साधना शुरू की थी।आत्मा से परमात्मा का मिलन ही विवाह हैं।इस संसार में कोई धन के पीछे भाग रहा है तो कोई वैभव के पीछे।जो ईश्वर के पीछे भाग रहा है इसका मतलब उसे अपना लक्ष्य तो पता ही है।परमात्मा कभी भी आत्मा को प्रेम के लिए रोकते नहीं है।परमात्मा तो कण-कण में विराजमान है।जिसके अंदर सत्य को जानने की जिज्ञासा है उसे दृढ़ संकल्प लेना पड़ता है।दृढ़ संकल्प से श्रद्धा की उत्पत्ति होती है।श्रद्धा से विश्वास की उत्पत्ति होती है।विश्वास से भक्ति की उत्पत्ति होती है और भक्ति से प्रेम की उत्पत्ति होती हैं।नंदी ,शिव गण सब भोलेनाथ से बहुत प्रेम करते हैं।विवाह क्या है? परमात्मा से एकाकार होना ही विवाह है।
9-प्रेम के सरोवर में डुबकी लगाओ।अपने पंखों का विस्तार करो।हमारा अंत ही ईश्वर का अनंत है।जब भक्त विचलित होता है।
तो ईश्वर भी विचलित हो जाते हैं।केवल वर्तमान ही तुम्हारा है।बीता हुआ कल महत्वहीन है।और भविष्य का किसी को पता नहीं है।माता का संतान से प्रेम ही शुद्ध प्रेम होता है।प्रेम के अवतरण का दिन है।समाधि में भगवान भी एकाग्र होते हैं और भक्त भी!
तब दोनों बातचीत करते हैं।भगवान का चिंतन करना,उनसे बातचीत करना और अपने कर्तव्य निभाते हुए हर क्षण उनके साथ रहना ही प्रत्यक्ष अनुभूति है।यह अनुभूति के द्वारा ही समझा जा सकता है।विश्वास में विश्व का वास होता है। तुम अपने आराध्य से बातचीत करते हो और संशय में फस जाते हो।क्योंकि तुम्हें विश्वास नहीं है।ईश्वर विश्वास की परीक्षा लेता है।स्वयं ही
गलत उत्तर दे देता है और तुम संशय में फस जाते हो। क्योंकि ईश्वर संशय में नहीं रहता।ईश्वर तो विश्वास में रहता है।
10-इन आंखों से जो दिखता है ;वह सब भ्रम है और संसार भ्रम को ही सत्य मानता है।सत्य तो वह है जो आंखों से नहीं दिखता।
सत्य की अनुभूति अपने अंदर ही करनी पड़ती है।योग निद्रा में जाओ और स्वयं का अंत करके अनंत हो जाओ ।मथुरा ,वृंदावन ,रावल.. पूरी ब्रजभूमि प्रेम सरोवर है।जब मनुष्य सांसारिकता से हार जाए तब इस प्रेम सरोवर में डुबकी लगाए।अपनी अज्ञानता का नाश करोऔर प्रेम की पूजा करो।अज्ञानता है स्वयं को ना जानना।जब स्वयं का अंत होता है तभी अनंत की प्राप्ति होती है।प्रेम को व्यक्त करने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती।स्वयं का व्यक्तित्व ही स्वयं की परछाई है। जब अपने व्यक्तित्व को प्रेम से सिंचित करोगे तो वही प्रेम परछाई बनकर तुम्हारी सहायता करेगा।तुम्हारी सकारात्मकता ही तुम्हारा प्रकाश है।तुम्हारा अंत तुम्हारे विकारों का अंत है।तुम्हारा अंत ही ईश्वर का अनंत है।स्वयं से एकाकार होना यानी संसार में रहते हुए भी हर क्षण अपने आराध्य का चिंतन करना।अभी सांसारिकता में फस जाती हो।थोड़े समय के लिए ही स्वयं से जुड़ पाती हो।अपने प्रेम का विस्तार करो तो दृष्टिकोण का भी विस्तार हो जाएगा।
2.....
