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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 29वीं विधि (अचानक रूकने की पाँच विधियां)का क्या विवेचनहै?


विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 29 का विवेचन;-

09 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है: - ''भक्ति मुक्त करती है''।

2-यह विधि एक अर्थ में बहुत सरल है और दूसरे अर्थ में अत्‍यंत कठिन। यह विधि कहती है:’भक्‍ति मुक्‍त करती है।‘’सच में तो यह एक ही शब्‍द है। क्योंकि ‘’मुक्‍त करती है।‘’ भक्‍ति का परिणाम है।परंतु भक्‍ति का क्‍या मतलब है।नारद पुराण में लिखा है कि '' परमेश्वर के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है। यह अमृतस्वरूपा है। इस परम दुर्लभ भक्ति को प्राप्त करने वाला साधक , सिद्ध-पुरुष , अमर तथा सर्वथा संतुष्ट हो जाता है।भक्ति को प्राप्त करके व्यक्ति किसी अन्य वस्तु की अभिलाषा नहीं करता। वह न चिन्ता करता है , न किसी के प्रति द्वेषभाव रखता है , न किसी विषय में आसक्त होता है और न अन्य किसी पदार्थ के लिए उत्साह रखता है।

3-' प्रेय तथा श्रेय मार्गों के अनुसार ही अनुरक्तियां भी अपरा (सांसारिक) तथा परा (ईश्वरीय) दो प्रकार की हैं।अपरा अनुरक्ति का संबंध प्रेयमार्ग से है। यह जीव को विविध सांसारिक प्रलोभनों , यथा- लोकेषणा (संसार में सुखी रहने की इच्छा) , पुत्रेषणा (पुत्र-प्राप्ति की अभिलाषा) तथा वित्तेषणा (धन की कामना) में भटका कर उसका सर्वस्व हनन करती है। अत: महर्षि शांडिल्य ने ' परा अनुरक्ति ' का उल्लेख किया है। यह ईश्वरीय प्रेम है। चित वृत्तियों को ईश्वरोन्मुख करना , बुद्ध तथा महावीर स्वामी की भांति राज-सुख को भी ठुकरा कर प्रभु भक्ति में लीन हो जाना परम सुख है। यही श्रेय मार्ग है। महर्षि शांडिल्य कहते हैं , ' भक्ति वह है , जिसमें ईश्वर के प्रति परा अनुरक्ति हो।

4-"स्वामी विवेकानन्द ' ने भक्त के लक्षण ' शीर्षक के अन्तर्गत ' भक्ति ' की अनेक परिभाषाओं का विवेचन करने के पश्चात अपना मत दिया है कि , ' आध्यात्मिक अनुभूति के लिए किए जाने वाले मानसिक प्रयत्नों की परम्परा ही भक्ति है , जिसका प्रारम्भ साधारण पूजा-पाठ से होता है और अंत ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ एवं अनन्य प्रेम में। ' भक्ति की अनेक परिभाषाएं दी जा चुकी हैं तथा अभी अगणित परिभाषाएं संभव हैं। पृथक-पृथक होते हुए भी इन सब परिभाषाओं के मूल में केवल एक प्रेम-तत्व ही विविध शब्दावली के माध्यम से झलक रहा है।

5-विज्ञान भैरव तंत्र में दो कोटि की विधियां है। एक कोटि उनके लिए है जो मस्‍तिष्‍क प्रधान है। विज्ञानोन्‍मुख है। और दूसरी उनके लिए है जो ह्रदय प्रधान है। भावोन्‍मुख है, कवि है। और दो ही तरह के मन है—वैज्ञानिक मन और काव्यात्मक मन। और इनमें जमीन आसमान का अंतर है। वे एक दूसरे से की नहीं मिलते है। मिलन असंभव है। कभी-कभी वे समानांतर चलते है।

लेकिन मिलते कही नहीं।कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई आदमी कवि भी है और वैज्ञानिक भी। यह दुर्लभ घटना है। कोई व्‍यक्‍ति कवि और विज्ञानी दोनो हो। तब उसका व्‍यक्‍तित्‍व खंडित होगा। तब वह यथार्थ में दो होगा, एक नहीं। जब वह कवि होता है तब वैज्ञानिक नहीं होता। अन्‍यथा उसका वैज्ञानिक समस्या उत्पन्न करेगा।

