विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 18,19 विधियां[13-24 केंद्रित होने की विधियां ] क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि-18...
16 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है;-
''किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो, दूसरे विषय पर मत जाओ, किसी दूसरे विषय पर ध्यान मत ले जाओ, यही विषय के मध्य में...आनंद।''
2-भगवान श्री शंकर ने कहा- “हे देवी ! दो प्रकार की ऊपर तथा नीचे की यात्रा है। ऊर्ध्व (ऊपर) की यात्रा मोक्ष चाहने वाले योगियों के लिये प्राणायाम द्वारा है। प्राण तथा अपान वायु को एक कर योग-मार्ग दशम द्वार अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को लीन करके यात्रा करने से निश्चय ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह दोनों प्रकार की यात्रा धर्म-अर्थ काम तथा मोक्ष के इच्छुकों को करनी चाहिये। प्रेमपूर्वक शब्द में ही 'कुंजी' है।तुम नहीं जानते कि तुमने कभी किसी को लालसा-भरी आंखों से देखा होगा, या कामना पूर्वक देखा होगा। वास्तव में, वह दूसरी बात है, किसी को प्रेमपूर्वक देखने का बिलकुल भिन्न ...विपरीत अर्थ है।
पहले इस भेद को समझना है।उदाहरण के लिए तुम एक सुंदर चेहरे , सुंदर शरीर को देखते हो और तुम सोचते हो कि तुम उसे प्रेमपूर्वक देख रहे हो। लेकिन तुम उसे क्यों देख रहे हो? क्या तुम उससे कुछ पाना चाहते हो?क्या तुम सोचते हो कि मैं कैसे इस शरीर को उपयोग में लाऊं, कैसे इसका मालिक बनूं। कैसे इसे अपने सुख का साधन बना लूं। क्या तुम उसका शोषण करना चाहते हो? तब वह वासना है, कामना है, प्रेम नहीं है। वासना का अर्थ है कि कैसे किसी चीज को अपने सुख के लिए उपयोग में लाऊं। प्रेम का अर्थ है कि उससे मेरे सुख का कुछ लेना देना नहीं है। सच तो यह है कि वासना कुछ लेना चाहती है और प्रेम कुछ देना चाहता है। वे दोनों सर्वथा एक दूसरे के प्रतिकूल है।
3-अगर तुम किसी सुंदर व्यक्ति को देखते हो और उसके प्रति प्रेम अनुभव करते हो तो तुम्हारी चेतना में तुरंत भाव उठेगा कि कैसे इस व्यक्ति को, इस पुरूष या स्त्री को सुखी करूं। यह फिक्र अपनी नहीं, दूसरे की है। प्रेम में दूसरा ...महत्वपूर्ण है; वासना में तुम महत्वपूर्ण हो। वासना में तुम दूसरें को साधन बनाने की सोचते हो; और प्रेम में तुम स्वयं साधन बनने की सोचते हो। वासना में तुम दूसरे को पोंछ देना चाहते हो। प्रेम में तुम स्वयं मिट जाना चाहते हो। प्रेम का अर्थ है देना। वासना का अर्थ है
लेना। प्रेम समर्पण है; वासना आक्रमण है।तुम क्या कहते हो, उसका कोई अर्थ नहीं है। वासना में भी तुम प्रेम की भाषा काम में लाते हो। तुम्हारी भाषा का बहुत मतलब नहीं है। इसलिए धोखे में मत पड़ो। भीतर देखो और तब तुम समझोगे कि तुमने जीवन में एक बार भी किसी व्यक्ति या वस्तु को प्रेमपूर्वक नहीं देखा है।
4-एक दूसरा भेद भी समझ लेना आवश्यक है।सूत्र कहता है: ‘’किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो……।‘’
असल में तुम किसी पार्थिव, जड़ वस्तु को भी प्रेमपूर्वक देखो तो वह वस्तु ..व्यक्ति बन जाती है। तुम्हारे प्रेम में वस्तु को भी व्यक्ति में रूपांतरित करने की शक्ति है। अगर तुम वृक्ष को प्रेमपूर्वक देखो तो वृक्ष व्यक्ति बन जाता है।हरेक वृक्ष व्यक्ति है।
