रुद्राभिषेक कितने प्रकार का होता है? रुद्राष्टाध्यायी क्या है?PART-01
09 FACTS;-
1-रुद्राभिषेक क्या है?-
02 POINTS;-
1-रुद्राभिषेक दो शब्दो से मिलकर बना है, रुद्र और अभिषेक। इसमे रुद्र का अर्थ भगवान शिव से है, और अभिषेक का मतलब स्नान कराना। अर्थात भगवान शिव के रुद्र अवतार का रुद्र मंत्रो के द्वारा विभिन्न पदार्थो से स्नान कराना ही रुद्राभिषेक कहलाता है। यह पवित्र स्नान भगवान शिव के रौद्ररूप को काराया जाता है। महाशिवरात्रि के दिन जल अभिषेक करके ही भगवान शिव की कृपा बडी ही आसानी से पाई जा सकती है।यजुर्वेद की शुक्लयजुर्वेद संहिता में आठ अध्याय के माध्यम से भगवान रुद्र का विस्तार से वर्णन किया गया है, जिसे ‘रुद्राष्टाध्यायी’ या रुद्री पाठ कहते हैं । इसका वर्णन विभिन्न ग्रंथों में है। जैसे रुद्रकल्प, पराशर कल्प, शिव पुराण, रुद्र कल्प द्रुम, नारदपुराण, लिंगपुराण, महारुद्र तंत्र, रुद्रमाला मंत्र। रुद्री का वर्णन महाभारत और रामायण में भी है। इन सभी अलग-अलग ग्रंथों में रुद्राभिषेक की पवित्रता का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा शुक्ल यजुर्वेदी रुद्राष्टाध्यायी को विभिन्न कर्मकांड पुस्तकों में अलग-अलग तरीकों से पवित्र किया गया है। इस शिव पूजा को भक्ति और विश्वास के साथ विभिन्न पुस्तकों में भजन और मंत्रों के माध्यम से भी सराहा गया है।
2-जैसे मनुष्य का शरीर हृदय के बिना असंभव है, उसी प्रकार शिवजी की आराधना में रुद्राष्टाध्यायी अत्यंत ही मूल्यवान है।रुद्राभिषेक अर्थात रुद्र का अभिषेक। रूद्र यानि भगवान शिव का अभिषेक अर्थात भगवान शंकर को जब स्नान कराया जाता है तो उसे रुद्राभिषेक कहते हैं। रुद्राभिषेक.. मंत्र द्वारा किया जाने वाला एक शक्तिशाली ऊर्जा पूर्ण कार्य है, जिसकी वजह से भगवान शिव की असीम अनुकंपा शीघ्र ही प्राप्त होती है।वास्तव में रुद्राभिषेक मंत्र कोई एक मंत्र नहीं बल्कि मंत्रों का समूह है, जो 'शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी' के रूप में भी जाना जाता है। इसे केवल 'रुद्राष्टाध्यायी' भी कहते हैं और “रुद्री पाठ” के नाम से भी इसको जाना जाता है। रुद्राभिषेक मंत्र भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे सटीक और अचूक उपाय है क्योंकि इसके पाठ अथवा जप करने से भगवान शिव व्यक्ति को सभी सुख-सुविधाओं से संपूर्ण बनाते हैं और उसके जीवन में चली आ रही समस्याओं का अंत हो जाता है।रुद्राष्टाध्यायी के अनुसार भगवान शिव ही और रूद्र माने जाते हैं और रुद्र ही शिव माने जाते हैं। कहा भी गया है रूतम् दुःखम्, द्रावयति नाशयतीतिरूद्रः । भगवान शिव, जो रुद्र के रूप में प्रतिष्ठित हैं, वे हमारे जीवन के सभी दुखों एवं कष्टों को शीघ्र ही नष्ट अर्थात समाप्त कर देते हैं।रुद्राभिषेक मंत्र की शक्ति इतनी अधिक होती है कि जिस क्षेत्र में भी इसका जप किया जाता है, उससे कई किलोमीटर तक के हिस्से में शुद्धता आ जाती है और वहां की नकारात्मकता का अंत होता है। यह ग्रह जनित दोषों का भी अंत करता है और यदि आपके आसपास कोई बीमार व्यक्ति है, तो उसको बीमारी से छुटकारा भी इस रुद्राभिषेक मंत्र के द्वारा मिल सकता है।
2-रुद्राभिषेक के प्रकार;-
रुद्राभिषेक कई प्रकार से किया जाता है। शिव पुराण के अनुसार अलग अलग द्रव्य पदार्थो से रुद्राभिषेक करने पर विशेष फल की प्राप्ति होती है। अर्थात जिस फल की प्राप्ति के लिए रुद्राभिषेक कर रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए इस बारे समस्त जानकारी शिव पुराण मे मिलती है।
रुद्राभिषेक मुख्यतया 6 प्रकार से किया जाता है-
जल अभिषेक; –
तांबे के बर्तन मे जल भरकर बर्तन पर कुमकुम से तिलक करे। ऊं इंद्राय नमः का जाप करते हुये बर्तन पर मौली बांधे। जल अभिषेक करने से दुखो और समस्याओ से मुक्ति मिल जाती है।
शहद अभिषेक; –
तांबे के बर्तन मे शहद मिश्रित गंगा जल भरने के पश्चात बर्तन पर कुमकुम से तिलक करे। इस प्रकार से अभिषेक करने पर पारिवारिक जीवन मे सुख समृद्धि बनी रहती है। ऊं चंद्रमसे नमः का जाप करते हुये बर्तन पर मौली बांधे।
दही अभिषेक; –
तांबे के बर्तन मे दही भरकर बर्तन पर कुमकुम से तिलक करे। दही अभिषेक करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है।
दुग्धाभिषेक; –
तांबे के बर्तन मे दूध भरकर बर्तन पर कुमकुम से तिलक करे। ऊं श्री कामधेनवे नमः का जाप करते हुये बर्तन पर मौली बांधे। दुग्धाभिषेक करने से लंबी आयु की प्राप्ति होती है।
शहद अभिषेक; –
