ध्यान में कैसे होना चाहिए ?क्या है साधना के 04 STEPS?
ध्यान में कैसे होना चाहिए ?-
16 FACTS;-
1-संसार की खोज होती है, स्वयं की खोज नहीं होती है।और जो स्वयं को ही खोजने निकल पड़ते हैं, वे स्वयं से और दूर ही निकल जाते हैं।यह सत्य ठीक से समझ लेना आवश्यक है, तो खोज हो भी सकती है।जिस अर्थ में शेष सब खोजा जा सकता है, 'स्व' उसी अर्थ में नहीं खोजा जा सकता है। क्योकि वहां जो खोज रहा है, और जिसे खोज रहा है, उन दोनों में दूरी नहीं है। संसार को पाना हो तो बाहर खोजना पड़ता है और यदि स्वयं को पाना हो तो सब खोज छोड़ कर अनुद्विग्न और स्थिर होना पड़ता है।उस पूर्ण शांति और शून्य में ही उसका दर्शन होता है, जो कि ‘ मैं हूं।वास्तव में,खोज भी एक उद्विग्नता ,एक तनाव , एक चाह और वासना भी है।और वासना से आत्मा को नहीं पाया जा सकता है ...वही तो बाधा है।वासना का अर्थ है कि मैं कुछ होना चाहता हूं या कि कुछ पाना चाहता हूं।और आत्मा वह है जो कि मुझे उपलब्ध ही है, जो कि मैं हूं ही और जिसे खोना है।वासना और आत्मा की दिशाएं विपरीत हैं।वे विरोधी डाइमेन्शन हैं।इसलिए, यह ठीक से समझ लें कि आत्मा को पाया तो जा सकता है, पर चाहा नहीं जा सकता है।आत्मा की कोई चाह नहीं हो सकती है।सब चाह सांसारिक है, और कोई चाह आध्यात्मिक नहीं है।
2-वासना ही तो संसार है।फिर यह वासना धन की हो या धर्म की, पद की हो या प्रभु की, मद की हो या मोक्ष की, उसमें कुछ भेद नहीं है। वासना वासना है और सब वासना अज्ञान है और बंधन है। वासना का ज्ञान वासना से मुक्त कर देता है,क्योंकि उसके दुखस्वरूप को प्रकट कर देता है। दुख का बोध दुख से मुक्ति है, क्योंकि दुख को जान कर कोई दुख को नहीं चाह सकता है। और उस क्षण जब कोई चाह नहीं होती है और चित्त वासना से विक्षुब्ध नहीं होता है, और हम कुछ खोज नहीं रहे होते हैं-उसी क्षण, उस शांत और अकंप क्षण में ही उसका अनुभव होता है, जो कि हमारा वास्तविक होना /ऑथेंटिक बीइंग है। वासना जब नहीं होती है, तब आत्मा प्रकट होती है।इसलिए आत्मा को मत चाहो, चाह को जानो और उससे मुक्त हो जाओ, तो तुम उसे जान लोगे और पा लोगे जो कि आत्मा है।
3-धर्म का विचार से, चिंतन, थिंकिंग से कोई संबंध नहीं है। उसका संबंध निर्विचारणा से है। विचार तत्वमीमांसा /फिलॉसफी है।उससे निष्पत्तिया /Output तो आती हैं, पर समाधान नहीं आता है।धर्म समाधान है। विचार का द्वार तर्क है। समाधान का द्वार शून्य चैतन्य समाधि अथार्त कटेंटलेस कांशसनेस है। चित्त शून्य हो पर जाग्रत, वाँचफुल हो, उस शांत स्थिति में सत्य के द्वार खुलते हैं। शून्य में ही सत्य का साक्षात होता है, और परिणामस्वरूप सारा जीवन परिवर्तित हो जाता है। शून्य तक, समाधि तक ध्यान से पहुंचते हैं। पर साधारणत: जिसे ध्यान समझा जाता है, वह ध्यान नहीं है। वह भी चिंतन ही है। हो सकता है कि वे विचार आत्मा के हों या परमात्मा के हों, पर वे भी विचार ही हैं। इससे भेद नहीं पड़ता है कि विचार किसके हैं।विचार मात्र वस्तुत: पर का, अन्य का, बाह्य का होता है।विचार मात्र अनात्म का होता है।’ स्व’ का कोई विचार नहीं हो सकता है। विचार के लिए दो का होना जरूरी है।