कोई वृक्षों को नाम नहीं देता क्योंकि कोई वृक्षों को प्रेम नहीं करता। अगर प्रेम करे तो वह व्यक्ति बन जाए। तब वह भीड़ का, जंगल का हिस्सा नहीं रहा ...वह अनूठा हो गया।तुम कुत्तों और बिल्लियों को नाम देते हो ।जब तुम कुत्ते को ''टॉमी ’’ कहते हो, तो कुत्ता व्यक्ति बन जाता है। तब वह एक जनरल कुत्ता नहीं रहा .. तुमने उसका व्यक्तित्व निर्मित कर दिया। जब भी तुम किसी चीज को प्रेमपूर्वक देखते हो वह चीज व्यक्ति बन जाती है।
5-और इसका उलटा भी सही है। जब तुम किसी व्यक्ति को वासना पूर्वक देखते हो तो वह व्यक्ति वस्तु बन जाता है। यही कारण है कि वासना भरी आंखों में विकर्षण होता है। क्योंकि कोई भी वस्तु नहीं होना चाहता। जब तुम किसी को वासना की दृष्टि से देखते हो, तो तुम एक जीवित व्यक्ति को मृत साधन में, यंत्र में बदल रहे हो। ज्यों ही तुमने सोचा कि कैसे उसका उपयोग करें कि तुमने उसकी हत्या कर दी।यही कारण है कि वासना भरी आंखें कुरूप होती है। और जब तुम किसी को प्रेम से भरकर देखते हो तो दूसरा ऊँचा उठ जाता है । अचानक वह अनूठा व्यक्ति हो जाता है।प्रेम किसी को भी अनूठा बना देता है। यही कारण है कि प्रेम के बिना तुम नहीं महसूस करते कि मैं व्यक्ति हूं। जब तक कोई तुम्हें गहन प्रेम न करे, तुम्हें तुम्हारे अनूठेपन का एहसास ही नही होता। तब तक तुम भीड़ के हिस्से हो ... केवल एक नंबर/संख्या और तुम बदले जा सकते हो।
6-एक वस्तु बदली जा सकती है। ठीक उसकी जगह वैसी ही चीज लाई जा सकती है। लेकिन उसी तरह एक व्यक्ति नहीं बदला जा सकता। वस्तु का अर्थ है जो बदली जा सके; व्यक्ति का अर्थ है जो नहीं बदला जा सके। किसी पुरूष या स्त्री के स्थान पर ठीक वैसा ही पुरूष या स्त्री नहीं लायी जा सकती है।हर एक व्यक्ति अनूठा है ;वस्तु नहीं।जब तुम प्रेमपूर्वक देखते हो तो कोई भी चीज व्यक्ति हो उठती है। यह देखना ही रूपांतरित करता है।यह किसी विषय या व्यक्ति में कोई फर्क नहीं करता।अगर प्रेम का संबंध है तो कोई भी चीज व्यक्ति बन जाती है और अगर वासना का संबंध हो तो व्यक्ति भी वस्तु बन जाता है। और यह बड़े से बड़ा अमानवीय कृत्य है जो आदमी कर सकता है कि वह किसी को वस्तु बना दे।अगर तुम अपनी कार को भी प्रेम करते हो, तो वह अनूठी हो जाती है ,व्यक्ति बन जाती है।अगर कुछ गड़बड़ हो जाए, जरा सी आवाज आने लगे, तो तुम्हें तुरंत उसका एहसास होता है। तुम अपनी कार के मिज़ाज से परिचित हो कि कब वह अच्छा महसूस करती है और कब बुरा।अब तुम इस कार को एक व्यक्ति समझते हो और धीरे-धीरे कार से एक नाता-रिश्ता निर्मित हो जाता है।
7-''किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो……।''इसके लिए पहली बात है कि जब एक फूल को प्रेम से देखो तो अपने को बिलकुल भूल जाओ। फूल तो हो, लेकिन तुम अनुपस्थित हो जाओ। फूल को अनुभव करो और तब तुम्हारी चेतना से गहरा प्रेम फूल की और प्रवाहित होगा। अपनी चेतना को एक ही विचार से भर जाने दो कि कैसे मैं इस फूल के ज्यादा खिलनें में, ज्यादा सुंदर होने में, ज्यादा आनंदित होने में सहयोगी हो सकता हूं .. मैं क्या कर सकता हूं।यह महत्व की बात नहीं है कि तुम कुछ
