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मंदिरों के शिखर का रहस्य..

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Feb 10, 2023
  • 5 min read

05 FACTS;-

1-पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हर दिन लोग मंदिर जाकर भगवान की पूजा करते हैं लेकिन किसी कारण से मंदिर नहीं जा पाते हैं तो शास्त्रों में उनके लिए भी उपाय बताया गया है। माना जाता है कि मंदिर के अंदर नहीं जा पा रहे हैं तो बाहर से ही मंदिर के शिखर को प्रणाम कर सकते हैं। शिखर दर्शन से भी उतना पुण्य मिलता है जितना मंदिर में प्रतिमा के दर्शन करने से मिलता है।शास्त्रों में कई जगह लिखा गया है कि शिखर दर्शनम पाप नाशम। इसका अर्थ है कि शिखर के दर्शन कर लेने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।मंदिर ऊंचे बनाने और उन पर शिखर लगाने का ये कारण होता है कि लोग आसानी से मंदिर के शिखर को देख पाएं। माना जाता है कि जब भी मंदिर के बाहर से गुजरें तो ध्वज और कलश को प्रणाम जरुर करना चाहिए। शिखर के दर्शन करते हुए आंखें बंद करके अपने इष्ट देव को अवश्य याद करना चाहिए। इससे मंदिर में जाने जितना ही पुण्य प्राप्त होता है।इसलिए घरों के पूजाघर में बने या रखे मन्दिरों में गुम्बद, शिखर, कलश व ध्वजा का लगाया जाना निषिद्ध है।मंदिरों की छतों पर एक विशेष प्रकार की आकृति बनाई जाती है।

2-जिन मन्दिरों में गुम्बद या शिखर बनाया जाता है उनमें उस गुम्बद या शिखर पर कलश व ध्वजा चढ़ाना अनिवार्य होता है। हमारी वैदिक परम्परा में हमारे मन्दिरों के कलश व ध्वजा को मुक्ताकाश अर्थात् खुले आसमान के नीचे होना आवश्यक है। मन्दिर के कलश व ध्वजा के ऊपर छत इत्यादि का होना शास्त्रानुसार निषिद्ध है।वैदिक परम्परा के अनुसार कलश व ध्वजा की तुलना में उससे ऊंचा कुछ भी नहीं होना चाहिए, इसीलिए हमारे प्राचीन मन्दिरों का परिसर बहुत विशाल हुआ करता था और मन्दिर उस परिसर के ठीक मध्य में होता था। ऐसा इसलिए क्योंकि वैदिक परम्परा में जहां तक मन्दिर के कलश व ध्वजा के दर्शन होते रहते हैं उतना क्षेत्र धर्मक्षेत्र के अन्तर्गत आता है।ऐसी मान्यता है कि उस क्षेत्र में परमात्मा का प्रभामण्डल अधिक सक्रिय रूप में उपस्थित होता है।

3-अनेक प्राचीन मंदिर ऐसे स्थलों या पर्वतों पर बनाए गए हैं, जहां से चुंबकीय तरंगें घनी होकर गुजरती हैं। इस तरह के स्थानों पर बने मंदिरों में प्रतिमाएं ऐसी जगह रखी जाती थीं , जहां चुंबकत्व का प्रभाव ज्यादा हो । यहीं पर तांबे का छत्र और तांबे के पाट रखे होते थे और आज भी कुछ स्थानों पर रखे हैं। तांबा बिजली और चुंबकीय तरंगों को अवशोषित करता है। इस प्रकार जो भी व्यक्ति प्रतिदिन मंदिर जाकर इस मूर्ति की घड़ी के चलने की दिशा में परिक्रमा करता है, वह इस एनर्जी को अवशोषित कर लेता है। इससे उसको मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य लाभ मिलता है। हालांकि यह एक धीमी प्रक्रिया मानी जा सकती है लेकिन इससे मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है। इसके अलावा प्रतिमा के समक्ष प्रज्वलित दीपक ऊष्मा की ऊर्जा का वितरण करता है एवं शंख-घंटियों की ध्वनि तथा लगातार होते रहने वाले मंत्रोच्चार से एक ब्रह्मांडीय नाद बनता है तो मन और मस्तिष्क को नियंत्रित कर ध्यानपूर्ण बना देता है। मंत्रमुग्ध हो जाने के मतलब ही यही है। इसके अलावा मंदिरों में तांबे के एक पात्र में तुलसी और कपूर-मिश्रित जल भरा होता है जिसका सेवन करने से जहां रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है वहीं इससे ब्रह्म-रन्ध्र में शांति मिलती है। इस तरह के मंदिरों में यदि आप पवित्र हो कर पवित्र भावना से जाएं और प्रार्थना करेंगे तो आपकी मांग जरूर पूरी होती ।

