रुद्राभिषेक कितने प्रकार का होता है? रुद्राष्टाध्यायी क्या है?PART-03
रुद्राष्टाध्यायी – सातवाँ अध्याय (Rudrashtadhyayi Path 7)
(अथ जटाऽध्याय)
हरिः ॐ
उग्रश्च भीमश्च ध्वान्तश्च धुनिश्च ।
सासह्वांश्चाभियुग्वा च विक्षिपः स्वाहा ॥ १॥
उग्र (उत्कट क्रोध स्वभाव वाले), भीम (भयानक), ध्वान्त (तीव्र ध्वनि करने वाले), धुनि (शत्रुओं को कम्पित करने वाले), सासह्वान (शत्रुओं को तिरस्कृत करने में समर्थ), अभियुग्वा (हमारे सम्मुख योग प्राप्त करने वाले) और विक्षिप (वृक्ष-शाखादि का क्षेपण करने वाले) नाम वाले जो सात मरुत् हैं, उन्हें मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।
अग्निꣳ हृदयेनाशनिꣳ हृदयाग्रेण पशुपतिं कृत्स्नहृदयेन भवं यक्ना ।
शर्वं मतस्नाभ्यामीशानं मन्युना महादेवमन्तः पर्शव्येनोग्रं
देवं वनिष्ठुना वसिष्ठहनुः शिङ्गीनि कोश्याभ्याम् ॥ २॥
मैं अग्नि को हृदय के द्वारा, अशनिदेव को हृदयाग्र से, पशुपति को सारे हृदय से, भव को यकृत से, शर्व को मतस्ना नामक हृदय स्थल से, ईशान देवता को क्रोध से, महादेव को पसलियों के अन्तर्भाग से, उग्र देवता को बड़ी आँत से और शिंगी नामक देवताओं को हृदयकोष स्थित पिण्डों से प्रसन्न करता हूँ।
उग्रं ल्लोहितेन मित्रꣳ सौव्रत्येन रुद्रं दौर्व्रत्येनेन्द्रं प्रक्रीडेन मरुतो बलेन साध्यान्प्रमुदा ।
भवस्य कण्ठ्यꣳ रुद्रस्यान्तः पार्श्व्यं महादेवस्य यकृच्छर्वस्य वनिष्ठुः पशुपतेः पुरीतत् ॥ ३॥
उग्र देवता को रुधिर से, मित्र देवता को शुभ कर्मों के अनुष्ठान से, रुद्र देवता को अशोभन कर्मों से, इन्द्र देवता को प्रकृष्ट क्रीडाओं से, मरुत् देवताओं को बल से, साध्य देवताओं को हर्ष से, भव देवताओं को कण्ठ भाग से, रुद्र देवता को पसलियों के अन्तर्भाग से, महादेव को यकृत से, शर्व देवता को बड़ी आँत से और पशुपति देवता को पुरीतत् (हृदयाच्छाददक भाग विशेष) से संतुष्ट करता हूँ।
लोमभ्यः स्वाहा लोमभ्यः स्वाहा त्वचे स्वाहा त्वचे स्वाहा
लोहिताय स्वाहा लोहिताय स्वाहा मेदोभ्यः स्वाहा मेदोभ्यः स्वाहा ।
माꣳसेभ्यः स्वाहा माꣳसेभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा
अस्थभ्यः स्वाहा अस्थभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा ।
रेतसे स्वाहा पायवे स्वाहा ॥ ४॥
समष्टि लोमों के लिए यह श्रेष्ठ आहुति देता हूँ, व्यष्टि लोमों के लिए यह श्रेष्ठ आहुति देता हूँ, समष्टि त्वचा के लिए, व्यष्टि त्वचा के लिए, समष्टि रुधिर के लिए, व्यष्टि रुधिर के लिए, समष्टि मेदा के लिए, व्यष्टि मेदा के लिए, समष्टि मांस के लिए, व्यष्टि मांस के लिए, समष्टि नसों के लिए, व्यष्टि नसों के लिए, समष्टि अस्थियों के लिए, व्यष्टि अस्थियों के लिए, समष्टि मज्जा के लिए, व्यष्टि मज्जा के लिए, वीर्य के लिए और पायु इन्द्रिय के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।
आयासाय स्वाहा प्रायासाय स्वाहा संयासाय स्वाहा वियासाय स्वाहोद्यासाय स्वाहा ।
शुचे स्वाहा शोचते स्वाहा शोचमानाय स्वाहा शोकाय स्वाहा ॥ ५॥
आयास देवता के लिए, प्रायास देवता के लिए, संयास देवता के लिए, वियास देवता के लिए और उद्यास देवता के लिए, शुचि के लिए, शोचत् के लिए, शोचमान के लिए और शोक के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति प्रदान करता हूँ।
तपसे स्वाहा तप्यते स्वाहा तप्यमानाय स्वाहा तप्ताय स्वाहा घर्माय स्वाहा ।
निष्कृत्यै स्वाहा प्रायश्चित्त्यै स्वाहा भेषजाय स्वाहा ॥ ६॥
तप के लिए, तपकर्ता के लिए, तप्यमान के लिए, तप्त के लिए, घर्म के लिए, निष्कृति के लिए, प्रायश्चित के लिए और औषध के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।
यमाय स्वाहान्तकाय स्वाहा मृत्यवे स्वाहा ब्रह्मणे स्वाहा ब्रह्महत्यायै स्वाहा ।
विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा द्यावापृथिवीभ्याꣳ स्वाहा ॥ ७॥
यम के लिए, अन्तक के लिए, मृत्यु के लिए, ब्रह्मा के लिए, ब्रह्महत्या के लिए, विश्वेदेवों के लिए, द्युलोक के लिए तथा पृथ्वीलोक के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।
इति रुद्रे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥
।। इस प्रकार रुद्रपाठ – रुद्राष्टाध्यायी(Rudrashtadhyayi Path) – का सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ।।
रुद्राष्टाध्यायी – आठवां अध्याय (Rudrashtadhyayi Path 8)
(चमकप्रश्नः/ Rudra Namak Chamak Mantra)
हरिः ॐ
वाजश्च मे प्रसवश्च मे प्रयतिश्च मे प्रसितिश्च मे
धीतिश्च मे क्रतुश्च मे स्वरश्च मे श्लोकश्च मे
श्रवश्च मे श्रुतिश्च मे ज्योतिश्च मे स्वश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १॥
अन्न, अन्नदान की अनुज्ञा, शुद्धि, अन्न-भक्षण की उत्कण्ठा, श्रेष्ठ संकल्प, सुन्दर शब्द, स्तुति-सामर्थ्य, वेदमन्त्र अथवा श्रवणशक्ति, ब्राह्मण, प्रकाश और स्वर्ग – ये सब मेरे द्वारा किए गए यज्ञ के फल के रुप में मुझे प्राप्त हों।