1-प्रेम से स्वयं को स्थिर करो।जिस प्रकार से सुख और दुख दोनों जोड़े मेंआते जाते हैं ;उसी प्रकार से प्रेम और पैसा है।
प्रेम आधार है और पैसा आकार है।आधार को आकार चाहिए और आकार को आधार ।जब प्रेम होता है तो पैसा नहीं होता।
और जब पैसा होता है तो प्रेम नहीं होता।मां लक्ष्मी वहीं रूकती है जहां प्रेम होता है।जहां प्रेम नहीं होता वहां लक्ष्मी जी नहीं
रुकती।परंतु यह सांसारिक प्रेम की बात है।शाश्वत प्रेम में पैसे की कोई आवश्यकता नहीं है।शाश्वत प्रेम करने वाले के पास
प्रकृति खड़ी हो जाती है।उसकी आवश्यकताएं सब पूरी होती रहती है।जब मन शांत होता है तभी प्रेम का झूला झूलते है।
जब प्रेम होता है तो पैसा भी दिया जाता है।परंतु परोपकार के लिए ..ना कि स्वार्थ पूर्ति के लिए।अगर किसी ने परोपकार किया है और पैसा नहीं आ रहा है।तो ईश्वर भी तो परीक्षा लेता रहता है कि तुमने किस भाव से किया है?परोपकार वही कर सकता है जिसके अंदर करुणा हो...प्रेम हो।
2-जिस तरह से एक भक्त की इच्छा होती है कि वह अपने आराध्य से एकाकार हो जाए।उसी प्रकार ईश्वर की भी इच्छा होती है कि संसार के सभी जीवो में करुणा ,प्रेम, परमार्थ , परोपकार जैसे गुण आ जाए।इस संसार की प्रत्येक स्त्री राधा है और प्रत्येक पुरुष कृष्ण है।प्रेम तो सभी को अच्छा लगता है।गहराई में जाओ!और अभ्यास करो!जब प्रेम का श्रृंगार होता है तो राधा रानी तुम्हारे अंदर ही प्रकट हो जाती है।रचना से भागो मत!जो हो रहा है ...वह प्रारब्ध है।परंतु इस प्रारब्ध में भी ईश्वर का साथ है...यह बहुत बड़ी बात है।लेकिन तुम भी सही हो!क्योंकि तुमसे तो बुलवाया जा रहा था।जिसको नहीं मालूम है उसको बताने के लिए ईश्वर किसी न किसी को माध्यम बना लेता है।जब हम ईश्वर को समर्पित कर देते हैं तो फिर वही होता है ..जो मीरा के साथ हुआ था।लेकिन तुमने भी सही कहा क्योंकि धर्म के नाम पर ही सबसे ज्यादा अधर्म होते हैं।
3-पूजन ब्रह्मा कपाल की शिला पर नहीं किया गया।परंतु उसी के पास किया गया।गलत कोई नहीं होता ।परिस्थितियां गलत होती है।कुछ प्रारब्ध है।गलती नहीं की गई है ...प्रारब्ध ने कराई है।तुम्हें दृष्टा रहने के लिए भी तो कहा गया था? 2 महीने का समय है।अपनी तैयारी करो!यह यात्रा तुम्हारे जीवन को बदल देंगी।समर्पण को बढ़ाओ।जिस दिन समर्पण बढ़ जाएगा।उस दिन तृप्ति हो जाएगी।प्रेम में तिरस्कार भी तो खूब मिलता है।दुनिया तो तिरस्कार करती ही रहती है।तिरस्कार आराध्य से नहीं मिलता;बल्कि संसार से मिलता है।उस तिरस्कार पर ध्यान मत दो।स्वयं पर ध्यान दो!आत्म चिंतन करो और अपनी गलतियों को ईश्वर को समर्पित करो।जब अपने आराध्य का चिंतन करो।उस समय पहले संसार को भूल जाओ।फिर स्वयं को भूल जाओ।तब समर्पण पूरा होता है।जिस दिन समर्पण पूरा हो जाएगा;उस दिन तुम्हारी ऊर्जा चाहने वालों तक अपने आप पहुंच जाएगी।एक साधक के लिए साधना ही पर्याप्त है।उसे पितरों के लिए अतिरिक्त कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।एक साधक के लिए पूर्ण समर्पण ही पिंडदान है।ब्रह्म कपाल में पिंडदान तो सामान्य लोगों के लिए है ..साधकों के लिए नहीं।तुम्हारा रोल है अपने सानिध्य का।ब्रह्म कपाल के बारे में लोग जानते ही कहां है?
