मनन, एकाग्रता और ध्यान का क्या अर्थ है?
मनन, एकाग्रता और ध्यान ;-
05 FACTS;- 1-मनन का अर्थ है -दिशाबद्ध विचारना। हम सब विचार करतें हैं, लेकिन वह मनन नहीं है। वह विचारना दिशा रहित है, अस्पष्ट है। वास्तव में, हमारा विचारना मनन नहीं है, बल्कि उसे एसोसिएशन कहना चाहिए। तुम्हारे अनजाने ही एक विचार दूसरे विचार को जन्म दिए जाता है। एसोसिएशन के कारण एक विचार अपने आप ही दूसरे विचार पर चला जाता है।तुमने एक तोते को देखा तो जिस क्षण तुम तोते को देखते हो, तुम्हारा मन तोते के संबंध में सोचने लगता है।फिर तोते तो भूल जाते हैं और एसोसिएशन के प्रभाव के कारण तुम अपने बचपन के संबंध में दिवा -स्वप्न देखने लगते हो। और फिर बचपन के साथ जुड़ी हुई अनेक चीजें आती हैं, और तुम उनके बीच चक्कर काटने लगते हो।जब तुम्हें फुरसत हो तो तुम सोचने से पीछे चलो, विचारने से पीछे हटकर वहां जाओ जहां से विचार आया। एक -एक कदम पीछे हटो और तब तुम पाओगे कि वहां कोई दूसरा विचार था जो इस विचार को लाया। और उनके बीच कोई संगति नहीं है। तुम्हारे बचपन के साथ इस तोते का कोई लेना- देना , कोई संगति नहीं है, सिर्फ मन का एसोसिएशन है।किसी तीसरे व्यक्ति को वह तोता कहीं और ले जाएगा। 2-हरेक व्यक्ति के मन में एसोसिएशन की श्रृंखला है। कोई भी घटना एसोसिएशन की श्रृंखला से जुड़ जाती है। तब मन कंप्यूटर की भांति काम करने लगता है। तब एक चीज से दूसरी चीज, दूसरी से तीसरी निकलती चली जाती है। यही तुम दिन भर करते रहते हो। जो भी तुम्हारे मन में आए उसे ईमानदारी से एक कागज के टुकड़े पर लिख लो। तुम हैरान होओगे कि यह मेरे मन में क्या चल रहा है ..दो विचारों के बीच कोई संबंध ही नहीं है। और तुम इसी तरह के विचार करते रहते हो। यह सिर्फ एक विचार का दूसरे विचार के साथ एसोसिएशन है और तुम उनके साथ बह रहे हो।विचार तब मनन बनता है जब वह एसोसिएशन के कारण नहीं, निर्देशन से चलता है। अगर तुम किसी खास समस्या पर काम कर रहे हो तो तुम सब एसोसिएशन की श्रृंखला को अलग कर देते हो और उसी एक समस्या के साथ गति करते हो। तब तुम अपने मन को निर्देश देते हो। मन तब भी इधर -उधर से किसी एसोसिएशन की श्रृंखला पकड़कर भागने की चेष्टा करेगा। लेकिन तुम सभी अन्य रास्तों को रोक देते हो और मन को एक मार्ग से ले चलते हो। तब तुम अपने मन को दिशा देते हो। 3-किसी समस्या में संलग्न एक वैज्ञानिक मनन में होता है। वैसे ही किसी समस्या में उलझा हुआ तार्किक या गणितज्ञ मनन करता है। जब कवि किसी फूल पर मनन करता है तब शेष संसार उसके मन से ओझल हो जाता है। तब दो ही होते हैं,फूल और कवि, और कवि फूल के साथ यात्रा करता है। रास्ते के किनारों से अनेक चीजें आकर्षित करेंगी, लेकिन वह अपने मन को कहीं नहीं जाने देता है। मन एक ही 'निर्देशित' दिशा में गति करता है।यह मनन है। विज्ञान मनन पर आधारित है। कोई भी तार्किक विचार मनन है। उसमें विचार निर्देशित है, दिशाबद्ध है। विचार की दिशा निश्चित है। सामान्य विचारना तो व्यर्थ है। मनन तर्कपूर्ण है, बुद्धिपूर्ण है।