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मन्वंतर का क्या अर्थ है?कितने मन्वंतर होते हैं?

मन्वन्तर क्या है?-

02 FACTS;-

1-विज्ञान में समय को लेकर एक अलग ही मान्यता है। विज्ञान के मुताबिक हम भविष्य को वैसे ही जान सकते हैं जैसे हम एक जगह से दूसरी जगह पहुंचते हैं। हिंदू धर्म में जिस तरह ज्योतिष भविष्य को निश्चित मानता है वैसे ही विज्ञान भी समय को निश्चित मानता है। हालांकि विज्ञान टाइम को लेकर कई तरह की खोज में जुटा हुआ है, लेकिन समय या टाइम या फिर काल की गणना हिंदू धर्म में कुछ अलग ही तरह से दी गई है। प्राचीनकाल से हिन्दू मानते आए हैं धरती का समय अन्य ग्रहों और नक्षत्रों के समय से भिन्न है। जैसे 365 दिन में धरती का 1 वर्ष होता है तो धरती के मान से 365 दिन में देवताओं का 1 'दिव्य वर्ष' होता है।

हिन्दू काल-अवधारणा सीधी होने के साथ चक्रीय भी है। राम तो कई हुए, लेकिन हर त्रेतायुग में अलग-अलग हुए और उनकी कहानी भी अलग-अलग है। पहले त्रेतायुग के राम का दशरथ नंदन राम से कोई लेना-देना नहीं है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव तय करते हैं किस युग में कौन राम होगा और कौन रावण। कौन कृष्ण होगा और कौन कंस? ब्रह्मा, विष्णु और महेश के ऊपर है 'काल ब्रह्म'।

2-हिन्दू काल निर्धारण के अनुसार 4 युगों का मतलब 12,000 दिव्य वर्ष होता है। 4-4 करने पर 71 युग होते हैं। 71 युगों का एक मन्वंतर होता है। 14 मन्वंतर का 1 कल्प माना गया है। 1 कल्प अर्थात ब्रह्माजी के लोक का 1 दिन होता है। विष्णु पुराण के अनुसार मन्वंतर की अवधि 71 चतुर्युगी के बराबर होती है। 1 मन्वंतर = 71 चतुर्युगी = 8,52,000 दिव्य वर्ष = 30,67,20,000 मानव वर्ष। अब तक 6 मन्वंतर बीत चुके हैं और यह 7वां मन्वंतर चल रहा है जिसका नाम वैवस्वत मनु का मन्वंतर कहा गया है। अब तक महत कल्प, हिरण्य गर्भ कल्प, ब्रह्म कल्प और पद्म कल्प बीत चुका है। यह 5वां कल्प वराह कल्प चल रहा है। अब तक वराह कल्प के स्वयम्भुव मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तमास मनु, रेवत मनु, चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वंतर बीत चुके हैं। अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अंतरदशा चल रही है। सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी संवत् प्रारंभ होने से 5,631 वर्ष पूर्व हुआ था।

कितने मन्वंतर होते हैं? -

09 FACTS;-

1-मन्वन्तर, मनु, हिन्दू धर्म अनुसार, मानवता के प्रजनक, की आयु होती है। यह समय मापन की खगोलीय अवधि है। मन्वन्तर एक संस्कॄत शब्द है, जिसका संधि-विच्छेद करने पर = मनु+अन्तर मिलता है। इसका अर्थ है मनु की आयु। सृष्टि की आयु का अनुमान लगाने के लिये चार युगों सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलि युग का एक 'महायुग' माना जाता है।71 महायुग मिलकर एक 'मन्वंतर' बनाता है।महायुग की अवधि 43 लाख 20 हज़ार वर्ष मानी गई है।14 मन्वंतरों का एक 'कल्प' होता है।

प्रत्येक मन्वंतर में सृष्टि का एक मनु होता है और उसी के नाम पर उस मन्वंतर का नाम पड़ता है।मानवीय गणना के अनुसार एक मन्वंतर में तीस करोड़ ,अड़सठ लाख , बीस हज़ार वर्ष होते हैं।

2-पुराणों में चौदह मन्वंतर इस प्रकार हैं-

1-स्वायंभुव ,

2- स्वारोचिष,

3- उत्तम ,

4 -तामस,

5 -रैवत,

6- चाक्षुष,

7- वैवस्वत,

8-अर्क सावर्णि,

9-दक्ष सावर्णि,

10-ब्रह्म सावर्णि,

11-धर्म सावर्णि,

12- रुद्र सावर्णि,

13- रौच्य,

14-भौत्य।

3-इनमें से चाक्षुस तक के मन्वंतर बीत चुके हैं ।वैवस्वत इस समय चल रहा है । संकल्प आदि में इसी का नामोच्चार होता है।