4-विचार, इसलिए द्वैत के बाहर नहीं ले जाता है।अद्वैत के लिए , स्व में चलना है, और उसे जानना है।तो विचार ध्यान मार्ग नहीं है। विचार और ध्यान बिलकुल विपरीत दिशाएं हैं-एक बहिर्गामी है, एक अंतर्मुखी है। विचार ‘पर’ को जानने का मार्ग है, ध्यान ‘स्व’ को जानने का। पर साधारणत: विचार को ही ध्यान समझ लिया गया है। यह भूल बहुत गहरी और बड़ी है और हमें इस आधारभूत भूल के प्रति सजग होना चाहिए।ध्यान का अर्थ है क्रियाहीन होना। ध्यान क्रिया नहीं, अवस्था है। वह अपने स्वरूप में होने की स्थिति है। क्रिया में हम अपने से बाहर के जगत से संबंधित होते हैं। अक्रिया में स्वयं से संबंधित होते हैं। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, तब हमें उसका बोध होता है जो कि हम हैं। अन्यथा, क्रियाओं में व्यस्त हम स्वयं से ही अपरिचित रह जाते हैं।यह स्मरण भी नहीं हो पाता है कि हम भी हैं। हमारी व्यस्तता बहुत सघन है। शरीर तो विश्राम भी कर ले, मन तो विश्राम करता ही नहीं है।जागते हम सोचते हैं, सोते स्वप्न देखते हैं। इस सतत व्यस्तता और क्रिया से घिरे हुए, हम स्वयं को भूल ही जाते हैं।अपनी ही क्रियाओं की भीड़ में अपना ही खोना हो जाता है।
5-यह आश्चर्यजनक है ,पर यही हमारी वस्तुस्थिति है। हम खो गए हैं..किन्हीं अन्य लोगों की भीड़ में नहीं, अपने ही विचारों, अपने ही स्वप्नों, अपनी ही व्यस्तताओं और अपनी ही क्रियाओं में। हम अपने ही भीतर खो गए हैं।ध्यान इस स्वनिर्मित भीड़ से, इस कल्पित भटकन से बाहर होने को मार्ग है। निश्चित ही वह स्वयं कोई क्रिया नहीं हो सकता है। वह कोई व्यस्तता नहीं है।ध्यान अव्यस्त/अनऑक्युपाइड माइंड का नाम है।मनुष्य की भाषा बहुत कमजोर है और बहुत सीमित है। वह क्रियाओं को ही प्रकट करने को बनी है, इसलिए आत्मा को प्रकट करने में सदा असमर्थ हो जाती है। निश्चित ही जो वाणी के लिए निर्मित है, वह मौन को कैसे अभिव्यक्त कर सकती है।‘ध्यान’ शब्द से प्रतीत होता है कि वह कोई क्रिया है, पर वह क्रिया बिलकुल भी नहीं है।वह बात प्रेम जैसी ही है क्योकि हम प्रेम में होते है ... प्रेम किया नहीं जाता है।