प्राणश्च मेऽपानश्च मे व्यानश्च मेऽसुश्च मे
चित्तं च म आधीतं च मे वाक् च मे मनश्च मे
चक्षुश्च मे श्रोत्रं च मे दक्षश्च मे बलं च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २॥
प्राणवायु, अपानवायु, सारे शरीर में विचरण करने वाला व्यानवायु, मनुष्यों को प्रवृत्त करने वाला वायु, मानससंकल्प, बाह्यविषयसंबंधी ज्ञान, वाणी, शुद्ध मन, पवित्र दृष्टि, सुनने की सामर्थ्य, ज्ञानेन्द्रियों का कौशल तथा कर्मेन्द्रियों में बल – ये सब मेरे द्वारा किए गए यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
ओजश्च मे सहश्च म आत्मा च मे तनूश्च मे
शर्म च मे वर्म च मेऽङ्गानि च मेऽस्थीनि च मे
परूꣳषि च मे शरीराणि च म आयुश्च मे जरा च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ३॥
बल का कारणभूत ओज, देहबल, आत्मज्ञान, सुन्दर शरीर, सुख, कवच, हृष्ट-पुष्ट अंग, सुदृढ़ हड्डियाँ, सुदृढ़ अंगुलियाँ, नीरोग शरीर, जीवन और वृद्धावस्थापर्यन्त आयु – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
ज्यैष्ठ्यं च म आधिपत्यं च मे मन्युश्च मे भामश्च मेऽमश्च मेऽम्भश्च मे
जेमा च मे महिमा च मे वरिमा च मे प्रथिमा च मे
वर्षिमा च मे द्राघिमा च मे वृद्धं च मे वृद्धिश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ४॥
प्रशस्तता, प्रभुता, दोषों पर कोप, अपराध पर क्रोध, अपरिमेयता, शीतल-मधुर जल, जीतने की शक्ति, प्रतिष्ठा, संतान की वृद्धि, गृह-क्षेत्र आदि का विस्तार, दीर्घ जीवन, अविच्छिन्न वंश परंपरा, धन-धान्य की वृद्धि और विद्या आदि गुणों का उत्कर्ष – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
सत्यं च मे श्रद्धा च मे जगच्च मे धनं च मे
विश्वं च मे महश्च मे क्रीडा च मे मोदश्च मे
जातं च मे जनिष्यमाणं च मे सूक्तं च मे सुकृतं च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ५॥
यथार्थ भाषण, परलोक पर विश्वास, गौ आदि पशु, सुवर्ण आदि धन, स्थावर पदार्थ, कीर्ति, क्रीड़ा, क्रीड़ादर्शन – जनित आनन्द, पुत्र से उत्पन्न संतान, होने वाली संतान, शुभदायक ऋचाओं का समूह और ऋचाओं के पाठ से शुभ फल – ये सब मेरे द्वार किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
ऋतं च मेऽमृतं च मेऽयक्ष्मं च मेऽनामयच्च मे
जीवातुश्च मे दीर्घायुत्वं च मेऽनमित्रं च मेऽभयं च मे
सुखं च मे शयनं च मे सूषाश्च मे सुदिनं च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ६॥
यज्ञ आदि कर्म और उनका स्वर्ग आदि फल, धातुक्षय आदि रोगों का अभाव तथा सामान्य व्याधियों का न रहना, आयु बढ़ाने वाले साधन, दीर्घायु, शत्रुओं का अभाव, निर्भयता, सुख, सुसज्जित शय्या, संध्या-वंदन से युक्त प्रभात और यज्ञ-दान-अध्ययनआदि से युक्त दिन – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
यन्ता च मे धर्ता च मे क्षेमश्च मे धृतिश्च मे
विश्वं च मे महश्च मे संविच्च मे ज्ञात्रं च मे
सूश्च मे प्रसूशच मे सीरं च मे लयश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ७॥
अश्व आदि का नियन्तृत्व और प्रजा पालन की क्षमता, वर्तमान धन की रक्षणशक्ति, आपत्ति में चित्त की स्थिरता, सबकी अनुकूलता, पूजा-सत्कार, वेदशास्त्र आदि का ज्ञान, विज्ञान-सामर्थ्य, पुत्र आदि को प्रेरित करने की क्षमता, पुत्रोत्पत्ति आदि के लिए सामर्थ्य, हल आदि के द्वारा कृषि से अन्न-उत्पादन और कृषि में अनावृष्टि आदि विघ्नों का विनाश – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
शं च मे मयश्च मे प्रियं च मेऽनुकामश्च मे
कामश्च मे सौमनसश्च मे भगश्च मे द्रविणं च मे
भद्रं च मे श्रेयश्च मे वसीयश्च मे यशश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ८॥
इस लोक का सुख, परलोक का सुख, प्रीति-उत्पादक वस्तु, सहज यत्नसाध्य पदार्थ, विषयभोगजनित सुख, मन को स्वस्थ करने वाले बन्धु-बान्धव, सौभाग्य, धन, इस लोक का और परलोक का कल्याण, धन से भरा निवासयोग्य गृह तथा यश – ये सब मेरे द्वारा किये गये इस यज्ञ के फल के रुप में मुझे प्राप्त हों।
ऊर्क्च मे सूनृता च मे पयश्च मे रसश्च मे
घृतं च मे मधु च मे सग्धिश्च मे सपीतिश्च मे
कृषिश्च मे वृष्टिश्च मे जैत्रं च म औद्भिद्यं च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ९॥
अन्न, सत्य और प्रिय वाणी, दूध, दूध का सार, घी, शहद, बान्धवों के साथ खान-पान, धान्य की सिद्धि, अन्न उत्पन्न होने के कारण अनुकूल वर्षा, विजय की शक्ति तथा आम आदि वृक्षों की उत्पत्ति – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
रयिश्च मे रायश्च मे पुष्टं च मे पुष्टिश्च मे
विभु च मे प्रभु च मे पूर्णं च मे पूर्णतरं च मे
कुयवं च मेऽक्षितं च मेऽन्नं च मेऽक्षुच्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १०॥