ब्रह्म लोक का एक दिन हमारी सृष्टि के एक कल्प के समय के बराबर होता है और उस एक कल्प में चौदह मनु होते हैं यानी ब्रह्मा जी अपने एक दिन में चौदह मनुओं की सृष्टि करते हैं। इन चौदह मनुओं के अनुसार ही चौदह मन्वंतर होते हैं। अलग-अलग मन्वन्तरों में अलग-अलग सप्तर्षि होते हैं ।चौदहों मनु तथा उनके पुत्र एक-एक कर समस्त पृथ्वी के राजा होकर धर्म पूर्वक प्रजा का पालन करते हैं और इस सृष्टि का विस्तार करते हैं । इन मनुओं के अनुसार ही चौदह मनवन्तरों के चौदह अलग-अलग नाम पड़े हैं।ब्रह्मा जी का जो वर्तमान दिन (हमारी सृष्टि का वर्तमान कल्प) चल रहा है उसके चौदह मनुओं में प्रथम मनु का नाम है स्वायम्भुव मनु । अपने मानस पुत्र-पुत्रियों के अलावा अमैथुनी सृष्टि का विस्तार करते हुए जब परमात्मा की प्रेरणा से ब्रह्मा जी ने मैथुनी सृष्टि का संकल्प लिया तो उन्होंने अपने ही शरीर से स्वायम्भुव मनु तथा महारानी शतरूपा को प्रकट किया।

4-ये आदि मनु ही प्रथम मनु है, जिनके नाम से मन्वन्तर का नाम, स्वाम्भुव मन्वन्तर पड़ा। द्वितीय मनु का नाम स्वारोचिष है। इसी प्रकार क्रमशः औत्तम, तामस्, रैवत तथा चाक्षुष, ये छः मनु हए। वर्तमान में सातवां ‘वैवस्वत’ मन्वन्तर चल रहा है। सूर्यसावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रूद्रसावर्णि, देवसावर्णि तथा इन्द्रसावर्णि ये सात मन्वन्तर इसके बाद चलेंगे।

यहाँ ध्यान देने की बात यह है प्रत्येक कल्प में इन मन्वन्तरों के नाम भी बदल जाते हैं। मन्वन्तरों का दिया गया उपरोक्त क्रम वर्तमान कल्प का है। सप्तर्षियों का प्रादुर्भाव श्री ब्रहमाजी के मानस संकल्प से हुआ है अर्थात ये उनके मानस पुत्र हैं ।कल्प के प्रारम्भ में सृष्टि के विस्तार एवं उनके उचित सञ्चालन के लिए ब्रहमा जी ने अपने ही समान दस ऋषियों को उत्पन्न किया । इन ऋषियों के नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष तथा नारद हैं। यही आदि ऋषि-सर्ग है ।इन ऋषियों का प्रादुर्भाव ब्रहमा जी के मानसिक संकल्प से उनके अनेक अंगो से हुआ है, अतःयह ऋषिसृष्टि, मानस सृष्टि या आंगिक सृष्टि अथवा सांकल्पिक सृष्टि भी कहलाती है । इनमें नारद जी ब्रहमा जी की गोद से, दक्ष अंगूठे से, वशिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाँथों से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए हैं। सृष्टि के विस्तार तथा उसके रक्षण में इन ऋषियों का महत्वपूर्ण योगदान है।