6-इसलिए ध्यान एक चित्त अवस्था/स्टेट ऑफ माइंड है।ध्यान में हम उस स्थिति को अनुभव करते हैं, जब बस केवल हम होते हैं, और कोई क्रिया हममें नहीं होती है।बस ‘मैं’ ही रह जाता हूं। यह विचार भी नहीं रह जाता है कि ‘ मैं हूं।’ बस ‘ होना मात्र’ ही रह जाता है। इसे ही शून्य समझें।यही वह बिंदु है जहां से संसार का नहीं, सत्य का दर्शन होता है। इस शून्य में ही वह दीवार गिर जाती है, जो हमें स्वयं को जानने से रोके हुए है। विचार के पर्दे उठ जाते हैं और प्रज्ञा का आविर्भाव होता है। इस सीमा में विचार नहीं, यहां साक्षात दर्शन है।यद्यपि न ‘दर्शन’ शब्द ठीक है, न ‘साक्षात’ शब्द ठीक है। क्योंकि यहां ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं है, क्योंकि यहां दृश्य, ऑब्जेक्ट और द्रष्टा, सब्जेक्ट का भेद नहीं है। यहां न ज्ञेय /नोन है, न ज्ञाता/नोअर है। यहां तो केवल ज्ञान/ नॉलेज ही है।यहां तो कोई भी शब्द ठीक नहीं है; केवल निःशब्द ही ठीक है।
7-ध्यान अक्रिया है।क्रिया हम उसे कहते हैं जिसको हम चाहें तो करें, चाहें तो न करें। स्वभाव क्रिया नहीं है। वह हमारा करना न करना, नहीं है। उदाहरण के लिए ज्ञान और दर्शन हमारे स्वभाव के अंग हैं। वे हमारी सत्ता हैं। हम कुछ भी न करें, तब भी वे होंगे ही।स्वभाव की उपस्थिति हममें अविच्छिन्न है।जो सतत और अविच्छिन्न है, उसे ही स्वभाव कहा जाता है।वह हमारा निर्माण नहीं, हमारा आधार है ..वही हम हैं। हम उसे नहीं बनाते हैं, वही हमें धारण किए हुए है, इसलिए उसे धर्म कहा है। धर्म यानी स्वभाव, शुद्ध सत्ता,अस्तित्व । यह अविच्छिन्न स्वभाव क्रियाओं के विच्छिन्न प्रवाह में दब जाता है।सागर को जैसे लहरें ढांक लेती हैं, सूरज को जैसे बदलियां ढांक लेती हैं, ऐसे ही हम अपनी ही क्रियाओं से ढंक जाते हैं। सतह पर क्रियाओं का आवरण, जो गहरे में है उसे छिपा लेता है। कैसा आश्चर्य है कि क्षुद्र से विराट दब जाता है? आँख में गिरा छोटा सा तिनका पर्वतों को ओझल कर देता है। पर सागर लहरों में मिटता नहीं है। लहरों का भी प्राण वही है और लहरों में भी वह उपस्थित है। जो जानते हैं, वे उसे लहरों में भी जानते हैं, पर जो नहीं जानते हैं, उन्हें लहरों के शांत होने तक प्रतीक्षा करनी होती है।
8-लहरों के न हो जाने पर उन्हें सागर के दर्शन होते हैं।अपनी उस गहराई को जानना है, जहां सत्ता है, सागर है, पर तरंगें नहीं हैं; जहां आत्मा, बीइंग है, पर वासना, बिकमिंग नहीं है।हम उसकी ओर उन्मुख नहीं हैं...बाहर देख रहे हैं ,वस्तुओं को देख रहे हैं,संसार को देख रहे हैं।पर एक बात हैं कि ‘ हम देख ‘ रहे हैं।जो दिखाई पड़ता है वह संसार है, पर जो देख रहा है, वह तो संसार नहीं है।वह तो स्व है।दृष्टि दृश्य से बंधी हो, तो विचार है; दृष्टि दृश्य से मुक्त हो.. द्रष्टा पर आ जाए, तो ध्यान है।यह विचार और ध्यान का भेद हैं।दर्शन/देखना तो दोनों में उपस्थित है, पर एक में वह विषयगत/ऑब्जेक्टिव है, दूसरे में आत्मगत, सब्जेक्टिव है।पर हम विचार में हों या ध्यान में हों, दर्शन तो दोनों में ही उपस्थित होता है।हम क्रिया में हों या अक्रिया में ‘दर्शन’ तो दोनों में ही उपस्थित रहता है।जागृति में संसार को देखते हैं, निद्रा में स्वप्न को देखते हैं, समाधि में स्वयं को देखते हैं, पर देखना हर स्थिति में साथ होता है।यह ‘देखना ‘ हममें अविच्छिन्न है।