3-मंदिर में शिखर की भीतरी सतह से टकराकर ऊर्जा तरंगें व ध्वनि तरंगें व्यक्ति के ऊपर पड़ती हैं। ये परावर्तित किरण तरंगें मानव शरीर आवृत्ति बनाए रखने में सहायक होती हैं। व्यक्ति का शरीर इस तरह से धीरे- धीरे मंदिर के भीतरी वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। इस तरह मनुष्य असीम सुख का अनुभव करता है। पुराने मंदिर सभी धरती के धनात्मक (पॉजीटव) ऊर्जा के केंद्र हैं। ये मंदिर आकाशीय ऊर्जा के केंद्र में स्थित हैं। उदाहरणार्थ उज्जैन का महाकाल मंदिर कर्क रेखा पर स्थित है। ऐसे धनात्मक ऊर्जा के केंद्र पर जब व्यक्ति मंदिर में नंगे पैर जाता है तो इससे उसका शरीर अर्थ हो जाता है और उसमें एक ऊर्जा प्रवाह दौड़ने लगता है। वह व्यक्ति जब मूर्ति के जब हाथ जोड़ता है तो शरीर का ऊर्जा चक्र चलने लगता है। जब वह व्यक्ति सिर झुकाता है तो मूर्ति से परावर्तित होने वाली पृथ्वी और आकाशीय तरंगें मस्तक पर पड़ती हैं और मस्तिष्क पर मौजूद आज्ञा चक्र पर असर डालती हैं। इससे शांति मिलती है तथा सकारात्मक विचार आते हैं जिससे दुख-दर्द कम होते हैं और भविष्य उज्ज्वल होता है।

4-यह आकृति ऊपर की तरफ नुकीली हो जाती है। प्रश्न यह है कि मंदिरों की छतों को इस प्रकार से क्यों बनाया जाता है। क्या इसके पीछे कोई साइंस है ...विशेषज्ञों के अनुसार भारत मे 2 तरह की मंदिर निर्माण शैलियां है। उत्तर भारत (नागर शैली) दक्षिण भारत (द्रविड़ शैली)। उत्तर भारत मे छत को मंदिर वास्तु की भाषा मे शिखर कहते है और दक्षिण भारत मे इसको विमान कहते है। दक्षिण भारत मे शिखर सिर्फ ऊपर रखे पत्थर को बोलते है जबकि उत्तर भारत मे सबसे ऊपर कलश रखा होता है। इसके अलावा इन से मिलती-जुलती कुछ और मंदिर निर्माण शैलियां भी होती है।

5-मंदिर की छत को पिरामिड जैसा क्यों बनाया जाता है?-

03 POINTS;-

1-धार्मिक दृष्टि से बात करें तो ब्रह्मांड एक बिंदु के रूप में था अतः मंदिर का शिखर एक बिंदु के रूप में होता है जो ब्रह्मांड से सकारात्मक ऊर्जा को संचित करने का काम करता है। विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि अंदर से खोखला इस तरह का पिरामिड बनाने से उस खाली स्थान में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार एकत्रित हो जाता है। यदि कोई मनुष्य इस ऊर्जा केंद्र के नीचे आता है तो उसे भी सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। स्थापत्य कला के अनुसार जरूरी नहीं है कि सामने भगवान की प्रतिमा हो, लेकिन यदि आपके इष्टदेव की प्रतिमा है तो सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव मानसिक रूप से कई गुना बढ़ जाता है।

2-दूसरा प्रमुख कारण यह है कि इस तरह की आकृति के कारण सूर्य की किरणें उसे प्रभावित नहीं कर पाती और त्रिकोण के अंदर एवं नीचे वाला हिस्सा बाहर अधिक तापमान होने के बावजूद ठंडा रहता है। क्योंकि भारत में मंदिरों का निर्माण यात्रियों के विश्राम के लिए भी किया गया था। अतः यात्रियों की थकान जल्दी से दूर हो सके इसलिए भी इस तरह की स्थापत्य कला का उपयोग किया गया।मंदिर के शिखर के कारण उसे दूर से पहचाना जा सकता है क्योंकि नीचे भगवान की प्रतिमा स्थापित है। इस प्रकार की आकृति के कारण कोई भी व्यक्ति प्रतिमा के ऊपर खड़ा नहीं हो सकता। मंदिरों का निर्माण पूर्ण वैज्ञानिक विधि से किया जाता है। मंदिर का वास्तुशिल्प ऐसा होता है, जिससे वहां पवित्रता, शांति और दिव्यता बनी रहती है। मंदिर की छत ध्वनि सिद्धांत को ध्यान में रखकर बनाई जाती है, जिसे गुंबद कहा जाता है।

3-शिखर के केंद्र बिंदु के ठीक नीचे मूर्ति स्थापित होती है। गुंबद के कारण मंदिर में किए जाने वाले मंत्रों के स्वर और अन्य ध्वनियां गूंजती हैं तथा वहां उपस्थित व्यक्ति को प्रभावित करती है। गुंबद और मूर्ति का केंद्र एक ही होने से मूर्ति में निरंतर ऊर्जा प्रवाहित होती रहती है। जब हम उस मूर्ति को स्पर्श करते हैं, उसके आगे सिर टिकाते हैं तो हमारे अंदर भी वह ऊर्जा प्रवेश करती है। इस ऊर्जा से शक्ति, उत्साह और प्रसन्नता का संचार होता है।यही मन्दिर छत निर्माण की सत्य सनातन कला है।

.....SHIVOHAM...



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