फिर एकाग्रता है। एकाग्रता एक बिंदु पर ठहर जाना है। यह विचारना नहीं है, एक बिंदु पर होने को एकाग्रता कहते हैं। सामान्य विचारणा में मन पागल की तरह गति करता है। मनन में पागल मन निर्देशित हो जाता है, उसे जहां-तहां जाने की छूट नहीं है। एकाग्रता में मन को गति की ही छूट नहीं रहती। साधारण विचारणा में मन कहीं भी गति कर सकता है; मनन में किसी दिशा विशेष में ही गति कर सकता है; एकाग्रता में वह कहीं भी गति नहीं कर सकता। एकाग्रता में उसे एक बिंदु पर ही रहने दिया जाता है। सारी ऊर्जा, सारी गति एक बिंदु पर स्थिर हो जाती है। 4-योग का संबंध एकाग्रता से है। साधारण मन दिशाहीन, अनियंत्रित विचार से संबंधित है और वैज्ञानिक मन दिशाबद्ध विचार से। योगी का चित्त अपने चिंतन को एक बिंदु पर केंद्रित रखता है, वह उसे गति नहीं करने देता।और फिर है ध्यान। साधारण विचार में मन कहीं भी जा सकता है। मनन में उसे एक दिशा में गति करने की इजाजत है, दूसरी सब दिशाएं वर्जित हैं। एकाग्रता में मन को किसी भी दिशा में गति करने की इजाजत नहीं है, उसे सिर्फ एक बिंदु पर एकाग्र होने की छूट है। और ध्यान में मन है ही नहीं। ध्यान अ-मन की दशा है। ये चार अवस्थाएं हैं : साधारण विचारना,मनन, एकाग्रता और ध्यान। ध्यान का अर्थ है, अ-मन। उसमें एकाग्रता के लिए भी गुंजाइश नहीं है; मन के होने की ही गुंजाइश नहीं है। यही कारण है कि ध्यान को मन से नहीं समझा जा सकता। एकाग्रता तक मन की पहुंच है, मन की पकड़ है। मन एकाग्रता को समझ सकता है, लेकिन' मन ध्यान को नहीं समझ सकता। वहां मन की पहुंच बिलकुल नहीं है। एकाग्रता में मन को एक बिंदु पर रहने दिया जाता है; ध्यान में वह बिंदु भी हटा लिया जाता है। साधारण विचारणा में सभी दिशाएं खुली रहती हैं; एकाग्रता में दिशा नहीं, एक बिंदु भर खुला है; और ध्यान में वह बिंदु भी नहीं खुला है। वहां मन के होने की भी सुविधा नहीं है।मनन और एकाग्रता मन की प्रक्रियाएं हैं ।साधारण विचारणा मन की साधारण दशा है, ध्यान उसकी उच्चतम संभावना है।निम्नतम है सामान्य विचारना,एसोसिएशन।और उच्चतम शिखर है ध्यान, अ-मन। मन ही मन के पार कैसे जा सकता है? 06 FACTS;- 1-मन पूछता है कि मन ही मन के पार कैसे जा सकता है या कैसे कोई मानसिक प्रक्रिया उस चीज को पाने में सहयोगी हो सकती है जो मन की नहीं है? यह बात परस्पर विरोधी मालूम देती है। तुम्हारा मन उस अवस्था को पैदा करने में प्रयत्नशील कैसे हो सकता है जो मन की अवस्था नहीं है?वास्तव में,मन विचारने की प्रक्रिया है और अ-मन की दशा विचारने की प्रक्रिया का अभाव है। अगर तुम अपने विचारने की प्रक्रिया को घटाते जाओ, अपनी विचारणा को विसर्जित करते जाओ, तो तुम धीरे -धीरे अ-मन की अवस्था को पहुंच जाओगे।तो मन का अर्थ है विचारना और अ-मन का अर्थ है निर्विचार। और मन सहयोगी हो सकता है ।अगर विचार करने की प्रक्रिया गहरी होती जाए तो तुम मन से अधिक मन की ओर बढ़ रहे हो। और मन सहयोगी हो सकता है अगर विचार की प्रक्रिया क्षीण होती जाए, विरल होती जाए, तो तुम अ-मन की ओर बढ़ने में अपनी मदद कर रहे हो। यह तुम पर निर्भर है।