भगवान श्रीकृष्ण के 13 स्वरूप..भगवान कृष्ण की 16 कलाएं कौन सी है?
भगवान श्रीकृष्ण को पूर्णावतार माना जाता है। 64 कलाओं में दक्ष श्रीकृष्ण ने हर क्षेत्र में अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ी है।अद्भुत परिस्थियों में जन्मे कृष्ण का जीवन भी अद्भुत है। उनके जीवन में बाल रूप से लेकर शिष्य, प्रेमी और वीरता की कई रोचक कथाएं सुनने को मिलती है। वैसे तो भगवान श्रीकृष्ण के सैकड़ों रूप और रंग हैं, किन्तु यहां उनके 13 स्वरूप प्रस्तुत हैं-
1-बाल कृष्ण;-
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म अद्भुत परिस्थितियों में हुआ और उनकी बाल लीलाओं पर हजारों किताबें लिखी जा चुकी हैं। श्रीमद्भागवत पुराण में उनकी बाल लीलाओं का वर्णन मिलता है। श्रीकृष्ण का बचपन गोकुल और वृंदावन में बीता। श्रीकृष्ण ने ताड़का, पूतना, शकटासुर आदि का बचपन में ही वध कर डाला था। बाल कृष्ण को 'माखन चोर' भी कहा जाता है।
2- गोपाल कृष्ण;-
भगवान श्रीकृष्ण एक ग्वाले थे और वे गाय चराने जाते थे इसीलिए उन्हें 'गोपाल' भी कहा जाता है। ग्वाले को गोप और गवालन को गोपी कहा जाता है। हालांकि यह शब्द अनेकार्थी है। पुराणों में गोपी-कृष्ण लीला का वर्णन मिलता है। इसमें गोप और गोपिकाएं डांडिया रास करते हैं।
3-रक्षक कृष्ण;-
भगवान श्रीकृष्ण ने किशोरावस्था में ही चाणूर और मुष्टिक जैसे खतरनाक मल्लों का वध किया था, साथ ही उन्होंने इंद्र के प्रकोप के चलते जब वृंदावन आदि ब्रज क्षेत्र में जलप्रलय हो चली थी, तब गोवर्धन पर्वत अपनी अंगुली पर उठाकर सभी ग्रामवासियों की रक्षा की थी।
4-शिष्य कृष्ण;-
भगवान श्रीकृष्ण के गुरु सांदीपनी थे। उनका आश्रम अवंतिका (उज्जैन) में था। कहते हैं कि उन्होंने जैन धर्म में २२वें तीर्थंकर नेमीनाथजी से भी ज्ञान ग्रहण किया था। श्रीकृष्ण गुरु दीक्षा में सांदीपनी के मृत पुत्र को यमराज से मुक्ति कराकर ले आए थे।
5-सखा कृष्ण-
भगवान श्रीकृष्ण के हजारों सखा थे। सखा मतलब मित्र या दोस्त। श्रीकृष्ण के सखा सुदामा, श्रीदामा, मधुमंगल, सुबाहु, सुबल, भद्र, सुभद्र, मणिभद्र, भोज, तोककृष्ण, वरूथप, मधुकंड, विशाल, रसाल, मकरन्द, सदानन्द, चन्द्रहास, बकुल, शारद, बुद्धिप्रकाश, अर्जुन आदि थे। श्रीकृष्ण की सखियां भी हजारों थीं। राधा, ललिता आदि सहित कृष्ण की 8 सखियां थीं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार सखियों के नाम इस तरह हैं- चन्द्रावली, श्यामा, शैव्या, पद्या, राधा, ललिता, विशाखा तथा भद्रा। कुछ जगह ये नाम इस प्रकार हैं- चित्रा, सुदेवी, ललिता, विशाखा, चम्पकलता, तुंगविद्या, इन्दुलेखा, रंगदेवी और सुदेवी। कुछ जगह पर ललिता, विशाखा, चम्पकलता, चित्रादेवी, तुंगविद्या, इन्दुलेखा, रंगदेवी और कृत्रिमा (मनेली)। इनमें से कुछ नामों में अंतर है। इसके अलावा भौमासुर से मुक्त कराई गईं सभी महिलाएं कृष्ण की सखियां थीं। द्रौपदी भी श्रीकृष्ण की सखी थीं।
6- प्रेमी कृष्ण;-
कृष्ण को चाहने वाली अनेक गोपियां और प्रेमिकाएं थीं। कृष्ण-भक्त कवियों ने अपने काव्य में गोपी-कृष्ण की रासलीला को प्रमुख स्थान दिया है। पुराणों में गोपी-कृष्ण के प्रेम संबंधों को आध्यात्मिक और अति श्रांगारिक रूप दिया गया है। महाभारत में यह आध्यात्मिक रूप नहीं मिलता, लेकिन पुराणों में मिलता है। उनकी प्रेमिका राधा, रुक्मिणी और ललिता की ज्यादा चर्चा होती है।