5-प्रत्येक मन्वन्तर में नामभेद से यह ही ऋषि सप्तर्षि होकर महाप्रलय में चराचर के सूक्ष्मतम स्वरूप और वनस्पतियों तथा औषधियों को बीजरूप में धारणकर वि़द्यमान रहते है, प्रलय काल में भी ये बने रहते हैं और पुनः नयी सृष्टि में उसका विस्तार करते हैं।प्रकारान्तर से हम अनुमान लगा सकते हैं कि ब्रह्माण्ड के अंत-काल में जब उसका संकुचन प्रारम्भ हो जाएगा तो ब्रह्माण्ड के प्रत्येक तत्व अपने मौलिक और सूक्ष्मतम रूप में सप्तर्षि तारामंडल में विद्यमान रहेगा।यद्यपि आज के वैज्ञानिक अन्तरिक्ष में स्थापित अपनी शक्तिशाली एवं अत्याधुनिक दूरबीनों से सौरमंडल के बाहर एक वृहद संसार को देख सकते हैं लेकिन ये संसार कितना आभासी और कितना वास्तविक है इसका अनुमान लगाना कठिन है क्योंकि सौरमंडल के गुरुत्व को भेद कर आती विद्युत-चुम्बकीय किरणें सही और सटीक जानकारी देंगी इसकी सम्भावना कम है।सप्तर्षि तारामंडल अपने सौर-मंडल से अत्यधिक दूर है। आज की वैज्ञानिक उपलब्धियों से वहां पहुँचने में जितना समय लग जाएगा वह अप्रासंगिक होगा लेकिन वहां पहुँचने पर ही वास्तविकता का अंदाज़ा लग पायेगा।ये सप्तर्षिगण एक रूप से नक्षत्रलोक में सप्तर्षि तारामंडल में स्थित रहते हैं और दूसरे मूर्त रूप मे तीनों लोकों में (अर्थात स्थूल और सूक्ष्म दोनों जगत में) विभिन्न सृष्टियों के कालचक्र के अनुसार वहां ईश्वर की सकारात्मक शक्तियों की स्थापना एवं संवर्धन करते हैं।

6-इस प्रकार से सप्तर्षिगण जीवों पर महान कृपा करते हैं। अगर ये स्थूल और सूक्ष्म सृष्टि के सत्वांश और चैतन्यांश को धारण कर प्रलय काल में सुरक्षित न रखते तो पुनः नवीन सृष्टि की रचना कठिन होती । प्रत्येक चतुर्युग (सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलि) बीतने पर वेद-विप्लव होता है । इसीलिये सप्तर्षिगण भूतल पर अवतीर्ण होकर वेदों (ईश्वर की सकारात्मक शक्तियों का) का उद्धार करते हैं।अधिकारी जिज्ञासु को प्रत्यक्ष या परोक्ष, जैसा वह अधिकारी हो, तत्वज्ञान की ओर उन्मुख करके मुक्तिपथ में लगाते है। ये सभी ऋषि कल्पान्तचिरंजीवी, त्रिकालदर्षी, मुक्तात्मा और दिव्य देहधारी होते हैं । ये स्थितप्रज्ञ तथा अतीन्द्रिय दृष्टा है। गृहस्थ होते हुए भी ये मुनिवृत्ति से रहते हैं।ये सत्य, धर्म, ज्ञान, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, सदाचार एवं अपरिग्रह के मूर्तिमान स्वरूप और ब्रहम तेज से सम्पन्न होते है। यज्ञों द्वारा देवताओं का आप्यायन और नित्य ईश्वर की शक्तियों का अनुसन्धान ही इनकी मुख्य चर्या रहती है।इन ऋषियों की महिमा अपार है, ये सभी तपोधन हैं। ऋषियों ने वेदमन्त्रों का दर्शन किया है, इसीलिए ‘ऋषियों मंत्रदृष्टारः’ कहा गया है यानी ऋषि वेदमन्त्रों के दृष्टा हैं। याद रखने वाली बात ये है कि वेद और उनके मन्त्र अपौरुषेय हैं यानी इन्हें ईश्वर ने बनाया है और ये स्वयं ईश्वर स्वरुप ही हैं। ऋषि वेदमन्त्रों के दृष्टा और स्मर्ता हैं। इसलिए इनकी महिमा अपार है।

7-इस प्रकार से प्रातःकाल जगने के बाद ऋषियों के स्मरण की विशेष महिमा है । वेदों में तो सप्तर्षियों की महिमा का बार-बार वर्णन हुआ है । वहां सात संख्या की व्याख्या ऋषियों के एक विशेष वर्ग के लिए तो हुई ही है, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि तथा राजर्षि, इन सात रूपों में भी ऋषियों का विभाजन भी हुआ है ।जैसे से 49 मरूद् देवताओं का सात-सात का वर्ग है, उसी प्रकार से ऋषियों में भी सात ऋषियों के वर्ग है, जो सप्तर्षि कहलाते है । सात संख्या का विशेष महत्व है । इस ब्रहमाण्ड में सात लोक ऊपर और सात लोक नीचे है, सात ही सागर हैं, वेद के गायत्री, उश्णिक् आदि सात छन्द ही मुख्य है, भगवान सूर्य सात रश्मियाँ ही मुख्य हैं ।सप्तर्षि गण सूक्ष्म रूप से इस देह में भी विद्यमान रहकर देव रूप होकर इसका संचालन करते हैं । ये सात ऋषि प्राण, त्वचा, चक्षु, श्रवण, रसना , घ्राण तथा मन रूप से देह में स्थित है और सुषिुप्काल में देह में व्याप्त रहते हुए भी हृदयाकाश स्थित विज्ञात्मक ब्रहम में प्रविष्ट हो जाते हैं।

