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नवम माँ मातंगी मन्त्र साधना

समस्त जगत जिस शक्ति से चलित है, उसी शक्ति की दस स्वरूप हैं ये दस महाविद्याएँ, जिनके नौवें क्रम में भगवती मातंगी का नाम आता है। भगवान शिव के मतंग रूप में उनकी अर्द्धांगिनी होने के कारण ही उनकी संज्ञा मातंगी रूप में विख्यात हुई।


जीवन में भगवती मातंगी की साधना प्राप्त होना ही सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। महर्षि विश्वामित्र ने तो यहाँ तक कहा है कि बाकी नौ महाविद्याओं का भी समावेश मातंगी साधना में स्वतः ही हो गया है। चाहे हम बाकी नौ साधनाएँ नहीं भी करें और केवल मातंगी साधना को ही सम्पन्न कर लें तो भी अपने आप में पूर्णता प्राप्त हो सकती है।


इसीलिए तो शास्त्रों में मातंगी साधना की प्रशंसा में कहा गया है कि

"मातंगी मेवत्वं पूर्ण, मातंगी पूर्णत्व उच्चते"

इससे यह स्पष्ट होता है कि मातंगी एकमात्र श्रेष्ठतम साधना है और एकमात्र मातंगी ही पूर्णता दे सकती है।


मातंगी शब्द जीवन के प्रत्येक पक्ष को उजागर करने की क्रिया के का नाम है, जिससे जीवन के दोनों ही पक्षों को पूर्णता मिलती है। परन्तु मातंगी साधना साधकों के मध्य विशेष रूप से जीवन के भौतिक पक्ष को सुधारने के लिए ही की जाती रही है।


माना जाता है कि मातंगी देवी की आराधना सर्वप्रथम भगवान विष्णु ने की थी। तभी से वे सुखी, सम्पन्न, श्रीयुक्त तथा उच्च पद पर विराजित हैं। देवी की आराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं, किन्तु बौद्ध धर्म के प्रारम्भ में देवी का कोई अस्तित्व नहीं था। कालान्तर में देवी बौद्ध धर्म में “मातागिरी” नाम से जानी जाती है। तन्त्र विद्या के अनुसार देवी सरस्वती नाम से भी जानी जाती हैं, जो श्रीविद्या महात्रिपुरसुन्दरी के रथ की सारथी तथा मुख्य सलाहकार हैं।


हम जीवन में सदैव मेहनत करते हैं तथा हमेशा यह प्रयत्न करते रहते हैं कि हमारा समाज तथा हमारा परिवार हमसे सदैव प्रसन्न रहे, परन्तु ऐसा होता नहीं है। उसका सबसे बड़ा कारण है कि हमारे पास बहुमत नहीं है। यहाँ बहुमत का अर्थ प्रसिद्धि से है, क्यूँकि जब तक हमें जीवन में प्रसिद्धि नहीं मिलती, हमारा कोई सम्मान नहीं करता है। दुनिया सर झुकाएगी तो ही परिवार भी हमें सम्मान देगा अन्यथा वो कहावत तो सुनी ही होगी, घर की मुर्गी दाल बराबर। और यदि आप प्रसिद्ध है तो लक्ष्मी भी आपके जीवन में आने को आतुर हो उठती है।


प्रस्तुत साधना इसीलिए है। कुछ लाभ यहाँ लिख रहा हूँ, जो इस साधना से आपको प्राप्त होंगे👉


👉. इस साधना को सम्पन्न करने के बाद साधक अपने कार्य क्षेत्र में तथा समाज में ख्याति प्राप्त करता है। वह एक लोकप्रिय और यशस्वी व्यक्तित्व बन जाता है।


👉. साधना माँ मातंगी से सम्बन्धित है, अतः साधक को पूर्ण गृहस्थ सुख प्राप्त होता है तथा परिवार में सम्मान होता है। साधक को कुटुम्ब सुख, पुत्र, पुत्रियाँ, पत्नी, स्वास्थ्य, पूर्णायु आदि सभी कुछ प्राप्त होता है, जिससे उसका गृहस्थ जीवन पूर्ण माना जा सकता है।


👉. माँ मातंगी में महालक्ष्मी समाहित है, अतः साधक का आर्थिक पक्ष मजबूत होता है। स्वास्थ्य, आय, धन, भवन सुख, वाहन सुख, राज्य सुख, यात्राएँ और विविध इच्छाओं की पूर्ति सब कुछ तो मातंगी अपने साधक को प्रदान कर देती है।