सुवर्ण, मौक्तिक आदि मणियाँ, धन की प्रचुरता, शरीर की पुष्टि, व्यापकता की शक्ति, ऎश्वर्य, धन-पुत्र आदि की बहुलता, हाथी-घोड़ा आदि की अधिकता, कुत्सित धान्य, अक्षय अन्न, भात आदि सिद्धान्न तथा भोजन पचाने की शक्ति – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
वित्तं च मे वेद्यं च मे भूतं च मे भविष्यच्च मे
सुगं च मे सुपथ्यं च म ऋद्धं च म ऋद्धिश्च मे
क्लृप्तं च मे क्लृप्तिश्च मे मतिश्च मे सुमतिश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ११॥
पूर्वप्राप्त धन, प्राप्त होने वाला धन, पूर्वप्राप्त क्षेत्र आदि, भविष्य में प्राप्त होने वाले क्षेत्र आदि, सुगम्य देश, परम पथ्य पदार्थ, समृद्ध यज्ञ-फल, यज्ञ आदि की समृद्धि, कार्यसाधक अपरिमित धन, कार्य साधन की शक्ति, पदार्थ मात्र का निश्चय तथा दुर्घट कार्यों का निर्णय करने की बुद्धि – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
व्रीहयश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे तिलाश्च मे
मुद्राश्च मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्च मे
श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमाश्च मे मसूराश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १२॥
उत्कृष्ट कोटि के धान्य, यव, उड़द, तिल, मूँग, चना, प्रियंगु, चीनक धान्य, सावाँ, नीवार, गेहूँ और मसूर – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च मे पर्वताश्च मे
सिकताश्च मे वनस्पतयश्च मे हिरण्यं च मेऽयश्च मे
श्यामं च मे लोहं च मे सीसं च मे त्रपु च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १३॥
सुन्दर पाषाण और श्रेष्ठ मूर्त्तिका, गोवर्धन आदि छोटे पर्वत, हिमालय आदि विशाल पर्वत, रेतीली भूमि, वनस्पतियाँ, सुवर्ण, लोहा, ताँबा, काँसा, सीसा तथा राँगा – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
अग्निश्च म आपश्च मे वीरुधश्च म ओषधयश्च मे
कृष्टपच्याश्च मेऽकृष्टपच्याश्च मे ग्राम्याश्च मे पशव आरण्याश्च मे
वित्तं च मे वित्तिश्च मे भूतं च मे भूतिश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १४॥
पृथ्वी पर अग्नि की तथा अन्तरिक्ष में जल की अनुकूलता, छोटे-छोटे तृण, पकते ही सूखने वाली औषधियाँ, जोतने-बोने से उत्पन्न होने वाले तथा बिना जोते-बोए स्वयं उत्पन्न होने वाले अन्न, गाय-भैंस आदि ग्राम्य पशु तथा हाथी-सिंह आदि जंगली पशु, पूर्वलब्ध तथा भविष्य में प्राप्त होने वाला धन, पुत्र आदि तथा ऎश्वर्य – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
वसु च मे वसतिश्च मे कर्म च मे
शक्तिश्च मेऽर्थश्च म एमश्च म इत्या च मे गतिश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १५॥
गो आदि धन, रहने के लिए सुन्दर घर, अग्निहोत्र आदि कर्म तथा उनके अनुष्ठान की सामर्थ्य, इच्छित पदार्थ, प्राप्तियोग्य पदार्थ, इष्टप्राप्ति का उपाय एवं इष्टप्राप्ति – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
अग्निश्च म इन्द्रश्च मे सोमश्च म इन्द्रश्च मे
सविता च म इन्द्रश्च मे सरस्वती च म इन्द्रश्च मे
पूषा च म इन्द्रश्च मे बृहस्पतिश्च म इन्द्रश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १६॥
अग्नि और इन्द्र, सोम तथा इन्द्र, सविता और इन्द्र, सरस्वती तथा इन्द्र, पूषा तथा इन्द्र, बृहस्पति और इन्द्र – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
मित्रश्च म इन्द्रश्च मे वरुणश्च म इन्द्रश्च मे
धाता च म इन्द्रश्च मे त्वष्टा च म इन्द्रश्च मे
मरुतश्च म इन्द्रश्च मे विश्वे च मे देवा इन्द्रश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १७॥
मित्रदेव एवं इन्द्र, वरुण तथा इन्द्र, धाता और इन्द्र, त्वष्टा तथा इन्द्र, मरुद्गण और इन्द्र, विश्वेदेव और इन्द्र – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रुप में मुझे प्राप्त हों।
पृथिवी च म इन्द्रश्च मेऽन्तरिक्षं च म इन्द्रश्च मे
द्यौश्च म इन्द्रश्च मे समाश्च म इन्द्रश्च मे
नक्षत्राणि च म इन्द्रश्च मे दिशश्च म इन्द्रश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १८॥
पृथ्वी और इन्द्र, अन्तरिक्ष एवं इन्द्र, स्वर्ग तथा इन्द्र, वर्ष की अधिष्ठात्री देवता तथा इन्द्र, नक्षत्र और इन्द्र, दिशाएँ तथा इन्द्र – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
अꣳशुश्च मे रश्मिश्च मेऽदाभ्यश्च मेऽधिपतिश्च म उपाꣳशुश्च मेऽन्तर्यामश्च म ऐन्द्रवायवश्च मे
मैत्रावरुणश्च म आश्विनश्च मे प्रतिप्रस्थानश्च मे शुक्रश्च मे मन्थी च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १९॥
अंशु, रश्मि, अदाभ्य, निग्राह्य, उपांशु, अन्तर्याम, ऎन्द्रवायव, मैत्रावरुण, आश्विन, प्रतिप्रस्थान, शुक्र और मन्थी – ये सभी मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
आग्रयाणश्च मे वैश्वदेवश्च मे ध्रुवश्च मे
वैश्वानरश्च म ऐन्द्राग्नश्च मे
