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द्वारकाधाम...


10 FACTS;-

1-गुजरात के द्वारका में स्थित द्वारकाधीश मंदिर द्वारका नगरी आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित देश के 4 धामों में से एक है। द्वारका के नाम पर ही इस जिले का नाम भी देवभूमि द्वारका रखा गया था। यह द्वारका नगरी एक चार दीवारी के अंदर बसी हुई है। इस चार दीवारी के अंदर अनेक मंदिरो का समूह है। जिसमे भगवान श्रीकृष्ण का प्रसिद्द व मुख्य द्वारकाधीश मंदिर भी है। यह मंदिर श्री कृष्ण को समर्पित है। पुरातात्त्विक खोज में सामने आया है कि यह मंदिर करीब 2,000 से 2200 साल पुराना है। इस मंदिर की इमारत 7 मंजिला है और इसकी ऊंचाई 235 मीटर है। यह इमारत 72 स्तंभों पर टिकी हुई है। ऐसा माना जाता है कि द्वारकाधीश मंदिर का निर्माण भगवान श्री कृष्ण के पोते वज्रभ ने करवाया था।द्वारका की गणना धामो में तो होती ही है। इसके साथ साथ द्वारका की गणना सप्तपुरियो में भी होती है। परंतु आज द्वारका नाम से कई स्थान कहे जाते है। दो स्थान मूल द्वारका के नाम से विख्यात है। एक“गोमती द्वारका”और दूसरा“बेट द्वारका”।ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण के अंतर्धान होते ही द्वारका समुंद्र में डूब गई थी। केवल भगवान का निजी मंदिर समुंद्र में नही डूबा था। गोमती द्वारका और बेट द्वारका एक ही विशाल द्वारकापुरी के अंश है।द्वारका के समुंद्र में डूब जाने के बाद लोगो ने कई स्थानो पर द्वारका का अनुमान करके मंदिर बनवाए। और जब वर्तमान द्वारका की प्रतिष्ठा हो गई, तब उन अनुमानित स्थलो को मूल द्वारका कहा जाने लगा।

2-वर्तमान द्वारकापुरी गोमती द्वारका कही जाती है। यह नगरी प्राचीन द्वारका के स्थान पर प्राचीन कुशस्थली में ही स्थित है। यहाँ अब भी प्राचीन द्वारका के अनेक चिन्ह रेत के नीचे से यदा-कदा मिल जाते है। यह नगरी गुजरात राज्य के काठियावाड में पश्चिम समुंद्र तट पर स्थित है। गोमती द्वारका में ही द्वारका का मुख्य मंदिर है, जो श्री रणछोड़राय मंदिर या द्वारकाधीश मंदिर के नाम से मशहूर है।इस मंदिर के आस-पास बड़े हिस्से मे जल भरा है। इसे गोमती कहते हैं। इसके आस-पास के कई घाट हैं। जिनमें संगम घाट प्रमुख है।द्वारका भगवान श्रीकृष्ण की नगरी है। मथुरा को छोडने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका को बसाया था। यही पर उनका महल था। उनकी बसाई हुई नगरी तो समुद्र में विलीन हो गई थी। जिसके तथ्यो को आज भी कुछ इतिहासकार, वैज्ञानिक, गोताखोरो की मदद से तलाशने में जुटे है। मूल द्वारका कहां और कौन सी है। यह आज तक रहस्य बना हुआ है। कुछ लोग गोमती को द्वारका मानते है और बेट को द्वारका पुरी तथा कुछ लोगो का मानना इससे उलटा है वो बेट को मूल द्वारका मानते है। सबसे सही मत यह माना जाता है कि गोमती मूल द्वारका है। तथा भगवन लीला का यह सम्पूर्ण स्थल द्वारकापुरी है। जो वर्तमान द्वारका नगरी है।हाँ किए गए होम, जप, दान, तप आदि सब भगवान श्रीकृष्ण के समीप कोटिगुना एवं अक्षय होते है।

3-धार्मिक ग्रंथों व पुराणो के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तरकाल में शांतिपूर्वक एकांत क्षेत्र में रहने के उद्देश्य से सौराष्ट्र में समुंद्र तट पर द्वारकापुरी नामक नगरी बसाकर आस पास के क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित किया था। उन्होने विश्वकर्मा द्वारा समुंद्र में ( कुशथली द्वीप में) द्वारकापुरी बनवायी और मथुरा से सब यादवो को यहाँ ले आए। श्रीकृष्ण के अंतर्ध्यान होने के पश्चात द्वारका समुद्र में डूब गई। केवल भगवान श्रीकृष्ण का निज भवन नही डूबा। वज्रनाथ ने वही श्रीरणछोडराय के मंदिर की प्रतिष्ठा की।यह स्थान बहुत महत्व वाला है। यहाँ मर्यादित सागर भगवान श्रीकृष्ण के चरणो को धोया करता था। यही कंचन और रत्नजडित मंदिर की सिढियो पर खडे होकर दीन हीन सुदामा ने मित्रता की दुहाई दी थी। यही पर सुदामा का नाम सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण नंगे पावं उठकर मित्र से मिलने उठकर भागे थे। इसी नगरी में वियोगिनी मीरा ने अपने प्रियतम के चरणो पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे।

4-सतयुग में महाराज रैवत ने समुंद्र के मध्य की भूमि पर कुश बिछाकर यज्ञ किए थे। जिससे इसे कुशथली कहा गया है। बाद में यहा कुश नामक दानव ने उपद्रव किया। जिसे मारने के लिए ब्रह्माजी राजा बलि के यहाँ से त्रिविक्रम भगवान ले आए।भगवान श्रीहरि विष्णु ने वामन रूप में जन्म लिया था। इन्हें ही त्रिविक्रम भी कहा जाता है। जब दानव शस्त्रो से नही मरा, तब भगवान ने उसे भूमि में गाड़कर उसके ऊपर उसी के आराध्य कुशेश्वर की लिंगमूर्ति स्थापित कर दी। दैत्य के प्राथना करने पर भगवान ने उसे वरदान दिया कि द्वारका आने वाला जो व्यक्ति कुशेश्वर के दर्शन नहीं करेगा, उसकी द्वारका यात्रा का आधा पुण्य उस दैत्य को मिलेगा।एक दिन दुर्वासाजी द्वारका आए। उन्होने बिना कारण ही रूकमणी जी को श्रीकृष्ण से वियोग होने का शाप दे दिया। जब रूकमणिजी बहुत दुखी हुई तो भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे वियोग काल में मेरी मूर्ति का पूजन कर सकेगी। कहा जाता है कि वह मूर्ति वही श्रीरणछोडराय की मूर्ति है।इनके आलावा भी इस स्थान के अनेक धार्मिक महत्व वर्णन ग्रंथो में भरे पडे है।द्वारकापुरी का माहात्म्य अवर्णनीय है। कहा जाता है कि द्वारका के प्रभाव से विभिन्न योनियों में पड़े हुए समस्त जीव मुक्त होकर श्रीकृष्ण के परमधाम को प्राप्त होते हैं। यहां तक कि द्वारका निवासियों के दर्शन और स्पर्श मात्र से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं।

