योगी अथवा तांत्रिक अदृश्य कैसे होते हैं ?क्या ईश्वर ऊर्जा है ,शक्ति है ,जो सर्वत्र व्याप्त है?
09 FACTS;-
1-हम जानते हैं कि किसी भी वस्तु के दिखने के लिए प्रकाश का होना जरूरी है। इसी कारण सूर्य को आँखों और प्रकाश का देवता भी माना जाता है। जब प्रकाश की किरणें किसी वस्तु पर पड़ती हैं तो वे परावर्तित होकर हमारी आंख से टकराती हैं। आंख की पुतली के आगे से गुजरकर ये किरणें रेटिना या गोलक के लेंस से होते पीछे की ओर एक निश्चित दूरी पर उसका बिंब बनाती हैं। इस बिंब के साथ जो स्नायु जुड़े रहते हैं वे इसकी सूचना मस्तिष्क को देते हैं। जिससे उस वस्तु की आकृति हमें दिखाई देती है।जब आँख पर पलक गिरी होती है अर्थात आँख बंद रहती है तो परावर्तित प्रकाश की किरणे आँख के लेंस तक नहीं पहुचती और पीछे बिम्ब नहीं बनता अतः कुछ दिखाई नहीं देता। किसी वस्तु पर प्रकाश की किरण पड़े किन्तु परावर्तित न हो तो किरण किसी की आँख तक नहीं पहुचेगी और वस्तु किसी को नहीं दिखेगी ,अथवा अगर किसी वस्तु में यह क्षमता हो की वह प्रकाश को सोख लेगा अर्थात अवशोषित कर लेगा तब प्रकाश की किरणे परावर्तित अर्थात टकराकर वापस नहीं लौटेंगी और वस्तु नहीं दिखेगी। एक और स्थिति है अगर किसी वस्तु के आरपार प्रकाश किरण हो जाएँ तो भी वस्तु से परावर्तन नहीं होगा और वस्तु नहीं दिखेगी।
2-योगिक साधना के जानकार के लिए यह परावर्तन क्रिया सुनिश्चित प्रणाली के तहत होती है और उसकी इच्छानुसार होती है। योगी एक ऐसी सिद्धि प्राप्त कर लेता है कि वह उपस्थित होते हुए भी किसी को दिखाई नहीं देता। योग की भाषा में इस क्षमता को अंतर्ध्यान होना कहा जाता है। योगी अपनी सिद्धि के बल पर अपने शरीर का रंग ऐसा बना लेता है जिससे कि प्रकाश की किरणें परावर्तित ही नहीं होती। जिससे दूसरे लोगों की आंखों में उसका बिंब बनता ही नहीं है। अर्थात योगी के शरीर में साधना बल से ऐसी क्षमता आ जाती है की वह प्रकाश किरणों को अवशोषित कर लेता है जिससे प्रकाश का परावर्तन ही नहीं होता और किसी की आँख तक वापस होकर प्रकाश किरणे नहीं पहुचती। इसी कारण उस योगी को कोई देख नहीं सकता।
इसके अतिरिक्त योग और तन्त्र शास्त्रों में गायब होने की एक अन्य विधि का भी उल्लेख मिलता है। सिद्ध योगी पंच तत्वों से बने अपने शरीर के अणु परमाणुओं को आकाश में बिखेर कर सूक्ष्म शरीर धारण कर लेता है। यह सूक्ष्म शरीर किसी को भी दिखाई नहीं देता। यह स्थिति एक अति उच्च अवस्था है जहाँ योगी अथवा तांत्रिक प्रकृति में भौतिक नियंत्रण कर पाता है। वह पंच तत्वों को तोडकर बिखेर और पुनर्संयोजित कर सकता है। इससे योगी सूक्ष्म शरीर से कुछ ही क्षणों में कितनी ही दूर आ जा सकता है।