महावैश्वदेश्च मे मरुत्वतीयाश्च मे निष्केवल्यश्च मे
सावित्रश्च मे सारस्वतश्च मे पात्नीवतश्च मे हारियोजनश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २०॥
आग्रयण, वैश्वदेव, ध्रुव, वैश्वानर, ऎन्द्राग्न, महावैश्वदेव, मरुत्त्वतीय, निष्केवल्य, सावित्र, सारस्वत, पात्नीवत एवं हारियोजन – ये यज्ञग्रह मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
स्रुचश्च मे चमसाश्च मे वायव्यानि च मे द्रोणकलशश्च मे
ग्रावाणश्च मेऽधिषवणे च मे पूतभृच्च म आधवनीयश्च मे
वेदिश्च मे बर्हिश्च मेऽवभृतश्च मे स्वगाकारश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २१॥
स्रुक्, चमस, वायव्य, द्रोणकलश, ग्रावा, काष्ठफलक, पूतभृत्, आधवनीय, वेदी, कुशा, अवभृथ और शम्युवाक – ये सब यज्ञपात्र मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
अग्निश्च मे घर्मश्च मेऽर्कश्च मे सूर्यश्च मे
प्राणश्च मेऽश्वमेधश्च मे पृथिवी च मेऽदितिश्च मे
दितिश्च मे द्यौश्च मेऽङ्गुलय: शक्वरयो दिशश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २२
अग्निष्टोम, प्रवर्ग्य, पुरोडाश, सूर्यसंबंधी चरु, प्राण, अश्वमेधयज्ञ, पृथ्वी, अदिति, दिति, द्युलोक, विराट् पुरुष के अवयव, सब प्रकार की शक्तियाँ और पूर्व दिशाएँ – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
व्रतं च म ऋतवश्च मे तपश्च मे संवत्सरश्च मे
अहोरात्रे ऊर्वष्ठीवे बृहद्रथन्तरे च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २३॥
व्रत, वसन्त आदि ऋतुएँ, कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि तप, प्रभव आदि संवत्सर, दिन-रात, जंघा तथा जानु – ये शरीरावयव और बृहद् तथा रथन्तर साम – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे
सप्त च मे सप्त च मे नव च मे नव च म एकादश च म एकादश च मे
त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे पञ्चदश च मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे
नवदश च मे नवदश च म एकविꣳशतिश्च म एकविꣳशतिश्च मे त्रयोविꣳशतिश्च मे त्रयोविꣳशतिश्च मे
पञ्चविꣳशतिश्च मे पञ्चविꣳशतिश्च मे सप्तविꣳशतिश्च मे प्तविꣳशतिश्च मे
नवविꣳशतिश्च मे नवविꣳशतिश्च म एकत्रिꣳशच्च म एकत्रिꣳशच्च मे त्रयस्त्रिꣳशच्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २४॥
एक और तीन, तीन तथा पाँच, पाँच और सात, सात तथा नौ, नौ तथा ग्यारह, ग्यारह और तेरह, तेरह और पंद्रह, पंद्रह तथा सत्रह, सत्रह तथा उन्नीस, उन्नीस और इक्कीस, इक्कीस तथा तीईस, तेईस और पच्चीस, पच्चीस तथा सत्ताईस, सत्ताईस तथा उनतीस, उनतीस और इकतीस, इकतीस तथा तैंतीस – इन सब संख्याओं से कहे जाने वाले सकल श्रेष्ठ पदार्थ मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
चतस्रश्च मेऽष्टौ च मेऽष्टौ च मे द्वादश च मे द्वादश च मे
षोडश च मे षोडश च मे विꣳशतिश्च मे विꣳशतिश्च मे
चतुर्विꣳशतिश्च मे चतुर्विꣳशतिश्च मेऽष्टाविꣳशतिश्च मेऽष्टाविꣳशतिश्च मे
द्वात्रिꣳशच्च मे द्वात्रिꣳशच्च मे षट्त्रिꣳशच्च मे षट्त्रिꣳशच्च मे
चत्वारिꣳशच्च मे चत्वारिꣳशच्च मे चतुश्चत्वारिꣳशच्च मे चतुश्चत्वारिꣳशच्च मेऽष्टाचत्वारिꣳशच्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २५॥
चार तथा आठ, आठ और बारह, बारह तथा सोलह, सोलह और बीस, बीस और चौबीस, चौबीस तथा अट्ठाईस, अठ्ठाईस और बत्तीस, बत्तीस तथा छत्तीस, छत्तीस और चालीस, चालीस तथा चवालीस, चवालीस तथा अड़तालीस – इन सब संख्याओं से कहे जाने वाले सकल श्रेष्ठ पदार्थ मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
त्र्यविश्च मे त्र्यवी च मे दित्यवाट् च मे दित्यौही च मे
पञ्चाविश्च मे पञ्चावी च मे त्रिवत्सश्च मे त्रिवत्सा च मे
तुर्यवाट् च मे तुर्यौही च मे ।
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २६॥
डेढ़ वर्ष का बछड़ा, डेढ़ वर्ष की बछिया, दो वर्ष का बछड़ा, दो वर्ष की बछिया, ढ़ाई वर्ष का बैल, ढ़ाई वर्ष की गाय, तीन वर्ष का बैल तथा तीन वर्ष की गाय, साढ़े तीन वर्ष का बैल और साढ़े तीन वर्ष की गाय – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
पष्ठवाट् च मे पष्ठौही च म उक्षा च मे वशा च म ऋषभश्च मे
वेहच्च मेऽनड्वांश्च मे धेनुश्च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २७॥
चार वर्ष का बैल, चार वर्ष की गाय, सेचन में समर्थ वृषभ, वन्ध्या गाय, तरुण वृषभ, गर्भघातिनी गाय, भार वहन करने में समर्थ बैल तथा नवप्रसूता गाय – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
वाजाय स्वाहा प्रसवाय स्वाहाऽपिजाय स्वाहा क्रतवे स्वाहा वसवे स्वाहाऽहर्पतये स्वाहाह्ने
मुग्धाय स्वाहा मुग्धाय वैनꣳशिनाय स्वाहा विनशिन आन्त्यायनाय स्वाहान्त्याय
भौवनाय स्वाहा भुवनस्य पतये स्वाहाधिपतये स्वाहा प्रजापतये स्वाहा ।
इयं ते राण्मित्राय यन्ताऽसि यमन ऊर्जे त्वा वृष्ट्यै त्वा प्रजानां त्वाधिपत्याय ॥ २८॥