कर सकते हो या नहीं।केवल यह भाव कि मैं क्या कर सकता हूं, यह गहरी पीड़ा कि इस फूल को ज्यादा सुंदर, ज्यादा जीवंत और ज्यादा प्रस्फुटित बनाने के लिए मैं क्या करू, ज्यादा महत्व की है। इस विचार को आने दो;पूरे प्राणों में गूंजने दो। अपने शरीर और मन के प्रत्येक तंतु को इस विचार से भीगने दो। तब तुम समाधिस्थ हो जाओगे और फूल एक व्यक्ति बन जाएगा।
8-भगवान शिव कहते है 'दूसरे विषय पर मत जाओ ;एक के साथ ही रहो'।उदाहरण के लिए गुलाब के फूल के साथ प्रेमपूर्वक , समग्र ह्रदय से रहो। और इस विचार के साथ रहो कि कि इस फूल को ज्यादा सुंदर, ज्यादा जीवंत और ज्यादा प्रस्फुटित बनाने के लिए मैं क्या करू।तुम प्रेम में हो.. तो दूसरे पर नहीं जा सकते। अगर तुम भीड़ में बैठे किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो तुम्हारे लिए सब भीड़ भूल जाती है और केवल यही चेहरा बचता है।वास्तव में तुम किसी और को नहीं बल्कि उस एक चेहरे को ही देखते हो। सब वहां है, लेकिन वे तुम्हारी चेतना की महज परिधि पर होते है केवल छायाएं है । अगर तुम किसी को प्रेम करते हो तो मात्र वही चेहरा रहता है। इसलिए तुम दूसरे पर नहीं जा सकते।
9-और जब ऐसी स्थिति बन जाए कि तुम अनुपस्थित हो, अपनी फिक्र नहीं करते, अपनी सुख संतोष की चिंता नहीं लेते। अपने को पूरी तरह भूल गए हो, जब तुम सिर्फ दूसरे के लिए चिंता करते हो, दूसरा तुम्हारे प्रेम का केंद्र बन गया है। तुम्हारी चेतना दूसरे में प्रवाहित हो रही है। जब गहन करूणा और प्रेम के भाव से तुम सोचते हो कि मैं इस फूल को ज्यादा सुंदर, आनंदित करने के लिए क्या कर सकता हूं। तब इस स्थिति में अचानक, ‘’यहीं विषय के मध्य में—आनंद, अचानक उप-उत्पति
की तरह तुम्हें आनंद उपलब्ध हो जाता है। तब अचानक तुम केंद्रित हो जाते हो।सूत्र कहता है कि अपने को बिलकुल भूल
जाओ, आत्म केंद्रित मत बनो। दूसरे में पूरी तरह प्रवेश करो।गौतम बुद्ध भी कहते थे कि जब भी तुम प्रार्थना करो तो दूसरों के लिए करों ..अपने लिए नहीं। अन्यथा प्रार्थना व्यर्थ जायेगी।सदा यही कहो कि मेरी प्रार्थना से जो फल आए वह सबको मिले।
10- मन आत्म केंद्रित है।एक दिन एक व्यक्ति गौतम बुद्ध के पास आया और उसने कहा कि मैं आपके उपदेश को स्वीकार करता हूं, लेकिन एक बात मानना बहुत कठिन है कि जब भी तुम प्रार्थना करो तो अपने लिए कुछ मत मांगो।लेकिन कोई आनंद उतरे तो वह सब में बंट जाए। उसने कहा, यह बात ठीक है, लेकिन मैं इसमे एक ही अपवाद करना चाहूंगा कि यह कृपा मेरे पड़ोसी को न मिले; क्योंकि वह मेरा शत्रु है। यह आनंद मेरे पड़ोसी को छोड़कर सबको प्राप्त हो।गौतम बुद्ध ने उस
व्यक्ति से कहा कि तब तुम्हारी प्रार्थना व्यर्थ है। अगर तुम सबको बांटने को तैयार नहीं हो तो कुछ भी फल नहीं होगा और सबमें बांट दोगे तो सब तुम्हारा होगा।वास्तव में,दूसरे में समग्ररूपेण संलग्न होने से जब तुम स्वयं को पूरी तरह भूल जाते हो तो दूसरा ही बचता है, और तब तुम आनंद, आशीर्वाद से भर दिये जाते हो।क्योंकि जब तुम्हे अपनी फिक्र नहीं रहती तो तुम खाली, रिक्त हो जाते हो। तब आंतरिक आकाश निर्मित हो जाता है।