4-जब तुम सारा भोजन पानी सब ईश्वर को समर्पित करते हुए खाते हो तो तुम कहां खाते हो?तुम्हारे आराध्य ही तो खाते हैं।
फिर पंच तत्वों के शरीर को भी तो ऊर्जा चाहिए।मृत्यु और मोक्ष में क्या अंतर है?मृत्यु में इच्छाएं बची रहती हैंऔर मोक्ष में जीते जी इच्छाएं समाप्त हो जाती है।अगर शिव से आसक्ति है तो विरक्ति भी हो जाएगी।प्रेम को आधार बनाकर प्रेम को आकार दो।आराध्य तो हर पल हर क्षण हृदय में विराजमान रहते हैं।वह जाते ही कहां है?...जो उन्हें पकड़ना पड़े।बस प्रेम को आकार दे दो।सारी विद्या ,सारा ज्ञान एक तरफ रखा रह जाता है।केवल प्रेम से ही ईश्वर को पाया जा सकता है।प्रेम को ना पैसे से खरीदा जा सकता है,ना बेचा जा सकता है,न पाया सकता है।प्रेम को अहंकार से नहीं पाया सकता।प्रेम को प्रेम से ही पाया जा सकता है।प्रेम के आगे ईश्वर भी नतमस्तक हो जाता है।प्रेम में खोकर ही प्रेम को जाना जा सकता है।जो प्रेम में खोया ही नहीं..उसने कभी प्रेम को जाना ही नहीं।जो प्रेम में खो जाता है...वह प्रेम को जान लेता है।प्रेम का अहंकार भी नहीं होना चाहिए।ईश्वर जो करता है..वह अच्छे के लिए ही करता है।यह जानकर अपने आराध्य पर विश्वास रखो।किसी चीज से अगर दूर किया जा रहा है तो इसका मतलब है कि वह आवश्यक है।प्रेम की डोर से ईश्वर भी बंध जाता है।
5-बरसाने से निधिवन...प्रेम के लिए कोई दूरी नहीं होती।इस तरह के दिव्य भजन इसलिए लाए जाते हैं ताकि
कलयुग नियंत्रण में रहे।प्रेम में क्या मिलता है शांति या सुकून?वास्तव में शांति और सुकून में अंतर होता है।
शांति में वातावरण शांत होता है परंतु मन में विचार चलते हैं।और सुकून में शांति भी होती है और मन में विचार भी नहीं चलते।
सुकून दिल से होता है।दो नावे हैं।भगवान शिव आध्यात्मिक नाव है तो माता पार्वती सांसारिक नाव।दो नावे चलते चलते एक हो जाती है।माता पार्वती सांसारिक जीवन देखती है।और जिसे अध्यात्म पसंद होता है /चाहिए होता है..उसके लिए आध्यात्मिक मार्ग भी प्रशस्त करती हैं।प्रेमानंद जी ने अपने प्रेम को आकार दे दिया है।वह अनंत प्रेम की गहराई में चले जाते हैं।इसीलिए रात में 2:00 बजे उसी गहरे प्रेम की उर्जा से वृंदावन की परिक्रमा करते हैं।उन्हें मालूम है कि मरना है।तो जिसे मालूम हो कि मरना है तो क्या वह सोएगा?उनका गृहस्थ जीवन नहीं है।योगी रात में जागता है।अपने आराध्य का सुमिरन करते हुए उसे पर्याप्त ऊर्जा मिल जाती है।ईश्वर को बाहर मत खोजो !ढूंढो मत...स्वयं में खोजो।
6-लैला मजनू के किस्से कहानियां पीढ़ी दर पीढ़ी सुने जा रहे हैं क्योंकि प्रेम अमर है।प्रेम ही ईश्वर है।जब दो प्रेमियों में कामना ,वासना नहीं होती ;तब वह शाश्वत प्रेम हो जाता है। लैला -मजनू ,हीर -रांझा आदि इनका प्रेम शाश्वत प्रेम हो गया।और प्रेम तो ईश्वर ही है!जब दो व्यक्ति बिना कामना -वासना के प्रेम करते हैं तो वे एक हो जाते हैं।और वहां पर शाश्वत प्रेम प्रकट हो जाता है। बरसाना वालो ने राधा रानी के साथ जो किया ; उसी से तो उनको शाश्वत प्रेम की अनुभूति हुई।हीरे को तराशा जाता है।जब स्वयं के विचारों को महत्व नहीं दोगी तो इस तरीके के पॉडकास्ट दिखाए जाएंगे।