6- जब वह वैज्ञानिक होता है तो अपने कवि को बिलकुल भूल जाता है। और तब वह दूसरे जगत में प्रवेश करता है ...जो धारण, विचार, तर्क, बुद्धि और गणित का जगत है। और जब वह कविता के जगत में विचारण करता है तो वहां गणित नहीं, संगीत होता है। वहां धारणाएं नहीं होती, वहां शब्‍द होते है। वहां एक शब्‍द दूसरे शब्‍द में प्रवेश कर जाता है। वहां एक शब्‍द के अनेक अर्थ हो सकते है।वहां व्‍याकरण खो जाता है ...सिर्फ काव्‍य रहता है। दोनों ही एक अलग दुनिया है ।

7-विचारक और भावुक, अथार्त एयर और वॉटर एलिमेंट ये दो प्रकार के व्यक्ति है। 28 वीं विधि, वैज्ञानिक मन के लिए अथार्त एयर एलिमेंट के लिए और 29 वीं विधि, भावुक मन के लिए है अथार्त वॉटर एलिमेंट के लिए। और तुम्‍हें अपना एलिमेंट खोज लेना है। यह मत सोचो की एयर एलिमेंट/बौद्धिक मन श्रेष्‍ठ है या वॉटर एलिमेंट/भावुक मन श्रेष्‍ठ है। वे सिर्फ एलिमेंट है। ऊंच-नीच की कोई बात नहीं है।यह विधि वॉटर एलिमेंट/भावुक कोटि के लोगो के लिए है क्‍योंकि भक्‍ति किसी और के प्रति होती है। भक्ति में दूसरा तुमसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण होता है और यह श्रद्धा है। एयर एलिमेंट किसी पर श्रद्धा नहीं कर सकता है। वह सिर्फ आलोचना या संदेह कर सकता है ..भरोसा नहीं। और अगर कभी कोई एयर एलिमेंट आस्‍था के निकट आता है तो उसकी आस्‍था प्रामाणिक नहीं होती।

8- एयर एलिमेंट का मनुष्‍य प्रमाण खोजता है और वह पाता है कि प्रमाण ठोस है, तो ही विश्‍वास करता है। लेकिन यही वह चूक जाता है। क्‍योंकि आस्‍था तर्क नहीं करती है और न आस्‍था प्रमाणों पर आधारित है। अगर प्रमाण उपलब्‍ध है तो

आस्‍था की जरूरत ही नहीं है।तुम सूरज में विश्‍वास नहीं करते हो, तुम आसमान में विश्‍वास नहीं करते हो, तुम बस उन्‍हें जानते हो। अगर कोई तुमसे पूछे कि क्‍या सूरज उग रहा है ,तुम इस तथ्य में विश्‍वास करते हो, तो तुम यह नहीं कहते कि हां, मैं विश्‍वास करता/करती हूं और एक बड़ा विश्‍वासी हूं। तुम यही कहते हो कि ..सूरज उग रहा है और मैं यह जानता हूं। विश्‍वास या अविश्‍वास का प्रश्‍न ही नहीं है। क्‍योंकि ऐसा कोई व्‍यक्‍ति नहीं है ,जिसे सूरज में विश्‍वास हो।

9-श्रद्धा का अर्थ है ...बिना किसी प्रमाण के अज्ञात में छलांग।भक्ति अपने इष्ट के प्रति ऐसा समर्पण भाव है, जो हमारे मन में यह विश्वास जगाता है कि उसकी शरण में हम सदा शांति, सुचित्त, सुरक्षित व सदाचारी रहेंगे। साथ ही, संतुष्टि, तृप्ति, तटस्थता,

आध्यात्मिक चेतना और अनंत सद्वविचार से एक- चित्त होकर यह बहुमूल्य जीवन जिएंगे।एयर एलिमेंट के मनुष्‍य के लिए यह कठिन है। क्‍योंकि उसे पहले प्रमाण चाहिए। अगर तुम कहते हो कि ईश्‍वर है और उसके प्रति समर्पण करना है, तो