7-कर्मयोगी कृष्ण;-
गीता में कर्मयोग का बहुत महत्व है। कृष्ण ने जो भी कार्य किया, उसे अपना कर्म समझा, अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण जीते थे और पूरी जिम्मेदारी के साथ उसका पालन करते थे। न अतीत में और न भविष्य में, जहां हैं वहीं पूरी सघनता से जीना ही उनका उद्देश्य रहा।
8- धर्मयोगी कृष्ण;-
भगवान श्रीकृष्ण ने ऋषि वेदव्यास के साथ मिलकर धर्म के लिए बहुत कार्य किया। गीता में उन्होंने कहा भी है कि जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब मैं अवतार लूंगा। श्रीकृष्ण ने नए सिरे से उनके कार्य में सनातन धर्म की स्थापना की थी।
9- वीर कृष्ण;-
भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में युद्ध नहीं लड़ा था। वे अर्जुन के सारथी थे। लेकिन उन्होंने कम से कम १० युद्धों में भाग लिया था। उन्होंने चाणूर, मुष्टिक, कंस, जरासंध, कालयवन, अर्जुन, शंकर, नरकासुर, पौंड्रक और जाम्बवंत से भयंकर युद्ध किया था।
महाभारत के युद्ध में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस युद्ध में वे अर्जुन के सारथी थे। हालांकि उन्हें 'रणछोड़ कृष्ण' भी कहा जाता है। इसलिए कि वे अपने सभी बंधु-बांधवों की रक्षा के लिए मथुरा छोड़कर द्वारिका चले गए थे। वे नहीं चाहते थे कि जरासंध से मेरी शत्रुता के कारण मेरे कुल के लोग भी व्यर्थ का युद्ध करें।
10-योगेश्वर कृष्ण-
भगवान श्रीकृष्ण एक महायोगी थे। उनका शरीर बहुत ही लचीला था लेकिन वे अपनी इच्छानुसार उसे वज्र के समान बना लेते थे, साथ ही उनमें कई तरह की यौगिक शक्तियां थीं। योग के बल पर ही उन्होंने मृत्युपर्यंत तक खुद को जवान बनाए रखा था।
11-अवतारी कृष्ण;-
भगवान श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार थे। उन्हें पूर्णावतार माना जाता है। महाभारत के युद्ध के दौरान अर्जुन को उन्होंने अपना विराट स्वरूप दिखाकर यह सिद्ध कर दिया था कि वे ही परमेश्वर हैं।
12-राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ कृष्ण;-
भगवान श्रीकृष्ण ने अपने संपूर्ण जीवन में कूटनीति के बल पर परिस्थितियों को अपने अनुसार ढालकर भविष्य का निर्माण किया था। उन्होंने जहां कर्ण के कवच और कुंडल दान में दिलवा दिए, वहीं उन्होंने दुर्योधन के संपूर्ण शरीर को वज्र के समान होने से रोक दिया। सबसे शक्तिशाली बर्बरीक का शीश मांग लिया तो दूसरी ओर उन्होंने घटोत्कच को सही समय पर युद्ध में उतारा। ऐसी सैकड़ों बातें हैं जिससे पता चलता है कि किस चालाकी से उन्होंने संपूर्ण महाभारत की रचना की और पांडवों को जीत दिलाई।
13-रिश्तों में खरे कृष्ण;-
भगवान श्रीकृष्ण की 8पत्नियां थीं- रुक्मिणी, जाम्बवंती, सत्यभामा, मित्रवंदा, सत्या, लक्ष्मणा, भद्रा और कालिंदी। इनसे श्रीकृष्ण को लगभग 80 पुत्र हुए थे। कृष्ण की 3 बहनें थीं- एकानंगा (यह यशोदा की पुत्री थीं), सुभद्रा और द्रौपदी (मानस भगिनी)। कृष्ण के भाइयों में नेमिनाथ, बलराम और गद थे। सुभद्रा का विवाह कृष्ण ने अपनी बुआ कुंती के पुत्र अर्जुन से किया था। उसी तरह श्रीकृष्ण ने अपने पुत्र साम्ब का विवाह दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा से किया था। भगवान कृष्ण की 16 कलाएं कौन सी है?