सब कुछ ईश्वर की इच्छा से ही होता है।इस संसार में रहकर अच्छाई बुराई से पार नहीं जाया जा सकता।यहां पर तुम अगर एक चींटी को भी मारोगे तो तुम्हें उसका कर्म फल भुगतना पड़ेगा। नारायण भी अपना कर्म फल भुगतते हैं क्योंकि ईश्वर को भी तपना पड़ता है।ताकि ब्रह्मांड में अराजकता ना फैले।अभी कोई तुम्हारी बात माने या माने...तुम्हारे जाने के बाद सब मानेंगे।तुम्हारे ध्यान की जगह को भी ऐसे रखा जाएगा जैसे यहां कोई बैठा है।आराध्य तक पहुंच पाएंगे या नहीं?.. इस द्वंद में मत फसो!प्रेम को आकार दो।समर्पण बढ़ाओ!प्रेम विकार भी पैदा करता है।उन विचारों को अपने आराध्य को समर्पित कर दो।तुम्हारे आराध्य ही तुम्हें उन विकारों से मुक्त करेंगे।स्वयं को खोजो।आत्म चिंतन करो!यह जानो कि तुम्हारे अष्ट विकार समाप्त हुए या नहीं?प्रार्थना के द्वारा प्रेम सबमें प्रेम बांटो तो करुणा का जन्म होगा।जब ईश्वर के प्रति समर्पण बढ़ता है तब करुणा का जन्म होता है।
7-समर्पण बढ़ाने के लिए क्या करना है?...समर्पण बढ़ाना है तोआराध्य को अपने चित में बसा लो। हर क्षण अपने आराध्य के साथ रहो। उनसे बातें करो।जब ब्रह्मांड में संतुलन बिगड़ता है।तब समन्वय बनाने के लिए दूत भेजे जाते हैं।अभी संसार में प्रेम है।मां के रूप में ,बहन के रूप में।जब तक कोई मन को खाली नहीं करेगा;तब तक आराध्य से कैसे संबंध बना पाएगा?वह तो अपने ही विचारों में उलझा रहता है..समस्याओं के समाधान में लगा रहता है।उसकी रोज की समस्या रहती है। आराध्य से संबंध तो शांत मन में ही हो सकते हैं।पूर्ण विश्राम करो!योग निद्रा में जाओ।स्वयं में आराध्य भी हैं तो सांसारिक विचार भी हैं।
सांसारिक विचारों से दूर हो जाओ! स्वयं में खो जाओ।प्रेम सर्वोपरि है।सब ज्ञान और सिद्धियां एक तरफ रखे रहती है।जब सांसारिकता से निकलना हो तो सांसारिक बातें करनी पड़ेगी।
8-शुरुआत अगर कामाख्या मंदिर से हुई थी तो समस्याओं का समाधान भी उसी मंदिर से होगा।माता शर्त पसंद नहीं करती।एक सामान्य साधक तो कर भी सकता है ;परंतु तुम जैसे साधक नहीं।जब तुम जाने का दृढ़ संकल्प करते हो तो पैसा कहां से आ जाता है...पता भी नहीं चलता?तुम जाने के लिए कहो।अगर चला जाता है तो समाधान भी हो जाएगा।नहीं जाता है तो दृष्टा हो जाओ।वह पूर्णता को प्राप्त करने वाला था परंतु परीक्षा में फेल हो गया।जगत माता तो अपनी संतान से बहुत प्रेम करती है। परंतु पूर्णता इतनी आसानी से प्राप्त नहीं होती।दोनों नावे एक होने वाली थी परंतु एक ही नाव बची।वह भी मझधार में...।
संसार नहीं चाहता कि तुम अध्यात्मिकता करो।वह तो हंसी उड़ाता ही है।वह तो यही चाहेगा कि तुम उसके साथ मिलकर कुकर्म करो।संसार की हंसी का ध्यान नहीं देना चाहिए था।कुंती ने तो कृष्ण से दुख ही मांगा था।दुख के समय कृष्ण उनके साथ थे और सुख के समय पांडव कृष्ण को ढूंढ रहे थे।जब बच्चा दुख में होता है तो केवल अपनी मां की गोद में सिर रखकर सोना चाहता है।सुख में उसे मां नहीं दिखाई पड़ती।अगर तुमने सुख में देवी को नहीं छोड़ा औरअपनी साधना बढ़ाई।तो देवी ने भी तो कभी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा।अपने आराध्य की खोज ही स्वयं की खोज है।इच्छा जब आराध्य की होती है तो वह इच्छा भी परमात्मा से मिलन की इच्छा बन जाती है।विश्वास वह प्रेरणा है जो हृदय में स्वयं उत्पन्न होती है।