9-यह हमारा स्वभाव है, यह किसी भी स्थिति में अनुपस्थित नहीं होता है।मूर्च्छा और सुषुप्ति में भी वह होता है।मूर्च्छा के बाद हम कहते हैं कि 'कहां था, हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है'।जो मूर्च्छा में बीता है वह हमारे जीवन का हिस्सा नहीं हो सकता और हमारी स्मृति में उसका कोई भी अंकन नहीं होता।हम जानते हैं कि हम किसी ऐसी स्थिति में थे कि कुछ भी नहीं जान रहे थे।यह ज्ञान ही है और दर्शन इसमें भी उपस्थित रहा है ,लेकिन दर्शन ने इस अंतराल /रिक्त स्थान को अवश्य अनुभव किया है।और यही रिक्त स्थान, बाद में स्मृति भी जान लेती है।ऐसे ही सुषुप्ति में भी, जब कोई स्वप्न भी नहीं होता है, तब भी दर्शन उपस्थित रहता है।सुबह जाग कर हम कह पाते हैं कि रात्रि इतनी गहरी नींद थी कि कोई स्वप्न भी नहीं था।स्थितियां बदलती हैं, चेतना-विषय, कंटेंट बदलते हैं, पर दर्शन नहीं बदलता है।हमारे अनुभव में सब बदल जाता है।इस नित्य को ही जानना स्व को जानना है।
10-वही अकेला...केवल स्वभाव है।शेष सब अन्य है, संसार है, पर है।इस साक्षी को किसी क्रिया, किसी पूजा, किसी आराधना, किसी मंत्र, किसी तंत्र से नहीं पाया जा सकता है, क्योंकि वह उन सबका भी साक्षी है। वह उन सबसे भी अन्य और पृथक है।जो भी दृश्य है, जो भी कर्म है, वह उससे अन्य और भिन्न है।वह तो क्रिया नहीं, अक्रिया से मिलेगा ; कर्म से नहीं, शून्य से मिलेगा। वह तो उस समय मिलेगा जब न तो कोई कर्म है, न कोई दृश्य है,मात्र साक्षी ,केवल दर्शन मात्र ही शेष रह गया है। जब हम देख तो रहे हैं, पर दिखाई कुछ नहीं पड़ रहा है, जब हम जान तो रहे हैं, पर जान कुछ भी नहीं रहे हैं...इस विषय शून्य चैतन्य, कटेंटलेस कांशसनेस में वह जाना जाता है, जो कि सबको जानने वाला है। दृश्य जब नहीं है, तब दृष्टा के आवरण गिरते हैं।और जब ज्ञेय/knowable कुछ भी नहीं है तब ज्ञान जाग्रत होता है।
11- जब तरंगें नहीं होती हैं, तब सागर के दर्शन होते हैं। और जब बादल नहीं होते हैं तो नीलाकाश के दर्शन होते हैं।यह सागर प्रत्येक के भीतर है, और यह आकाश/स्पेस प्रत्येक के भीतर है। हम इस आकाश को जानना चाहते हैं, तो निश्चय ही जान सकते हैं। इस आकाश तक पहुंचने का रास्ता भी है। वह भी प्रत्येक के ही पास है और हममें से प्रत्येक उस पर चलना भी जानता है। पर हम केवल एक ही दिशा, डायरेक्शन में चलना जानते हैं। क्या आपने इस सत्य पर कभी विचार किया है कि कोई भी रास्ता केवल एक दिशागामी नहीं हो सकता है? प्रत्येक राह अनिवार्यत: दो दिशाओं में, दो विपरीत दिशाओं में सत्ता रखती है। उसके होने के लिए ही यह अनिवार्य है कि वह एक ही साथ दो विपरीत दिशाओं में हो, अन्यथा वह हो ही नहीं सकती है। जो मार्ग आपको यहां इस पहाड़ी निर्जनता तक ले आया है, वही आपको वापस भी ले जाएगा। आने का और जाने का मार्ग एक ही है। वही मार्ग दोनों काम करेगा।मार्ग तो वही होगा, केवल दिशा वही नहीं होगी।