तांबे के बर्तन मे घी के साथ शहद भरकर बर्तन पर कुमकुम से तिलक करे। ऊं धन्वन्तरयै नमः का जाप करते हुये बर्तन पर मौली बांधे। घी अभिषेक करने से किसी भी प्रकार के रोग तथा शारीरिक कठिनईयो से मुक्ति मिलती है।
पंचामृत अभिषेक –
तांबे के बर्तन मे पंचामृत भरकर बर्तन पर कुमकुम से तिलक करे। दूध, दही, घी, शहद और मिश्री को मिलकर ही पंचामृत बनाया जाता है। पंचामृत अभिषेक करने से व्यक्ति को जीवन मे सफलता और समृद्धि मिलती है।
3-लघु रुद्राभिषेक पूजा ; –
इसमें में रुद्राष्टाध्यायी के एकादशिनि रुद्री के ग्यारह आवृति पाठ किया जाता है। इसे ही लघु रुद्र कहा जाता है। यह पंच्यामृत से की जाने वाली पूजा है। इस पूजा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रभावशाली मंत्रो और शास्त्रोक्त विधि से विद्वान ब्राह्मण द्वारा पूजा को संपन्न करवाया जाता है। इस पूजा से जीवन में आने वाले संकटो एवं नकारात्मक ऊर्जा से छुटकारा मिलता है।
अरुद्रा: पञ्चविधाः प्रोक्ता देशिकैरुत्तरोतरं ।
सांगस्तवाद्यो रूपकाख्य: सशीर्षो रूद्र उच्च्यते ।।
एकादशगुणैस्तद्वद् रुद्रौ संज्ञो द्वितीयकः ।
एकदशभिरेता भिस्तृतीयो लघु रुद्रकः।।
4-रुद्राभिषेक से लाभ;-
रुद्राभिषेक पूजा से कालसर्प दोष, व्यापार मे लगातार हानि, ग्रहक्लेश तथा शिक्षा मे रुकावट जैसी सभी समस्याओ से छुटकारा मिल जाता है।कई प्रकार के ग्रह दोषो से छुटकारा मिल जाता है।रुद्राभिषेक पूजा से नौकरी और व्यवसाय मे सफलता मिलती है।रुद्राभिषेक करके व्यक्ति निरोगी और स्वस्थ हो जाता है।रुद्राभिषेक पूजा के द्वारा नकारात्मक ऊर्जा समाप्त हो जाती है।
5-रुद्राभिषेक पूजा सामग्री
रुद्राभिषेक पूजा के लिए 11 वस्तुए महत्वपूर्ण होती है-
राख़/ भस्म पाउडर
चन्दन का पाउडर
भांग
मक्खन
शहद
दही
दूध
तेल
फलो का रस
चीनी
पानी
6-रुद्राभिषेक पूजा कहाँ की जानी चाहिए?-
वैसे तो रुद्राभिषेक पूजा किसी भी शिव मंदिर मे की जा सकती है। यह अनुष्ठानिक पूजा सभी शिव मंदिरो मे की जाने वाली सबसे व्यापक पूजा है। किन्तु कुछ प्रसिद्ध मंदिरो मे पूजा करने का विशेष महत्व है। उज्जैन मे स्थित महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग, गुजरात मे स्थित सोमनाथ ज्योतिर्लिंग, नासिक मे स्थित भीमाशंकर और त्रिंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग, इंदौर के पास स्थित ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग, तमिलनाडू मे स्थित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग मे पूजा करने से फल की प्राप्ति जल्द से जल्द हो जाती है।
7-रुद्राभिषेक पूजा कब की जानी चाहिए?-
1-मान्यताओ के अनुसार रुद्राभिषेक वर्षभर मे कभी भी किया जा सकता है किन्तु फिर भी कुछ महत्वपूर्ण तिथियाँ होती है, इन 2-तिथियो पर रुद्राभिषेक पूजा करने का विशेष महत्व है-
3-सोमवार के दिन रुद्राभिषेक करने का विशेष महत्व है।
4-सावन के पूरे महीने मे रुद्राभिषेक किया जा सकता है।
5-शिवरात्रि के दिन रुद्राभिषेक करने से फल की प्राप्ति जल्दी होती है।
6-गृह प्रवेश, वर्षगांठ या जन्मदिन के अवसर पर रुद्राभिषेक पूजा करना शुभ माना जाता है।
8-रुद्राभिषेक पूजा मे कितना समय लगता है?-
रुद्राभिषेक पूजा मे केवल 3 से 4 घंटे का समय लगता है।
9-रुद्राभिषेक मंत्र/ रुद्र मंत्र;-
हमे रुद्राभिषेक मंत्र उच्चारण करते हुये ही भगवान शिव का रुद्राभिषेक करना चाहिए। रुद्राभिषेक मंत्र का उच्चारण भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। रुद्राभिषेक मंत्र को ही रुद्र मंत्र के नाम से जाना जाता है।रुद्राष्टाध्यायी दो शब्द रुद्र अर्थात् शिव और अष्टाध्यायी अर्थात् आठ अध्यायों वाला, इन आठ अध्यायों में शिव समाए हैं। वैसे तो रुद्राष्टाध्यायी में कुल दस अध्याय हैं परंतु आठ तक को ही मुख्य माना जाता है। ग्रंथ (यह शुक्ल यजुर्वेद का भाग है।)रुद्राष्टाध्यायी में कुल आठ पाठ हैं जिसमें पाँचवाँ पाठ मुख्य है। यदि किसी व्यक्ति के पास समय का अभाव है तब वह केवल पाँचवाँ पाठ ही नित्य करके शुभ फल प्राप्त कर सकता है। यदि पाँचवें पाठ को 11 बार किया जाए तब यह महारुद्र कहा जाता है। सावन के पूरे माह रुद्राष्टाध्यायी का पाठ करने से हर प्रकार के कष्ट से छुटकारा मिलता है। पूरा पाठ ना करके केवल पाँचवाँ अध्याय करने से भी अच्छे परिणाम मिलते हैं।रुद्राष्टाध्यायी का पाठ करते समय पाँचवा तथा आंठवे अध्याय को “नमक चमक पाठ” विधि कहा जाता है। नमक चमक पाठ के 11 आवर्तन पुरे होने पर इसे “एकादशिनि रुद्री” पाठ कहा जाता है तथा एकादशिनी रुद्री पाठ के 11 आवर्तन पूर्ण होने पर इसे “लघु रुद्री” पाठ कहा जाता है।अत: रुद्राष्टाध्यायी के अभाव में शिवपूजन की कल्पना तक असंभव है।