3-हमने अनेक कथाओं -कहानियों में सुना है की अमुक योगी ने हाथ हवा में उठाये और अमुक पदार्थ या वस्तु उसके हाथ में आ गयी जिसे उसने स्थूल रूप से सम्मुख व्यक्ति को दिया। यह अवस्था होती है वातावरण के पंचतत्वों को नियंत्रित कर स्थूल कर देने की क्षमता की। ज्ञातव्य है की हाइड्रोजन और आक्सीजन तथा नाइट्रोजन आदि सब गैसें वातावरण में बिखरी है और इन्ही के हाइड्रोजन आक्सीजन से पानी ,इसी में नाइट्रोजन मिला तो ग्लूकोज बन जाता है। अनुपात मात्र बदलता है पदार्थों के अनुसार अगर इनपर नियंत्रण हो जाए तो कोई कुछ भी बना सकता है। यही क्षमता बेहद उच्च स्तर पर योगी अथवा तांत्रिक में आ जाती है। सिद्ध योगियों के पास इसी तरह की अनेक अद्भुत क्षमताएं होती हैं। ये अद्भुत सिद्धियां कोई जादु या चमत्कार नहीं है। यह सिद्धियां एक निश्चित वैज्ञानिक प्रक्रिया के तहत कार्य करती हैं। अष्टांग योग के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने गायब होने की इस यौगिक सिद्धि का उल्लेख अपने ग्रंथ में किया है। वे लिखते हैं कायरूपसंयमात् ..... अंतर्धानम्। (विभूति पाद सूत्र 21) यानि शरीर के रूप में संयम करने से जब उसकी ग्रहण शक्ति रोक ली जाती है। तब आंख के प्रकाश का उसके साथ संबंध न होने के कारण योगी अंतर्धान हो जाता है।
4-योग और तन्त्र में एक निश्चित अवस्था के बाद योगी अथवा तांत्रिक अपने शरीर को कहीं रखते हुए अपने सूक्ष्म शरीर में कहीं भी आ जा सकता है ,जहाँ वह किसी को दिख भी सकता है ,बात भी कर सकता है ,मार्गदर्शन कर सकता है। अक्सर गुरु इसी माध्यम से अपने शिष्यों या जरूरतमंद तक पहुँचते हैं। जब योग से अथवा तंत्र से कुंडलिनी जागरण होता है और कुंडलिनी पांचवें चक्र अर्थात अनाहत चक्र तक पहुँच जाती है तो व्यक्ति में धीरे धीरे यह क्षमता आने लगती है की वह अपने सूक्ष्म शरीर को बाहर निकाल सके ,विचरण कर सके इसकी एक निश्चित प्रक्रिया होती है और स्थूल शरीर को सुरक्षित रखते हुए सूक्ष्म को बाहर निकाला जाता है। एक सूक्ष्म अदृश्य तन्तु से सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से जुड़ा रहता है। सतत अभ्यास से साधक या गुरु इस सूक्ष्म शरीर में भ्रमण करता है और लोक -परलोक के साथ अन्य गुरुओं ,महान आत्माओं ,अन्य योनियों से संपर्क कर सकता है। सूक्ष्म शरीर केवल विद्युतीय शरीर होता है जिसके आरपार प्रकाश किरणे हो जाती हैं और कोई उसे देख नहीं सकता। किसी को दिखाने के लिए योगी अथवा तांत्रिक जब चाहता है तभी कोई उसे देख सकता है अन्यथा वह अदृश्य रहकर सब कुछ देख सुन सकता है। इस सूक्ष्म शरीर की गति बहुत तीव्र हो सकती है जिससे योगी अथवा तांत्रिक मिनटों में कहीं भी पहुँच सकते है। अक्सर योगी और सिद्ध इसी शरीर में विचरण करते है।
5-किसी उच्च महाविद्या साधक के पास कुछ इसी तरह की मिलती जुलती शक्ति आती है |जब कोई महाविद्या पूर्णतया साधक के अनुकूल हो उसके शरीर को अपना लेती है अर्थात उस महाविद्या की ऊर्जा से कोई साधक संतृप्त हो जाता है तो उसका महाविद्या से सम्बन्धित चक्र अति सक्रिय और सशक्त होते हुए कुंडलिनी को जाग्रत कर उस चक्र तक उदीप्त कर देता है और वहां से वह अनाहत तक पहुच जाता है अथवा अनाहत को उद्दीप्त करता है |इस स्थिति में उपरोक्त प्रक्रिया से सूक्ष्म शरीर भ्रमण भी हो सकता है और कही एक ही स्थान पर बैठे हुए किसी अन्य स्थान पर अपना एक ऊर्जा शरीर भी भेजा जा सकता है |किसी को स्वप्न में मार्गदर्शन देना ,किसी को अपने होने या उपस्थिति का आभास देना तो मात्र किसी