5-धार्मिक महत्ता के साथ इस नगर के साथ कई रहस्य भी जुड़े हुए हैं। समस्त यदुवंशियों के मारे जाने और द्वारिका के समुद्र में विलीन होने के पीछे मुख्य रूप से दो घटनाएं जिम्मेदार है। एक माता गांधारी द्वारा श्री कृष्ण को दिया गया श्राप और दूसरा ऋषियों द्वारा श्री कृष्ण पुत्र सांब को दिया गया श्राप। भगवान विष्णु के श्रीकृष्ण अवतार की समाप्ति के साथ ही पृथ्वी पर उनकी बसाई हुई यह नगरी समुद्र में डूब गई। ऐसी मान्यता है कि कौरवों के पिता महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने भगवान श्रीकृष्ण को यह शाप दिया था कि जैसे मेरे कौरव कुल का नाश हो गया है, वैसे ही समस्त यदुवंश भी नष्ट हो जाएगा। इसी वजह से महाभारत युद्ध के बाद द्वारिकापुरी समुद्र में विलीन हो गई। समुद्र में हजारों फीट नीचे द्वारका नगरी के अवशेष मिले हैं। श्री कृष्ण की नगरी द्वारिका महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात समुद्र में डूब जाती है। महाभारत युद्ध के बाद जब छत्तीसवां वर्ष आरंभ हुआ तो तरह-तरह के अपशकुन होने लगे। एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व, देवर्षि नारद आदि द्वारका गए। वहां यादव कुल के कुछ नवयुवकों ने उनके साथ परिहास (मजाक) करने का सोचा। वे श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेष में ऋषियों के पास ले गए और कहा कि ये स्त्री गर्भवती है। इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा? ऋषियों ने जब देखा कि ये युवक हमारा अपमान कर रहे हैं तो क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दिया कि- श्रीकृष्ण का यह पुत्र वृष्णि और अंधकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए एक लोहे का मूसल उत्पन्न करेगा, जिसके द्वारा तुम जैसे क्रूर और क्रोधी लोग अपने समस्त कुल का संहार करोगे। उस मूसल के प्रभाव से केवल श्रीकृष्ण व बलराम ही बच पाएंगे।

6-श्रीकृष्ण को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कहा कि ये बात अवश्य सत्य होगी। मुनियों के श्राप के प्रभाव से दूसरे दिन ही सांब ने मूसल उत्पन्न किया।इसके बाद द्वारका में भयंकर अपशकुन होने लगे। प्रतिदिन आंधी चलने लगी। चूहे इतने बढ़ गए कि मार्गों पर मनुष्यों से ज्यादा दिखाई देने लगे। श्रीकृष्ण ने नगर में होते इन अपशकुनों को देखा तो उन्होंने सोचा कि कौरवों की माता गांधारी का श्राप सत्य होने का समय आ गया है। इन अपशकुनों को देखकर तथा पक्ष के तेरहवें दिन अमावस्या का संयोग जानकर श्रीकृष्ण काल की अवस्था पर विचार करने लगे। उन्होंने देखा कि इस समय वैसा ही योग बन रहा है जैसा महाभारत के युद्ध के समय बना था। गांधारी के श्राप को सत्य करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण ने यदुवंशियों को तीर्थयात्रा करने की आज्ञा दी। श्रीकृष्ण की आज्ञा से सभी राजवंशी समुद्र के तट पर प्रभास तीर्थ आकर निवास करने लगे। प्रभास तीर्थ में रहते हुए एक दिन जब अंधक व वृष्णि वंशी आपस में बात कर रहे थे। तभी सात्यकि ने आवेश में आकर कृतवर्मा का उपहास और अनादर कर दिया। कृतवर्मा ने भी कुछ ऐसे शब्द कहे कि सात्यकि को क्रोध आ गया और उसने कृतवर्मा का वध कर दिया। यह देख अंधकवंशियों ने सात्यकि को घेर लिया और हमला कर दिया। सात्यकि को अकेला देख श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न उसे बचाने दौड़े। सात्यकि और प्रद्युम्न अकेले ही अंधकवंशियों से भिड़ गए। परंतु संख्या में अधिक होने के कारण वे अंधकवंशियों को पराजित नहीं कर पाए और अंत में उनके हाथों मारे गए।जो कोई भी वह घास उखाड़ता वह भयंकर मूसल में बदल जाती।यदुवंशी भी आपस में लड़ते हुए मरने लगे।

7-श्रीकृष्ण के देखते ही देखते सांब, चारुदेष्ण, अनिरुद्ध और गद की मृत्यु हो गई।अंत में केवल दारुक (श्रीकृष्ण के सारथी) ही शेष बचे थे। श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा कि तुम तुरंत हस्तिनापुर जाओ और अर्जुन को पूरी घटना बता कर द्वारका ले आओ। दारुक ने ऐसा ही किया। इसके बाद श्रीकृष्ण बलराम को उसी स्थान पर रहने का कहकर द्वारका लौट आए।द्वारका आकर श्रीकृष्ण ने पूरी घटना अपने पिता वसुदेवजी को बता दी। यदुवंशियों के संहार की बात जान कर उन्हें भी बहुत दुख हुआ। श्रीकृष्ण ने वसुदेवजी से कहा कि आप अर्जुन के आने तक स्त्रियों की रक्षा करें। इस समय बलरामजी वन में मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, मैं उनसे मिलने जा रहा हूं। जब श्रीकृष्ण ने नगर में स्त्रियों का विलाप सुना तो उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि शीघ्र ही अर्जुन द्वारका आने वाले हैं। वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। ये कहकर श्रीकृष्ण बलराम से मिलने चल पड़े। वन में जाकर श्रीकृष्ण ने देखा कि बलरामजी समाधि में लीन हैं। देखते ही देखते उनके मुख से सफेद रंग का बहुत बड़ा सांप निकला और समुद्र की ओर चला गया। उस सांप के हजारों मस्तक थे। समुद्र ने स्वयं प्रकट होकर भगवान शेषनाग का स्वागत किया। बलरामजी द्वारा देह त्यागने के बाद श्रीकृष्ण उस सूने वन में विचार करते हुए घूमने लगे। घूमते-घूमते वे एक स्थान पर बैठ गए और गांधारी द्वारा दिए गए श्राप के बारे में विचार करने लगे।