11-जब तुम्हारा मन पूरी तरह दूसरे में संलग्न है तो तुम अपने भीतर मन रहित हो जाते हो। तब तुम्हारे भीतर विचार नहीं रह जाता है और तब यह विचार भी कि 'मैं दूसरे को अधिक सुखी, अधिक आनंदित बनाने के लिए क्या कर सकता हूं' ...जाता रहता है, क्योंकि सच में तुम कछ नहीं कर सकते। तब यह विचार विराम बन जाता है। तुम कुछ नहीं कर सकते क्योंकि अगर सोचते हो कि मैं कुछ कर सकता हूं तो अब भी अहंकार की भाषा में सोच रहे हो।वास्तव में,प्रेमपात्र के साथ व्यक्ति बिलकुल असहाय हो जाता है क्योंकि प्रेम बहुत असहाय है। यही प्रेम की पीड़ा है, कि तुम्हें पता नहीं चलता कि तुम सब कुछ करना चाहोगे, सारा ब्रह्मांड दे देना चाहोगे। लेकिन तुम कुछ नहीं कर सकते ।अगर तुम सोचते हो कि कर सकते हो तो तुम अभी प्रेम में नहीं हो। जो भी तुम कर सकते हो वह इतना क्षुद्र , इतना अर्थहीन या कभी भी पर्याप्त नहीं मालूम होता। और जब कोई समझता है कि कुछ नहीं किया जा सकता तब वह असहाय अनुभव करता है।और तब मन रूक जाता है और इसी असहायावस्था में समर्पण घटित होता है। तब तुम खाली हो जाते हो ।
12 -किसी को प्रेम करो और तुम असहाय, बिलकुल असमर्थ अनुभव करोगे। किसी को धृणा करो और तुम्हें लगेगा कि तुम
कुछ कर सकते हो। यही कारण है कि प्रेम गहन ध्यान बन जाता है। अगर सच में तुम किसी को प्रेम करते हो तो किसी अन्य ध्यान की जरूरत न रही। लेकिन क्योंकि कोई भी प्रेम नहीं करता है ;इसलिए एक सौ बारह विधियों की जरूरत पड़ी और वे
भी काफी कम है। एक व्यक्ति कहता है कि इससे मुझे बहुत आशा बंधी है कि एक सौ बारह विधियां है।लेकिन मन में कही एक विषाद भी उठता है कि क्या कुल एक सौ बारह विधियों से काम चल सकता है। अगर मेरे लिए वह सब की सब व्यर्थ हुई तो क्या होगा? क्या कोई एक सौ तेरहवीं विधि नहीं है?और अगर ये एक सौ बारह विधियां तुम्हारे काम न आ सकी तो कोई उपाय नहीं है। इसलिए आशा के पीछे-पीछे विषाद भी घेरता है। लेकिन सच तो यह है कि विधियों की जरूरत इसलिए पड़ती है कि बुनियादी विधि खो गई है।प्रेम स्वयं सबसे बड़ी विधि है।
13-लेकिन प्रेम एक तरह से असंभव है क्योंकि प्रेम का अर्थ है अपने अहंकार को अपनी चेतना से बाहर निकालना और अपने अहंकार की जगह दूसरे को स्थापित करना। प्रेम अथार्त अपनी जगह दूसरे को स्थापित करना। मानों कि अब तुम नहीं
..सिर्फ दूसरा है। तुम किसी वस्तु को तो अधिकार में कर सकते हो, लेकिन किसी व्यक्ति को अधिकार में नहीं कर सकते। लेकिन तुम व्यक्ति पर अधिकार करने की कोशिश करते हो, और उस कोशिश में व्यक्ति.. वस्तु बन जाता है .. उससे ही नरक
बनता है।अगर कोई व्यक्ति तुम्हें चलते-चलते देख लेता है तो उससे कोई संबंध नहीं बनता है या कोई व्यक्ति गुजर रहा है और तुम उस पर निगाह डालों तो उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। वह अपराध नहीं है.. ठीक है। लेकिन अगर तुम अचानक रुककर उसे देखने लगो तो तुम निरीक्षक हो गए। तब तुम्हारी दृष्टि से उसे अड़चन होगी और वह अपमानित अनुभव करेगा। वह यही सोचेगा कि ..तुम कर क्या रहे हो? मैं व्यक्ति हूं, वस्तु नहीं। यह कोई देखने का ढंग है?जब भी तुम किसी को
वस्तु में बदलते हो तो वह कृत्य अनैतिक है।जब कोई तुम्हें घूरकर देखता है तो तुम्हें लगता है कि मेरी स्वतंत्रता बाधित हुई, नष्ट हुई। यही कारण है कि प्रेमपात्र को छोड़कर तुम किसी को टकटकी लगाकर देख नहीं सकते।