प्रचुर अन्न की उत्पत्ति करने वाले अन्नरूप चैत्र मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, वैशाख मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, जल-क्रीडा में सुखदायक ज्येष्ठ मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, यागरूप आषाढ़ मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, चातुर्मास्य में यात्रा का निषेध करने वाले श्रावण मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, दिन के स्वामी सूर्यरूप भाद्रपद मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, तुषार आदि से मोहकारक दिवस वाले आश्विन (क्वार) – मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है,
स्नान आदि से प्राणियों का पाप नाश करने के कारण मोहनिवर्तक तथा दिनमान के थोड़ा घटने विनाशशील कार्तिक मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, सम्पूर्ण सृष्टि के विनाश के बाद भी विद्यमान रहने वाले अविनाशी विष्णुरूप मार्गशीर्ष (अगहन) मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, अन्त में स्थित रहने वाले तथा प्राणियों के पोषक पौष मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, सम्पूर्ण लोकों के पालकरूप माघ मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है और सभी प्राणियों के लिए सर्वाधिक पालक फाल्गुन मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है।
बारहों मासों के अधिष्ठातृदेव प्रजापति के लिए यह श्रेष्ठ आहुति दी जाती है। हे प्रजापतिस्वरुप अग्निदेव! यह यज्ञस्थान आपका राज्य है, अग्निष्टोम आदि कर्मों में सबके नियन्ता आप मित्ररूप इस यजमान के प्रेरक हैं। अधिक अन्न आदि की प्राप्ति के लिए मैं आपका अभिषेक करता हूँ, वर्षा के लिए मैं आपका अभिषेक करता हूँ और प्रजाओं पर प्रभुता-प्राप्ति के लिए मैं आपका अभिषेक करता हूँ।
आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पताꣳश्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां
वाग्यज्ञेन कल्पतां मनो यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पतां ब्रह्मा यज्ञेन कल्पतां
ज्योतिर्यज्ञेन कल्पतां स्वर्यज्ञेन कल्पतां पृष्ठं यज्ञेन कल्पतां यज्ञो यज्ञेन कल्पताम् ।
स्तोमश्च यजुश्च ऋक् च साम च बृहच्च रथन्तरं च ।
स्वर्देवा अगन्मामृता अभूम प्रजापतेः प्रजा अभूम वेट् स्वाहा ॥ २९॥
यज्ञ के फल से मेरी आयु में वृद्धि हो, यज्ञ के फलस्वरुप मेरे प्राण बलिष्ठ हों, यज्ञ के फलस्वरुप नेत्रों की ज्योति बढ़े, यज्ञ के फल से श्रवणशक्ति उत्कृष्टता को प्राप्त हो, यज्ञ के फल से वाणी में श्रेष्ठता रहे, यज्ञ के फलस्वरुप मन सदा स्वच्छ रहे, यज्ञ के फलस्वरुप आत्मा बलवान हो, यज्ञ के फलस्वरुप सभी वेद मेरे ऊपर प्रसन्न रहें, इस यज्ञ के फलस्वरुप मुझे परमात्मा की दिव्य ज्योति प्राप्त हो, यज्ञ के फलस्वरुप स्वर्ग की प्राप्ति हो, यज्ञ के फलस्वरुप संसार का सर्वश्रेष्ठ सुख प्राप्त हो,
यज्ञ के फलस्वरुप महायज्ञ करने की सामर्थ्य प्राप्त हो, त्रिवृत्पंचदश आदि स्तोम, यजुर्मन्त्र, ऋचाएँ, साम की गीतियाँ, बृहत्साम और रथन्तर साम – ये सब यज्ञ के फल से मेरे ऊपर अनुग्रह करें, मैं यज्ञ के फल से देवत्व को प्राप्त कर स्वर्ग जाऊँ तथा अमर हो जाऊँ, यज्ञ के प्रसाद से हम हिरण्यगर्भ प्रजापति की प्रियतम प्रजा हों। समस्त देवताओं के निमित्त यह वसोर्धारा हवन सम्पन्न हुआ, ये सभी आहुतियाँ उन्हें भली-भाँति समर्पित हैं।
इति रुद्रेऽष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥
।। इस प्रकार रुद्रपाठ – रुद्राष्टाध्यायी(Rudrashtadhyayi Path) – का आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ।
शान्त्यध्याय
हरिः ॐ
ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्राणं प्रपद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये ।
वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥ १॥
मैं ऋचारूप वाणी की शरण लेता हूँ, मैं यजु:स्वरूप मन की शरण लेता हूँ, मैं प्राणरूप साम की शरण लेता हूँ और मैं चक्षु-इन्द्रिय तथा श्रोत्र-इन्द्रिय की शरण लेता हूँ। वाक् – शक्ति, शारीरिक बल और प्राण-अपानवायु – ये सब मुझ में स्थिर हों।
यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृण्णं बृहस्पतिर्मे तद्दधातु ।
शं नो भवतु भुवनस्य यस्पतिः ॥ २॥
मेरे नेत्र तथा हृदय की जो न्यूनता है और मन की जो व्याकुलता है, उसे देवगुरु बृहस्पति दूर करें अर्थात यज्ञ करते समय मेरे नेत्र, हृदय तथा मन से जो त्रुटि हो गई है, उसे वे क्षमा करें। सम्पूर्ण भुवन के जो अधिपतिरूप भगवान यज्ञपुरुष हैं, वे हमारे लिए कल्याणकारी हों।
भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ ३॥