8-देह त्यागने की इच्छा से श्रीकृष्ण ने अपनी इंद्रियों का संयमित किया और महायोग (समाधि) की अवस्था में पृथ्वी पर लेट गए।जिस समय भगवान श्रीकृष्ण समाधि में लीन थे, उसी समय जरा नाम का एक शिकारी हिरणों का शिकार करने के उद्देश्य से वहां आ गया। उसने हिरण समझ कर दूर से ही श्रीकृष्ण पर बाण चला दिया। बाण चलाने के बाद जब वह अपना शिकार पकडऩे के लिए आगे बढ़ा तो योग में स्थित भगवान श्रीकृष्ण को देख कर उसे अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। तब श्रीकृष्ण ने उसे आश्वासन दिया और अपने परमधाम चले गए।अर्जुन जब द्वारका पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर उन्हें बहुत शोक हुआ। श्रीकृष्ण की रानियां उन्हें देखकर रोने लगी।इसके बाद अर्जुन वसुदेवजी से मिले।वसुदेवजी ने अर्जुन को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाते हुए कहा कि द्वारका शीघ्र ही समुद्र में डूबने वाली है अत: तुम सभी नगरवासियों को अपने साथ ले जाओ।वसुदेवजी की बात सुनकर अर्जुन ने दारुक से सभी मंत्रियों को बुलाने के लिए कहा।अर्जुन ने मंत्रियों से कहा कि आज से सातवे दिन सभी लोग इंद्रप्रस्थ के लिए प्रस्थान करेंगे इसलिए आप शीघ्र ही इसके लिए तैयारियां शुरू कर दें। अगली सुबह श्रीकृष्ण के पिता वसुदेवजी ने प्राण त्याग दिए। अर्जुन ने विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार किया। इसके बाद अर्जुन ने प्रभास तीर्थ में मारे गए समस्त यदुवंशियों का भी अंतिम संस्कार किया। सातवे दिन अर्जुन श्रीकृष्ण के परिजनों तथा सभी नगरवासियों को साथ लेकर इंद्रप्रस्थ की ओर चल दिए। उन सभी के जाते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई।

9-मुख्य आकर्षण द्वारकाधीश मंदिर...यह द्वारका का मुख्य मंदिर है। इसे श्री रणछोड़राय का मंदिर और जगत मंदिर भी कहते हैं। गोमती द्वारका भी यही कहलाती है। ढाई हजार साल पुराना यह मंदिर गोमती के ऊपरी किनारे पर बना है। यह सात मंजिला है और 157 फुट ऊंचा है। इसमें द्वारकाधीश की श्यामवर्ण की चतुर्भुज मूर्ति स्थापित है। गोमती से 56 सीढ़ियां चढ़ने पर यह मंदिर मिलता है।गोमती के दक्षिण में पांच कुंए है। निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद यात्री इन पांच कुंओं के पानी से कुल्ले करते है। तब रणछोड़जी के मन्दिर की ओर जाते है। रास्तें में कितने ही छोटे मन्दिर पड़ते है-कृष्णजी, गोमती माता और महालक्ष्मी के मन्दिर। रणछोड़जी का मन्दिर द्वारका का सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया मन्दिर है। मंदिर के फर्श पर सफेद व नीले संगमरमर के टुकडो को कलात्मक ढंग से लगाया गया है। श्रीरणछोडराय जी की मूर्ति, तथा मंदिर के द्वार में सोने चांदी का काम किया गया है। भगवान श्रीकृष्ण की इस मूर्ति के नाम के पीछे एक कथा है। कहा जाता है कि- भगवान श्रीकृष्ण कालयवन के विरूद्ध युद्ध से भागकर द्वारका पहुंचे। जिसके कारण उनका नाम रणछोडजी पडा।मंदिर में मुख्यपीठ पर श्रीरणछोडरायजी की चतुर्भुज मूर्ति है। मंदिर के ऊपर चौथी मंजिल में अम्बाजी की मूर्ति है।द्वारका की रणछोडराय की मूल मूर्ति तो बोडाणा भक्त डाकोर ले गए। वह अब डाकोर में है। उसके छ: महिने बाद दूसरी मूर्ति लाडवा ग्राम के पास एक वापी में मिली। वही मूर्ति अब मंदिर में विराजमान है।इस मंदिर में प्रवेश करने से पहले भक्तजन गोमती नदी में स्नान करते हैं।रणछोड़जी के दर्शन के बाद मन्दिर की परिक्रमा की जाती है। मन्दिर की दीवार दोहरी है। दो दावारों के बीच इतनी जगह है कि आदमी समा सके। यही परिक्रमा का रास्ता है। रणछोड़जी के मन्दिर के सामने एक बहुत लम्बा-चौड़ा 100 फुट ऊंचा जगमोहन है। इसकी पांच मंजिलें है और इसमें 60 खम्बे है। रणछोड़जी के बाद इसकी परिक्रमा की जाती है। इसकी दीवारे भी दोहरी है।

10--द्वारकाधीश मंदिर के दक्षिण में त्रिविक्रम भगवान का मंदिर है। इसमें त्रिविक्रम भगवान के अतिरिक्त राजा बलि तथा सनकादि चारों कुमारों की मूर्तियों के साथ-साथ गरुड़ की मूर्ति भी है। मंदिर के ऊपर में प्रद्युम्न जी की श्यामवर्ण प्रतिमा और उसके पास ही अनिरुद्ध व बलदेव जी की मूर्तियां भी हैं। मुख्य मंदिर के पूर्व में दुर्वासा ऋषि का छोटा सा मंदिर है। श्री रणछोड़राय के मंदिर पर पूरे थान की ध्वजा फहराती है मंदिरों का ध्वज दिन में पाँच बार बदलता है, भारत के अन्य मंदिरों में ऐसा नहीं होता है।यह विश्व की सबसे बड़ी ध्वजा है।द्वारकाधीश मंदिर के 52 गज के ध्वज को दिन में 5 बार - सुबह तीन बार और शाम को दो बार बदला जाता है। यह देखना वास्तव में एक अनोखा अनुभव होता है।इस अवसर पर ढोल-नगाड़ों की गूंज के साथ चारों ओर उत्सवी वातावरण बन जाता है। श्री रणछोड़राय जी के मंदिर के पूर्वी घेरे के भीतर मंदिर का भंडार है और उससे दक्षिण में जगद्गुरु शंकराचार्य का शारदा मठ है।द्वारकाधीश मंदिर के मोक्षद्वार के निकट कुशेश्वर शिव मंदिर स्थित है। कुशेश्वर के दर्शन किए बिना द्वारका यात्रा अधूरी मानी जाती है।श्री रणछोड़राय के मंदिर के कोठे के बाहर लक्ष्मीनारायण मंदिर और वासुदेव मंदिर हैं। यहां स्वर्ण द्वारका नामक एक स्थान है जहां शुल्क देकर प्रवेश मिलता है। यहां उभरे हुए कलापूर्ण चित्र देखने योग्य हैं।