14-अगर तुम प्रेम में नहीं हो तो वह घूरना कुरूप होगा,हिंसक होगा।क्योंकि घूरकर तुम किसी को वस्तु में बदल रहे हो।प्रेम में तुम दूसरे की आँख से सीधे झांक सकते हो , दूसरे की आँख में गहरे प्रवेश कर सकते हो। तब तुम उसे वस्तु में नहीं बदलते बल्कि तुम्हारा प्रेम उसे व्यक्ति बना देता है। लेकिन अगर तुम प्रेम से भरे हो तो उस प्रेम भरे क्षण में घटना, यह आनंद किसी
भी विषय के साथ संभव हो जाता है।‘’यही विषय के मध्य में—आनंद।''अचानक तुम अपने को भूल गए हो, कोई दूसरा ही है और तब वह सही क्षण आएगा कि तुम पूरे के पूरे अनुपस्थित हो जाओगे,और तब दूसरा भी अनुपस्थित हो जाएगा। और तब
दोनों के बीच वह धन्यता घटती है।यह आनंद एक अज्ञात और अचेतन ध्यान के कारण घटता है। जहां दो प्रेमी है वहां धीरे-धीरे दोनों अनुपस्थित हो जाते हो और वहां एक शुद्ध अस्तित्व बचता है, जिसमें कोई अहंकार नहीं है, कोई द्वंद नहीं है। वहां मात्र
संवाद है,सहभागिता है।जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम जो आनंद अनुभव करते हो उसका कारण दूसरा नहीं है। उसका कारण बस प्रेम है क्योंकि यह सूत्र घटता है।
15-लेकिन तब तुम एक गलतफहमी से ग्रस्त हो जाते हो कि किसी के सान्निध्य के कारण यह आनंद घटा और तुम सोचते हो कि मुझे उसको अपने कब्जे में करना चाहिए। क्योंकि उसकी उपस्थिति के बिना मुझे यह आनंद नहीं मिलता और तुम ईर्ष्यालु हो जाते हो। तुम्हें डर लगने लगता है कि वह किसी दूसरे के कब्जे में न चला जाये। क्योंकि तब दूसरा आनंदित होगा और तुम दुःखी होओगे। इसलिए तुम पक्का कर लेना चाहते हो कि वह किसी और के कब्जे में न जाए।लेकिन जिस क्षण तुम
मालिकीयत की चेष्टा करते हो; उसी क्षण उस घटना का सब सौंदर्य नष्ट हो जाता है।जब प्रेम पर कब्जा हो जाता है तो प्रेम समाप्त हो जाता है।तब प्रेमी सहज एक वस्तु होकर रह जाता है।तुम उसका उपयोग कर सकते हो।लेकिन फिर वह आनंद
नहीं घटित होगा।वह आनंद तो दूसरे व्यक्ति के निर्मित होने से आता है।तब कोई आब्जेक्ट्स नहीं था ।दोनों जीवंत थे; ऐसा नहीं था एक व्यक्ति था और दूसरा वस्तु। तुमने उसके भीतर व्यक्ति को निर्मित किया था और उसने तुम्हारे भीतर वहीं किया ।लेकिन ज्यों ही तुमने मालकियत की.. कि आनंद असंभव हो गया।
16-और मन सदा स्वामित्व करना चाहेगा क्योंकि मन सदा लोभ की भाषा में सोचता है। सोचता है कि एक दिन जो आनंद मिला वह रोज-रोज मिलना चाहिए, इसलिए मुझे स्वामित्व जरूरी है।लेकिन यह आनंद ही तब घटता है जब स्वामित्व की बात नहीं रहती और आनंद दूसरे के कारण नहीं, तुम्हारे कारण घटता है क्योंकि तुम दूसरे में इतना समाहित हो गए कि आनंद
घटित हुआ।यह घटना गुलाब या कमल के फूल ,चट्टान या वृक्ष या किसी भी चीज के साथ घट सकती है। एक बार तुम उस स्थिति से परिचित हो गए जिसमें यह आनंद घटता है तो वह कहीं भी घट सकता है। यदि तुम जानते हो कि तुम नहीं हो और किसी गहन प्रेम में तुम दूसरे की ओर प्रवाहित हो गए तो अहंकार तुम्हें छोड़ देता है और अहंकार की उस अनुपस्थिति में आनंद फलित होता है।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि-19...