9-जैसे मनका -मनका जोड़कर माला बनता है।उसी प्रकार से मन का मनका जोड़कर प्रेम की माला बनती है।उदाहरण के लिए तुम्हारे सामने जो समस्याएं हैं।उन समस्याओं के लिए तुम ईश्वर के प्रति क्या दृष्टिकोण रखती हो?इसी पर तुम्हारे प्रेम की माला निर्भर करती है।ईश्वर जो करते हैं, सब अच्छा करते हैं और हम इसमें कुछ नहीं कर सकते।यही दृष्टिकोण प्रेम की माला बना सकता है।जब हम ईश्वर से थोड़ी देर के लिए एकाकार होते हैं तो उस समय ना सुख होता है ना दुख!हम अच्छाई बुराई से पार हो जाते हैं।लेकिन संसार में अच्छाई बुराई से पार नहीं हुआ जा सकता।इससे संसार में अराजकता फैलेगी और जो ईश्वर का भय है वह भी समाप्त हो जाएगा।
10- संसार चाहे जितना कॉम्प्लिकेटेड हो;परंतु भगवान शिव बहुत ही सरल है।आने वाला कल किसी को पता नहीं।बीता हुआ कल बीत चुका है।वर्तमान का आनंद लो!प्रत्येक समस्या का समाधान है।इसलिए समस्या को अंदर ह्रदय में मत जाने दो।
यह तुम्हारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।समस्या मानोगे तो समस्या है?नहीं मानोगे तो कोई समस्या नहीं।दृष्टा हो जाओ।
स्वयं का निरीक्षण करते रहो कि तुम्हारे मन में किसी के लिए गलत विचार तो नहीं है? ईश्वर से सबके कल्याण की प्रार्थना करो।
तुमने समस्या के समाधान की इच्छा की है तो समाधान हो जाएगा।प्रेम के आनंद को हृदय में भर लो।उसी आनंद के साथ योग निद्रा में जाओ!स्वयं से जीतना,स्वयं से हारना और स्वयं में खो जाना... तीनों अलग-अलग बातें है।उदाहरण के लिए स्वयं से जीत संसार के लिए होती है।तथा स्वयं से हारना आध्यात्मिकता से दूर कर देता है।और स्वयं में खो जाना आराध्य से मिला देता है।
11-एक बार क्रोध करने से व्यक्ति 1000 सीढ़ियां नीचे उतर जाता है।इस बात से तुम अंदाजा लगा सकती हो?जिसके अंदर प्रेम होता है तो प्रेम से ही करुणा की उत्पत्ति होती है।जहां प्रेम ही नहीं है, वहां करुणा क्या होगी?समस्या चिंतन की है।कोई भी अगर भाव खराब करता है तो उसे दंड तो अवश्य मिलता है।जो भी तुमसे प्रेम करेगा वह तुम्हारी बात मानेगा।तुम्हारा कर्तव्य है उनकी कमियां बताना।मानना या ना मानना उनका चुनाव।क्रोध और नफरत के संस्कार तो बच्चे को भी खराब प्रभाव डालेंगे।अभी भी 2 महीने का समय है।प्रेम जागृत हो जाए तो बच्चे में भी शाश्वत प्रेम के संस्कार आ जाएंगे।जैसे-जैसे प्रार्थना के माध्यम से प्रेम बांटोगी वैसे -वैसे मोह हटता जाएगा।जैसे-जैसे मोह हटता है वैसे- वैसे शाश्वत प्रेम का मार्ग प्रशस्त होता है।अगला स्वयं से हार चुका है।यदि वह भूतकाल में फस गया है कि ऐसा क्यों हुआ? तो उसके अंदर शाश्वत प्रेम नहीं जग सकता।तो फिर प्रतिदिन नियम से उसके लिए प्रार्थना करो।तुम्हें क्या लगता है कि तुमने कहा।तुमसे तो बुलवाया गया। अगला राधा जी के 32 नाम पढ़ता है..इसीलिए तो उसे अवसर दिया गया।ध्यान में जिस जगह जाती है, प्रेम लेकर आती है।उस प्रेम को क्रोध में जला देती है और क्रोध के बीज को लेकर ठहर जाती है।अभी उसको दसियों साल लगेंगे।कठिनाइयों का समय है।परंतु जीवन में खतरा नहीं है।सबको अवसर दिया जाता है।अवसर का चुनाव करना उस पर निर्भर करता है।हर जीवात्मा को ,हर छोटे बच्चे को कृष्ण ही कहा जाता है।अभी ईश्वर के अवतार का समय नहीं आया।