12-’संसार’ और ‘स्व’ का मार्ग तो एक ही है।जो संसार में लाता है, वही स्वयं में भी ले जाएगा।केवल दिशा विपरीत होगी।अभी तक जो सामने था, वही अब पीछे होगा। और जो पीठ की ओर था, उस पर आंखें करनी होंगी।रास्ता वही है, केवल हमें विपरीत मुड़ जाना है।सन्मुख से विमुख और विमुख से सन्मुख होना है।हम अभी किसके सन्मुख हैं? इसका विचार करें। हम किसे देख रहे हैं? इसे अनुभव करें।हमारी दर्शन की, चैतन्य की धारा अभी किस दिशा में प्रवाहित हो रही है?इसका निरीक्षण, ऑब्जर्वेशन करें।आप पाते हैं कि बाहर को बहे जाते हैं।सब विचार बाहर के संबंध में चल रहे हैं। चौबीस घंटे बाहर के लिए सोच रहे हैं। आँख खुलती है तो बाहर देखते हैं, आँख बंद होती है तो बाहर देखते हैं, क्योंकि बाहर से अंकित रूप और चित्र, इमेजेस आँख बंद होने पर जाग जाते हैं, और हमें घेर लेते हैं।एक वस्तुओं का जगत बाहर है और भीतर भी बाहर से प्रतिध्वनित एक विचारों का जगत है।
13-वह भीतर होकर भी बाहर है, क्योंकि ‘मैं’ साक्षी की भांति उसके बाहर ही होता हूं। उसे भी मैं देखता हूं। इसलिए वह भी बाहर ही है। वस्तुएं घेरे हैं और विचार घेरे हैं। पर गहरा निरीक्षण करेंगे तो ज्ञात होगा कि वस्तुओं का घेरा आत्मज्ञान के लिए बाधा नहीं है। बाधा विचार का घेरा है। वस्तुएं आत्मा को घेर भी कैसे सकती हैं? पदार्थ केवल पदार्थ को घेरता है। आत्मा विचार से घिरी है। दर्शन की, चैतन्य की धारा विचार की ओर बह रही है।विचार और विचार और केवल विचार हमारे सन्मुख है। दर्शन उनसे ही आच्छादित है।विचार से विमुख और निर्विचार /थॉटलेसनेस के सन्मुख होना है। यही दिशा क्रांति है।विचार कैसे पैदा होते हैं ;यह जानना जरूरी है, तभी उन्हें जन्मने से रोका जा सकता है।साधारणतया उनकी उत्पत्ति के सत्य को जाने बिना ही साधक उनके दमन/सप्रेशन में लग जाते हैं। इससे विक्षिप्त तो कोई हो सकता है, विमुक्त नहीं हो सकता है। विचार के दमन से कोई अंतर नहीं पड़ता है, क्योंकि वे प्रतिक्षण नये-नये उत्पन्न हो जाते हैं। वे पौराणिक कथाओं के उन राक्षसों की भांति हैं, जिनके एक सिर को काटने पर दस सिर पैदा हो जाते थे।