8-कष्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वमित्र, गौतम, जमदग्नि तथा वसिष्ठ- ये वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं । महर्षि वसिष्ठ जी के साथ उनकी धर्मप्राण देवी अरून्धती भी साथ में ही सप्तर्षि मण्डल में स्थित रहती हैं । महाभागा अरून्धती के पातिव्रत्य की अपार महिमा है, इसी बल पर ये सदा वशिष्ठ जी के साथ रहती है । सप्तर्षियों के साथ देवी अरून्धती जी का भी पूजन होता है । अखण्ड सौभाग्य तथा श्रेष्ठ दाम्पत्य जीवन के लिए इनकी अराधना होती है ।आकाश में सप्तर्षि मण्डल कहां स्थित है, इस विषय में श्रीभद्भागवत में बताया गया है कि नवग्रहों समेत सौर-मंडल के समस्त लोको से ऊपर ग्यारह लाख योजन की दूरी पर कश्यप आदि सप्तर्षि दिखायी देते हैं।ये समस्त लोकों के लिए मंगल कार्य करते हुए भगवान विष्णु के परम पद यानी ध्रुवलोक की प्रदक्षिणा किया करते हैं ।आकाश में सप्तर्षिमण्डल के उत्तर में ध्रुवलोक स्थित है । इस प्रकार सप्तर्षिमण्डल में स्थित रहकर ये सप्तर्षिगण जीवों के शुभाशुभ कर्मों के साक्षी बनते हैं और भगवान की अवतार लीला में सहयोगी बनते हैं।

भगवान् श्री राम आदि की लीला में महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम तथा अत्रि आदि ऋषि सहयोगी रहे हैं। भगवान् के लीला संवरण के बाद भी ये उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म की मर्यादा को सुरक्षित रखने के लिए कल्प पर्यन्त बने रहते है और पुनः अवतरित होते है।

9-इसके अतिरिक्त सप्तऋषि से उन सात तारों का बोध होता है, जो ध्रुवतारा की परिक्रमा करते हैं। प्रत्येक मन्वन्तर में इनमें से कुछ ऋषि परिवर्तित होते रहते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार इनकी नामावली इस प्रकार है।नीचे दी गयी सारणी में प्रत्येक मन्वंतर और उनके सप्तर्षियों के नाम दिए गए हैं ....

1-प्रथम स्वायम्भुव मन्वन्तर में:-

मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ।

2-द्वितीय स्वारोचिष मन्वन्तर में:-

ऊर्ज्ज, स्तम्भ, वात, प्राण, पृषभ, निरय और परीवान।

3-तृतीय उत्तम मन्वन्तर में:-

महर्षि वशिष्ठ के सातों पुत्र।

4-चतुर्थ तामस मन्वन्तर में:-

ज्योतिर्धामा, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक और पीवर।

5-पंचम रैवत मन्वन्तर में: -

हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य और महामुनि।

6-षष्ठ चाक्षुष मन्वन्तर में: -

सुमेधा, विरजा, हविष्मान, उतम, मधु, अतिनामा और सहिष्णु।

7-वर्तमान सप्तम वैवस्वत मन्वन्तर में: -

कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज।

8-अष्टम सावर्णिक मन्वन्तर में: -

गालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृप, ऋष्यश्रृंग और व्यास।

9-नवम दक्षसावर्णि मन्वन्तर में:-

मेधातिथि, वसु, सत्य, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, सबन और भव्य।

10-दशम ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर में:-

तपोमूर्ति, हविष्मान, सुकृत, सत्य, नाभाग, अप्रतिमौजा और सत्यकेतु।

11-एकादश धर्मसावर्णि मन्वन्तर में:-

वपुष्मान्, घृणि, आरूणि, नि:स्वर, हविष्मान्, अनघ, और अग्नितेजा।

12-द्वादश रुद्रसावर्णि मन्वन्तर में:-

तपोद्युति, तपस्वी, सुतपा, तपोमूर्ति, तपोनिधि, तपोरति और तपोधृति।

13-त्रयोदश देवसावर्णि मन्वन्तर में:-

धृतिमान्, अव्यय, तत्त्वदर्शी, निरूत्सुक, निर्मोह, सुतपा और निष्प्रकम्प।

14-चतुर्दश इन्द्रसावर्णि मन्वन्तर में:-

अग्नीध्र, अग्नि, बाहु, शुचि, युक्त, मागध, शुक्र और अजित।

....SHIVOHAM......



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