07 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है: -
‘’पाँवों या हाथों को सहारा दिए बिना सिर्फ नितंबों पर बैठो। अचानक केंद्रित हो जाओगे।''
2-यह एक अद्भुत विधि है और बहुत सरल भी।इसे प्रयोग करो: इसके लिए दो चीजें जरूरी है। एक तो बहुत संवेदनशील शरीर चाहिए, जो कि तुम्हारे पास नहीं है।वास्तव में, तुम्हारा शरीर मुर्दा है , एक बोझ है...संवेदनशील तो बिलकुल नहीं है। इसलिए पहले उसे संवेदनशील बनाना होगा, अन्यथा यह विधि काम नहीं करेगी। पहले यह ज्ञान होना आवश्यक है कि शरीर
को संवेदनशील कैसे बनाया जाए ..खासकर नितंब को।तुम्हारी जो नितंब है वह तुम्हारे शरीर का सबसे संवेदनशील अंग है। परन्तु उसे संवेदनहीन होना पड़ता है। क्योंकि तुम सारा दिन नितंब पर ही बैठे रहते हो। अगर वह बहुत संवेदनशील हो तो अड़चन होगी। तुम्हारे नितंब को संवेदनहीन होना जरूरी है। पाँव के तलवे जैसी उसकी दशा है। निरंतर उन पर बैठे-बैठे पता नहीं चलता कि तुम नितंबों पर बैठे हो।और तुम पूरी जिंदगी उन पर ही बैठते हो ..बिना जाने। उनका काम ही ऐसा है कि वे बहुत संवेदनशील नहीं हो सकते।
3-तो पहले उन्हें संवेदनशील बनाना होगा। एक बहुत सरल उपाय है जो शरीर के किसी भी अंग के लिए काम आ सकता है। आंखे बंद कर लो और एक कुर्सी पर विश्राम पूर्वक, शिथिल होकर बैठो। बाएं हाथ को दाहिने हाथ पर महसूस करो। कोई भी चलेगा। शेष शरीर को भूल जाओ और बांए हाथ को महसूस करो।तुम जितना ही उसे महसूस करोगे वह उतना ही भारी होगा। बाएं हाथ को ऐसे महसूस करो जैसे तुम बायां हाथ ही हो। हाथ ज्यादा से ज्यादा भारी होता जाए। जैसे-जैसे वह भारी होता जाए वैसे-वैसे उसे और भारी महसूस करो। और तब देखो कि हाथ में क्या हो रहा है।जो भी मालूम हो ..कोई झटका, कोई हलकी गति, सबको मन में नोट करते जाओ। इस तरह रोज तीन सप्ताह तक प्रयोग जारी रखो। दिन के किसी समय भी दस-पंद्रह मिनट तक यह प्रयोग करो। बाएं हाथ को महसूस करो और सारे शरीर को भूल जाओ।
4-तीन सप्ताह के भीतर तुम्हें अपने एक नए बाएं हाथ का अनुभव होगा ...वह संवेदनशील और जीवंत। और तब तुम्हें हाथ की सूक्ष्म और नाजुक संवेदनाओं का भी पता चलने लगेगा।जब हाथ सध जाए तो नितंब पर प्रयोग करो। तब यह प्रयोग करो:
आंखें बंद कर लो और भाव करो कि सिर्फ दो नितंब है ..तुम नहीं है। अपनी सारी चेतना को नितंब पर जाने दो।अगर प्रयोग करो तो यह आश्चर्यजनक है, अद्भुत है..कठिन नहीं । उससे शरीर में जीवंतता का भाव आता है और वह अपने आप में बहुत आनंददायक है।और जब तुम्हें अपने संवेदनशील नितंबों का एहसास होने लगे, जब भीतर छोटी सी हलचल, नन्हीं सी पीड़ा आदि भी महसूस करने लगो ;तब तुम निरीक्षण कर सकते हो कि तुम्हारी चेतना नितंबों से जुड़ गयी।