यहाँ केवल मैंने तीन लाभ ही लिखे हैं, परन्तु एक साधक होने के नाते आप सभी यह बात बखूबी जानते हैं कि कोई भी साधना मात्र लाभ ही नहीं देती है, बल्कि साधक का चहुँमुखी विकास करती है। साथ ही धैर्य तथा विश्वास परम आवश्यक है। अतः साधना साधना कर लाभ उठाएं तथा अपने जीवन को प्रगति प्रदान करें।


साधना विधि

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यह साधना गुप्त नवरात्री अक्षय तृतीया या मातंगी जयन्ती अथवा मातंगी सिद्धि दिवस से आरम्भ की जा सकती है। इसके अतिरिक्त यह साधना किसी भी नवरात्रि के प्रथम दिन से अथवा किसी भी शुक्रवार से शुरू की जा सकती है। फिर भी अक्षय तृतीया से वैशाख पूर्णिमा के मध्य यह साधना सम्पन्न करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है।


यह साधना रात्रि 10 बजे के बाद शुरू करे या ब्रह्ममुहूर्त में भी की जा सकती है। आसन, वस्त्र सफ़ेद हो तथा आपका मुख उत्तर की ओर हो। सामने बजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाएं और उस पर अक्षत से बीज मन्त्र "ह्रीं" लिखें, फिर उस पर माँ मातंगी का कोई भी यन्त्र या चित्र स्थापित करे। यह सम्भव न हो तो एक मिटटी के दीपक में तिल का तेल डालकर कर जलाएं और उसे स्थापित कर दें। इस दीपक को ही माँ का स्वरूप मानकर पूजन करना है। अगर अपने यन्त्र या चित्र स्थापित किया है तो घी का दीपक पूजन में लगाना होगा, जो सम्पूर्ण साधना काल में जलता रहे।


सबसे पहले साधक को चाहिए कि वह समान्य गुरु पूजन करे और गुरुमन्त्र का चार माला जाप करे। फिर सद्गुरुदेवजी से महामातंगी साधना सम्पन्न करने के लिए मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लें और उनसे साधना की पूर्णता एवं सफलता के लिए निवेदन करें।


तदुपरान्त भगवान गणपतिजी का संक्षिप्त पूजन करके "ॐ वक्रतुण्डाय हुम्" मन्त्र की एक माला जाप करें। फिर गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।


इसके बाद भगवान भैरवनाथजी का स्मरण करके "ॐ हूं भ्रं हूं मतंग भैरवाय नमः" मन्त्र की एक माला जाप करें और गुरुदेव तथा भगवान भैरवनाथ से साधना की निर्बाध पूर्णता एवं सफलता के लिए निवेदन करें।


तत्पश्चात साधक को साधना के पहले दिन संकल्प अवश्य लेना चाहिए। संकल्प में अपनी मनोकामना का उच्चारण करें और उसकी पूर्ति के लिए माँ भगवती मातंगी से साधना में सफलता तथा आशीर्वाद प्रदान करने की प्रार्थना करें।


इसके बाद साधक माँ भगवती मातंगी का सामान्य पूजन करे, भोग में सफ़ेद मिठाई अर्पित करे। साथ ही कोई भी इतर अर्पित करे। यदि अपने तेल का दीपक स्थापित किया है तो घी का दीपक लगाने की कोई जरुरत नहीं है। बाकी सारा क्रम वैसा ही रहेगा।


पूजन के बाद माँ भगवती मातंगी से अपनी मनोकामना कहे एवं सफलता तथा आशीर्वाद प्रदान करने की प्रार्थना करे। इसके बाद विनियोग मन्त्र न्यास आड़े के बाद स्फटिक माला से निम्न मन्त्र की 21 माला करें।


विनियोग:

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अस्य मंत्रस्य दक्षिणामूर्ति ऋषि विराट् छन्दः मातंगी देवता ह्रीं बीजं हूं शक्तिः क्लीं कीलकं सर्वाभीष्ट सिद्धये जपे विनियोगः ।


ऋष्यादिन्यास :

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ॐ दक्षिणामूर्ति ऋषये नमः शिरसि। (सिर को स्पर्श करें)


विराट् छन्दसे नमः मुखे। (मुख को स्पर्श करें)


मातंगी देवतायै नमः हृदि। (हृदय को स्पर्श करें)


ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये। (गुह्य स्थान को स्पर्श करें)


हूं शक्तये नमः पादयोः। (पैरों को स्पर्श करें)


क्लीं कीलकाय नमः नाभौ। (नाभि को स्पर्श करें)


विनियोगाय नमः सर्वांगे। (सभी अंगों को स्पर्श करें)


करन्यास

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ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः। (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठे को स्पर्श करें)


ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)


ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)


ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)


ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)


ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः। (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श करें)


हृदयादिन्यास

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ॐ ह्रां हृदयाय नमः। (हृदय को स्पर्श करें)


ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा। (सिर को स्पर्श करें)


ॐ ह्रूं शिखायै वषट्। (शिखा को स्पर्श करें)


ॐ ह्रैं कवचाय हूं। (भुजाओं को स्पर्श करें)


ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्। (नेत्रों को स्पर्श करें)


ॐ ह्रः अस्त्राय फट्। (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)


ध्यानः

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ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्‌गीं।

न्यस्तैकाङ्‌घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।

कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्र

मातङ्‌गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्॥


मैं मातंगी देवी का ध्यान करता हूँ । वे रत्नमयी सिंहासनपर बैठकर पढ़ते हुए तोते का मधुर शब्द सुन रही हैं । उनके शरीर का वर्ण श्याम है । वे अपना एक पैर कमलपर रखे हुए हैं और मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करती हैं तथा कह्लार - पुष्पों की माला धारण किये वीणा बजाती हैं । उनके अंग में कसी हुई चोली शोभा पा रही है । वे लाला रंग की साड़ी पहने हाथ में शंखमय पात्र लिये हुए हैं । उनके वदन पर मधु का हलका - हलका प्रभाव जान पड़ता है और ललाट में बिंदी शोभा दे रही है।


मन्त्र :

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।। ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं महामातंगी प्रचितीदायिनी लक्ष्मीदायिनी नमो नमः ।।


मन्त्र जाप के उपरान्त एक आचमनी जल छोड़कर समस्त जाप माँ भगवती मातंगी को ही समर्पित कर दें।


रोज की माला जाप हो जाने के बाद आप अपना जाप देवी मां मातंगी जी को समर्पित करे मंत्र दे रहा हूं वो बोलकर जाप समर्पित करे ।


जाप समर्पण मंत्र -

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गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री-त्वं

गृहाणास्मितकृतम् जपं।

सिद्धिर्भवतु मे देवी

त्वत्प्रसादान्मयि स्थिरा ||


इस प्रकार यह साधना नित्य 11 दिनों तक सम्पन्न करें। साधना के अन्तिम दिन अग्नि प्रज्ज्वलित कर घी, तिल तथा अक्षत मिलकर 108 आहुति प्रदान करे।


अगले दिन दीपक हो तो विसर्जन कर दे। यन्त्र या चित्र हो तो पूजाघर में रख दे। प्रसाद स्वयं ग्रहण कर ले। इतर सँभाल कर रख ले, प्रतिदिन इसे लगाने से आकर्षण पैदा होता है। इस तरह यह 11 दिवसीय साधना सम्पन्न होगी।


कुछ दिनों में आप साधना का प्रभाव स्वयं अनुभव करने लगेंगे।


मातंगी कवच

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।। श्रीदेव्युवाच ।।


साधु-साधु महादेव, कथयस्व सुरेश्वर

मातंगी-कवचं दिव्यं, सर्व-सिद्धि-करं नृणाम् ।।


श्री-देवी ने कहा – हे महादेव ! हे सुरेश्वर ! मनुष्यों को सर्व-सिद्धि-प्रद दिव्य मातंगी-कवच अति उत्तम है, उस कवच को मुझसे कहिए ।


।। श्री ईश्वर उवाच ।।


श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि, मातंगी-कवचं शुभं।

गोपनीयं महा-देवि, मौनी जापं समाचरेत् ।।


ईश्वर ने कहा – हे देवि उत्तम मातंगी-कवच कहता हूँ, सुनो । हे महा-देवि इस कवच को गुप्त रखना, मौनी होकर जप करना ।


विनियोगः-

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ॐ अस्य श्रीमातंगी-कवचस्य श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषिः । विराट् छन्दः । श्रीमातंगी देवता । चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगः ।


ऋष्यादि-न्यासः-

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श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषये नमः शिरसि ।