मङ्गलाचरणम्
वन्दे सिद्धिप्रदं देवं गणेशं प्रियपालकम् ।
विश्वगर्भं च विघ्नेशं अनादिं मङ्गलं विभूम् ॥
अथ ध्यानम्
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारु चन्द्रवतंसम् ।
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् ॥ १॥
पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानम् ।
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥ २॥
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रुद्राष्टाध्यायी – प्रथम अध्याय (Rudrashtadhyayi Path 1)
अथ प्रथमोऽध्यायः
गणानां त्वा गणपतिꣳ हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिꣳ हवामहे
निधीनां त्वा निधिपतिꣳ हवामहे वसो मम ।
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥ १॥
श्री गणेश जी को नमस्कार है। समस्त गणों का पालन करने के कारण गणपतिरूप में प्रतिष्ठित आप को हम आवाहित करते हैं। प्रियजनों का कल्याण करने के कारण प्रियपतिरुप में प्रतिष्ठित आपको हम आवाहित करते हैं और पद्म आदि निधियों का स्वामी होने के कारण निधिपतिरूप में प्रतिष्ठित आपको हम आवाहित करते हैं। हे हमारे परम धनरूप ईश्वर ! आप मेरी रक्षा करें। मैं गर्भ से उत्पन्न हुआ जीव हूँ और आप गर्भादिरहित स्वाधीनता से प्रकट हुए परमेश्वर हैं। आपने ही हमें माता के गर्भ से उत्पन्न किया है।
गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ्क्त्या सह ।
बृहत्युष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥ २॥
हे परमेश्वर ! गान करने वाले का रक्षक गायत्री छन्द, तीनों तापों का रोधक त्रिष्टुप छन्द, जगत् में विस्तीर्ण जगती छन्द, संसार का कष्ट निवारक अनुष्टुप छन्द, पंक्ति छन्द सहित बृहती छन्द, प्रभातप्रियकारी ऊष्णिक् छन्द के साथ ककुप् छन्द – ये सभी छन्द सुन्दर उक्तियों के द्वारा आपको शान्त करें।
द्विपदायाश्चतुष्पदास्त्रिपदायाश्चषट्पदाः ।
विच्छन्दा याश्च सच्छन्दाः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥ ३॥
हे ईश्वर ! दो पाद वाले, चार पाद वाले, तीन पाद वाले, छ: पाद वाले, छन्दों के लक्षणों से रहित अथवा छन्दों के लक्षणों से युक्त वे सभी छन्द सुन्दर उक्तियों के द्वारा आपको शान्त करे।
सहस्तोमाः सहच्छन्दस आवृतः सहप्रमा ऋषयः सप्त दैव्याः ।
पूर्वेषां पन्थामनुदृश्य धीरा अन्वालेभिरे रथ्यो न रश्मीन् ॥ ४॥
प्रजापति संबंधी मरीचि आदि सात बुद्धिमान ऋषियों ने स्तोम आदि साम मन्त्रों, गायत्री आदि छन्दों, उत्तम कर्मों तथा श्रुति प्रमाणों के साथ अंगिरा आदि अपने पूर्वजों के द्वारा अनुष्ठित मार्ग का अनुसरण करके सृष्टि यज्ञ को उसी प्रकार क्रम से संपन्न किया था जैसे एक रथी लगाम की सहायता से अश्व को अपने अभीष्ट स्थान की ओर ले जाता है।
(शिवसङ्कल्पसूक्तम्)
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १॥
जो मन जगते हुए मनुष्य से बहुत दूर तक चला जाता है, वही द्युतिमान मन सुषुप्ति अवस्था में सोते हुए मनुष्य के समीप आकर लीन हो जाता है तथा जो दूर तक जाने वाला और जो प्रकाशमान श्रोत आदि इन्द्रियों को ज्योति देने वाला है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्पवाला हो।
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २॥
कर्मा के अनुष्ठान में तत्पर बुद्धि संपन्न मेधावी पुरुष यज्ञ में जिस मन से शुभ कर्मों को करते हैं, प्रजाओं के शरीर में और यज्ञीय पदार्थों के ज्ञान में जो मन अद्भुत पूज्य भाव से स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ।
यस्मान्नऽऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३॥
जो मन प्रकर्ष ज्ञानस्वरुप, चित्तस्वरुप और धैर्यरूप है, जो अविनाशी मन प्राणियों के भीतर ज्योति रूप से विद्यमान है और जिसकी सहायता के बिना कोई कर्म नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ४॥
जिस शाश्वत मन के द्वारा भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल की सारी वस्तुएँ सब ओर से ज्ञात होती हैं और जिस मन के द्वारा सात होता वाला यज्ञ विस्तारित किया जाता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
यस्मिन्नृचः साम यजूꣳषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।
यस्मिꣳश्चित्तꣳ सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ५॥