12-बच्चे में जो बीज आज डाला गया है ...उसको काटना भी उन्हें ही पड़ेगा।सांब ने राधा रानी के साथ कितना दुर्व्यवहार किया? परंतु क्या राधा रानी नेअपना वात्सल्य प्रेम छोड़ दिया।वह सब के प्रति करुणा रखती हैं।प्रेम को आधार बनाकर आधार बनाए जाते हैं।कोई चाहता है कि भाव से, नेत्रों से प्रेम समझो ।दूसरा चाहता है कि वाणी से प्रेम दिखाओ!परंतु वाणी से हमेशा अच्छा ही अच्छा नहीं बोला जा सकता।और तीसरा चाहता है कि प्रेम करो या ना करो परंतु प्रेम का प्रदर्शन अवश्य करो।ईश्वर ने तुम्हें यह क्षमता दी है कि तुम्हें सही गलत की अनुभूति हो जाती है।जो स्वयं को सुधारना चाहता है उसे ही सिखाया जा सकता है।
देवी पार्वती स्वयं को सुधारना चाहती थी।इसीलिए तो 18 साल के लिए मत्स्यकन्या बनी।अन्यथा वह यह भी तो कह सकती थी
कि हम अर्धांगिनी हैं..नहीं जाएंगे।लेकिन तब वह स्वयं को सुधार नहीं पाती।इसलिए गुरु को अधिकार होता है शिष्य को दंड देने का ,सुधारने का।सुधारने के लिए उसे सब कुछ करना पड़ता है।तुमने भी अपनी गलतियों के लिए ईश्वर से माफी मांगी।अपनी मां से भी माफी मांगी।इसीलिए तुम्हें ईश्वर ने अवसर दिए।क्योंकि जो स्वयं को सुधारना चाहता है..ईश्वर उसे अवसर अवश्य देता है।चयन उसका है।
13-जहां प्रेम होता है, वहां क्रोध नहीं होता।एक तुमको पढ़ता नहीं है परंतु भजता है।दूसरा पढ़ता है परंतु...। प्रेम को आकार देने के लिए ही परीक्षाएं ली जाती है।इस संसार में कांटो का भी उतना ही महत्व है जितना फूलों का।कांटे ही तो जीवन में निखार लाते हैं।अगर तारकासुर ना होता तो भोलेनाथ तो देवी की और परीक्षाएं लेते रहते।तारकासुर की वजह से उन्हें जल्दी विवाह तो करना ही पड़ा। राधा रानी की भी कितनी परीक्षाएं ली गई? कितनी बातें सुनाई लोगों ने?संसार में जब कोई कुछ कहे तो देखो कि मेरी प्रिया जी कह रहे हैं।जहां तुमने सोचा तुमको वही दृष्टि में दिखाई पड़ेंगे।प्रिया जी ही दिखाई पड़ेगी.. तुमको उस व्यक्ति में।जब प्रिया जी डांटेगी तो क्यों बुरा लगेगा?अगले व्यक्ति ने स्वयं से हार मान ली है।यदि कोई स्वयं से हार मान ले तो
कौन उसकी सहायता कर सकता है?जब तक वह स्वयं ना निकलना चाहे।अगला कहता है कृष्ण से प्रेम है।तो कृष्ण तो राजनीति करते हैं।अगर उसने प्रिया जी का सुमिरन किया होता तो अवश्य प्रेम होता।जब प्रिया जी प्रसन्न होती हैं तो पूरा ब्रह्मांड प्रसन्न होता हैं।प्रेमानंद का मतलब है जो प्रेम के आनंद में डूब गया है।प्रेमानंद का भी संसार ने बहुत मजाक बनाया है।दृढ़ संकल्प होगा तो प्रेमानंद स्वयं ही मिल जाएंगे।क्या तुम प्रेम में डूबी हो?प्रेम को आकार देना है तो प्रेम को निखारना पड़ेगा।और प्रेम को निखारने के लिए परीक्षाएं जरूरी है।परीक्षाओं से ही प्रेम को आकार मिलता है।सब ईश्वर को समर्पित कर दो.... हृदय को भारी मत करो!
