पहले शब्द से जगत को जानो और फिर शून्य से स्वयं को जानना होता है।
अपनी उस गहराई को जानना है, जहां सत्ता है, सागर है, पर तरंगें नहीं हैं।हम बाहर देख रहे हैं ,वस्तुओं को ,संसार को देख रहे हैं।पर एक बात हैं कि ‘ हम देख ‘ रहे हैं।जो दिखाई पड़ता है वह संसार है, पर जो देख रहा है, वह तो संसार नहीं है।वह तो स्व है।दृष्टि दृश्य से बंधी हो, तो विचार है; दृष्टि दृश्य से मुक्त हो.. द्रष्टा पर आ जाए, तो ध्यान है।यह विचार और ध्यान का भेद हैं।दर्शन/देखना तो दोनों में उपस्थित है, पर एक में वह विषयगत/ऑब्जेक्टिव है, दूसरे में आत्मगत, सब्जेक्टिव है।पर हम विचार में हों या ध्यान में हों, दर्शन तो दोनों में ही उपस्थित होता है।हम क्रिया में हों या अक्रिया में ‘दर्शन’ तो दोनों में ही उपस्थित रहता है।जागृति में संसार को देखते हैं, निद्रा में स्वप्न को देखते हैं, समाधि में स्वयं को देखते हैं, पर देखना हर स्थिति में साथ होता है।यह ‘देखना ‘ हममें अविच्छिन्न है।
जब तरंगें नहीं होती हैं, तब सागर के दर्शन होते हैं। और जब बादल नहीं होते हैं तो नीलाकाश के दर्शन होते हैं।यह सागर प्रत्येक के भीतर है, और यह आकाश/स्पेस प्रत्येक के भीतर है। हम इस आकाश को जानना चाहते हैं, तो निश्चय ही जान सकते हैं। इस आकाश तक पहुंचने का रास्ता भी है। वह भी प्रत्येक के ही पास है और हममें से प्रत्येक उस पर चलना भी जानता है। पर हम केवल एक ही दिशा, डायरेक्शन में चलना जानते हैं। क्या आपने इस सत्य पर कभी विचार किया है कि कोई भी रास्ता केवल एक दिशागामी नहीं हो सकता है? प्रत्येक राह अनिवार्यत: दो दिशाओं में, दो विपरीत दिशाओं में सत्ता रखती है। उसके होने के लिए ही यह अनिवार्य है कि वह एक ही साथ दो विपरीत दिशाओं में हो, अन्यथा वह हो ही नहीं सकती है। जो मार्ग आपको यहां इस पहाड़ी निर्जनता तक ले आया है, वही आपको वापस भी ले जाएगा। आने का और जाने का मार्ग एक ही है। वही मार्ग दोनों काम करेगा।मार्ग तो वही होगा, केवल दिशा वही नहीं होगी।
’संसार’ और ‘स्व’ का मार्ग तो एक ही है।जो संसार में लाता है, वही स्वयं में भी ले जाएगा।केवल दिशा विपरीत होगी।अभी तक जो सामने था, वही अब पीछे होगा। और जो पीठ की ओर था, उस पर आंखें करनी होंगी।रास्ता वही है, केवल हमें विपरीत मुड़ जाना है।सन्मुख से विमुख और विमुख से सन्मुख होना है।हमारी दर्शन की, चैतन्य की धारा किस दिशा में प्रवाहित हो रही हैं हम अभी किसके सन्मुख हैं ,किसे देख रहे हैं इसका विचार और अनुभव करें।वास्तव में, चौबीस घंटे ,सब विचार बाहर के संबंध में चल रहे हैं।आँख खुलती है तो बाहर देखते हैं, और आँख बंद होती है तो बाहर देखते हैं, क्योंकि बाहर से अंकित रूप ,चित्र, इमेजेस आँख बंद होने पर जाग जाते हैं, और हमें घेर लेते हैं।एक वस्तुओं का जगत बाहर है और भीतर भी बाहर से प्रतिध्वनित एक विचारों का जगत है। गहरा निरीक्षण करेंगे तो ज्ञात होगा कि वस्तुओं का घेरा नहीं बल्कि विचार का घेरा आत्मज्ञान के लिए बाधा है। वस्तुएं , पदार्थ केवल पदार्थ को घेरता है ...आत्मा को नहीं। दर्शन की, चैतन्य की धारा तो विचार की ओर बहती है। इसीलिए आत्मा विचार से घिरती रही है।