अगर तुम उसके साथ बिना कुछ किए अपनी चेतना को अपने पर छोड़ दो तो वह ध्यान बन जाती है।तो दो संभावनाएं हैं। एक यह कि धीरे-धीरे, क्रमश: तुम अपने मन को कम करो, घटाओ। अगर वह एक प्रतिशत घटे तो तुम्हारे भीतर निन्यानबे प्रतिशत मन है और एक प्रतिशत अ-मन। यह ऐसा है जैसे तुम अपने कमरे से फर्नीचर हटा रहे हो, और अगर तुमने कुछ फर्नीचर हटा दिया तो थोड़ा खाली स्थान, थोड़ा आकाश वहां पैदा हो गया। फिर और ज्यादा फर्नीचर तो और ज्यादा आकाश पैदा हो गया। और जब सब फर्नीचर हटा दिया तो समूचा कमरा आकाश हो गया। 2-सच तो यह है कि फर्नीचर हटाने से कमरे में आकाश नहीं पैदा हुआ, आकाश तो वहां था ही। वह आकाश फर्नीचर से भरा था। जब तुम फर्नीचर हटाते हो तो वहां कहीं बाहर से आकाश नहीं आता है। आकाश फर्नीचर से भरा था, तुमने फर्नीचर हटा दिया और आकाश फिर से उपलब्ध हो गया।गहरे में मन भी आकाश है जो विचारों से भरा है, दबा है। तुम थोड़े से विचारों को हटा दो और आकाश फिर से प्राप्त हो जाएगा। अगर तुम विचारों को हटाते जाओ तो तुम धीरे-धीरे आकाश को फिर से हासिल कर लोगे। यही आकाश ध्यान है।यह बात क्रमिक भी हो सकती है और अचानक भी । जरूरी नहीं है कि जन्मों-जन्मों तक धीरे-धीरे फर्नीचर हटाया जाए, क्योंकि उस प्रक्रिया की भी अपनी कठिनाई है। जब धीरे -धीरे फर्नीचर हटाते हो तो पहले एक प्रतिशत आकाश पैदा होता है और शेष निन्यानबे प्रतिशत भरा का भरा रहता है। अब यह निन्यानबे प्रतिशत आकाश एक प्रतिशत खाली आकाश के संबंध में अच्छा नहीं अनुभव करेगा, वह उसे फिर से भरने की चेष्टा करेगा।तो व्यक्ति एक तरफ से विचारों को कम करता है और दूसरी तरफ से नए -नए विचार पैदा किए जाता है।
3-सुबह तुम थोड़ी देर के लिए ध्यान करते हो, उसमें तुम्हारी विचार की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। फिर तुम बाजार जाते हो जहां विचारों की दौड़ शुरू हो जाती है। स्पेस, आकाश फिर से भर गया। दूसरे दिन तुम फिर वही सिलसिला दोहराते हो, उसे रोज दोहराते हो..विचारो को बाहर निकालना, फिर उन्हें भीतर लेना।तुम सब फर्नीचर इकट्ठा भी बाहर फेंक सकते हो। यह तुम्हारा निर्णय है। यह कठिन जरूर है, क्योंकि तुम फर्नीचर के आदी हो गए हो। तुम्हें फर्नीचर के बिना अड़चन अनुभव होगी, तुम्हें समझ में नहीं आएगा कि स्पेस का, आकाश का क्या करें। तुम उसमें गति करने से भी डरोगे, तुमने ऐसी स्वतंत्रता में कोई गति नहीं की है।मन एक संस्कार है। हम विचारों के आदी हो गए हैं और रोज वही-वही विचार दोहराते रहते है।तुम अपने बिस्तर पर पड़े नींद की प्रतीक्षा कर रहे हो और वही बातें रोज-रोज मत में दोहराती हैं। यह तुम रोज-रोज क्यों करते हो? लेकिन वह एक तरह से काम आती है। पुरानी आदतें संस्कार के रूप में सहायता करती हैं।