5-पहले हाथ से प्रयोग शुरू करो, क्योंकि हाथ बहुत संवेदनशील है। एक बार तुम्हें यह भरोसा हो जाए कि तुम अपने हाथ को संवेदनशील बना सकते हो। तब वहीं भरोसा तुम्हें तुम्हारे नितंब को संवेदनशील बनाने में मदद करेगा। और तब इस विधि को प्रयोग में लाओ।इसलिए इस विधि में प्रवेश करने के लिए तुम्हें कम से कम छह सप्ताह की तैयारी करनी चाहिए। तीन सप्ताह हाथ के साथ और तीन सप्ताह नितंबों के साथ। उन्हें ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनाना है। बिस्तर पर पड़े-पड़े शरीर को
बिलकुल भूल जाओ, इतना ही याद रखो कि सिर्फ दो नितंब बचे है। स्पर्श अनुभव करो ... चादर का, सर्दी का या धीरे-धीरे आती हुई उष्णता का।
6-अपने स्नान टब में पड़े-पड़े शरीर को भूल जाओ। नितंबों को ही स्मरण रखो।उन्हें महसूस करो। दीवार से नितंब सटाकर खड़े हो जाओ और दीवार की ठंडक को महसूस करो।जमीन पर बैठो, पाँवों या हाथों के सहारे के बिना सिर्फ नितंबों के सहारे बैठो।इसमें पद्मासन ,सिद्घासन या कोई मामूली आसन भी काम करेगा । लेकिन अच्छा होगा कि हाथ का उपयोग न करो। सिर्फ नितंबों के सहारे रहो। नितंबों पर ही बैठो। और तब आंखे बद कर लो और नितंबों का जमीन के साथ स्पर्श महसूस करो। और चूंकि नितंब संवेदनशील हो चूके है। इसलिए तुम्हें पता चलेगा कि एक नितंब जमीन को अधिक स्पर्श कर रहा है। उसका अर्थ हुआ कि तुम एक नितंब पर ज्यादा झुके हुए हो। और दूसरा जमीन से कम सटा हुआ है। और तब दूसरे नितंब पर
बारी-बारी से झुकते जाओ और तब धीरे-धीरे संतुलन लाओ।
7-संतुलन लाने का अर्थ है कि तुम्हारे दोनों नितंब एक सा अनुभव करते है। दोनों के ऊपर तुम्हारा भार बिलकुल समान हो। और तब तुम्हारे नितंब संवेदनशील हो जाएंगे तो यह संतुलन कठिन नहीं होगा। तुम्हें उसका एहसास होगा। और एक बार दोनों नितंब संतुलन में आ जाएं तो तुम उस संतुलन में अचानक अपने नाभि केंद्र पर पहुंच जाओगे और भीतर केंद्रित हो जाओगे। तब तुम अपने नितंबों को ,अपने शरीर को भूल जाओगे और अपने आंतरिक केंद्र पर स्थित होओगे।इसी वजह से केंद्रित होना महत्वपूर्ण है न कि केंद्र। चाहे वह घटना ह्रदय में या सिर में या नितंब में घटित हो, उसका महत्व नहीं है।किसी मंदिर में तुमने
शिव , महावीर या बुद्ध को बैठे देखा होगा। तुमने नहीं सोचा होगा कि यह बैठना नितंबों का संतुलन भर है और वे अपने नितंबों का संतुलन किए बैठे है। यह वही है। और जब असंतुलन न रहा तो संतुलन से तुम केंद्रित हो गए।चीन में भी ताओ वादियों ने सदियों से इस विधि को प्रयोग किया है।
......SHIVOHAM....
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