ध्यान के पाँच अंग
ध्यान के पाँच अंग;-
ध्यान-योग साधना में मन की एकाग्रता के साथ-साथ लक्ष्य को अथार्त इष्ट की शरणागति भी प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। अतः इष्टदेव का मन:क्षेत्र में उसी प्रकार ध्यान करने का विधान किया गया है। ध्यान के पाँच अंग हैं... स्थिति, संस्थिति, विगति, प्रगति, सस्मिति।
पहला हैं स्थिति/ Positioning;-
स्थिति का तात्पर्य हैं- साधक की उपासना करते समय की स्थिति। मन्दिर में, नदी तट पर एकान्त में, स्नान करके श्मशान में , बिना स्नान किए पद्मासन से, सिद्धासन से किस ओर मुँह करके, किस मुद्रा में, किस समय, किस प्रकार ध्यान किया जाय ? इस सम्बन्ध की व्यवस्था को स्थिति कहते है।
दूसरा हैं-संस्थिति/Topology;-
संस्थिति का अर्थ हैं- इष्टदेव की छवि का निर्धारण। उपास्य देव की मुख आकृति, आकार मुद्रा, वस्त्र, आभूषण, वाहन, स्थान, भाव को निश्चित करना संस्थिति कहलाती है।
तीसरा हैं--विगति/Quality;-
विगति कहते हैं- गुणावली को। इष्टदेव में क्या विशेषताएँ, शक्तियाँ, सामर्थ्य, परम्पराएँ एवं गुणावलियाँ हैं -उनको जानना विगति कहा जाता है।
चौथा हैं--प्रगति;-
प्रगति कहते हैं- उपासना काल में साधक के मन में रहने वाली भावना को। दास्य, सखा, गुरु, बन्धु मित्र, माता-पिता, पति, पुत्र, सेवक, शत्रु आदि। जिस रिश्ते को उपास्य देव को मानना हो उस रिश्ते की स्थिरता तथा उस रिश्ते को प्रणाढ़ बनाने के लिए इष्टदेव को प्रमुख ध्यानावस्था में अथवा अपनी आन्तरिक भावनाओं को विविध शब्दों तथा चेष्टाओं द्वारा उपस्थित करना प्रगति कहलाती है।
पांचवां है- संस्मिति;-
'संस्मिति' वह व्यवस्था है जिसमें साधक और साध्य उपासक और उपास्य, एक हो जाते हैं। दोनों में कोई भेद नहीं रहता है।द्वैत के स्थान पर अद्वैत की झाँकी अथार्त भृंग कीट की सी तन्मयता प्राप्त हो जाती है।उपास्य और उपासक का अभेद हो जाता है। मैं स्वयं इष्टदेव हो गया हूँ या इष्टदेव में पूर्णतया लीन हो गया हूँ- ऐसी अनुभूति होने लगती है। जैसे अग्नि में डालने से लकड़ी भी अग्निमय लाल वर्ण हो जाती है, वैसी ही स्थिति उपासक को उन क्षणों में अनुभव होती है -उसे ही 'संस्मिति' कहते हैं।
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