14-पहले माता ही समझाती है।माता तब पिता के पास शिकायत ले कर जाती है जब पानी सिर से ऊपर निकल जाता है
और माता हार मान लेती है।एक साधक के लिए नियम अलग होते हैं।और जो साधना के मार्ग में चल रहा है उसके लिए अलग।
तुम और तुम्हारा पुत्र साधक हो!उसका संसार ने बहुत मजाक बनाया है।परंतु उसका अपने आराध्य के प्रति विश्वास और भी गहरा हुआ है।चाहे कृष्णा की बांसुरी हो या हाथ का कड़ा हो...सबको स्थान तो उनके हृदय में ही मिलता है।उसी प्रकार भोलेनाथ की जटाएं हो, नंदी हो या पैरों का कड़ा हो।सबको स्थान तो उनके हृदय में ही मिलेगा।भगवान शिव के स्वरूपों को
कोई शराब चढ़ाता है तो कोई सिगरेट चढ़ाता है ..तो कोई चिलम चढ़ाता है।यह सब भगवान के स्वरुप हैं।भैरव स्वरूप है..स्वयं शिव नहीं है।भगवान शिव को यह सब कुछ नहीं चढ़ाया जाता।केवल भांग चढ़ाई जाती है वह भी केवल शिवरात्रि में।
माता के शिव यह सब कुछ नहीं करते।जो भी यह सब चढ़ाता है..उसे माता दंड देती है।तुम स्वयं सोचो कि कोई तुम्हारे पति या पुत्र को ऐसा सब कुछ खिलाएं..तो क्या तुम प्रसन्न होगी?
15-आराध्य ही लेता है और आराध्य ही दिलवाता है।यदि कोई किसी के लिए कुछ ना करना चाहे।तो ईश्वर भी उससे दिलवा नहीं सकता।तुम्हारा एक पुत्र नकारात्मक है...देना नहीं चाहता।तो उसे दूर कर दिया गया।वरना तुम्हारा शरीर डैमेज हो सकता था।तुम्हारा क्रोध बढ़ सकता था और क्रोध से तुम्हारी साधना डिस्टर्ब हो जाती। क्योंकि जो चीज नकारात्मक तरीके से दी जाएगी..वह नकारात्मकता ही बढ़ाएगी।सकारात्मक तरीके से दी गयी चीज ही सकारात्मकता पैदा करती है।शरद पूर्णिमा में ग्रहण पड़ रहा है।परंतु ईश्वर के भक्तों पर ग्रहण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।वह अपने ही आनंद में आनंदित रहते हैं।
नकारात्मकता को संभालने के लिए तो ईश्वर को भी साधना करनी पड़ती है।पितर पक्ष के अंतिम दिनों में नकारात्मकता आ ही जाती है।नवरात्र से प्रकृति में सकारात्मकता आएगी।प्रेम का आकलन नहीं किया जा सकता।परंतु प्रेम का विस्तार किया जा सकता है।निश्चल प्रेम से ही ईश्वर के प्रति समर्पण बढ़ता है।बच्चे को ब्रह्म का स्वरूप कहा जाता है।इसका कारण है कि उसके अंदर अष्ट विकार नहीं होते।एक साधक को भी अपने अष्ट विकारों को नष्ट करना होता है।कुछ चढ़ाने से माता नाराज नहीं होती।तुमने माया जगत के समाधान मांगे थे।तो तुम्हें माया जगत के समाधान दिए जा रहे हैं।हार कभी आध्यात्मिक जगत में नहीं होती है परंतु माया जगत में होती है।आध्यात्मिक जगत में केवल आप रुक सकते हैं।परंतु हार नहीं सकते।
16-ईश्वर अपने सभी बच्चों से प्रेम करता है।परंतु कुछ बच्चे प्रेम से उन्हें आकर्षित कर लेते हैं और कुछ बच्चे दूरी बना लेते हैं।