विचार से विमुख होना है और निर्विचार /थॉटलेसनेस के सन्मुख होना है। यही दिशा क्रांति है।विचार कैसे पैदा होते हैं ;यह जानना जरूरी है, तभी उन्हें जन्मने से रोका जा सकता है।साधारणतया उनकी उत्पत्ति के सत्य को जाने बिना ही साधक उनके दमन/सप्रेशन में लग जाते हैं। इससे विक्षिप्त तो कोई हो सकता है, विमुक्त नहीं हो सकता है। विचार के दमन से कोई अंतर नहीं पड़ता है, क्योंकि वे प्रतिक्षण नये-नये उत्पन्न हो जाते हैं। वे पौराणिक कथाओं के उन राक्षसों की भांति हैं, जिनके एक सिर को काटने पर दस सिर पैदा हो जाते थे।विचारों को मारने की आवश्यकता नहीं हैं ; वे तो स्वयं ही प्रतिक्षण मरते रहते हैं।विचार बहुत अल्पजीवी है। कोई भी विचार ज्यादा नहीं टिकता है , पर विचार-प्रक्रिया/थॉट प्रोसेस टिकती है।एक-एक विचार तो अपने आप मर जाता है, पर विचार-प्रवाह नहीं मरता है। एक विचार मर भी नहीं पाता है कि दूसरा उसका स्थान ले लेता है। विचार की मृत्यु नहीं, उसकी त्वरित उत्पत्ति वास्तविक समस्या है।इसलिए विचार को मारने की नहीं बल्कि उसकी त्वरित उत्पत्ति को समझने और उससे मुक्त होने की आवश्यकता हैं।
जो विचार की त्वरित उत्पत्ति के विज्ञान को समझ लेता है, वह उससे मुक्त होने का मार्ग सहज ही पा जाता है।और जो यह नहीं समझता है, वह स्वयं ही एक ओर विचार पैदा किए जाता है और दूसरी ओर उनसे लड़ता भी है। इससे विचार तो नहीं टूटते, बल्कि वह स्वयं ही टूट जाता है।विचार की उत्पत्ति पर विरोध हो तो जन्मे विचार तो क्षण में विलीन हो जाते हैं।उनका क्षय तो प्रतिक्षण हो रहा है, पर नयों का आगमन भी होता चला जाता है।वास्तव में, कोई भी विचार दीर्घजीवी नहीं है बल्कि वह जन्मता है और मर जाता है।इस जगत के प्रति हमारी प्रतिक्रिया ही हमारे विचारों की जन्मदात्री है।हम एक फूल को देखते है...‘ देखना’ कोई विचार नहीं है और यदि हम देखते ही रहे तो कोई विचार पैदा नहीं होगा।यदि हम देखते ही कहते है कि ‘ फूल बहुत सुंदर है ‘ तो विचार का जन्म हो जाता है।यदि हम मात्र देखे तो सौंदर्य की अनुभूति तो होगी, पर विचार का जन्म नहीं होगा। पर अनुभूति होते ही हम उसे शब्द देने में लग जाते हैं।