उन प्रकाशात्मक जगत्स्रष्टा सविता देव के भूर्लोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोक में व्याप्त रहने वाले परब्रह्मात्मक सर्वोतम तेज का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों के अनुष्ठान हेतु प्रेरित करें।
कया नश्चित्र आभुवदूती सदावृधः सखा ।
कया शचिष्ठया वृता ॥ ४॥
सदा सबको समृद्ध करने वाला आश्चर्यरूप परमेश्वर किस तर्पण या प्रीति से तथा किस वर्तमान योग-क्रिया से हमारा सहायक होता है अर्थात हम कौन-सी उत्तम क्रिया करें और कौन-सा शोभन कर्म करें, जिससे परमात्मा हमारे सहायक हों और अपनी पालन शक्ति द्वारा हमारे वृद्धिकारी सखा हों।
कस्त्वा सत्यो मदानां मꣳहिष्ठो मत्सदन्धसः ।
दृढा चिदारुजे वसु ॥ ५॥
हे परमेश्वर ! मदजनक हवियों में श्रेष्ठ सोमरुप अन्न का कौन-सा अंश आपको सर्वाधिक तृप्त करता है? आपकी इस प्रसन्नता में दृढ़ता से रहने वाले हम भक्तजन अपने धन आदि के साथ उसे आपको समर्पित करते हैं।
अभी षु णः सखीनामविता जरितॄणाम् ।
शतं भवास्यूतिभिः ॥ ६॥
हे परमेश्वर ! आप मित्रों के तथा स्तुति करने वाले हम ऋत्विजों के पालक हैं और हम भक्तों की रक्षा के लिए भली-भाँति अभिमुख होकर आप अनन्त रूप धारण करते हैं।
कया त्वं न ऊत्याभि प्रमन्दसे वृषन् ।
कया स्तोतृभ्य आभर ॥ ७॥
हे इन्द्र ! आप किस तृप्ति अथवा हविदान से हमें प्रसन्न करते हैं? और किस दिव्यरूप को धारण कर स्तुति करने वाले हम उपासकों की सारी अभिलाषाओं को पूरा करते हैं?
इन्द्रो विश्वस्य राजति ।
शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ॥ ८॥
सबके स्वामी परमेश्वर चारों तरफ प्रकाशमान हैं। वे हमारे पुत्र आदि के लिए कल्याणरूप हों, वे हमारे गौ आदि पशुओं के लिए सुखदायक हों।
शं नो मित्र: शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा ।
शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः ॥ ९॥
मित्रदेवता हमारे लिए कल्याणमय हों, वरुणदेवता हमारे लिए कल्याणकारी हों, अर्यमा हमारे लिए कल्याणप्रद हों, इन्द्र देवता हमारे लिए कल्याणमय हों, बृहस्पति हमारे लिए कल्याणकारी हों तथा विस्तीर्ण पादन्यास वाले विष्णु हमारे लिए कल्याणमय हों
शं नो वातः पवताꣳ शं नस्तपतु सूर्यः ।
शं नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्यो अभिवर्षतु ॥ १०॥
वायुदेव हमारे लिए सुखकारी होकर बहें, सूर्यदेव हमारे निमित्त सुखरूप होकर तपें और पर्जन्य देवता शब्द करते हुए हमारे निमित्त सुखदायक वर्षा करें।
अहानि शं भवन्तु नः शꣳ रात्रीः प्रतिधीयताम् ।
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या ।
शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः ॥ ११॥
दिन हमारे लिए सुखकारी हों, रात्रियाँ हमारे लिए सुखरूप हों, इन्द्र और अग्नि देवता हमारी रक्षा करते हुए सुखरूप हों, हवि से तृप्त इन्द्र और वरुण देवता हमारे लिए कल्याणकारी हों, अन्न की उत्पत्ति करने वाले इन्द्र और पूषा देवता हमारे लिए सुखकारी हों एवं इन्द्र और सोम देवता श्रेष्ठ गमन अथवा श्रेष्ठ उत्पत्ति के निमित्त और रोगों का नाश करने के लिए तथा भय दूर करने के लिए हमारे लिए कल्याणकारी हों।
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये ।
शं योरभिस्रवन्तु नः ॥ १२॥
दीप्तिमान जल हमारे अभीष्ट स्नान के लिए सुखकर हो, पीने के लिए स्वादिष्ट तथा स्वास्थ्यकारी हो, यह जल हमारे रोग तथा भय को दूर करने के लिए निरन्तर प्रवाहित होता रहे।
स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरा निवेशनी ।
यच्छा नः शर्म सप्रथाः ॥ १३॥
हे पृथिवि ! निष्कण्टक सुख में स्थित रहने वाली तथा अति विस्तारयुक्त आप हमारे लिए सुखकारी बनें और हमें शरण प्रदान करें।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन ।
महेरणाय चक्षसे ॥ १४
हे जलदेवता ! आप जल देने वाले हैं और सुख की भावना करने वाले व्यक्ति के लिए स्नान-पान आदि के द्वारा सुख के उत्पादक हैं। हमारे रमणीय दर्शन और रसानुभव के निमित्त यहाँ स्थापित हो जाइए।
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः ।
उशतीरिव मातरः ॥ १५॥
हे जल देवता ! आपका जो शान्तरुप सुख का एकमात्र कारण रस इस लोक में स्थित है। हमको उस रस का भागी उसी तरह से बनाएँ जैसे प्रीतियुक्त माता अपने बच्चे को दूध पिलाती है।
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ ।
आपो जनयथा च नः ॥ १६॥
हे जल देवता ! आपके उस रस की प्राप्ति के लिए हम शीघ्र चलना चाहते हैं, जिसके द्वारा आप सारे जगत को तृप्त करते हैं, और हमें भी उत्पन्न करते हैं।
द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षꣳ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वꣳ शान्तिः
शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥ १७॥
द्युलोकरूप शान्ति, अन्तरिक्षरूप शान्ति, भूलोकरूप शान्ति, जलरूप शान्ति, औषधिरूप शान्ति, वनस्पतिरूप शान्ति, सर्वदेवरुप शान्ति, ब्रह्मरूप शान्ति, सर्वजगत-रूप शान्ति और संसार में स्वभावत: जो शान्ति रहती है, वह शान्ति मुझे परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो।