4-एक बच्चे को खिलौना चाहिए, उसे खिलौना मिल जाए तो उसे नींद आ जाएगी। और तब तुम उससे खिलौना ले सकते हो। लेकिन खिलौना न रहे तो बच्चे को नींद न आएगी। यह भी संस्कार है। जैसे ही उसे खिलौना मिलता है कि उसके मन में कुछ प्रेरणा होती है, वह नींद में उतरने के लिए राजी हो जाता है।वही बात तुम्हारे साथ हो रही है। खिलौनों में फर्क हो सकता है। किसी को तब तक नींद नहीं आती है जब तक वह मंत्र का उच्चार न करे। तब तक वह सो नहीं सकता है।तुम्हें एक नए कमरे में नींद आने में कठिनाई होती है। अगर तुम किसी खास ढंग के पकड़े पहनकर सोने के आदी हो तो तुम्हें रोज -रोज उन्हीं खास कपड़ों की जरूरत पड़ेगी।व्यक्ति पुरानी आदतों के साथ आराम अनुभव करता है, वह सुविधाजनक है।वैसे ही सोचने के ढंग भी आदतें हैं। रोज वही विचार, वही दिनचर्या तो तुम्हें आराम मालूम देता है। तुम्हें लगता है, सब ठीक चल रहा है। तुम्हारे विचारों में तुम्हारा स्वार्थ है और वही समस्या है। तुम्हारा फर्नीचर महज कचरा नहीं है जिसे फेंक दिया जाए, उसमें तुमने बहुत कुछ पूंजी लगा रखी है। सब फर्नीचर तुरंत और इकट्ठा फेंका जा सकता है, वह हो सकता है , उसके उपाय भी हैं। इसी क्षण तुम अपने सारे मानसिक फर्नीचर से मुक्त हो सकते हो। 5-लेकिन तब तुम अचानक रिक्त, खाली, शून्य हो जाओगे और तुम्हें पता नहीं रहेगा कि तुम कौन हो। अब तुम्हें यह भी पता नहीं चलेगा कि क्या करें। क्योंकि पहली दफा तुम्हारे पुराने ढंग -ढांचे तुम्हारे पास नहीं होंगे। उसका धक्का, उसकी चोट इतनी त्वरित हो सकती है कि तुम मर भी सकते हो, पागल भी हो सकते हो।इसलिए जब तक कोई तैयार न हो ;त्वरित विधियां प्रयोग में नहीं लायी जाती हैं। कोई अचानक पागल हो जा सकता है, क्योंकि उसके पुराने अटकाव नहीं रहे। अतीत तुरंत विदा हो जाता है , इसलिए तुम भविष्य की भी नहीं सोच सकते। क्योंकि भविष्य को तो हम सदा अतीत की भाषा में सोचते हैं। सिर्फ वर्तमान बचा रहता है, और तुम कभी वर्तमान में रहे नहीं। या तो तुम अतीत में रहते हो या भविष्य में। इसलिए जब तुम पहली बार मात्र वर्तमान में होओगे तो तुम्हें लगेगा कि तुम पागल हो गए हो। 6-यही कारण है कि त्वरित विधियां उपयोग में नहीं लायी जाती हैं। और वे तभी उपयोग में लायी जाती हैं जब तुम समग्रत: भक्तिभाव में हो, जब तुमने ध्यान के लिए अपना समूचा जीवन अर्पित कर दिया हो।इसलिए क्रमिक विधियां ही अच्छी हैं। वे लंबा समय लेती हैं, लेकिन तुम धीरे-धीरे आकाश के आदी हो जाते हो। तुम आकाश को, उसके सौंदर्य को, उसके आनंद को अनुभव करने लगते हो। और तुम्हारा फर्नीचर धीरे-धीरे हट जाता है, निकल जाता है।इसलिए साधारण विचार से मनन पर जाना अच्छा है, वह क्रमिक विधि है। मनन से एकाग्रता पर जाना अच्छा है, वह क्रमिक विधि है।और एकाग्रता से ध्यान पर छलांग लगाना अच्छा है। तब तुम धीरे-धीरे गति करते हो-जमीन को प्रत्येक कदम पर अनुभव करते हुए।और जब यथार्थत: प्रत्येक कदम में तुम्हारी जड़ जम जाती है तभी तुम अगला कदम शुरू करने केंद्रित, संतुलित की सोचते हो।यह छलांग नहीं है, यह क्रमिक विकास है।इसलिए सामान्य विचार, मनन, एकाग्रता और ध्यान, ये चार चरण है।
....SHIVOHAM...
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