14- विचारों को मारने की आवश्यकता नहीं हैं ; वे तो स्वयं ही प्रतिक्षण मरते रहते हैं।विचार बहुत अल्पजीवी है। कोई भी विचार ज्यादा नहीं टिकता है , पर विचार-प्रक्रिया/थॉट प्रोसेस टिकती है।एक-एक विचार तो अपने आप मर जाता है, पर विचार-प्रवाह नहीं मरता है। एक विचार मर भी नहीं पाता है कि दूसरा उसका स्थान ले लेता है। यह स्थानपूर्ति बहुत त्वरित है।यही समस्या है। विचार की मृत्यु नहीं, उसकी त्वरित उत्पत्ति वास्तविक समस्या है।इसलिए विचार को मारने की नहीं बल्कि उसकी त्वरित उत्पत्ति को समझने और उससे मुक्त होने की आवश्यकता हैं।जो विचार की त्वरित उत्पत्ति के विज्ञान को समझ लेता है, वह उससे मुक्त होने का मार्ग सहज ही पा जाता है।और जो यह नहीं समझता है, वह स्वयं ही एक ओर विचार पैदा किए जाता है और दूसरी ओर उनसे लड़ता भी है। इससे विचार तो नहीं टूटते, बल्कि वह स्वयं ही टूट जाता है।विचार की उत्पत्ति पर विरोध हो तो जन्मे विचार तो क्षण में विलीन हो जाते हैं।उनका क्षय तो प्रतिक्षण हो रहा है, पर नयों का आगमन भी होता चला जाता है।
15-इसका अर्थ है कि कोई भी विचार दीर्घजीवी नहीं है बल्कि पलजीवी है। वह तो जन्मता है और मर जाता है। उसके जन्म को रोक लें तो उसकी हत्या की हिंसा से भी बच जाएंगे और वह अपने आप विलीन भी हो जाता है।वास्तव में,विचार की उत्पत्ति, बाह्य जगत के प्रति हमारी प्रतिक्रिया, रिएक्शन से होता है। बाहर घटनाओं और वस्तुओं का जगत है। इस जगत के प्रति हमारी प्रतिक्रिया ही हमारे विचारों की जन्मदात्री है।हम एक फूल को देखते है...‘ देखना’ कोई विचार नहीं है और यदि हम देखते ही रहे तो कोई विचार पैदा नहीं होगा।यदि हम देखते ही कहते है कि ‘ फूल बहुत सुंदर है ‘ तो विचार का जन्म हो जाता है।यदि हम मात्र देखे तो सौंदर्य की अनुभूति तो होगी, पर विचार का जन्म नहीं होगा। पर अनुभूति होते ही हम उसे शब्द देने में लग जाते हैं।अनुभूति को शब्द देते ही विचार का जन्म हो जाता है। यह प्रतिक्रिया, यह शब्द देने की आदत, अनुभूति को, दर्शन को विचार से आच्छादित कर देती है। अनुभूति दब जाती है, दर्शन दब जाता है। और शब्द चित्त में तैरते रह जाते हैं। ये शब्द ही विचार हैं।फिर यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है। और हम शब्दों से इतने भर जाते और दब जाते हैं कि स्वयं को ही उनमें खो देते हैं। दर्शन को शब्द देने की आदत छोड़ना विचार का जन्म-निरोध है।
16-यदि दो लोग एक दूसरे को मात्र देखते है /जस्ट सीइंग ही रहे तो आप कभी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि इतनी बड़ी क्रांति होगी। जीवन में उससे बड़ी कोई क्रांति/रिवोल्यूशन नहीं हो सकती है।शब्द बीच में आकर उस क्रांति को रोक लेते हैं।यदि हम मात्र देखते ही रहे और कोई शब्द इस दर्शन को न दे तो आप पाएंगे कि एक अलौकिक शांति मेरे भीतर अवतरित हो रही है, एक शून्य परिव्याप्त हो रहा है, क्योंकि शब्द का न होना ही शून्य है, और इस शून्य में चेतना की दिशा परिवर्तित होती है। फिर आप ही नहीं दिखते हैं, वरन क्रमश: वह भी उभरने लगता है जो कि आपको देख रहा है। चेतना-क्षितिज पर एक नया जागरण होता है जैसे कि हम किसी स्वप्न से जाग उठे हों और एक निर्मल आलोक से और एक अपरिसीम शांति से चित्त भर जाता है।