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श्री रुद्राष्टकम स्तोत्र


श्री रूद्राष्टकं स्तोत्रकी महिमा;-

परम कल्याणकारी शिवाष्टक स्तोत्र लयात्मक है और बहुत थोड़े समय में कंठस्थ हो जाता है। यदि साधक भगवान शिव का ध्यान करते हुए केवल इस स्तोत्र का ही श्रद्धापूर्वक पाठ करे, तो वह शिवजी का कृपापात्र हो जाता है। रुद्राष्टक भगवान शिव

की उपासना हैं जिसमे उनके रूप, सौन्दर्य, बल का भाव विभोर चित्रण किया गया हैं | यह रुद्राष्टक बहुत प्रसिद्ध और त्वरित फलदायी है। यह रामचरित मानस से लिया गया है।भगवान शंकर भक्तों की प्रार्थना से बहुत जल्द ही प्रसन्न हो जाते हैं। इसी कारण उन्हें 'आशुतोष' भी कहा जाता है। वैसे तो धर्मग्रंथों में भोलेनाथ की कई स्तुतियां हैं, पर श्रीरामचरितमानस का 'रुद्राष्टकम' अपने-आप में बेजोड़ है। 'रुद्राष्टकम' केवल गाने के लिहाज से ही नहीं, बल्कि भाव के नजरिए से भी एकदम मधुर है। यही वजह है शिव के आराधक इसे याद रखते हैं और पूजा के समय सस्वर पाठ करते हैं।शिव को प्रसन्न करने के लिए यह

रुद्राष्टक बहुत प्रसिद्ध तथा त्वरित फलदायी है।रुद्राष्टक काव्य संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं...

श्री रुद्राष्टकम स्तोत्र;- नमामी शमीशान निर्वाण रूपं,विभुं व्यापकं ब्रह्म वेद स्वरूपम्। निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं,चिदाकाश माकाश वासं भजेहम्॥1॥ निराकार मोङ्कार मूलं तुरीयं,गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्। करालं महाकाल कालं कृपालं,गुणागार संसार पारं न तोहम्॥2॥ तुषाराद्रि संकाश गौरं गभिरं,मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम्। स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारुगङ्गा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा॥3॥ चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्। मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं ,प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥4॥ प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं,अखण्डं अजं भानुकोटि प्रकाशं। त्र्यःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं,भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥5॥ कलातीत कल्याण कल्पान्त कारी ,सदा सज्जना नन्द दाता पुरारी॥ चिदानन्द संदोह मोहापहारी ,प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6॥ न यावद् उमानाथ पादारविन्दं ,भजन्ती ह लोके परे वा नराणाम्। न तावत्सुखं शान्ति सन्ताप नाशं,प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7॥ न जानामि योगं जपं नैव पूजां,नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्। जराजन्म दुःखौघ तातप्यमानं ,प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥8॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ॥ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥9॥

॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥

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हिंदी अर्थ;-

हे मोक्षरूप, विभु, व्यापक ब्रह्म, वेदस्वरूप ईशानदिशा के ईश्वर और सबके स्वामी शिवजी, मैं आपको नमस्कार करता हूं। निज स्वरूप में स्थित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन, आकाश रूप शिवजी मैं आपको नमस्कार करता हूं।निराकार,

ओंकार के मूल, तुरीय वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलाशपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे परमेशवर को मैं नमस्कार करता हूं।जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित है।

जिनके कानों में कुंडल शोभा पा रहे हैं। सुंदर भृकुटी और विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्न मुख, नीलकंठ और दयालु हैं। सिंह चर्म का वस्त्र धारण किए और मुण्डमाल पहने हैं, उन सबके प्यारे और सबके नाथ श्री शंकरजी को मैं भजता हूं।प्रचंड, श्रेष्ठ तेजस्वी,

परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोडों सूर्य के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए, भाव के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकरजी को मैं भजता हूं।कलाओं से परे, कल्याण स्वरूप,

प्रलय करने वाले, सज्जनों को सदा आनंद देने वाले, त्रिपुरासुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालनेवाले हे प्रभो, प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए।

जब तक मनुष्य श्री पार्वतीजी के पति के चरणकमलों को नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इस लोक में, न ही परलोक में सुख-शांति मिलती है और अनके कष्टों का भी नाश नहीं होता है। अत: हे समस्त जीवों के हृदय में निवास करने वाले प्रभो, प्रसन्न

होइए।मैं न तो योग जानता हूं, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो, मैं तो सदा-सर्वदा आप को ही नमस्कार करता हूं। हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दुख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दुखों से रक्षा कीजिए। हे शंभो, मैं आपको नमस्कार करता हूं।

जो भी मनुष्य इस स्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भोलेनाथ विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं।

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नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्। निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम्॥1

भावार्थ:-मोक्षस्वरुप, आकाशरूप, सर्व्यवापी शिवजी को प्रणाम...