द्वारकापुरी के अन्य मंदिर: -

07 FACTS;-

1-बेट-द्वारका:-

02 POINTS;-

1-गोमती द्वारका से 20 मील पूर्वोउत्तर कच्छ की खाडी में एक छोटा द्वीप है। बेट ( द्वीप ) होने के कारण इसे बेट द्वारका कहते है। माना जाता है कि इसी जगह पर भगवान श्रीकृष्ण के बचपन के मित्र सुदामा आए थे और पहली बार इसी जगह पर उनसे भेंट हुई थी।इस जगह पर भगवान श्रीकृष्ण सहित सुदामा की मूर्ति स्थापित है और उनकी पूजा की जाती है। जो भी भक्तजन यहाँ पर आते हैं, वे चावल चढ़ाते हैं। यह मानकर कि जो भी चावल चढ़ाएंगा, वह कई जन्मो तक गरीब के रूप में जन्म नहीं लेगा।बेट द्वारका एक तौर पर छोटा सा टापू है, जिसका प्रयोग बंदरगाह के रूप में भी किया जाता है। यहाँ पर भगवान कृष्ण को समर्पित प्रमुख केशव रायजी मंदिर भी स्थित है, जिसे वल्लभाचार्य के द्वारा 5 साल पहले बनाया गया था। गोमती द्वारका से 18 किमी दूर ओखा स्टेशन है। ओखा से नौका द्वारा समुद्र की खाड़ी पार कर बेट द्वारका पहुंचना पड़ता है।कहते है, भगवान कृष्ण इस बेट-द्वारका नाम के टापू पर अपने घरवालों के साथ सैर करने आया करते थे। यह कुल सात मील लम्बा है। यह पथरीला है। यहां कई अच्छे और बड़े मन्दिर है। कितने ही तालाब है।बेट-द्वारका ही वह जगह है, जहां भगवान कृष्ण ने अपने प्यारे भगत नरसी की हुण्डी भरी थी।

2-बेट-द्वारका के टापू का पूरब की तरफ का जो कोना है, उस पर हनुमानजी का बहुत बड़ा मन्दिर है। इसीलिए इस ऊंचे टीले को हनुमानजी का टीला कहते है। आगे बढ़ने पर गोमती-द्वारका की तरह ही एक बहुत बड़ी चहारदीवारी यहां भी है। इस घेरे के भीतर पांच बड़े-बड़े महल है। ये दुमंजिले और तिमंजले है।इस द्विप में एक विशाल चौक में दुमंजिले तीन महल तथा तीन मंजिले पांच महल है। द्वार से होकर सीधे पूर्व की ओर जाने पर दाहिनी ओर श्रीकृष्ण भगवान का महल मिलता है। इसमे पूर्व की ओर प्रद्युमन का मंदिर है। तथा मध्य में श्रीरणछोडरायजी का मंदिर है। और इस महल की परिक्रमा में और भी कई मंदिर है। जो दर्शनीय है। पहला और सबसे बड़ा महल श्रीकृष्ण का महल है। इसके दक्षिण में सत्यभामा और जाम्बवती के महल है। उत्तर में रूक्मिणी और राधा के महल है। इन पांचों महलों की सजावट ऐसी है कि आंखें चकाचौंध हो जाती हैं। इन मन्दिरों के किबाड़ों और चौखटों पर चांदी के पतरे चढ़े हैं। भगवान कृष्ण और उनकी मूर्ति चारों रानियों के सिंहासनों पर भी चांदी मढ़ी है। मूर्तियों का सिंगार बड़ा ही कीमती है। हीरे, मोती और सोने के गहने उनको पहनाये गए हैं। सच्ची जरी के कपड़ों से उनको सजाया गया है।बेट-द्वारका में कई तालाब है-रणछोड़ तालाब, रत्न-तालाब, कचौरी-तालाब और शंख-तालाब। इनमें रणछोड तालाब सबसे बड़ा है। इसकी सीढ़िया पत्थर की है। जगह-जगह नहाने के लिए घाट बने है। इन तालाबों के आस-पास बहुत से मन्दिर है। इनमें मुरली मनोहर, नीलकण्ठ महादेव, रामचन्द्रजी और शंख-नारायण के मन्दिर खास है। लोग इन तालाबों में नहाते है और मन्दिर में फूल चढ़ाते है।

2-शंख-तालाब:-

रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस को मारा था। इसके किनारे पर शंख नारायण का मन्दिर है। शंख-तालाब में नहाकर शंख नारायण के दर्शन करने से बड़ा पुण्य होता है।

3-गोपी तालाब:-

गोपी तालाब भगवान श्रीकृष्ण के बचपन की याद मानी जाती है। इसी जगह पर भगवान श्रीकृष्ण वृंदावन की अन्य गोपियों के साथ रासलीला किया करते थे।कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण से दूर रहने की बेचैनी में आखिरी बार वृंदावन से गोपियां यहाँ पर नृत्य करने पहुंची थी। यहाँ पर पहुंचने के बाद आपको एक अलग ही भाव महसूस होगा।यहां एक कच्चा सरोवर है, जिसमें पीले रंग की मिट्टी है, जिसे गोपी चंदन कहा जाता है। कृष्ण भक्त उसका तिलक लगाते हैं।

4-नागेश्वर ज्योतिर्लिंग : -

02 POINTS;-

1-गुजरात के सौराष्ट्र जिले में गोमती नदी और बेट द्वारका द्वीप के बीच में स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से दूसरा ज्योतिर्लिङ्ग है।गोपी तालाब से 3 किमी और गोमती द्वारका से 10 किमी की दूरी पर नागेश्वर गांव है। यहां नागनाथ शिव का मंदिर है।यह मंदिर अपने आप में विशिष्ट हिंदू वास्तुकला की विशेषता रखता है, जिसे शिवलिंग पत्थर से बनाया गया है।इस शिवलिंग की खासियत यह है कि यह द्वारका शिला के नाम से प्रसिद्ध एक पत्थर से बनी है और इस पर छोटे-छोटे चक्र हैं। शिवलिंग का आकार अंडाकार त्रिमुखी रुद्राक्ष की तरह है। इस मंदिर में अन्य नागेश्वर मंदिरों के विपरीत, यहाँ के मूर्ती और शिवलिंग दक्षिण की ओर स्थापित है। इस मंदिर को नागनाथ मंदिर के नाम से भी जाना जाता हैभगवान शिव को समर्पित यह मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से दसवें क्रम में माना जाता है। यह मंदिर ‘दारुकवान’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। मंदिर के प्रांगण में भगवान शिव की 25 मीटर लंबी पद्मासन मुद्रा में बैठी हुई मूर्ति स्थापित की गई है। प्रांगण से होते हुए दायीं तरफ सभामंडप में प्रवेश करने पर नंदी और उसके ठीक सामने स्थापित शिवलिंग के दर्शन होते हैं। यह ज्योतिर्लिंग सभी प्रकार के विषों से सुरक्षा का प्रतीक है। कहा जाता है कि जो लोग नागेश्वर शिवलिंग से प्रार्थना करते हैं, वे विष से मुक्त हो जातेहैं।