पहले ईश्‍वर को सिद्ध करना होगा।लेकिन तब ईश्वर एक प्रमेय हो जाता है;जो सिद्ध तो हो जाता है पर व्‍यर्थ हो जाता है। ईश्‍वर को असिद्ध ही रहना है; क्‍योंकि तब श्रद्धा अर्थहीन हो जाती है।अगर तुम एक सिद्ध किए हुए ईश्‍वर में विश्‍वास करते हो तो तुम्‍हारा ईश्‍वर एक प्रमेय मात्र है।कोई Geometry theorem या यूक्लिड के प्रमेय में विश्‍वास नहीं करता; प्रमेय सिद्ध किए जा सकते है और जो सिद्ध किया जा सकता है वह श्रद्धा के लिए आधार नहीं हो सकता।

NOTE;-यूक्लिड 300 ईसा पूर्व प्राचीन यूनान का एक गणितज्ञ था। उसे "ज्यामिति का जनक" कहा जाता है। उसकी एलिमेण्ट्स (Elements) नामक पुस्तक गणित के इतिहास में सफलतम् पुस्तक है। इस पुस्तक में कुछ गिने-चुने स्वयंसिद्धों (Axioms) के आधार पर ज्यामिति के बहुत से सिद्धान्त निष्पादित (Deduce) किये गये हैं। इनके नाम पर ही इस तरह की ज्यामिति का नाम यूक्लिडीय ज्यामिति पड़ा। हजारों वर्षों बाद भी गणितीय प्रमेयों को सिद्ध करने की यूक्लिड की विधि सम्पूर्ण गणित का रीढ़ बनी हुई है ।

श्रद्धा भक्ति और प्रेम में क्या अंतर है?-

03 FACTS;-

1-श्रद्धा और भक्ति में बड़ा मामूली अंतर है।वास्तव में, दोनों आपस में दूध-पानी की तरह इस प्रकार घुल गए हैं कि उन्हें अलग से पहचानना कठिन है।श्रद्धा श्रेष्ठ के प्रति होती है और भक्ति आराध्य के प्रति।श्रद्धा अनुशासन में बंधी है जिसमें आदर की सरिता बहती है, तो भक्ति में प्रेम का समुद्र लहराता रहता है। श्रद्धा स्थिर होती है और भक्ति मचलती रहती है।विनय दोनों

में है, किंतु श्रद्धा का भाव तर्क-वितर्क कर ताने-बाने बुनता रहता है, तो भक्ति अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पित होकर उस पर खुद को उड़ेलती रहती है।

2-दरअसल जिस प्रकार बादल के साथ पानी की बूंदे जुड़ी रहती हैं, उसी तरह से भक्ति भी श्रद्धा का एक रूप ही है। बाहर से देखने पर बादल की तरह और छू देने पर बूंदें गिरने लगें।भक्ति का पलड़ा केवल इसलिए भारी है कि इसके

साथ प्रेम भी जुड़ा है।प्रेम संसार का ऐसा तत्व है जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।भगवान भाव के भूखे होते हैं।इसी प्रेम की पुकार पर भगवान प्रकट होते हैं और मनुष्यावतार के द्वारा धर्म, पृथ्वी, गौ और जन-जन के कष्टों का निवारण करते हैं। यह प्रेम भक्ति का ही एक रूप है। भक्ति की लता प्रेम की डोर पर चढ़ कर ही अपने आराध्य तक पहुंचती है। प्रेम की यह डोर भक्त को भक्ति की पराकाष्ठा तक पहुंचा देती है।

3-प्रेम के लिए इतना ही बस है कि कोई हमें अच्छा लगे, पर श्रद्धा के लिए आवश्यक यह है कि वह गुणवान होने के कारण हमारे सम्मान का पात्र हो।प्रेम में घनत्व अधिक है और श्रद्धा में विस्तार। किसी मनुष्य से प्रेम रखनेवाले एक दो ही मिलेंगे, पर उस पर श्रद्धा रखनेवाले सैकड़ों, हजारों, लाखों क्या करोड़ों मिल सकते हैं। सच पूछिए तो इसी श्रद्धा के आश्रय से उन कर्मों के महत्तव का भाव दृढ़ होता है जिन्हें धर्म कहते हैं और जिनमें मनुष्य समाज की स्थिति है।श्रद्धा यहां पर मात्र