जिस मन में ऋग्वेद की ऋचाएँ और जिसमें सामवेद तथा यजुर्वेद के मंत्र उसी प्रकार प्रतिष्ठित हैं, जैसे रथचक्र की नाभि में अरे (तीलियाँ) जुड़े रहते हैं, जिस मन में प्रजाओं का सारा ज्ञान ओत-प्रोत रहता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव ।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ६॥
जो मन मनुष्यों को अपनी इच्छा के अनुसार उसी प्रकार घुमाता रहता है, जैसे कोई अच्छा सारथी लगाम के सहारे वेगवान घोड़ों को अपनी इच्छा के अनुसार नियन्त्रित करता है, बाल्य, यौवन, वार्धक्य आदि से रहित तथा अतिवेगवान जो मन हृदय में स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
इति रुद्रे प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
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रुद्राष्टाध्यायी – दूसरा अध्याय (Rudrashtadhyayi Path 2)
(पुरुषसूक्तम्)
हरिः ॐ
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिꣳ सर्वतः स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १॥
सभी लोकों में व्याप्त महानारायण सर्वात्मक होने से अनन्त सिरवाले, अनन्त नेत्र वाले और अनन्त चरण वाले है। वे पाँच तत्वों से बने इस गोलकरूप समस्त व्यष्टि और समष्टि ब्रह्माण्ड को सब ओर से व्याप्त कर नाभि से दस अंगुल परिमित देश का अतिक्रमण कर हृदय में अन्तर्यामी रूप में स्थित हैं।
पुरुष एवेदꣳ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २॥
जो यह वर्तमान जगत है, जो अतीत जगत है और जो भविष्य में होने वाला जगत है, जो जगत के बीज अथवा अन्न के परिणामभूत वीर्य से नर, पशु, वृक्ष आदि के रूप में प्रकट होता है, वह सब कुछ अमृतत्व (मोक्ष) के स्वामी महानारायण पुरुष का ही विस्तार है।
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३॥
इस महानारायण पुरुष की इतनी सब विभूतियाँ हैं अर्थात भूत, भविष्यत, वर्तमान में विद्यमान सब कुछ उसी की महिमा का एक अंश है। वह विराट पुरुष तो इस संसार से अतिशय अधिक है। इसीलिए यह सारा विराट जगत इसका एक चौथाई है।
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥ ४॥
इस परमात्मा का अवशिष्ट तीन पाद अपने अमृतमय (विनाशरहित) प्रकाशमान स्वरूप में स्थित है। यह महानारायण पुरुष अपने तीन पादों के साथ ब्रह्माण्ड से ऊपर उस दिव्य लोक में अपने सर्वोत्कृष्ट स्वरूप में निवास करता है और अपने एक चरण (चतुर्थांश) से इस संसार को व्याप्त करता है। अपने इसी चरण को माया में प्रविष्ट कराकर यह महानायण देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के नाना रूप धारण कर समस्त चराचर जगत में व्याप्त है।
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ ५॥
उस महानारायण पुरुष से सृष्टि के प्रारंभ में विराट स्वरूप ब्रह्माण्ड देह तथा उस देह का अभिमानी पुरुष (हिरण्यगर्भ) प्रकट हुआ। उस विराट पुरुष ने उत्पन्न होने के साथ ही अपनी श्रेष्ठता स्थापित की। बाद में उसने भूमि का, तदनन्तर देव, मनुष्य आदि के पुरों (शरीरों) का निर्माण किया।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ ६॥
उस सर्वात्मा महानारायण ने सर्वात्मा पुरुष का जिसमें यजन किया जाता है, ऎसे यज्ञ से पृषदाज्य (दही मिला घी) को सम्पादित किया। उस महानारायण ने उन वायु देवता वाले पशुओं तथा जो हरिण आदि वनवासी तथा अश्व आदि ग्रामवासी पशु थे उनको भी उत्पन्न किया।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दाꣳसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ७॥
उस सर्वहुत यज्ञपुरुष से ऋग्वेद और सामवेद उत्पन्न हुए, उसी से सर्वविध छन्द उत्पन्न हुए और यजुर्वेद भी उसी यज्ञपुरुष से उत्पन्न हुआ।
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ ८॥
उसी यज्ञपुरुष से अश्व उत्पन्न हुए और वे सब प्राणी उत्पन्न हुए जिनके ऊपर-नीचे दोनों तरफ दाँत हैं। उसी यज्ञपुरुष से गौएँ उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ पैदा हुईं।
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९॥
सृष्टि साधन योग्य या देवताओं और सनक आदि ऋषियों ने मानस याग की संपन्नता के लिए सृष्टि के पूर्व उत्पन्न उस यज्ञ साधनभूत विराट पुरुष का प्रोक्षण किया और उसी विराट पुरुष से ही इस यज्ञ को सम्पादित किया।
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १०॥
जब यज्ञसाधनभूत इस विराट पुरुष की महानारायण से प्रेरित महत्, अहंकार आदि की प्रक्रिया से उत्पत्ति हुई, तब उसके कितने प्रकारों की परिकल्पना की हई? उस विराट के मुँह, भुजा, जंघा और चरणों का क्या स्वरूप कहा गया है?