भगवान श्रीकृष्ण पहले संपूर्ण 16 कलाओं से परिपूर्ण अवतार माने जाते हैं। वहीं पौराणिक मान्यता है कि श्रीराम सूर्यवंश में अवतरित हुए थे। सूर्य की बारह कलाएं होती हैं, इसलिए वे बारह कलाओं से परिपूर्ण माने गए। वहीं कृष्णजी चंद्रवंश में पैदा हुए थे और चंद्र आकाश को सोलह कलाओं में बांटते हैं, इसलिए कृष्णजी सोलहकलाओं से पूर्ण माने जाते हैं। जितनी भी अवतारी शक्तियां हुई हैं ,उन शक्तियों की सामर्थ्य को समझने के लिए कलाओं को आधार माना गया है। भगवान श्री कृष्ण 16 कलाओं के साथ-साथ 64 गुणों से भी संपन्न थे।श्रीमद् भागवत के अनुसार 16 कलाओं में अवतार की पूरी सामर्थ्य खिल उठती है।
श्री कृष्ण की 16 कलाओं के नाम ;-
1-श्री;-
प्रथम कला के रूप में धन संपदा को स्थान दिया गया है ।जिस व्यक्ति के पास अपार धन और आत्मिक रूप से भी धनवान हो। जिसके घर में कोई भी खाली हाथ न जाए वह प्रथम कला से संपन्न माना जाता है।यह कला भगवान श्रीकृष्ण में मौजूद है।
2-भू;-
जिस व्यक्ति के पास पृथ्वी का राज्य भोगने की क्षमता है। पृथ्वी के एक बड़े भूभाग पर जिस का अधिकार है ,और उस क्षेत्र में रहने वाले जिसकी आज्ञाओं का सहजता से पालन करते हैं। अचल संपत्ति का मालिक होता है ।भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योग्यता से द्वारिका पुरी की स्थापना की इसलिए यह कला भी इनमें मौजूद है।
3-कीर्ति;-
जिसके मान सम्मान और यश कीर्ति से चारों दिशाओं में गूंज हो।जिसके प्रति लोग स्वता ही श्रद्धा और विश्वास रखते हों।तीसरी कला से संपन्न होता है ।भगवान श्रीकृष्ण में यह कला भी मौजूद है। लोग सहर्ष श्री कृष्ण की जय जय कार करते हैं।
4-इला;-
चौथी कला का नाम इला है जिसका अर्थ है मोहक वाणी। भगवान श्रीकृष्ण में यह कला भी मौजूद है, कि उनकी वाणी मन को मोहने वाली है। पुराणों में ऐसा भी उल्लेख मिलता है, कि भगवान श्रीकृष्ण की बातों को सुनकर अत्यंत क्रोधी व्यक्ति भी अपनी सुध बुध खो कर शांत हो जाता था। उसके मन में भक्ति की भावना जाग जाती थी।यशोदा मैया के पास शिकायत करने वाली गोपिया भी श्री कृष्ण की वाणी सुनकर शिकायत भूलकर तारीफ करने लगती थी।
5-लीला;-
भगवान श्री कृष्ण की पांचवी कला का नाम है लीला। लीला का अर्थ होता है आनंद। भगवान श्री कृष्ण को लीलाधर के नाम से भी जाना जाता है। क्योंकि उनकी बाल लीलाओं से लेकर जीवन की घटना रोचक और मोहक है।इनकी लीला करने वाली कथाओं को सुनकर कामी व्यक्ति भी भावुक और विरक्त हो जाता है।
5-कांति;-
जिसके रूप से स्वता ही मन आकर्षित होने लगे और प्रसन्न होने लगे।जिसके मुख् मंडल को देखकर बार-बार उसी को देखने का मन करने लगे वह छठी कलाओं से संपन्न माना जाता है।भगवान श्री कृष्ण की इसी कला के कारण पूरे ब्रजमंडल की गोपियां उनकी छवि को देखकर मोहित हो जाती थी। और उन को पति के रूप में पाने की कामना करने लगती थी।
7-विद्या;-
भगवान श्री कृष्ण वेद वेदांग के साथ ही संगीत कला में भी पारंगत थे। राजनीति एवं कूटनीति श्री कृष्ण में भरी पड़ी थी। इसी कला का नाम विद्या है।
8-विमल;-
जिसके मन में किसी भी प्रकार का छल कपट न हो वह आठवीं कला से युक्त माना जाता है।भगवान श्री कृष्ण सभी के प्रति समान व्यवहार रखते थे, उनके लिए न कोई छोटा था और न बड़ा था। महारास के समय भगवान ने अपनी इसी कला का प्रदर्शन किया था। इस समय इन्होंने राधा और गोपियों के बीच कोई फर्क नहीं समझा। सभी के साथ समान भाव से नृत्य करते हुए सबको आनंद प्रदान किया।