दृते दृꣳह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥ १८॥
हे महावीर परमेश्वर ! आप मुझको दृढ़ कीजिए, सभी प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें, मैं भी सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूँ और हम लोग परस्पर द्रोहभाव से सर्वथा रहित होकर सभी को मित्र की दृष्टि से देखें।
दृते दृꣳह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।
ज्योक्ते सन्दृशि जीव्यासं ज्योक्ते सन्दृशि जीव्यासम् ॥ १९॥
हे भगवन ! आप मुझे सब प्रकार से दृढ़ बनाएँ। आपके संदर्शन में अर्थात आपकी कृपा दृष्टि से मैं दीर्घ काल तक जीवित रहूँ।
नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्ते अस्त्वर्चिषे ।
अन्याँस्ते अस्मत्तपन्तु हेतयः पावको अस्मभ्यꣳ शिवो भव ॥ २०॥
हे अग्निदेव ! सब रसों को आकर्षित करने वाली आपकी तेजस्विनी ज्वाला को नमस्कार है, आपके पदार्थ-प्रकाशक तेज को नमस्कार है। आपकी ज्वालाएँ हमें छोड़कर दूसरों के लिए तापदायक हों और आप हमारा चित्त-शोधन करते हुए हमारे लिए कल्याणकारक हों।
नमस्ते अस्तु विद्युते नमस्ते स्तनयित्नवे ।
नमस्ते भगवन्नस्तु यतः स्वः समीहसे ॥ २१॥
विद्युत रूप आपके लिए नमस्कार है, गर्जनारूप आपके लिए नमस्कार है, आप सभी प्राणियों को स्वर्ग का सुख देने की चेष्टा करते हैं, इसलिए आपके लिए नमस्कार है।
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु ।
शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ॥ २२॥
हे परमेश्वर ! आप जिस रुप से हमारे कल्याण की चेष्टा करते हैं उसी रुप से हमें भयरहित कीजिए, हमारी संतानों का कल्याण कीजिए और हमारे पशुओं को भी भयमुक्त कीजिए।
सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तुयोऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः ॥ २३॥
जल और औषधियाँ हमारे लिए कल्याणकारी हों और हमारे उस शत्रु के लिए वे अमंगलकारी हों, जो हमारे प्रति द्वेषभाव रखता है अथवा हम जिसके प्रति द्वेषभाव रखते हैं।
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् ।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतꣳ शृणुयाम शरदः शतं
प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ॥ २४॥
देवताओं द्वारा प्रतिष्ठित, जगत के नेत्रस्वरुप तथा दिव्य तेजोमय जो भगवान आदित्य पूर्व दिशा में उदित होते हैं उनकी कृपा से हम सौ वर्षों तक देखें अर्थात सौ वर्षों तक हमारी नेत्र ज्योति बनी रहे, सौ वर्षों तक सुखपूर्वक जीवन-यापन करें, सौ वर्षों तक सुनें अर्थात सौ वर्षों तक श्रवणशक्ति से संपन्न रहें, सौ वर्षों तक अस्खलित वाणी से युक्त रहें, सौ वर्षों तक दैन्यभाव से रहित रहें अर्थात किसी के समक्ष दीनता प्रकट न करें. सौ वर्षों से ऊपर भी बहुत काल तक हम देखें, जीयें, सुनें, बोलें और अदीन रहें।
इति रुद्रे शान्त्यध्यायः ॥ ९॥
।। इस प्रकार रुद्रपाठ – रुद्राष्टाध्यायी (Rudrashtadhyayi Path) – का शान्त्यध्याय पूर्ण हुआ ।।
स्वस्तिप्रार्थनामन्त्राध्याय
हरिः ॐ
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ १॥
महती कीर्ति वाले ऎश्वर्यशाली इन्द्र हमारा कल्याण करें, सर्वज्ञ तथा सबके पोषणकर्ता पूषादेव (सूर्य) हमारे लिए मंगल का विधान करें। चक्रधारा के समान जिनकी गति को कोई रोक नहीं सकता, वे तार्क्ष्यदेव हमारा कल्याण करें और वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारे लिए कल्याण का विधान करें।
ॐ पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः ।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥ २॥
हे अग्निदेव ! आप हमारे लिए पृथ्वी पर रस धारण कीजिए, औषधियों में रस डालिए, स्वर्गलोक तथा अन्तरिक्ष में रस स्थापित कीजिए, आहुति देने से सारी दिशाएँ और विदिशाएँ मेरे लिए रस से परिपूर्ण हो जाएँ।
ॐ विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रे स्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि ।
वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥ ३॥
हे दर्भमालाधार वंश ! तुम यज्ञरूप विष्णु के ललाटस्थानीय हो। हे ललाट के प्रान्तद्वय ! तुम दोनों यज्ञरूप विष्णु के ओष्ठसन्धिरूप हो। हे बृहत-सूची ! तुम यज्ञीय मण्डप की सूची हो। हे ग्रंथि ! तुम यज्ञीय विष्णुरुप मण्डप की मजबूत गाँठ हो। हे हविर्धान ! तुम विष्णुसंबंधी हो, इस कारण विष्णु की प्रीति के लिए तुम्हारा स्पर्श करता हूँ। दोनों हविर्धानों (शकटों) को दक्षिणोत्तर स्थापित करके उनके ढक्कनों का मण्डप बनाएँ। हविर्धान-मण्डप के पूर्वद्वारवर्ती स्तम्भ के मध्य में कुशों की माला गूँथे।
ॐ अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता
रुद्रा देवतादित्या देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा देवता
बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता ॥ ४॥
अग्नि देवता, वायु देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता, वसु देवता, रुद्र देवता, आदित्य देवता, मरुत् – देवता, विश्वेदेव देवता, बृहस्पति देवता, इन्द्र देवता और वरुण देवता का स्मरण करके मैं इस इष्टका को स्थापित करता हूँ।
ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः ।
भवे भवे नातिभवे भवस्व माम् ।
भवोद्भवाय नमः ॥ ५॥
मैं “सद्योजात” नामक परमेश्वर की शरण लेता हूँ। पश्चिमाभिमुख भगवान सद्योजात के लिए प्रणाम हैं। हे रुद्रदेव ! अनेक बार जन्म लेने हेतु मुझे प्रेरित मत कीजिए, किंतु जन्म से दूर करने के निमित्त मुझे तत्त्वज्ञान के लिए प्रेरणा प्रदान कीजिए। संसार के उद्धारकर्ता सद्योजात के लिए नमस्कार है।
वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः
कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो
बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो
मनोन्मनाय नमः ॥ ६॥
उत्तराभिमुख वामदेव के लिए नमस्कार है। उन्हीं के विग्रहस्वरुप ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, रुद्र, काल, कलविकरण, बलविकरण, बल, बलप्रमथन, सर्वभूतदमन तथा मनोन्मन – इन महादेव की पीठाधिष्ठित शक्तियों के स्वामियों को नमस्कार है।
अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः ।
सर्वेभ्यः सर्व शर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ ७॥
दक्षिणाभिमुख सत्त्वगुणयुक्त “अघोर” नामक रुद्रदेव के लिए प्रणाम है। इसी प्रकार राजसगुणयुक्त “घोर” तथा तामसगुणयुक्त “घोरतर” नामक रुद्र के लिए प्रणाम है। हे शर्व ! आपके रुद्र आदि सभी रूपों के लिए नमस्कार है।
(सर्वतः शर्व सर्वेभ्यो)
तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि ।
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ ८॥
हम लोग उस पूर्वाभिमुख “तत्पुरुष” महादेव को गुरु तथा शास्त्रमुख से जानते हैं, ऎसा जानकर हम उन महादेव का ध्यान करते हैं, इसलिए वे रुद्र हमको ज्ञान-ध्यान के लिए प्रेरित करें।
ईशानस्सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम् ।
ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदाशिवोम् ॥ ९॥
उन ऊर्ध्वमुखी भगवान “ईशान” के लिए प्रणाम है जो वेदशास्त्रादि विद्या और चौंसठ कलाओं के नियामक, समस्त प्राणियों के स्वामी, वेद के अधिपति एवं हिरण्यगर्भ के स्वामी हैं। वे साक्षात ब्रह्मस्वरुप परमात्मा शिव हमारे लिए कल्याणकारी हों (अथवा उनकी कृपा से मैं भी सदाशिवस्वरुप हो जाऊँ)।
ॐ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हिꣳसीः ।
निवर्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ॥ १०॥
हे क्षुर ! आपका नाम “शान्त” है। आपके पिता वज्र हैं। मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ। आप मुझे किसी प्रकार की क्षति मत पहुँचाइए। हे यजमान ! आपके बहुत दिनों तक जीवित रहने के लिए, अन्न भक्षण करने के लिए, संतति के लिए, द्रव्यवृद्धि के लिए तथा उत्तम अपत्य उत्पन्न होने के लिए और उत्तम सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए मैं आपका वपन (मुण्डन) करता हूँ।
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव ।
यद्भद्रं तन्न आसुव ॥ ११
हे सूर्यदेव ! आप मेरे सभी पापों को दूर कीजिए और जो कुछ भी मेरे लिए कल्याणकारी हो, उसे मुझे प्राप्त कराइए।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षꣳ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वꣳ शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥ १२॥
द्युलोकरूप शान्ति, अन्तरिक्षरुप शान्ति, भूलोकरूप शान्ति, जलरुप शान्ति, औषधिरुप शान्ति, वनस्पतिरुप शान्ति, सर्वदेवरुप शान्ति, ब्रह्मरुप शान्ति, सर्वजगत्-रूप शान्ति और संसार में स्वभावत: जो शान्ति रहती है, वह शान्ति मुझे परमात्मा की कृपा से
प्राप्त हो।
ॐ सर्वेषां वा एष वेदानाꣳरसो यत्सामः ।
सर्वेषामेवैनमेतद् वेदानाꣳ रसेनाभिषिञ्चति ॥ १३॥
सभी वेदों का तत्त्वस्वरुप रस, जो सामवेद अथवा भगवान साम (भगवान विष्णु या कृष्ण – “वेदानां सामवेदोsस्मि”) हैं, वे अपने उसी सामरस से समस्त वेदों का अभिसिंचन करते हैं।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अनेन श्री रुद्राभिषेककर्मणा श्री भवानीशङ्कर महारुद्राः प्रीयतां न मम ।
इति श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी समाप्ता ।
॥ ॐ साम्ब सदाशिवार्पणमस्तु ॥
।। इस प्रकार स्वस्तिप्रार्थनानाममन्त्राध्याय पूर्ण हुआ ।।
इस प्रकार रुद्राष्टाध्यायी (Rudrashtadhyayi Path) सम्पूर्ण हुआ ।।
,,,,..SHIVOHAM....
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