इस आलोक में स्वयं का दर्शन होता है।इस शून्य में सत्य का अनुभव होता है। इस प्रयोग को स्मृति रखनी है, यह होश, अवेअरनेस रखना है कि शब्द का संगठन न हो। शब्द बीच में न आए। यह हो सकता है, क्योंकि शब्द केवल हमारी आदत है।एक नवजात शिशु जगत को बिना शब्द के देखता है। वह शुद्ध प्रत्यक्षीकरण है। फिर धीरे-धीरे वह शब्द की आदत सीखता है, क्योंकि बाह्य जगत और बाह्य जीवन के लिए वह सहयोगी और उपयोगी है।पर जो बाह्य जीवन के लिए सहयोगी है, वही अंतस जीवन को जानने में बाधा हो जाता है। और इसलिए एक बार फिर वृद्धों को भी नवजात शिशु के शुद्ध दर्शन को जगाना पड़ता है, ताकि वे स्वयं को जान सकें।शब्द से जगत को जाना, फिर शून्य से स्वयं को जानना होता है।
EXERCISE/प्रयोग;-
STEP 01
इस प्रयोग में हम शांत बैठेंगे। शरीर को शिथिल, रिलैक्स और रीढ़ को सीधा रखेंगे। शरीर के सारे मूवमेंट को छोड़ देंगे। शांत, धीमी, पर गहरी श्वास लेंगे....और मौन, अपनी श्वास को देखते रहेंगे और बाहर की जो ध्वनियां सुनाई पड़े, उन्हें सुनते रहेंगे। कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगे। उन पर कोई विचार नहीं करेंगे। शब्द न हों और हम केवल साक्षी हैं, जो भी हो रहा है, हम केवल उसे दूर खड़े जान रहे हैं ऐसे भाव में अपने को छोड़ देंगे। कहीं कोई एकाग्रता/कनसनट्रेशन नहीं करनी है। बस चुप जो भी हो रहा है उसके प्रति जागरूक बने रहना है।आंखें बंद कर लो और सुनो।
STEP 2
चुपचाप मौन में सुनो। चिड़ियों की चहचहाहट , हवाओं के वृक्षों को हिलाते थपेड़े, किसी बच्चे का रोना चलती हुई रेट की आवाज और बस सुनते रहो अपने भीतर श्वास का स्पंदन और हृदय की धड़कन और फिर एक अभिनव शांति और सन्नाटा उतरेगा और आप पाओगे कि बाहर ध्वनि है पर भीतर निस्तब्धता है। और आप पाओगे कि एक नये शांति के आयाम में प्रवेश हुआ है।तब विचार नहीं रह जाते हैं, केवल चेतना रह जाती है। और इस शून्य के माध्यम में ध्यान, अटेंशन उस ओर मुड़ता है जहां हमारा आवास है। हम बाहर से घर की ओर मुड़ते हैं।
STEP 3
दर्शन बाहर लाया है, दर्शन ही भीतर ले जाता है। केवल देखते रहो ..देखते रहो ...विचार को, श्वास को, नाभि स्पंदन को। और कोई प्रतिक्रिया मत करो। और फिर कुछ होता है, जो हमारे चित्त की सृष्टि नहीं है जो हमारी सृष्टि नहीं है, वरन जो हमारा होना है, हमारी सत्ता है, जो धर्म है, जिसने हमें धारण किया है वह उदघाटित हो जाता है और हम आश्चर्यों के आश्चर्य स्वयं के समक्ष खड़े हो जाते हैं। जैसे एक साधु कर कुछ भी नहीं रहा है... केवल खड़ा ही है / जस्ट स्टैंडिंग, जस्ट एञ्जिस्टिंग।’ऐसे ही बस होना है। कुछ भी नहीं करना है। सब छोड़ देना है और रह जाना है। फिर कुछ होगा...वह अनुभूति जिसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता है।