महाविद्या के पूर्ण संतृप्ति और चक्र क्रियाशीलता पर ही हो जाता है |तंत्र में एक छुद्र विद्या की साधना की जाती है जिसे मुश्लिम हमजाद साधना कहते हैं और हिन्दू अपनी नकारात्मक शरीर की साधना |इस प्रक्रिया में कुछ समय बाद व्यक्ति अपने ही रूप और छवि को कहीं भेजकर कार्य करा सकता है और अन्य स्थान पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकता है |यह छोटी तांत्रिक साधना है और इसमें साधक अदृश्य नहीं होता अपितु अपनी ऊर्जा को निर्देशित करता है।
6-ईश्वर को मनुष्य रूप में हमने कल्पित किया है ,उसे मुकुट और हथियार हमने दिए हैं |ईश्वर का कोई रूप नहीं ,उसका कोई आकार नहीं ,वह तो ऊर्जा है ,शक्ति है ,जो सर्वत्र व्याप्त है |कहीं किसी गुण की शक्ति का संघनन अधिक होता है अर्थात वहां उस शक्ति की ऊर्जा की मात्रा अधिक होती है तो कहीं कम होती है |जहाँ जिस ऊर्जा की अधिकता होती है वहां उसकी वैसी मूर्ती अनुसार कल्पना करके शक्तिपीठ स्थापित किये गए |मंदिर बनाए गए |यह सब वहां उत्पन्न होने वाली अथवा संघनित ऊर्जा के कारण है |स्वरुप कल्पना उसके गुणों के आधार पर मनुष्यों ने की है |ईश्वर अथवा देवी-देवता तो चराचर प्राणियों और वनस्पतियों के हैं ,सब में व्याप्त हैं ,कण कण में बिखरे हैं |अवतार अथवा ईश्वर का अवतरित होना अथवा प्रत्यक्षीकरण भी ऊर्जा विशेष का संघनन है |अवतार विशेष में विशेष गुण होते हैं जो उसमे विशेष शक्ति और ऊर्जा के संगठित रूप के कारण होते हैं |जो जन्म लेता है उसके बाद वह कार्य विशेष करता है ,और एक निश्चित आयु तक ही करता है ,हमेशा नहीं |ऐसा उसमे ऊर्जा विशेष की कार्य विशेष के अनुसार एकत्रता के करण होता है |कार्य पूर्ण हुआ ,ऊर्जा कम हो गई |
7-अर्थात ईश्वर आया किसी में जन्म से ही अथवा यौवन में या वृद्धावस्था में ,कार्य पूर्ण किया और अपनी मात्रा कम कर दी व्यक्ति विशेष से |अर्थात ईश्वर ने व्यक्ति को माध्यम बनाया या व्यक्ति ने ईश्वर को माध्यम बनाया कार्य विशेष की पूर्णता के लिए |सीधा सा अर्थ है वह जन्म खुद नहीं लेता वह माध्यम बनता है व्यक्ति को और उसमे अवतरित होता है |कभी ऐसा भी होता है की व्यक्ति ईश्वर को माध्यम बनाता है और खुद में उसे लाता है अपनी योग अथवा साधना बल से |दोनों स्थितियां लगभग समान है |व्यक्ति में ही ईश्वर आता है ,व्यक्ति ही माध्यम बनता है ,व्यक्ति ही क्रियाएं ईश्वर की शक्ति से करता है |ईश्वर तो केवल उसकी क्षमताएं बढ़ा देता है |आप भी खुद में इश्वर को ला सकते हैं , जब वह आपमें आएगा तो आप ईश्वर सदृश होंगे अर्थात आप ईश्वर होंगे |आपमें अपने ईष्ट के गुणों के अनुसार गुण विकसित होंगे ,आपकी क्षमताएं बढ़ जाएँगी ,आपसे लोगों को लाभ होगा ,उनका कल्याण होगा ,उनके कष्ट कम होंगे और आप अवतारी पुरुष घोषित होने लगेंगे |आपने अपनी साधना से शक्ति पाई पर लोगों के लिए आप अवतार हो जायेंगे|