भक्ति को पुष्ट करने का काम करती है इसीलिए कहा गया है कि श्रद्धा और भक्ति एक-दूसरे की पूरक हैं।शरीर और आत्मा की भांति एक दूसरे से जुड़ी हुईं। यहां पर एक बात का ध्यान रखना है कि अंध-श्रद्धा या अंध-भक्ति दोनों ही व्यक्ति के लिए घातक हैं।ज्ञान सहित भक्ति ही हमें मुक्‍त करती है।

ज्ञान सहित भक्ति क्या है?-

03 FACTS;-

1-श्रद्धा का अर्थ है किन्‍हीं कारणों के बिना अज्ञात में छलांग। और सिर्फ भावपूर्ण व्‍यक्‍ति ही यह कर सकता है।श्रीकृष्ण कहते हैं कि केवल परमात्मा के पूजन, ध्यान, स्मरण में लगे रहना ही भक्त होने का लक्षण नहीं है। भक्त वह है, जो द्वेषरहित हो, दयालु हो, सुख-दुख में अविचलित रहे, बाहर-भीतर से शुद्ध, सर्वारंभ परित्यागी हो, चिंता व शोक से मुक्त हो, कामनारहित हो, शत्रु-मित्र, मान-अपमान तथा स्तुति-निंदा और सफलता-असफलता में समभाव रखने वाला हो, मननशील हो और हर परिस्थिति में खुश रहने का स्वभाव बनाए रखे। उससे न किसी को कोई कष्ट या असुविधा हो और वह किसी से असुविधा या उद्वेग का अनुभव करे।

2-जो पुरुष सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित, स्वार्थरहित होकर सबको प्रेम करने वाला तथा सब पर समान रूप से दयाभाव रखता है, ममता और अहंकार से दूर है, दु:ख-सुख की प्राप्ति में सम व क्षमावान है तथा जो योगी निरंतर संतुष्ट मन:स्‍थिति में रहता है, मन व इन्द्रियों को अनुशासित रखता है तथा मुझमें दृढ़ श्रद्धा के साथ निरंतर मन लगाए रखता है, ऐसा मेरा भक्त मुझे बहुत प्रिय है।' 3-स्पष्ट है कि भक्त होने का मनोभाव रखने वाला व्यक्ति यदि उपरोक्त भाव धारा को ग्रहण करता है तो ही उसकी भक्ति सार्थक है, शांतिदायिनी और सामाजिक दृष्टि से भी कल्याणकारी है।संक्षेप में, भक्त को अपने इष्टदेव में अपने मन को लगाने के साथ-साथ तन-मन की पवित्रता, स्थिरता, सौम्यता, सहजता और उदारता विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए।

लेकिन पहले प्रेम को समझो और तब तुम भक्‍ति को भी समझ सकोगे।

फालिंग इन लव क्या है?-

05 FACTS;-

1-तुम किसी के प्रेम में पड़े हुए हो। अंग्रेजी में इसे फालिंग इन लव ...'प्रेम में गिरना "कहते है। हम प्रेम में गिरना क्‍यों कहते है । प्रेम में सिर के सिवाय और क्‍या गिरता है। तुम अपने सिर से नीचे गिर जाते हो। इसी से हम इसे ‘’प्रेम में गिरना’’ कहते है। भाषा बौद्धिक कोटि के लोग निर्मित करते है। उनके लिए प्रेम पागलपन है। कोई प्रेम में गिर गया है। इसका मतलब हुआ कि अब वह कुछ भी कर सकता है। अब वह पागल हो गया है। बुद्धि उसे काम न आएगी। तुम उसके साथ तर्क

न कर सकोगे। तुम किसी के प्रेम में हो और हर कोई कहता है कि यह तुम्‍हारे योग्‍य नहीं है। या कि तुम मुसीबत मोल ल रहे हो, या कि तुम मूर्ख बन रहे हो, और इससे अच्‍छा प्रेम पात्र मिल सकता था। लेकिन यह सब कहने का तुम पर कोई असर न होगा। कोई दलील काम न आएगी। तुम प्रेम में हो; अब बुद्धि व्‍यर्थ हो गई। प्रेम की अपनी तर्क सारणी है।