हे मोक्षस्वरुप,सर्व्यवापी,ब्रह्म और वेदस्वरूप,ईशान दिशाके ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिवजी,मैं आपको नमस्कार करता हूँ।निजस्वरुप में स्थितअर्थात माया आदि से रहित,गुणों से रहित,भेद रहित,इच्छा रहित,चेतन आकाशरूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दी दिगम्बरअर्थात आकाश को भी आच्छादित करने वाले,आपको में भजता हूँ ॥1॥

शब्दों का अर्थ; –

नमामीशम् – श्री शिवजी, मैं आपको नमस्कार करता हूँ जो

ईशान – ईशान दिशाके ईश्वर

निर्वाणरूपं – मोक्षस्वरुप

विभुं व्यापकं – सर्व्यवापी

ब्रह्मवेदस्वरूपम् – ब्रह्म और वेदस्वरूप है

निजं – निजस्वरुप में स्थित (अर्थात माया आदि से रहित)

निर्गुणं – गुणों से रहित

निर्विकल्पं – भेद रहित

निरीहं – इच्छा रहित

चिदाकाशम् – चेतन आकाशरूप एवं

आकाशवासं – आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले

अथवा आकाश को भी आच्छादित करने वाले)

भजेहम् – हे शिव, आपको में भजता हूँ

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निराकारमोङ्कारमूलं तुरीयं

गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम्।

करालं महाकालकालं कृपालं

गुणागारसंसारपारं नतोहम्॥2॥

भावार्थ:- ॐ कार शब्द के मूल, निराकार, महाकाल कैलाशपति को नमस्कार.....

निराकार स्वरुप,ओंकार के मूल,तीनों गुणों से अतीत,वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे,कैलाशपति,विकराल,महाकाल के काल,कृपालु गुणों के धाम ,संसार से परे,परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

शब्दों का अर्थ ;-

निराकार – निराकार स्वरुप

ओमङ्कारमूलं – ओंकार के मूल

तुरीयं – तीनों गुणों से अतीत

गिराज्ञान गोतीतमीशं – वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे

गिरीशम् – कैलाशपति

करालं – विकराल

महाकालकालं – महाकाल के काल

कृपालं – कृपालु

गुणागार – गुणों के धाम

संसारपारं – संसार से परे

नतोहम् – परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ

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तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं

मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम्।

स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा

लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा॥3॥

भावार्थ:-सिरपर गंगाजी, ललाटपर चन्द्रमा, गले में सर्पों की माला,जो हिमाचल के समान,गौरवर्ण तथा गंभीर हैं,जिनके शरीर में,करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है,जिनके सिरपर,सुन्दर गंगा जी नदी विराजमान हैं,जिनके ललाटपर,द्वितीय का चन्द्रमा और गले में,सर्प सुशोभित हैं ॥3

शब्दों का अर्थ ;-

तुषाराद्रिसंकाश – जो हिमाचल के समान

गौरं गभिरं – गौरवर्ण तथा गंभीर हैं

मनोभूत कोटि प्रभा – करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है

श्री शरीरम् – जिनके श्री शरीर में

स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा

जिनके सिरपर,सुन्दर नदी गंगा जी विराजमान हैं

लसद्भालबालेन्दु – जिनके ललाट पर द्वितीय का चन्द्रमा और

कण्ठे भुजङ्गा – गले में सर्प सुशोभित हैं

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चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं

प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं

प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥4॥

भावार्थ:-नीलकंठ, प्रसन्नमुख, दयालु, सबके नाथ, शिवजी को प्रणाम ....

जिनके कानों में,कुण्डल हिल रहे हैं,सुन्दर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैं,जो प्रसन्नमुख,नीलकंठ और

दयालु हैं,सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं,सबके प्यारे और सबके नाथ,कल्याण करने वाले,

श्री शंकर जी को मैं भजता हूँ ॥4॥

शब्दों का अर्थ; –

चलत्कुण्डलं – जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं

भ्रूसुनेत्रं विशालं – सुन्दर भृकुटि और विशाल नेत्र हैं

प्रसन्नाननं – जो प्रसन्नमुख

नीलकण्ठं – नीलकंठ और

दयालम् – दयालु हैं

मृगाधीशचर्माम्बरं – सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और

मुण्डमालं – मुण्डमाला पहने हैं

प्रियं शङ्करं – उन सबके प्यारे और

सर्वनाथं – सबके नाथ (कल्याण करने वाले) श्री शंकर जी को

भजामि – मैं भजता हूँ

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प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं।

त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं

भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥5॥

भावार्थ:अखंड, तेजस्वी, हाथ में त्रिशूलधारी, भवानीपति शिवजी को प्रणाम ..प्रचंड (रुद्ररूप) श्रेष्ठ,तेजस्वी, परमेश्वरअखंड, अजन्मा,करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले,तीनों प्रकार के शूलों (दुखों) को निर्मूल करने वाले,हाथ में त्रिशूल धारण किये हुए,

भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले,भवानी के पति, श्री शंकर जी को मैं भजता हूँ ॥5॥

शब्दों का अर्थ –

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

प्रचंड (रुद्ररूप) श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर

अखण्डं – अखंड

अजं – अजन्मा

भानुकोटिप्रकाशं – करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले

त्र्यःशूलनिर्मूलनं – तीनों प्रकार के शूलों (दुखों) को निर्मूल करने वाले

शूलपाणिं – हाथ में त्रिशूल धारण किये हुए

भजेहं – मैं भजता हूँ

भवानीपतिं – भवानी के पति श्री शंकर

भावगम्यम् – भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले

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कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी

सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥

चिदानन्दसंदोह मोहापहारी

प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6॥6.

भावार्थ:कल्याण स्वरुप, दु:ख हरने वाले, भोलेनाथ को नमस्कार....

कलाओं से परे,कल्याण स्वरुप,कल्पका अंत (प्रलय) करने वाले,सज्जनों को सदा आनंद देने वाले,त्रिपुर के शत्रु,

सच्चिदानन्दघन,मोह को हराने वाले,मन को मथ डालने वाले,कामदेव के शत्रु,हे प्रभु, प्रसन्न होइये ॥6॥

शब्दों का अर्थ ;–

कलातीत – कलाओं से परे

कल्याण – कल्याण स्वरुप

कल्पान्तकारी – कल्पका अंत (प्रलय) करने वाले

सदा सज्जनानन्ददाता – सज्जनों को सदा आनंद देने वाले

पुरारी – त्रिपुर के शत्रु

चिदानन्दसंदोह – सच्चिदानन्दघन

मोहापहारी – मोहको हराने वाले

प्रसीद प्रसीद प्रभो – कामदेव के शत्रु, हे प्रभु, प्रसन्न होइये

मन्मथारी – मनको मथ डालने वाले

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भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं

प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7॥ भावार्थ:दु:खों से मुक्ति और सुख, शांति के लिए, शंकरजी के चरणों में प्रणाम

जबतक,पार्वती के पति (शंकरजी),आपके चरणकमलों को,मनुष्य नहीं भजते,तबतक,उन्हें न तो इस लोक ओर परलोक में,

सुख-शान्ति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है।अत: हे समस्त जीवों के अन्दर (हृदय में),निवास करनेवाले प्रभो,

प्रसन्न होइये ॥7॥

शब्दों का अर्थ; – न यावद् उमानाथपादारविन्दं – जबतक पार्वती के पति (शिवजी) आपके चरणकमलों को

भजन्तीह – मनुष्य नहीं भजते

लोके परे वा नराणाम् – तब तक उन्हें इसलोक में या परलोक में

न तावत्सुखं शान्ति – न सुख-शान्ति मिलती है और

सन्तापनाशं – न उनके तापों का अर्थात दुःखो का नाश होता है

प्रसीद प्रभो – प्रभो। प्रसन्न होइये

सर्वभूताधिवासं – समस्त जीवों के अन्दर (हृदय में) निवास करनेवाले

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8.न जानामि योगं जपं नैव पूजां

नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।

जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं

प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥8॥ भावार्थ:-हे शंकर, हे शम्भो, मेरी रक्षा कीजिये...

मैं न तो योग जानता हूँ,न जप और पूजा ही।हे शम्भो,मैं तो सदा-सर्वदा,आपको ही

नमस्कार करता हूँ।हे प्रभु,बुढापा तथा जन्म और मृत्यु के,दुःख समूहों से जलते हुए,

मुझ दुखी की दुःख में रक्षा कीजिये।हे ईश्वर, हे शम्भो,मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥8॥

शब्दों का अर्थ; –

न जानामि योगं – मैं न तो योग जानता हूँ

जपं नैव पूजां – न जप और पूजा ही

नतोहं सदा सर्वदा – मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार

शम्भुतुभ्यम् – हे शम्भो।

जराजन्मदुःखौघ – बुढापा (जरा), जन्म-मृत्यु के दुःख समूहों से

तातप्यमानं – जलते हुए मुझ दुखी की दुःख में रक्षा कीजिये

प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो – हे प्रभु, हे ईश्वर, हे शम्भो, मैं आपको नमस्कार करता हूँ

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ॥।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥9॥

भावार्थ:-

जो मनुष्य इस स्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर शम्भु विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं।

शिव की कृपा पानी है तो आपको शिव रूपी बनना होगा और शिवोहम मंत्र का ध्यान करते हुए शिव के रूप को समझना होगा।तब आपको शिव भगवान की कृपा का अनुभव होगा।


.... SHIVOHAM....


...SHIVOHAM...



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