विराट् छन्दसे नमः मुखे ।

श्रीमातंगी देवतायै नमः हृदि ।


चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।


।। मूल कवच-स्तोत्र ।।

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ॐ शिरो मातंगिनी पातु, भुवनेशी तु चक्षुषी ।

तोडला कर्ण-युगलं, त्रिपुरा वदनं मम ।।


पातु कण्ठे महा-माया, हृदि माहेश्वरी तथा।

त्रि-पुष्पा पार्श्वयोः पातु, गुदे कामेश्वरी मम ।।


ऊरु-द्वये तथा चण्डी, जंघयोश्च हर-प्रिया ।

महा-माया माद-युग्मे, सर्वांगेषु कुलेश्वरी ।।


अंग प्रत्यंगकं चैव, सदा रक्षतु वैष्णवी ।

ब्रह्म-रन्घ्रे सदा रक्षेन्, मातंगी नाम-संस्थिता ।।


रक्षेन्नित्यं ललाटे सा, महा-पिशाचिनीति च ।

नेत्रयोः सुमुखी रक्षेत्, देवी रक्षतु नासिकाम् ।।


महा-पिशाचिनी पायान्मुखे रक्षतु सर्वदा ।

लज्जा रक्षतु मां दन्तान्, चोष्ठौ सम्मार्जनी-करा ।।


चिबुके कण्ठ-देशे च, ठ-कार-त्रितयं पुनः।

स-विसर्ग महा-देवि हृदयं पातु सर्वदा ।।


नाभि रक्षतु मां लोला, कालिकाऽवत् लोचने ।

उदरे पातु चामुण्डा, लिंगे कात्यायनी तथा ।।


उग्र-तारा गुदे पातु, पादौ रक्षतु चाम्बिका ।

भुजौ रक्षतु शर्वाणी, हृदयं चण्ड-भूषणा ।।


जिह्वायां मातृका रक्षेत्, पूर्वे रक्षतु पुष्टिका।

विजया दक्षिणे पातु, मेधा रक्षतु वारुणे ।।


नैर्ऋत्यां सु-दया रक्षेत्, वायव्यां पातु लक्ष्मणा ।

ऐशान्यां रक्षेन्मां देवी, मातंगी शुभकारिणी ।।


रक्षेत् सुरेशी चाग्नेये, बगला पातु चोत्तरे ।

ऊर्घ्वं पातु महा-देवि देवानां हित-कारिणी ।।


पाताले पातु मां नित्यं, वशिनी विश्व-रुपिणी ।

प्रणवं च ततो माया, काम-वीजं च कूर्चकं ।।


मातंगिनी ङे-युताऽस्त्रं, वह्नि-जायाऽवधिर्पुनः ।

सार्द्धेकादश-वर्णा सा, सर्वत्र पातु मां सदा ।।


इसके बाद फल श्रुति करे।


।। फल-श्रुति ।।

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इति ते कथितं देवि गुह्यात् गुह्य-तरं परमं।

त्रैलोक्य-मंगलं नाम, कवचं देव-दुर्लभम् ।।


यः इदं प्रपठेत् नित्यं, जायते सम्पदालयं ।

परमैश्वर्यमतुलं, प्राप्नुयान्नात्र संशयः ।।


गुरुमभ्यर्च्य विधि-वत्, कवचं प्रपठेद् यदि।

ऐश्वर्यं सु-कवित्वं च, वाक्-सिद्धिं लभते ध्रुवम् ।।


नित्यं तस्य तु मातंगी, महिला मंगलं चरेत् ।

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च, ये देवा सुर-सत्तमाः ।।


ब्रह्म-राक्षस-वेतालाः, ग्रहाद्या भूत-जातयः।

तं दृष्ट्वा साधकं देवि लज्जा-युक्ता भवन्ति ते ।।


कवचं धारयेद् यस्तु, सर्वां सिद्धि लभेद् ध्रुवं ।

राजानोऽपि च दासत्वं, षट्-कर्माणि च साधयेत् ।।


सिद्धो भवति सर्वत्र, किमन्यैर्बहु-भाषितैः।

इदं कवचमज्ञात्वा, मातंगीं यो भजेन्नरः ।।


अल्पायुर्निधनो मूर्खो, भवत्येव न संशयः ।

गुरौ भक्तिः सदा कार्या, कवचे च दृढा मतिः ।।

तस्मै मातंगिनी देवी, सर्व-सिद्धिं प्रयच्छति ।।

...SHIVOHAM....



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