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याꣳ शूद्रो अजायत ॥ ११॥
ब्राह्मण उस यज्ञोत्पन्न विराट पुरुष का मुख स्थानीय होने के कारण उसके मुख से उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से उत्पन्न हुआ, वैश्य उसकी जाँघों से उत्पन्न हुआ तथा शूद्र उसके चरणों से उत्पन्न हुआ।
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥ १२॥
विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, नेत्र से सूर्य उत्पन्न हुआ, कान से वायु और प्राण उत्पन्न हुए तथा मुख से अग्नि उत्पन्न हुई।
नाभ्या आसीदन्तरिक्षꣳ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ२ ॥ अकल्पयन् ॥ १३॥
उस विराट पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ और सिर से स्वर्ग प्रकट हुआ। इसी तरह से चरणों से भूमि और कानों से दिशाओं की उत्पत्ति हुई।
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४॥
इसी प्रकार देवताओं ने उस विराट पुरुष के विभिन्न अवयवों से अन्य लोकों की कल्पना की। जब विद्वानों ने इस विराट पुरुष के देह के अवयवों को ही हवि बनाकर इस ज्ञानयज्ञ की रचना की, तब वसन्त-ऋतु घृत, ग्रीष्म-ऋतु समिधा और शरद-ऋतु हवि बनी थी।
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिःसप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५॥
जब इस मानस यागका अनुष्ठान करते हुए देवताओं ने इस विराट पुरुष को ही पशु के रूप में भावित किया, उस समय गायत्री आदि सात छन्दों ने सात परिधियों का स्वरूप स्वीकार किया, बारह मास, पाँच ऋतु, तीन लोक और सूर्यदेव को मिलाकर इक्कीस अथवा गायत्री आदि सात, अतिजगती आदि सात और कृति आदि सात छन्दों को मिलाकर इक्कीस समिधाएँ बनीं।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६॥
सिद्ध संकल्प वाले देवताओं ने विराट पुरुष के अवयवों की हवि के रूप में कल्पना कर इस मानस-यज्ञ में यज्ञपुरुष महानारायण की आराधना की। बाद में ये ही महानारायण की उपासना के मुख्य उपादान बने।जिस स्वर्ग में पुरातन साध्य देवता रहते हैं, उस दु:ख से रहित लोक को ही महानारायण यज्ञपुरुष की उपासना करने वाले भक्तगण प्राप्त करते हैं।
अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताग्रे ।
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे ॥ १७॥
उस महानारायण की उपासना के और भी प्रकार हैं – पृथिवी और जल के रस से अर्थात पाँच महाभूतों के रस से पुष्ट, सारे विश्व का निर्माण करने वाले, उस विराट स्वरूप से भी पहले जिसकी स्थिति थी, उस रस के रूप को धारण करने वाला वह महानारायण पुरुष पहले आदित्य के रूप में उदित होता है। प्रथम मनुष्य रूप उस पुरुष – मेधयाजी का यह आदित्य रूप में अवतरित ब्रह्म ही मुख्य आराध्य देवता बनता है।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाऽति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ १८॥
आदित्यस्वरूप, अविद्या के लवलेश से भी रहित तथा ज्ञानस्वरूप परम पुरुष उस महानारायण को मैं जानता हूँ। कोई भी प्राणी उस आदित्यरूप महानारायण पुरुष को जान लेने के उपरान्त ही मृत्यु का अतिक्रमण कर अमृतत्व को प्राप्त करता है। परम आश्रय के निमित्त अर्थात अमृतत्व की प्राप्ति के लिए इससे भिन्न कोई दूसरा उपाय नहीं है।
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते ।
तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीरास्तस्मिन्ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ॥ १९॥
सर्वात्मा प्रजापति अन्तर्यामी रूप से गर्भ के मध्य में प्रकट होता है। जन्म न लेता हुआ भी वह देवता, तिर्यक, मनुष्य आदि योनियों में नाना रूपों में प्रकट होता है। ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मा के उत्पत्ति स्थान उस महानारायण पुरुष को सब ओर से देखते हैं, जिसमें सभी लोक स्थित हैं।
यो देवेभ्य आतपति यो देवानां पुरोहितः ।
पूर्वो यो देवेभ्यो जातो नमो रुचाय ब्राह्मये ॥ २०॥
जो आदित्यस्वरूप प्रजापति सभी देवताओं को शक्ति प्रदान करने के लिए सदा प्रकाशित रहता है, जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं का बहुत पूर्वकाल से हित करता आया है, जो इन सबका पूज्य है, जो इन सब देवताओं से पहले प्रादुर्भूत हुआ है, उस ब्रह्मज्योतिस्वरूप परम पुरुष को हम प्रणाम करते हैं।
रुचं ब्राह्म्यं जनयन्तो देवा अग्रे तदब्रुवन् ।
यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात्तस्य देवा असन्वशे ॥ २१॥
इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं ने शोभन ब्रह्मज्योतिरूप आदित्य देव को प्रकट करते हुए सर्वप्रथम यह कहा कि हे आदित्य ! जो ब्राह्मण आपके इस अजर-अमर स्वरूप को जानता है, समस्त देवगण उस उपासक के वश में रहते हैं।
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम् ।
इष्णन्निषाणामुं म इषाण सर्वलोकं म इषाण ॥ २२॥
हे महानारायण आदित्य ! श्री और लक्ष्मी आपकी पत्नियाँ हैं, ब्रह्मा के दिन-रात पार्श्वस्वरुप हैं, आकाश में स्थित नक्षत्र आपके स्वरूप हैं। द्यावापृथिवी आपके विकसित मुख हैं। प्रयत्नपूर्वक आप सदा मेरे कल्याण की इच्छा करें। मुझे आप अपना कल्याणमय लोक प्राप्त करावें और सारे योगैश्वर्य मुझे प्रदान करें।