2-प्रेमी मौन हो जाते है;भाषा खो जायेगी; क्‍योंकि भाषा बुद्धि की चीज है। शुरूआत तो बच्‍चों जैसी बातचीत से होगी। लेकिन फिर वह नहीं रहेगी। तब वे मौन में संवाद करेंगे। उनका संवाद अतर्क्‍य है। वे अस्‍तित्‍व के एक भिन्‍न आयाम के साथ लयवद्ध हो जाते है। और वे उस लयबद्धता में सुखी अनुभव करते है। और अगर तुम उनसे पूछो कि उनका सुख क्‍या है तो वे उसे

प्रमाणित नहीं कर सकते।जब दो व्‍यक्‍ति प्रेम में मिलते है तो कठिनाई है... बहुत कठिनाई है। क्‍योंकि तब दो मनों को

अनुपस्‍थित होना पड़ता है ;तभी वह स्‍थान निर्मित होता है जिसमे प्रेम का फूल खिल सके।संसार में जब भी कहीं पर प्यार और महब्बत का जिक्र होता है तो लैला मजनू और हीर रांझा आदि दुखांत प्रेम कहानी का नाम लिया जाता है अर्थात समाज प्रेमियों को मौत दे सकता हैं परंतु स्वीकार नहीं कर सकता हैं।इसलिए सांसारिक प्रेम में तो दुखांत जुड़ा हुआ है।

3-प्रेम में दूसरा तुमसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हो जाता है।''चीजें मेरे चारों और घूमती है और मेरे लिए घूमती है ...और

केंद्र मैं हूं'। बुद्धि सदा इसी भांति काम करती है।तर्क सदा स्‍व-केंद्रित होता है।मन सदा अहं-केंद्रित होता है। अगर तुम बुद्धि

के साथ बहुत दूर तक चलोगे तो तुम उसी निष्‍कर्ष पर पहुंचोगे जिस पर जार्ज बर्कली (आयरी दार्शनिक) पहुंचा था।

उसने कहा ''केवल मैं हूं और शेष सब चीजें मेरे मन की धारणाएं भर है। मैं कैसे सिद्ध कर सकता हूं कि तुम सचमुच हो? हो सकता है, कि तुम बिलकुल न होओ। तुम एक सपना होओ। और मैं भी एक सपना होऊं और सपने में ही बोल रहा हूं। और हो सकता है कि तुम बिलकुल न होओ। मैं कैसे अपने को समझाऊं कि तुम सचमुच हो? हालांकि मैं तुम्‍हें चोट कर सकता हूं। और तुम रोओगे, लेकिन ऐसे तो सपने में भी किसी को चोट कर, मैं उस स्‍वप्‍न के व्‍यक्‍ति को रुला सकता हूं। यह भेद कैसे किया जाए कि जो व्‍यक्‍ति मेरे सामने है वह स्‍वप्‍न नहीं यथार्थ है? हो सकता है, वह काल्पनिक हो।

4-ह्रदय का मार्ग इसके विपरीत है।''मैं '' खो जाता है और दूसरा प्रेम-पात्र यथार्थ हो जाता है'। अगर तुम प्रेम को उसकी पराकाष्‍ठा पर.. उस चरम बिंदु पर पहुंचा दो जहां तुम बिलकुल भूल जाओ कि 'मैं हूं'। जहां तुम्‍हें अपना होश न रहे, और जहां दूसरा ही रह जाए, तो वही भक्‍ति है।प्रेम भक्‍ति बन सकता है।प्रेम पहला चरण है, तभी भक्‍ति का फूल खिलता है।

प्रेम का अगर अधोपतन हो तो काम बन जाता है ,शारीरिक रह जाता है। और अगर प्रेम उर्धगमन हो तो भक्‍ति बन जाता है। आत्‍मा की चीज बन जाता है। प्रेम दोनों के बीच में है। नीचे काम का पाताल है तो उपर भक्‍ति का अनंत आकाश है।