8-इसीलिए तो कहा जाता है कि हर व्यक्ति में ईश्वर है |क्योकि उस ऊर्जा की मात्रा सबमे हैं ,किसी में कम किसी में अधिक ,पर है सबमे ,यहाँ तक की जीव जंतु ,वनस्पतियों में भी |किसी ईश्वर की काल्पनिक मूर्ती ईश्वर के गुणों के अनुरूप बनाई जाती है |उसी के अनुरूप उसके मंत्र होते हैं |उसी के अनुरूप खुद बनने पर ही वह शक्ति आपमें आती है |गुरु परंपरा में बाबा कीनाराम ,तैलंग स्वामी ,देवरहा बाबा ,दत्तात्रेय भगवान् ,साधकों के गुरु आदि सभी ईश्वर रूप होते हैं और यह प्राप्त भी होते हैं साधकों को |जो साधक अपने को इनके अनुरूप ,इनके प्रेम में प्रेममय करता है उसे ये मिलते भी हैं |यही हाल सभी ईश्वरों की है |कोई भी ईश्वर साकार रूप न लेकर व्यक्ति में ही अवतरित होता है |आप देखिये परसुराम ,हनुमान आदि चिरंजीवी हैं ,किन्तु इनके अधिकतर कार्य एक निश्चित काल खंड तक हैं ,बाद में इन्होने मार्गदर्शन ही किया है खुद बहुत कम क्रियाशील रहे |यह उदाहरण है खुद को ईश्वर सदृश बनाकर दीर्घायु का ,किन्तु आवश्यक ऊर्जा उसी काल खंड में इनमे अधिक रही जब उसकी इन्हें आवश्यकता रही |इसी तरह व्यक्ति खुद में ईश्वर ला सकता है |व्यक्ति ही अपनी इन्द्रियों का स्वामी हो जाने पर इन्द्रियों को वश में कर लेने पर ईश्वर बनने लगता है |
9-ईश्वर के गुण खुद में लाने पर ही ईश्वर की ऊर्जा आकर्षित होगी और आपमें आ पायेगा |उसकी ऊर्जा से मेल न हो शरीर की ऊर्जा का ,आपमें उसके अनुरूप गुण न हो ,शक्ति न हो तो वह न तो आएगी न समाहित होएगी |आ भी गई तो आप संभाल नहीं दे पायेंगे और या तो बिखर जायेगी या आपको बिखेर देगी |हम साकार मूर्ती ,चित्र आदि की कल्पना इसलिए करते हैं कि हमारे विचारों को एक आधार मिले ,हममें एक विशेष भाव उत्पन्न हो जिससे उस भाव का चक्र क्रियाशील हो और वैसी उर्जा ब्रह्माण्ड से आकर हमसे जुडे.और शक्ति प्राप्त हो |मूल उद्देश्य होता है खुद में उर्जा को लाना और खुद को वैसा बनाना |देवी/देवता सब उर्जायें हैं |इन्हें कुछ दिखाने के लिए ,इन्हें सुनाने के लिए इन्हें खुद से जोड़ना होता है और खुद से इन्हें जोड़ना आसान नहीं होता |जब आप इतना डूब जाएँ उनके भाव में की वह और आप एकाकार हो जाएँ तब वह आपसे जुड़ता है और तभी वह आपकी सुनता है |इसके पहले तक आप जितनी ऊर्जा उत्पन्न कर रहे और आपको जितनी ऊर्जा विपरीत प्रभावित कर रही इसके शक्ति संतुलन पर ही आपका जीवन चलता है |एक बात और ध्यान देने की है आप अधिक पूजा कर रहे तो जिस शक्ति या देवता को बुला रहे वह जल्दी तो आएगा किन्तु तब आपको भी उसके अनुसार अपने आपको बदलना होगा |अपना आचार ,व्यवहार ,मानसिक स्थिति ,शारीरिक अवस्था ऐसा बनाना होगा कि वह आपसे सामंजस्य बना सके ,ऐसा न होने पर विक्षोभ उत्पन्न होगा और आपके कष्ट बढ़ेंगे |आपकी स्थिति ही दिक्कत उत्पन्न करती है |यह उक्ति की "कलयुग केवल नाम अधारा "कष्टों -दुखों में फंसे होने पर पुकारने पर काम नहीं आती |आपकी पुकार में इतनी शक्ति होनी चाहिए की भगवान् नामक ऊर्जा आपसे जुड़ जाए |भावनात्मक रूप से भी तब यह सुनती हैं जब आपकी भावना मीरा जैसी गहन हो जाए कि कृष्ण को आना ही पड़े |आपकी पूजा -अर्चना -साधना में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि सम्बंधित शक्ति का संपर्क आपके ऊर्जा से हो जाए |
...SHIVOHAM....
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