इति रुद्रे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
।। इस प्रकार रुद्रपाठ रुद्राष्टाध्यायी (Rudrashtadhyayi Path)का दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ।।
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रुद्राष्टाध्यायी – तीसरा अध्याय (Rudrashtadhyayi Path 3)
(अप्रतिरथसूक्तम्)
हरिः ॐ
आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् ।
संक्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शतꣳ सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥ १॥
शीघ्रगामी वज्र के समान तीक्ष्ण, वर्षा के स्वभाव की उपमा वाले, भयकारी, शत्रुओं के अतिशय घातक, मनुष्यों के क्षोभ के हेतु, बार-बार गर्जन करने वाले, देवता होने से पलक ना झपकाने वाले, अत्यन्त सावधान तथा अद्वितीय वीर इन्द्र एक साथ ही शत्रुओं की सैकड़ों सेनाओं को जीत लेते हैं।
संक्रन्दनेनाऽनिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना ।
तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषुहस्तेन वृष्णा ॥ २॥
हे युद्ध करने वाले मनुष्यों ! प्रगल्भ तथा भय रहित शब्द करने वाले, अनेक युद्धों को जीतने वाले, युद्धरत, एकचित्त होकर हाथ में बाण धारण करने वाले, जयशील तथा स्वयं अजेय और कामनाओं की वर्षा करने वाले इन्द्र के प्रभाव से उस शत्रु सेना को जीतो और उसे अपने वश में करके विनष्ट कर दो।
स इषुहस्तैः स निषङ्गिभिर्वशी सꣳस्रष्टा स युध इन्द्रो गणेन ।
सꣳसृष्टजित्सोमपा बाहुशर्ध्युग्रधन्वा प्रतिहिताभिरस्ता ॥ ३॥
वे जितेन्द्रिय अथवा शत्रुओं को अधीन करने वाले, हाथ में बाण लिए हुए धनुर्धारियों को युद्ध के लिए ललकारने वाले इन्द्र शत्रु समूहों को एक साथ युद्ध में जीत सकते हैं।
बृहस्पते परिदीया रथेन रक्षोहामित्राँ२ अपबाधमानः ।
प्रभञ्जन्त्सेनाः प्रमृणो युधा जयन्नस्माकमेध्यविता रथानाम् ॥ ४॥
हे बृहस्पते ! आप राक्षसों का नाश करने वाले होवें, रथ के द्वारा सब ओत विचरण करें, शत्रुओं को पीड़ित करते हुए और उनकी सेनाओं को अतिशय हानि पहुँचाते हुए युद्ध में हिंसाकारियों को जीतकर हमारे रथों की रक्षा करें।
बलविज्ञायः स्थविरः प्रवीरः सहस्वान्वाजी सहमान उग्रः ।
अभिवीरो अभिसत्वा सहोजा जैत्रमिन्द्र रथमातिष्ठ गोवित् ॥ ५॥
यजमानों के यज्ञ में सोमपान करने वाले, बाहुबली तथा उत्कृष्ट धनुष वाले वे इन्द्र अपने धनुष से छोड़े हुए बाणों से शत्रुओं का नाश कर देते हैं। वे इन्द्र हमारी रक्षा करें।
गोत्रभिदं गोविदं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा ।
इमꣳ सजाता अनु वीरयध्वमिन्द्रꣳ सखायो अनु सꣳरभध्वम् ॥ ६॥
हे इन्द्र ! आप दूसरों का बल जानने वाले, अत्यन्त पुरातन, अतिशय शूर, महाबलिष्ठ, अन्नवान, युद्ध में क्रूर, चारों तरफ से वीर योद्धाओं से युक्त, सभी ओर से परिचारकों से आवृत, बल से ही उत्पन्न, स्तुति को जानने वाले तथा शत्रुओं का तिरस्कार करने वाले हैं, आप अपने जयशील रथ पर आरोहण करें।
अभि गोत्राणि सहसा गाहमानोऽदयो वीरः शतमन्युरिन्द्रः ।
दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्योऽस्माकꣳ सेना अवतु प्र युत्सु ॥ ७॥
हे समान जन्म वाले देवताओं ! असुरकुल के नाशक, वेदवाणी के ज्ञाता, हाथ में वज्र धारण करने वाले, संग्राम को जीतने वाले, बल से शत्रुओं का संहार करने वाले इस इन्द्र को पराक्रम दिखाने के लिए उत्साह दिलाइये और इसको उत्साहित करके आप लोग स्वयं भी उत्साह से भर जाइये।शत्रुओं के प्रति दयाहीन, पराक्रम संपन्न, अनेक प्रकार से क्रोधयुक्त अथवा सैकड़ों यज्ञ करने वाले, दूसरों से विनष्ट न होने योग्य, शत्रु सेना का संहार करने वाले तथा किसी के द्वारा प्रहरित न हो सकने वाले इन्द्र संग्रामों में असुर कुलों का एक साथ नाश करते हुए हमारी सेना की रक्षा करें।
इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः ।
देवसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम् ॥ ८॥
बृहस्पति तथा इन्द्र सभी प्रकार की शत्रु-सेनाओं का मर्दन करने वाली विजयशील देवसेनाओं के नायक हैं। यज्ञपुरुष विष्णु, सोम और दक्षिणा इनके आगे-आगे चलें।सभी मरुद्गण भी सेना के आगे-आगे चलें।
इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य राज्ञ आदित्यानां मरुताꣳ शर्ध उग्रम् ।
महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात् ॥ ९॥
महानुभाव, सारे लोकों का नाश करने की सामर्थ्य वाले तथा विजय पाने वाले देवताओं, बारह आदित्यों, मरुद्गणों, कामना की वर्षा करने वाले इन्द्र और राजा वरुण की सभा से जय-जयकार का शब्द उठ रहा है। हे इन्द्र ! आप अपने सह्स्त्रों को भली प्रकार सुसज्जित कीजिए, मेरे वीर सैनिकों के मन को हर्षित कीजिए।
उद्धर्षय मघवन्नायुधान्युत्सत्वनां मामकानां मनाꣳसि ।
उद्वृत्रहन्वाजिनां वाजिनान्युद्रथानां जयतां यन्तु घोषाः ॥ १०॥
अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु ।
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ२ उ देवा अवता हवेषु ॥ ११॥
हे वृत्रनाशक इन्द्र ! अपने घोड़ों की गति को तेज कीजिए, विजयशील रथों से जयघोष का उच्चारण हो। शत्रु की पताकाओं के मिलने पर इन्द्र हमारी रक्षा करें, हमारे बाण शत्रुओं को नष्ट कर उन पर विजय प्राप्त करें और हमारे वीर सैनिक शत्रुओं के सैनिकों से श्रेष्ठता प्राप्त करें।
अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि ।
अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा सचन्ताम् ॥ १२॥
हे देवगण ! आप लोग संग्रामों में हमारी रक्षा कीजिए। हे शत्रुओं के प्राणों को कष्ट देने वाली व्याधि ! इन वैरियों के चित्त को मोहित करती हुई इनके सिर आदि अंगों को ग्रहण करो, तत्पश्चात दूर चली जाओ और पुन: उनके पास जाकर उनके हृदयों को शोक से दग्ध कर दो। हमारे शत्रु घने अन्धकार से आच्छन्न हो जाएँ।
अवसृष्टा परापत शरव्ये ब्रह्मसꣳशिते ।
गच्छामित्रान्प्रपद्यस्व मामीषाङ्कञ्चनोच्छिषः ॥ १३॥
वेद-मंत्रो से तीक्ष्ण किये हुए हे बाणरूप ब्रह्मास्त्र ! मेरे द्वारा प्रक्षित किये गये तुम शत्रु सेना पर गिरो, शत्रु के पास पहुँचो और उनके शरीरों में प्रवेश कर। इनमें से किसी को भी जीवित न छोड़ो।
प्रेता जयता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु ।
उग्रा वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्या यथासथ ॥ १४॥
हे हमारे वीर पुरुषों ! शत्रु की सेना पर शीघ्र आक्रमण करो और उन पर विजय पाओ। इन्द्र तुम लोगों का कल्याण करे, तुम्हारी भुजाएँ शस्त्र उठाने में समर्थ न हों, जिससे किसी भी प्रकार तुम लोग शत्रुओं से पराजय का तिरस्कार प्राप्त न करो।
असौ या सेना मरुतः परेषामभ्यैति न ओजसा स्पर्धमाना ।
तां गूहत तमसाऽपव्रतेन यथामी अन्यो अन्यं न जानन् ॥ १५॥
हे मरुद्गण ! जो यह शत्रुओं की सेना अपने बल पर हमसे स्पर्धा करती हुई हमारे सामने आ रही है, उसको अकर्मण्यता के अन्धकार में डुबो दो, जिससे कि उस शत्रु सेना के सैनिक एक-दूसरे को न पहचान पाएँ और परस्पर शस्त्र चलाकर नष्ट हो जाएँ।
यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव ।
तन्न इन्द्रो बृहस्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु ॥ १६॥
जिस युद्ध में शत्रुओं के चलाए हुए बाण फैली हुई शिखा वाले बालकों की तरह इधर-उधर गिरते हैं, उस युद्ध में इन्द्र, बृहस्पति और देवमाता अदिति हमें विजय दिलाएँ। ये सब देवता सर्वदा हमारा कल्याण करें।
मर्माणि ते वर्मणा छादयामि सोमस्त्वा राजाऽमृतेनानुवस्ताम् ।
उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु ॥ १७॥
हे यजमान ! मैं तुम्हारे मर्म स्थानों को कवच से ढकता हूँ, ब्राह्मणों के राजा सोम तुमको मृत्यु के मुख से बचाने वाले कवच से आच्छादित करें, वरुण तुम्हारे कवच को उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट बनाएँ और अन्य सभी देवता विजय की ओर अग्रसर हुए तुम्हारा उत्साहवर्धन करें।
इति रुद्रे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
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अथ रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थोऽध्यायः
विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविहृतम् ॥
वातजूतो योऽभिरक्षतित्मनाप्रजाः पुपोष पुरुधा विराजति ॥ १॥
उदुत्त्यं जातवेदसं देवमुदवहन्ति हन्ति केतवो दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २॥
येन पावकचक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३॥
दैव्यावद्ध्वर्यू आगतं रथेन सूर्यत्वचा ॥
मद्धा यज्ञं समञ्जाथे ॥ तं प्रत्क्नथा अयं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४॥
तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदम् ॥
प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनुयासु वर्धसे ॥ ५॥
अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भाज्ज्योतिर्जरायुः रजसो विमाने ।
इममपां सङ्गमे सूर्यस्य॒ शिशुं न विप्राः मतिभिः रिहन्ति ॥ ६॥
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य॒ वरुणस्याग्नेः ॥
आप्राद्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य॑ आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७॥
आन इडाभिः विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु ॥
अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा ॥ ८॥
यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभिसूर्य ॥ सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९॥
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य । विश्वमाभासि रोचनम् ॥ १०॥
तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोः वितत सञ्जभार ॥
यदेदयुक्तहरितः सधस्थादाद्रात्रीवासस्तनुते सिमस्मै ॥ ११॥
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्योरूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद्रुशदस्य॒ पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सम्भरन्ति ॥ १२॥
बण्महानसि सूर्य बडादित्य महानसि ॥
महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महानसि ॥ १३
बट्सूर्य्य श्रवसा महानसि सत्रादेव महानसि ।
मन्हा देवानामसुर्यः पुरोहितो विभुज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४॥
श्रायन्त इव॒ सूर्य विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ॥
वसूनिजाते जनमाने ओजसा प्रतिभागं न दीधिम ॥ १५॥
अद्य देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्
तन्नो मित्रो वरुणो मां महन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६॥