2-इससे जुड़ा एक आख्यान भी है कि दारुका नाम का एक राक्षस भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त था। एक बार सुप्रिय नामक एक शिव भक्त नाव पर तीर्थयात्रियों के साथ यात्रा कर रहा था। उसी समय दारुका ने उनको बंदी बना लिया। सुप्रिय ने अपनेसाथियों के साथ ‘ऊं नम: शिवाय’ का जाप किया। क्रुद्ध दारुका ने उसे मारने की चेष्टा की, लेकिन भगवान शिव ने शिवलिंग के रूप में प्रकट होकर उनकी रक्षा की। तब से शिव के इस ज्योतिर्लिंग स्वरूप को नागेश्वर के रूप में पूजा जाता है। शिव पुराण के अनुसार, जो इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के बाद इसकी उत्पत्ति और महात्म्य को पढ़ता है, वह अंत में सभी भौतिक सुखों को त्याग कर मोक्ष प्राप्त करता है।यह शिवलिंग दक्षिणमुखी है और गोमुगम का मुख पूर्व की ओर है। माना जाता है कि नामदेव नाम का एक भक्त प्रभु के सामने भजन गा रहा था। अन्य भक्तों ने उसेभगवान के सामने से हटकर एक तरफ खड़े होने के लिए कहा। इसके लिए नामदेव ने उन्हें एक दिशा बताने के लिए कहा, जिसमें भगवान मौजूद नहीं हैं, ताकि वह वहां खड़े हो सकें। क्रोधित भक्तों ने उसे ले जाकर दक्षिण की ओर छोड़ दिया। कुछ समय बाद उन्होंने पाया कि शिवलिंग अब दक्षिण की ओर था और पूर्व की ओर गोमुगम का मुख था।इस मंदिर का गर्भगृहगृ उसके सभा मंडप से निचले तल पर है। वहां बने शिवलिंग पर एक चांदी का आवरण चढ़ाया जाता है। इस पर एक चांदी के नाग की आकृति बनी हुई है। इस शिवलिंग के पीछे माता पार्वती की मूर्ति स्थापित है। गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति केवल उन्हीं को है, जो अभिषेक करवाते हैं। गर्भगृह में प्रवेश से पहलेवस्त्र विशेष का प्रावधान है। यहां शिव जी का अभिषेक केवल गंगाजल से ही होता है।यह ज्योतिर्लिंग द्वारका शहर से 16 किलोमीटर दूर है।

5-द्वारका में गोमती ;-

द्वारका में पश्चिम और दक्षिण दिशा में एक बडा खाल है। जिसमे समुंद्र का जल भरा रहता है। इसे गोमती कहते है। यह कोई नदी नही है। इसी के कारण इस द्वारका को गोमती द्वारका कहते है। गोमती के तट पर नौ पक्के घाट बने है।गोमती नदी गंगा नदी की एक महत्वपूर्ण सहायक नदी है, जो हिंदू धर्म में अधिक पूजनीय नदियों में से एक है। इस नदी के मुहाने पर गोमती घाट स्थित थे। द्वारकाधीश मंदिर का दर्शन करने से पहले भक्तजन यहाँ पर आकर स्नान करते हैं ।यहाँ से द्वारकाधीश मंदिर पहुंचने के लिए लगभग 56 सीढ़ियों को चढ़ने की जरूरत पड़ती है। संध्या के समय यहाँ का दृश्य बहुत आकर्षक होता है।गोमती नदी और अरब सागर के संगम को देखने का भी एक अलग ही आनंद आता है।

6-कैलाश कुण्ड;-

इनके आगे यात्री कैलासकुण्ड़ पर पहुंचते है। इस कुण्ड का पानी गुलाबी रंग का है। कैलासकुण्ड के आगे सूर्यनारायण का मन्दिर है। इसके आगे द्वारका शहर का पूरब की तरफ का दरवाजा पड़ता है। इस दरवाजे के बाहर जय और विजय की मूर्तिया है। जय और विजय बैकुण्ठ में भगवान के महल के चौकीदार है। यहां भी ये द्वारका के दरवाजे पर खड़े उसकी देखभाल करते है। यहां से यात्री फिर निष्पाप कुण्ड पहुंचते है और इस रास्ते के मन्दिरों के दर्शन करते हुए रणछोड़जी के मन्दिर में पहुंच जाते है। यहीं परिक्रमाश्र खत्म हो जाती है। यही असली द्वारका है। इससे बीस मील आगे कच्छ की खाड़ी में एक छोटा सा टापू है। इस पर बेट-द्वारका बसी है। गोमती द्वारका का तीर्थ करने के बाद यात्री बेट-द्वारका जाते है। बेट-द्वारका के दर्शन बिना द्वारका का तीर्थ पूरा नहीं होता।

7-निष्पाप सरोवर

सरकारी घाट के पास एक छोटा सा सरोवर है, जो गोमती के खारे जल से भरा रहता है। यहां पिण्डदान भी किया जाता है। यहां स्नान के लिए सरकारी शुल्क देना होता है। इस निष्पाप सरोवर के पास एक छोटा सा कुंड है। उसके आगे मीठे जल के पांच कूप हैं। यात्री इन कूपों के जल से मार्जन तथा आचमन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस सरोवर में स्नान करने से समस्त पाप कट जाते हैं। इसीलिए इसमें स्नान करने के बाद यात्री गोमती में स्नान करते हैं।

8-चक्र तीर्थ;-

संगम-घाट के उत्तर में समुद्र के ऊपर एक और घाट है। इसे चक्र तीर्थ कहते है।चक्रघाट पर गोमती नदी अरब सागर में मिलती है। यहीं पर गोमती घाट मंदिर स्थित है। कहा जाता है कि यहां पर स्नान करने से मुक्ति मिलती है।द्वारकाधीश मंदिर के पिछले प्रवेश द्वार से गोमती नदी दिखायी देती है। गोमती और समुद्र के संगम पर ही भव्य समुद्र नारायण मंदिर (संगम नारायण मंदिर) भी है। इसी के पास रत्नेश्वर महादेव का मन्दिर है। इसके आगे सिद्धनाथ महादेवजी है, आगे एक बावली है, जिसे ‘ज्ञान-कुण्ड’ कहते है।

9-गोमती कुंड;-

गोमती कुंड द्वारका शहर में गोमती नदी तट के महत्वपूर्ण पवित्र स्थानों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि यह वह स्थान था जहाँ दुर्वासा की स्वयं भगवान ने सेवा की थी। गोमती कुंड न केवल धार्मिक महत्व का स्थान है, बल्कि विलय का एक सुंदर दृश्य भी है और अरब सागर के साथ इस नदी के विलय को देखने के लिए भी लोग यहां आते हैं।मान्यता है कि यदि आप इस स्थान पर एक बार जाते हैं तो आपके पाप धुल जाते हैं और यदि आप द्वारका जाते हैं तो आपको इस स्थान पर अवश्य जाना चाहिए और नदी में स्नान करना चाहिए।