9-उत्कर्षिनी;-
महाभारत के युद्ध के समय श्री कृष्ण ने नवी कला का परिचय देते हुए युद्ध से विमुख अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित किया और अधर्म पर धर्म की विजय पताका लहराई।नवी कला के रूप में प्रेरणा को स्थान दिया गया जिसमें इतनी शक्ति मौजूद हो, कि लोग उसकी बातों को लेकर प्रेरित हो जाए।
10-ज्ञान;-
भगवान श्री कृष्ण ने जीवन में कई बार विवेक का परिचय देते हुए समाज को नई दिशा प्रदान की। जो 10 वीं कला का उदाहरण है।गोवर्धन पर्वत की पूजा और महाभारत के युद्ध को टालने के लिए दुर्योधन से 5 गांव मांगने का विचार कृष्ण के विवेक का परिचय देता है।
11-क्रिया;-
11 वीं कला का स्थान क्रिया को प्राप्त है।भगवान श्री कृष्ण इस कला से भी संपन्न थे जिनकी इच्छा मात्र से दुनिया का हर काम हो सकता था ,वह कृष्ण सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करते हैं और लोगों को कर्म करने की प्रेरणा देते हैं। महाभारत के युद्ध के समय भले कृष्ण ने युद्ध ना किया हो, लेकिन अर्जुन के सारथी बनकर युद्ध का संचालन किया।
12-योग;-
जिसने अपने मन को केंद्रित कर लिया हो ।आत्मा में लीन कर लिया हो वह 12वीं कला से संपन्न माना जाता है।भगवान श्री कृष्ण को योगेश्वर कहा गया है वह उच्च कोटि के योगी थे। अपने योग बल से श्री कृष्ण ने माता के गर्भ में पल रहे परीक्षित की ब्रह्मास्त्र से रक्षा की थी । मृत गुरु पुत्र को पुनर्जीवन प्रदान किया।
13-प्रहवि;-
13 वी कला का नाम प्रहवि है।इसका अर्थ विनय होता है। भगवान श्री कृष्ण संपूर्ण जगत के स्वामी है। संपूर्ण सृष्टि का संचालन इनके हाथों में है ,फिर भी इनमें करता का अहंकार नहीं है। गरीब सुदामा को मित्र बनाकर छाती से लगा लेना।महाभारत युद्ध में विजय का श्रेय पांडवों को दे देते हैं। सभी विद्याओं में पारंगत होते हुए भी श्रेय गुरु को देते हैं ज्ञान प्राप्ति के लिए।
14-सत्य;-
भगवान श्री कृष्ण की 14 हवी कला का नाम सत्य है।श्री कृष्ण कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखते और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जानते हैं यह कला सिर्फ श्रीकृष्ण में है।जब शिशुपाल की माता ने कृष्ण से पूछा कि शिशुपाल का वध क्या तुम्हारे हाथों होगा, तो निसंकोच कह देते हैं कि यह विधि का विधान है और मुझे ऐसा करना पड़ेगा। रिश्तो की डोर में बंधे होते हुए भी श्रीकृष्ण झूठ नहीं बोलते।
15-इसना;-
15 वी कला का नाम इसना है। इस कला का तात्पर्य है कि व्यक्ति में उस गुण का मौजूद होना जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है। आवश्यकता पड़ने पर लोगों को अपने प्रभाव का एहसास दिलाता है। श्री कृष्ण ने कई बार जीवन में अपने इस कला का प्रयोग किया।
16-अनुग्रह;-
बिना प्रत्युकार की भावना से लोगों का उपकार करना यह 16 हवीं कला है।भगवान श्री कृष्ण को कभी भक्तों से कुछ पाने की उम्मीद नहीं रखते हैं। लेकिन जो भी इनके पास इनका बनकर आता है, उसकी हर मनोकामना पूरी करते हैं।
..SHIVOHAM...
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