साधना के 04 STEPS;- 07 FACTS;- 1-साधना का 1st STEP'ध्यान';- निराकार के प्रति सतत जागरूकता ध्यान है। ध्यान के द्वारा हम अहंकार से मुक्त हो सकते हैं। ध्यान की उपलब्धि मौन है और उसकी मंजिल है साक्षी होना। 2-साधना का 2nd STEP 'साक्षी होना ';- साक्षी होने का अर्थ है अपने निराकार स्वरूप का बोध रखते हुए कर्म करने का आनंद लेना। साक्षी के द्वारा हम षट् रिपुओं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष से मुक्त हो सकते हैं।साक्षी की उपलब्धि मोक्ष है। 3-साधना का 3rd STEP 'समर्पण ';- समर्पण का अर्थ है अपने आत्मबोध में ,अवेयरनेस में स्थिर होना।समर्पण भाव के द्वारा हम शिकायत भाव से मुक्त हो सकते हैं और मंजिल है समाधि। 4-साधना का 4th STEP 'समाधि';- समाधि का अर्थ है अंतराकाश में विश्राम।जिसके लिए राजस्थान के संत दरिया कहते हैं-''जात हमारी ब्रह्म है, माता-पिता है राम। गृह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम। एक ही बात याद रखो कि परमात्मा के सिवा न हमारी कोई माता है, न हमारा कोई पिता है। और ब्रह्म के सिवाय हमारी कोई जात नहीं। ऐसा बोध अगर हो, तो जीवन में क्रांति हो जाती है।तो ही तुम्हारे जीवन में पहली बार धर्म के सूर्य का उदय होता है। तब तुम्हें पता चलेगा कि शून्य में हमारा असली घर है। परम शून्य में, परम शांति में, जहां लहर भी नहीं उठती, ऐसे शांत सागर में , जहां कोई विचार की तरंग नहीं, कोई उपद्रव नहीं, जहां शून्य संगीत बजता है, जहां अनाहत नाद गूंज रहा है ....वहीं हमारा घर है और जिसने उस शून्य को पा लिया, उसने ही विश्राम पाया। और ऐसा विश्राम जिसकी कोई हद नहीं है, जिसकी कोई सीमा नहीं है। समाधि के द्वारा हम भय से मुक्ति पा सकते हैं।
साधना करने के 1st तीन STEP;-
1- साधना का STEP 'अन्तर्नाद' ';-
अन्तर्नाद का अर्थ है परमात्मा के साथ संबंध स्थापित कर, उसका अंश होने की प्रतीत कर उसकी याद में जीना।अन्तर्नाद के द्वारा हम द्वैत से मुक्त हो सकते हैं।अन्तर्नाद की उपलब्धि है अद्वैत और मंजिल है सुमिरन।
2-साधना का 2nd STEP सुमिरन ;-
सुमिरन के लिए आवश्यक है गुरु का संग, नाद श्रवण, सहजता, गहरी सांस, आत्मस्मरण, नाद के स्रोत का ज्ञान, मन्त्र (Auto suggestion) और सांसारिक उत्तरदायित्व।
3-साधना का 3rd STEP 'प्रेम अथवा भक्ति' ;-
भक्ति का अर्थ है गोविन्द के साथ जीवन की सहभागिता का आनंद लेना। भक्ति रिक्तता से मुक्त करती है।प्रेम की मंजिल गोविन्द है, नित्य प्रेम है, अथवा मंजिल है ही नहीं, क्योंकि हमें गोविन्द तक जाना नहीं होता, बल्कि स्वयं गोविन्द हमारे पास आ जाते है ,हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते है।
...SHIVOHAM....
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