10-रुक्मिणी देवी मंदिर.... यह मंदिर पुरातत्व कला का अप्रतिम नमूना है। मंदिर के दीवारों पर कृष्ण एवं रुक्मिणी के जीवन की झांकी प्रस्तुत करने वाली अनेकानेक कलाकृतियां अंकित हैं।द्वारका शहर में रुक्मणी देवी बहुत ही खूबसूरत पर्यटन स्थल है। रुक्मणी देवी भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी को समर्पित मंदिर है, जो द्वारका शहर से केवल दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर के दूर होने की पृष्ठभूमि में एक कथा भी प्रचलित है। एक बार भगवान कृष्ण एवं उनकी पटरानी रुक्मिणी ने श्री दुर्वासा ऋषि को अपने घर रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। अतिथि सत्कार के शिष्टाचार के अनुसार जब तक अतिथि भोजन न कर ले, मेजबान अन्न-जल ग्रहण नहीं कर सकते। लेकिन रुक्मिणी को बहुत जोर से प्यास लगी, तो उन्होंने कृष्ण से प्यास बुझाने का कोई उपाय सुझाने को कहा। तब कृष्ण ने अपने पैर से जमीन को खुरचा और वहां से गंगा की धार निकलने लगी। दुर्वासा ऋषि से आंख बचाकर रुक्मिणी जल पीने लगीं। इतने में दुर्वासा की नजर उन पर पड़ी और वे बिना उनकी अनुमति लिए जल ग्रहण करने पर बहुत क्रोधित हुए और उन्हें कृष्ण से दूर जाकर रहने का श्राप दे दिया। इसीलिए रुक्मिणी का मंदिर कृष्ण मंदिर से दूर स्थित है।

11-गीता मंदिर;-

द्वारका में स्थित प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक गीता मंदिर भागवत गीता को समर्पित मंदिर है, जिसका निर्माण 1970 में बिड़ला उद्योगपति परिवार के द्वारा किया गया था।इस मंदिर के निर्माण में सफेद संगेमरमर पत्थर का प्रयोग किया गया है। इस मंदिर की खासियत यह कि मंदिर के दीवारों पर पवित्र ग्रंथ भगवद गीत के कई छंद अंकित किये गए हैं।इस मंदिर के निर्माण का उद्देश्य भी हिंदुओं के धार्मिक पुस्तक भगवद गीत की शिक्षाओं और उसके मूल्यों को संरक्षित करना था। इस मंदिर में दर्शक गणों को ठहरने के लिए परिसर में व्यवस्था भी की गई है।

12-सुदामा सेतु...पांच पांडव के पंचकुंड ;-

द्वारका में एक और खूबसूरत पर्यटन स्थलों में से एक सुदामा सेतु है। इस पुल का उद्घाटन साल 2016 में गुजरात के मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के द्वारा किया गया था।इस पुल का नाम भगवान श्रीकृष्ण के बचपन के मित्र सुदामा के नाम पर पड़ा है। इस पूल से गोमती नदी को पैदल पार किया जा सकता है।यह सस्पेंशन ब्रिज प्राचीन जगत मंदिर और द्वीप पर पवित्र पवित्र पंचकुई तीर्थ को जोड़ता है। इस मार्ग में आपको प्राचीन लक्ष्मी नारायण मंदिर और पांच पांडव कुंड भी देखने को मिलेंगे।

इसके अतिरिक्त यहाँ से अरब सागर का सुहाना दृश्य बहुत ही मनमोहक लगता है।

13-स्वामीनारायण मंदिर;-

द्वारका में अरब सागर के तट पर स्थित स्वामीनारायण मंदिर द्वारका में बहुत ही लोकप्रिय खूबसूरत मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार स्वामी नारायण जी को समर्पित है।इस मंदिर को नई तकनीकों और आधुनिक वास्तुकला की मदद से निर्मित किया गया है। लेकिन इसकी दीवारों पर उभरे हुए नक्काशी और उसकी खूबसूरत वास्तुकला पर्यटकों को यहाँ रुकने के लिए बाध्य कर देती है।

14-भड़केश्वर महादेव मंदिर;-

भगवान शिव को समर्पित भड़केश्वर महादेव मंदिर, एक प्राचीन मंदिर है, जो लगभग 5000 साल पुराना है, जिसे अरब सागर में पाए गए एक स्वयंभू शिवलिंग के चारों ओर बनाया गया था। मंदिर हर साल मानसून के दौरान समुद्र में डूब जाता है, जिसे श्रद्धालु प्रकृति की अभिषेकम की धार्मिक प्रक्रिया के रूप में मानते हैं। पूरे साल मंदिर अपने आकर्षण और प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है।

15-चौरासी धुना; -

02 POINTS;-

1-भेंट द्वारका टापू में भगवान द्वारकाधीश के मंदिर से 7 कि॰मी॰ की दूरी पर चौरासी धुना नामक एक प्राचीन एवं एतिहासिक तीर्थ स्थल है।ब्रह्माजी के चारों मानसिक पुत्रो सनक, सनंदन, सनतकुमार और सनातन ने ब्रह्माजी की श्रृष्टि-संरचना की आज्ञा को न मानकर उदासीन संप्रदाय की स्थापना की और मृत्यु-लोक में विविध स्थानों पर भ्रमण करते हुए भेंट द्वारका में भी आये। उनके साथ उनके अनुयायियों के रूप में अस्सी ( 80) अन्य संत भी साथ थें| इस प्रकार चार सनतकुमार और 80 अनुयायी उदासीन संतो को जोड़कर 84 की संख्या पूर्ण होती है। इन्ही 84 आदि दिव्य उदासीन संतो ने यहाँ पर चौरासी धुने स्थापित कर साधना और तपस्चर्या की और ब्रह्माजी को एक एक धुने की एकलाख महिमा को बताया, तथा चौरासी धुनो के प्रति स्वरुप चौरासी लाख योनिया निर्मित करने का सांकेतिक उपदेश दिया। इस कारण से यह स्थान चौरासी धुना के नाम से जग में ख्यात हुआ।

2-कालांतर में उदासीन संप्रदाय के अंतिम आचार्य जगतगुरु उदासिनाचार्य श्री चन्द्र भगवान इस स्थान पर आये और पुनः सनकादिक ऋषियों के द्वारा स्थापित चौरासी धुनो को जागृत कर पुनः प्रज्वलित किया और उदासीन संप्रदाय के एक तीर्थ के रूप में इसे महिमामंडित किया। यह स्थान आज भी उदासीन संप्रदाय के अधीन है और वहां पर उदासी संत निवास करते हैं। आने वाले यात्रियों, भक्तों एवं संतों की निवास, भोजन आदि की व्यवस्था भी निःशुल्क रूप से चौरासी धुना उदासीन आश्रम के द्वारा की जाती है। जो यात्री भेंट द्वारका दर्शन हेतु जाते हैं वे चौरासी धुना तीर्थ के दर्शन हेतु अवश्य जाते हैं। ऐसी अवधारणा है कि चौरासी धुनो के दर्शन करने से मनुष्य की लाख चौरासी कट जाती है, अर्थात उसे चौरासी लाख योनियों में भटकना नहीं पड़ता और वह मुक्त हो जाता है।

16-द्वारका बीच ;-

अरब सागर तट के साथ, द्वारका बीच शाम को समय बिताने के लिए अच्छी है। स्थानीय लोगों और पर्यटकों दोनों के बीच लोकप्रिय, द्वारका बीच शहर के मुख्य मंदिरों के काफी करीब स्थित है। द्वारका के मुख्य शहर से लगभग 30 किमी दूर स्थित बेयट द्वारका एक छोटा सा द्वीप है और ओखा के विकास से पहले इस क्षेत्र का मुख्य बंदरगाह था। जबकि द्वीप कुछ मंदिरों, सफेद रेत समुद्र तट और प्रवाल भित्तियों से घिरा हुआ है, यह समुद्र तट पर्यटकों के बीच अपने समुद्री जीवन, समुद्री भ्रमण, शिविर और पिकनिक के लिए भी लोकप्रिय है।

द्वारिका से करीब दो सौ किलोमीटर दूरी पर सोमनाथ....