आकृष्णेन रजसाऽऽवर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च ॥
हिरण्ययेन सविता रथेन देव आयाति भुवनानि पश्यन् ॥ १७॥
भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – चौथा अध्याय;-
हे सूर्यदेव ! यजमान में अखण्डित आयु स्थापित करते हुए आप इस अत्यन्त स्वादु सोमरुप हवि का पान कीजिए। जो सूर्यदेव वायु से प्रेरित आत्मा द्वारा प्रजा का पालन और पोषण करते हैं, वे अनेक रूपों में आलोकित होते हैं। सूर्य रश्मियाँ सम्पूर्ण जगत को आलोक प्रदान करने के लिए जातवेदस् (अग्नितेजोमय) सूर्यदेव को ऊपर की ओर ले जाती रहती हैं। सबको शुद्ध करने वाले हे वरुणदेव ! आप जिस अनुग्रह दृष्टि से उस सुपर्ण स्वरूप को देखते हैं, उसी चक्षु से आप हम ऋत्विजों को भी देखिए।
हे दिव्य अश्विनी कुमारो ! आप दोनों सूर्य के समान कान्तिमान रथ से हमारे यहाँ आइए और पुरोडाश, दधि आदि से यज्ञ को सींचकर उसे बहुत हवि वाला बनाइए। हे इन्द्र ! आप जिन यज्ञ क्रियाओं में पुन:-पुन: सोमरस का पान कर वृद्धि को प्राप्त होते हैं उन उत्कृष्ट विस्तारवान सर्वश्रेष्ठ यज्ञों में कुश आसन के सेवी, स्वर्गवेत्ता, शत्रुओं को कम्पित करने वाले तथा जेतव्य वस्तुओं को शीघ्र जीतने वाले आप बलपूर्वक यजमान को यज्ञफल प्रदान करते हैं. जैसे पुरातन भृगु आदि ऋषियों, पूर्व पितर आदि, विश्व के सभी प्राणियों तथा वर्तमान यजमानों ने आपकी स्तुति की है, उसी प्रकार हम आपकी स्तुति करते हैं।
विद्युत के लक्षणों वाली ज्योति से परिवृत यह कान्तिमान चन्द्र ग्रीष्मान्त के समय जल निर्माण के निमित्त सूर्य अथवा द्युलोक के गर्भ में स्थित रहने वाले जल को प्रेरित करता है। बुद्धिमान विप्रगण सूर्य से जल की संगति के समय मधुर वाणियों से इस सोम की उसी प्रकार स्तुति करते हैं, जैसे लोग मधुर वचनों से अपने शिशु को प्रसन्न करते हैं। यह कैसा आश्चर्य है कि देवताओं के जीवनाधार, तेजसमूह तथा मित्र, वरुण और अग्नि के नेत्र स्वरूप सूर्य उदय को प्राप्त हुए हैं ! स्थावर-जंगममय जगत के आत्मास्वरूप इन सूर्यदेव ने पृथिवी, द्युलोक और अन्तरिक्ष को अपने तेज से पूर्णत: व्याप्त कर रखा है।
सब जीवों के हितकारी, अन्तर्यामी सूर्यदेव हमारी सुन्दर आहुतियों के कारण प्रशंसा योग्य यज्ञशाला में प्रकट हों। हे जरा रहित देवताओं ! आगमन-काल पर जिस प्रकार आप सब तृप्त होते हैं, उसी प्रकार इस सारे जगत को भी प्रज्ञा से तृप्त करें। हे अन्धकार के नाशक ऎश्वर्ययुक्त सूर्यदेव ! आज जहाँ कहीं भी आप उदित होते हैं, वह सब स्थान आपके ही वश में हो जाता है। हे सूर्यदेव ! आप संसार सागर में नौका के समान हैं, सबके दर्शनयोग्य हैं तथा सबको तेज प्रदान करने वाले हैं। प्रकाशित होने वाले सारे संसार को आप ही प्रकाशित करते हैं अर्थात अग्नि, विद्युत, नक्षत्र, चन्द्रमा, ग्रह, तारों आदि में आपकी ही ज्योति प्रकाशित हो रही है।
सूर्य का यह जो देवत्व है और यह जो ऎश्वर्य है वह विराट स्वरूप देह के मध्य में सब ओर से विस्तारित ग्रहमण्डल को अपनी आकर्षण शक्ति से नियमित रखता है। जब ये अपनी हरित वर्ण की किरणों को आकाशमण्डल में अपनी आत्मा से युक्त करते हैं, तदनन्तर ही रात्रि अपने अन्धकाररूपी वस्त्र से सबको आच्छादित कर देती है। सूर्य स्वर्गलोक के उत्संग में मित्रदेव और वरुणदेव का रूप धारण करते हैं तथा उससे मनुष्यों को भली-भाँति देखते हैं अर्थात मित्रदेव के रूप में पुण्यात्माओं को देखकर उन पर अनुग्रह करते हैं और वरुणरूप में दुष्टजनों को देखकर उनका निग्रह करते हैं। इन सूर्य का अन्य स्वरुप अनन्त अर्थात देश-काल के परिच्छेद से रहित, मायोपाधि का नाशक ब्रह्म ही है।
हे जगत के प्रेरक सत्यस्वरूप सूर्यदेव ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। हे आदित्य ! आप ही महान हैं, स्तोतागण आपकी महान और अविनश्वर महिमा का गान करते हैं। हे दीप्यमान सत्यस्वरूप ! आप महान हैं। हे सत्यस्वरूप सूर्य ! आप धन (अथवा यश) – से महान हैं. हे सत्यस्वरुप देव ! आप महान हैं। आप अपनी महिमा के कारण देवताओं के मध्य असुरविनाशक (अथवा समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाले) हैं। आप सभी कार्यों में अर्घ्य दानादि के रूप में प्रथम पूज्य हैं। आपकी ज्योति सर्वव्यापी तथा अनुल्लंघनीय है।
सूर्य की उपासना करने वाले इन्द्र आदि की उपासना से प्राप्त होने वाले धन-धान्य, ऎश्वर्य आदि भोगों को स्वत: प्राप्त कर लेते हैं, अत: हमको चाहिए कि प्रकाश की किरणों के साथ जब सूर्य भगवान उदित होते हैं, तब हम उनके निमित्त यज्ञ में देवभाग अर्पित करें। हे सूर्यरश्निरूप देवताओं ! अब आज सूर्य का उदय होने पर आप लोग हमें पाप और अपयश से मुक्त करें।
मित्र, वरुण, अदिति, समुद्र, पृथ्वी और स्वर्ग – ये सब हमारे वचन को अंगीकार करें। सबको प्रेरणा प्रदान करने वाले सूर्यदेव सुवर्णमय रथ में आरुढ़ होकर कृष्णवर्ण रात्रि लक्षण वाले अन्तरिक्ष मार्ग में पुनरावर्तन-क्रम से भ्रमण करते हुए देवता-मनुष्यादि को अपने-अपने व्यापारों में व्यवस्थित करते हुए तथा सम्पूर्ण भुवनों को देखते हुए विचरण करते हैं।
।। इति रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ।।
CONTD...
..SHIVOHAM....
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