अनुभूति को शब्द देते ही विचार का जन्म हो जाता है।यदि हम मात्र देखते ही रहे और कोई शब्द इस दर्शन को न दे तो आप पाएंगे कि एक अलौकिक शांति मेरे भीतर अवतरित हो रही है, एक शून्य परिव्याप्त हो रहा है, क्योंकि शब्द का न होना ही शून्य है, और इस शून्य में चेतना की दिशा परिवर्तित होती है। फिर आप ही नहीं दिखते हैं, वरन क्रमश: वह भी उभरने लगता है जो कि आपको देख रहा है। चेतना-क्षितिज पर एक नया जागरण होता है जैसे कि हम किसी स्वप्न से जाग उठे हों और एक निर्मल आलोक से और एक अपरिसीम शांति से चित्त भर जाता है।इस आलोक में स्वयं का दर्शन होता है।इस शून्य में सत्य का अनुभव होता है। इस प्रयोग को स्मृति में, अवेअरनेस में रखना है ...शब्द में नहीं। शब्द केवल हमारी एक आदत है।एक नवजात शिशु तो जगत को बिना शब्द के देखता है। वह शुद्ध प्रत्यक्षीकरण है। फिर धीरे-धीरे वह शब्द की आदत सीखता है, क्योंकि बाह्य जगत और जीवन के लिए वह सहयोगी और उपयोगी है।पर जो बाह्य जीवन के लिए सहयोगी है, वही अंतस जीवन को जानने में बाधा हो जाता है। और इसलिए एक बार फिर वृद्धों को भी नवजात शिशु के शुद्ध दर्शन को जगाना पड़ता है, ताकि वे स्वयं को जान सकें।शब्द से जगत को जाना, फिर शून्य से स्वयं को जानना होता है।
EXERCISE/प्रयोग;-
STEP 01
इस प्रयोग में हम शांत बैठेंगे। शरीर को शिथिल, रिलैक्स और रीढ़ को सीधा रखेंगे। शरीर के सारे मूवमेंट को छोड़ देंगे। शांत, धीमी, पर गहरी श्वास लेंगे....और मौन, अपनी श्वास को देखते रहेंगे और जो बाहर की ध्वनियां सुनाई पड़े, उन्हें सुनते रहेंगे। कोई प्रतिक्रिया या उन पर कोई विचार नहीं करेंगे। शब्द न हों और हम केवल साक्षी हैं, जो भी हो रहा है, हम केवल उसे दूर खड़े जान रहे हैं.. ऐसे भाव में अपने को छोड़ देंगे। कहीं कोई एकाग्रता/कनसनट्रेशन नहीं करनी है। बस चुप जो भी हो रहा है उसके प्रति जागरूक बने रहना है।आंखें बंद कर लो और सुनो।
STEP 2
चुपचाप मौन में सुनो। चिड़ियों की चहचहाहट , हवाओं के वृक्षों को हिलाते थपेड़े, किसी बच्चे का रोना आदि आवाज और बस सुनते रहो । अपने भीतर श्वास का स्पंदन और हृदय की धड़कन और फिर एक अभिनव शांति और सन्नाटा उतरेगा और आप पाओगे कि बाहर ध्वनि है पर भीतर निस्तब्धता है। और आप पाओगे कि एक नये शांति के आयाम में प्रवेश हुआ है।तब विचार नहीं रह जाते हैं, केवल चेतना रह जाती है। और इस शून्य के माध्यम में ध्यान, अटेंशन उस ओर मुड़ता है जहां हमारा आवास है। हम बाहर से घर की ओर मुड़ते हैं।
STEP 3
दर्शन बाहर लाया है, दर्शन ही भीतर ले जाता है। केवल देखते रहो ..देखते रहो ...विचार को, श्वास को, नाभि स्पंदन को। और कोई प्रतिक्रिया मत करो। और फिर कुछ होता है, जो हमारे चित्त की या हमारी सृष्टि नहीं है वरन जो हमारा होना है,अस्तित्व है ।फिर जिसने हमें धारण किया है वह उदघाटित हो जाता है और हम आश्चर्यों के आश्चर्य स्वयं के समक्ष खड़े हो जाते हैं। जैसे एक साधु कर कुछ भी नहीं रहा है... केवल खड़ा ही है / जस्ट स्टैंडिंग, जस्ट एञ्जिस्टिंग।’ऐसे ही बस होना है। कुछ भी नहीं करना है। सब छोड़ देना है और रह जाना है। फिर कुछ होगा...वह अनुभूति जिसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता है।
....SHIVOHAM....
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