सोमनाथ मंदिर ;-

02 POINTS;-

1-प्रमुख तीर्थ श्रीकृष्ण की द्वारिका से करीब दो सौ किलोमीटर दूरी पर सोमनाथ है।यह मंदिर भारत देश के गुजरात राज्य में सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल शहर में समुद्र के किनारे स्थित है। इससे जुड़ी एक कहानी काफी लोकप्रिय है। कहानी के अनुसार वर्तमान समय में बना सोमनाथ मंदिर देश की आजादी के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल जी द्वारा बनवाया गया था। इससे पहले इतिहास में यह मंदिर कई बार बनाया गया था और इससे कई बार किसी आक्रमण द्वारा शासकों ने तुड़वाया भी था।

हिंदू ग्रंथों के अनुसार सोमनाथ मंदिर की स्थापना स्वयं चंद्रमा देव ने कराया था। सोम सोमराज, चंद्र देवता का दूसरा नाम है। कथाओं के अनुसार चंद्र देवता ने दक्ष प्रजापति की 27 पुत्रियों से विवाह किया था। परंतु चंद्र उनमें से केवल रोहिणी को अधिक प्रेम करता था। चंद्र के सिर्फ रोहिणी को अत्यधिक प्रेम करने के चलते पिता दक्ष प्रजापति नाराज हो गए और उन्होंने चंद्र देवता को श्राप दे दिया। श्राप में कहा गया कि चंद्रदेव आप धीरे-धीरे नष्ट हो जाएंगे और जो आपके अंदर चमक है वह भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी।इसके पश्चात चंद्रदेव ने तपस्या की और सभी देवताओं से जाकर उन्होंने इस श्राप को हटाने का उपाय पूछा। चंद्र देेव को भगवान शिव की आराधना करने के लिए ब्रह्मा ने कहा। जिसके पश्चात चंद्रदेव ने भगवान शिव की घोर तपस्या की और आखिरकार अपने अंतिम समय के अंतर्गत उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया। कहा जाता है कि श्राप के कारण चंद्र देव नष्ट होने ही वाले थे तभी भगवान शिव ने स्वयं प्रकट होकर उनको बचाया।भगवान शिव ने प्रकट होकर चंद्रदेव से कहा कि मैं तुम्हारा श्राप तो खत्म नहीं कर सकता लेकिन इसे कम जरूर कर सकता हूं। इसके पश्चात भगवान शिव ने चंद्रदेव को आशीर्वाद दिया कि तुम महीने के 15 दिन घटोगे और 15 दिन बड़ोगे। इसके पश्चात से ही चंद्रमा महीने में सभी दिनों में घटते बढ़ते रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि तपस्या करते हुए जो अंतिम रूप चंद्र देव का बचा हुआ था, उसे भगवान शिव ने अपने सिर पर धारण कर लिया।

2-चंद्रमा के इस अंतिम स्वरूप को आज भी भगवान शिव के माथे पर देखा जा सकता है। अपनी नई जीवन के लिए चंद्र काफी प्रसन्न थे और उन्होंने भगवान शिव के विश्राम करने के लिए एक मंदिर बनाया जिसे आज सभी लोग सोमनाथ मंदिर के नाम से जानते हैं।सोमनाथ मंदिर पर कुल 17 बार आक्रमण हुए और हर बार मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया। समुद्र के किनारे मंदिर के दक्षिण में एक बाण स्तंभ है। ये बाण स्तंभ बहुत प्राचीन है। इस बात की जानकारी किसी के पास नहीं है कि इसे कब बनाया गया था। लेकिन इतिहास की गहराइयों में जाने के बाद 6वीं शताब्दी से बाण स्तंभ का उल्लेख इतिहास में मिलता है। इसके जानकार बताते हैं कि बाण स्तंभ एक दिशादर्शक स्तंभ है, जिसके ऊपरी सिरे पर एक तीर (बाण) बनाया गया है। जिसका मुंह समुद्र की ओर है। इस बाण स्तंभ पर लिखा है आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव, पर्यंत अबाधित ज्योतिमार्ग। इसका मतलब ये है कि समुद्र के इस बिंदु से दक्षिण ध्रुव तक सीधी रेखा में एक भी अवरोध या बाधा नहीं है। इस पंक्ति का सरल अर्थ यह है कि सोमनाथ मंदिर के उस बिंदु से लेकर दक्षिण ध्रुव तक अर्थात अंटार्टिका तक एक सीधी रेखा खिंची जाए तो बीच में एक भी पहाड़ या भूखंड का टुकड़ा नहीं आता है।

3-यह लिंग शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से पहला ज्योतिर्लिंग माना जाता है।यह मंदिर गर्भगृह, सभामंडप और नृत्यमंडप- तीन प्रमुख भागों में विभाजित है। इसका 150 फुट ऊंचा शिखर है। इसके शिखर पर स्थित कलश का भार दस टन है और इसकी ध्वजा 27 फुट ऊंची है। इसके अबाधित समुद्री मार्ग- त्रिष्टांभ के विषय में ऐसा माना जाता है कि यह समुद्री मार्ग परोक्ष रूप से दक्षिणी ध्रुव में समाप्त होता है। यह हमारे प्राचीन ज्ञान व सूझबूझ का अद्‍भुत साक्ष्य माना जाता है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण महारानी अहिल्याबाई ने करवाया था।इस वास्तु अनुकूलता के कारण यह मन्दिर भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है और साथ ही मंदिर में पर्याप्त धन का आगमन होता रहा है। इसलिए बार-बार ध्वस्त होने के बाद भी हर बार यह मन्दिर बनता रहा।

सोमनाथ मन्दिर के आसपास दो महत्वपूर्ण हिन्दू धार्मिक स्थल है। जिस कारण से इस क्षेत्र का ओर भी महत्व बढ़ जाता है। मन्दिर से पांच किमी. की दूरी पर भालका तीर्थ है, लोक कथाओं के अनुसार यहीं पर श्रीकृष्ण ने देहत्यागा था और एक किलोमीटर दूर तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। त्रिवेणी नदी में धार्मिक दृष्टि से स्नान का बहुत महत्व है, क्योंकि इसी त्रिवेणी पर श्रीकृष्ण जी की नश्वर देह का अग्नि संस्कार किया गया था।ऐसा माना जाता है की भगवान कृष्णा की स्यमंतक मणि सोमनाथ मंदिर के शिवलिंग में स्थापित है।