क्योंकि वह अपने आप में पर्याप्त समझदार है।यात्रा तो सभी करते हैं।परंतु अंतर्मन के प्रेम से यात्रा करना अलग है।तुम्हें उस यात्रा की तैयारी कराई जा रही है।युधिष्ठिर को ही स्वर्ग भेजा गया क्योंकि उसे धर्म का बोध था।उसे भ्रमित करके अधर्म कराए गए और उसे उसी अधर्म की 14 साल की सजा भी काटनी पड़ी।लेकिन स्वर्ग कोई स्थाई जगह नहीं है।जब अनंत उनके पास था तो अंत नहीं था।और जब उन्हें अंत मिल गया तब अनंत उनके पास नहीं था।प्रेम के आधार को जब आकार मिल जाता है।
तब प्रेम साकार हो जाता है और प्रेम निराकार भी हो जाता।इस संसार में छोटी सी छोटी वस्तु की भी कीमत देनी पड़ती है।
उसी प्रकार अध्यात्म में जो छोटी सी चीज भी दी जाती है..तो उसकी कीमत होती है..अष्ट विकार।जगन्नाथपुरी में तो अष्ट विकार बंधक बनाए गए।अब धीरे-धीरे तुम उन अष्ट विकार से इन नवरात्रों में मुक्त हो जाओ।अपनी यात्रा की तैयारी करो।यह यात्रा विशेष होगी। प्रेम में उदासीनता और प्रसन्नता दोनों को स्वीकार करना चाहिए।तुम उस उदासीनता को स्वीकार नहीं कर पाती।निराश हो जाती हो।किसी के दुख सुनने में उदासी तो आती ही है।
17-पितर पक्ष में कितने ही लोग अपने पितरों को भोजन नहीं देते?पितृपक्ष में इससे पितर दुखी होते है।दान दक्षिणा की
तो कोई सीमा ही नहीं है।माया जगत के नियम अलग है और अध्यात्म जगत के अलग।अध्यात्म जगत में मन की शुद्धि का ही पूर्ण महत्व है।अपनी साधना का दान तो महादान है।लेकिन यह सब लोग तो नहीं कर सकते? प्रेम और मोह में अंतर है।
मोह बांधता है और प्रेम स्वतंत्र करता है।मोह भय देता है और प्रेम आनंद देता है।नवरात्रि में अपने प्रेम के आधार को आकार दे दो।तब अगर क्रोध भी होगा तो प्रेम में होगा।अभी स्वयं की खोज चल रही है।स्वयं से एकाकार नहीं हो पाई हो?स्वयं से एकाकार होने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है।इसका अर्थ है कि आत्मा परमात्मा की आंखें एक ही हो जाती है और
दोनों एकाकार हो जाते हैं।शंका से व्यक्ति त्रिशंका हो जाता है।इसका अर्थ है व्यक्ति त्रिशंकु की तरह अधर में लटक जाता है।
यह वार्ता सत्य है।दृष्टि भी सत्य है।विश्वास वह पहली सीढ़ी है जिस पर चढ़कर श्रद्धा, समर्पण और प्रेम सब आ जाता है।
18-एक साधक को प्रकाश के अंदर प्रवेश कर जाना चाहिए।और प्रकाश का तब तक विस्तार करना चाहिए।जब तक अंधकार एक एक बूंद के बराबर ना हो जाए।इस संसार में जिसने प्रेम के दरवाजे बंद कर दिए।वह एक मृतक के समान हो गया।
सभी नवरात्र का इंतजार करते हैं।क्योंकि अपने आराध्य तक पहुंचने के लिए सबको मां का आंचल तो पकड़ना ही पड़ता है।
प्रेम के लिए पात्र की और स्थान की आवश्यकता नहीं पड़ती।प्रेम तो स्वयं से होता है।स्वयं में ही हंसता है, रोता है और स्वयं में ही मुस्कुराता है।
....SHIVOHAM....
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