4-भालका तीर्थ ;-

सोमनाथ मंदिर से करीब 5 किलोमीटर दूर गुजरात के वेरावल में स्थित है जिसका नाम भालका तीर्थ स्थल है। मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर में श्री कृष्ण नें अपनी का देह त्याग किया था। लोगों का मानना है कि भगवान कृष्ण यहां आने वालों की सभी मुरादें पूरी करते हैं। इस स्थान पर एक पीपल का पेड़ भी है जो करीब 5 हजार साल पुराना है और अभी तक हरा-भरा है। यहां आने वाले लोग इस पेड़ की भी पूजा करते हैं।महाभारत के अनुसार प्रभास द्वारिका के अंतर्गत एक प्राचीन तीर्थ है।इसी जगह पर इतिहास प्रसिध्द सोमनाथ मंदिर है।किंवदंती के अनुसार जरा नामक व्याघ का बाण लगने से भगवान श्रीकृष्ण इसी स्थान पर परम धाम सिधारे थे। महाभारत के अनुसार यह सरस्वती-समुद्र संगम पर स्थित प्रसिद्ध तीर्थ था। प्रभास तीर्थ के हिरण नदी के किनारे भगवान श्रीकृष्ण ने अपना देहत्याग करके परमधाम को प्रस्थान किया था।लोक कथाओं के अनुसार महाभारत युद्ध खत्म होने के बाद 36 साल बाद तक यादव कुल मद में आ गए। आपस में लड़ने लगे। इसी कलह से परेशान होकर कृष्ण सोमनाथ मंदिर से करीब सात किलोमीटर दूर वैरावल की इस जगह पर विश्राम करने आ गए। ध्यानमग्र मुद्दा में लेटे हुए थे तभी जरा नाम के भील को कुछ चमकता हुआ नजर आया। उसे लगा कि यह किसी मृग की आंख है और बस उस ओर तीर छोड़ दिया, जो सीधे कृष्ण के बाएं पैर में जा धंसा।जब जरा करीब पहुंचा तो देखकर भगवान से इसकी माफी मांगने लगा। जिसे उसने मृग की आंख समझा था, वह कृष्ण के बाएं पैर का पदम था, जो चमक रहा था। भील जरा को समझाते हुए कृष्ण ने कहा कि क्यों व्यर्थ ही विलाप कर रहे हो, जो भी हुआ वो नियति है।यह विशिष्ट स्थल या देहोत्सर्ग तीर्थ नगर के पूर्व में हिरण्या, सरस्वती तथा कपिला के संगम पर बताया जाता है। इसे प्राची त्रिवेणी भी कहते हैं।बाण लगने से घायल भगवान कृष्ण भालका से थोड़ी दूर पर स्थित हिरण नदी के किनारे पहुंचे। कहा जाता है कि उसी जगह पर भगवान पंचतत्व में ही विलीन हो गए।हिरण नदी सोमनाथ से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है। यहां नदी के किनारे आज भी भगवान के चरणों के निशान मौजूद हैं। इस जगह को आज दुनिया भर में देहोत्सर्ग तीर्थ के नाम से मशहूर है।देहोत्सर्ग के आगे यादव स्थली है, जहाँ यादव लोग परस्पर लड़भिड़ कर नष्ट हो गए थे। प्रभासपाटन का जैन साहित्य में 'देवकीपाटन' नाम भी मिलता है।युधिष्ठिर तथा अन्य पांडवों ने अपने वनवास काल में अन्य तीर्थों के साथ प्रभास की भी यात्रा की थी।

सोमनाथ मंदिर कैसे पहुंचे?

हवाई जहाज से - अगर आपने सोमनाथ मंदिर जाने के लिए हवाई मार्ग का चुनाव किया है तो सोमनाथ में कोई हवाई अड्डा नहीं है। आपको यहां से लगभग 85 किलोमीटर की दूरी पर दीव हवाई अड्डा मिलेगा आप यहां से देश के मुख्य शहरों तक आसानी से पहुंच सकते हैं। यह हवाई अड्डा सोमनाथ से सबसे नजदीक का हवाई अड्डा है।सोमनाथ मंदिर तक ट्रेन द्वारा जाना आपके लिए काफी आसान रहेगा क्योंकि मंदिर से केवल 1.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है रेलवे स्टेशन। आप यहां से पैदल ही मुख्य मंदिर तक पहुंच सकते हैं।

द्वारका कैसे जाएं ?-

द्वारका जाने के लिए अक्तूबर से मार्च का समय बहुत अच्छा रहता है। अगस्त सितंबर में यहां कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर विशाल महोत्सव का आयोजन भी किया जाता है।द्वारका पहुंचने के लिए कोई भी सीधी फ्लाइट नहीं है। द्वारका से सबसे नजदीक का एयरपोर्ट जामनगर है जो यहां से 147 किलोमीटर दूर है। इसके अलावा आप पोरबंदर एयरपोर्ट तक की फ्लाइट भी ले सकते हैं। यह एयरपोर्ट द्वारका से करीब 98 किलोमीटर दूर है। एयरपोर्ट से आप कैब ले सकते हैं, जो आपको सीधे द्वारकाधीश मंदिर पहुंचाएगी। दोनों एयरपोर्ट्स के लिए देश के बड़े शहरों से आसानी से फ्लाइट मिल जाएगी।

रेलवे स्टेशन;-

द्वारका में भी आपको एक रेलवे स्टेशन देखने को मिल जाएगा, लेकिन यह एक छोटा रेलवे स्टेशन होने की वजह से अगर आपको आपके शहर से द्वारका रेलवे स्टेशन के लिए ट्रेन ना मिले, तो आप राजकोट जंक्शन भी पहुंच सकते हैं, जहां से द्वारका मंदिर की दूरी करीब 225 किमी. है। राजकोट के लिए आपको कई बड़े शहरों से डायरेक्ट ट्रेन मिल जाएगी, लेकिन अगर आपको राजकोट जंक्शन के लिए भी कोई ट्रेन ना मिले, तो आप अहमदाबाद जंक्शन के लिए ट्रेन पकड़ सकते हैं। द्वारका मंदिर से करीब 440 किमी. दूर अहमदाबाद जंक्शन अपने आसपास का काफी फेमस रेलवे स्टेशन है और अहमदाबाद के लिए आपको देश के लगभग 90% बड़े रेलवे स्टेशनों से डायरेक्ट ट्रेन मिल जाएगी।राजकोट और अहमदाबाद रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद आपको वहां से द्वारका मंदिर जाने के लिए ट्रेन के साथ-साथ कई सारी बस और टैक्सी भी आसानी से मिल जाएगी। यानी कि अहमदाबाद और राजकोट से द्वारका मंदिर पहुंचने में आपको कोई भी तकलीफ नहीं होगी।

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