यदि तुम्‍हारा प्रेम गहरा हो तो दूसरा ज्‍यादा-ज्‍यादा अर्थपूर्ण हो जाता है—वह इतना अर्थपूर्ण हो जाता है कि तुम उसे अपना भगवान कहने लगते हो।

5-यही कारण है कि मीरा श्रीकृष्‍ण को प्रभु कहे चली जाती है। मीराबाई भक्तिकाल की एक ऐसी संत थीं, जिनका सब कुछ श्रीकृष्ण के लिए समर्पित था। वे श्रीकृष्ण जी से बहुत प्रेम करती थीं। यहां तक कि श्रीकृष्ण को ही वे अपना पति मान बैठी थीं। भक्ति की ऐसी चरम अवस्था कम ही देखने को मिलती है। न श्रीकृष्‍ण को कोई देख सकता है , न मीरा इसे सिद्ध कर सकती है कि श्रीकृष्‍ण वहां है। लेकिन मीरा इसे सिद्ध करने में उत्‍सुक नहीं है। मीरा ने श्रीकृष्‍ण को अपना प्रेम-पात्र

बना लिया है।और याद रहे, तुम किसी यथार्थ व्‍यक्‍ति को अपना प्रेम पात्र बनाते हो या किसी कल्‍पना के व्‍यक्‍ति को, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। कारण यह है कि सारा रूपांतरण भक्‍ति के माध्‍यम से आता है। ‘’भक्‍ति मुक्‍त करती है।‘’इसलिए

हमें प्रेम में ही स्‍वतंत्रता की झलक मिलती है।जब तुम प्रेम में होते हो तो तुम्‍हें सूक्ष्‍म ढंग की स्‍वतंत्रता का अहसास होता है। यह विरोधाभासी है; क्‍योंकि दूसरे तो वही देखेंगे कि तुम गुलाम हो गए हो।लेकिन तुम्‍हें स्‍वतंत्रता की झलकें मिलने लगेंगी।

क्या प्रेम/भक्ति मुक्‍ति है?-

04 FACTS;-

1-प्रेम मुक्‍ति है क्‍योकि अहंकार ही बंधन है । कल्‍पना करो कि तुम खुले आकाश के नीचे हो सर्वथा बंधनहीन, सर्वथा

मुक्‍त; लेकिन एक कारागृह में ही हो। क्‍योंकि तुम्‍हारे उड़ने के लिए आकाश न रहा। यह बाहर का आकाश काम न देगा। इस आकाश में पक्षी उड़ते है; लेकिन तुम न उड़ सकोगे। तुम्‍हारे उड़ने के लिए एक भिन्‍न आकाश ...चेतना के आकाश में जरूरत है। कोई दूसरा "हूं" तुम्‍हें वह आकाश दे सकता है।और वह केवल ईश्वर ही हो सकता है ;तो जब तुम उसमें प्रवेश करते हो, तभी तुम उड़ सकते हो।

2-प्रेम स्‍वतंत्रता है। लेकिन समग्र स्‍वतंत्रता नहीं। जब प्रेम भक्‍ति बनता है तो ही वह समग्र स्‍वतंत्रता बनता है। उसका मतलब है

कि तुमने पूर्णरूपेण समर्पण कर दिया।इसलिए ये सूत्र 'भक्‍ति मुक्‍त करती है' ;उनके लिए है जो भाव प्रधान है। रामकृष्ण परमहंस को ही लो। अगर राम कृष्‍ण को देखो तो तुम्‍हें लगेगा कि वे मां काली के गुलाम है। वे उनकी आज्ञा के बिना कुछ भी नहीं करते सकते है। लेकिन उनसे ज्‍यादा कौन स्‍वतंत्र हो सकता है।रामकृष्‍ण परमहंस जब पहले-पहले दक्षिणेश्‍वर

मंदिर के पुजारी नियुक्‍त हुए तो उनका रंग-ढंग ही हैरान करने वाला था। मंदिर के ट्रस्‍टियों ने बैठक बुलायी और कहा के इस आदमी को निकाल बाहर करो। यह तो अभक्‍त जैसा व्‍यवहार करता है।

3-ऐसा इसलिए हुआ क्‍योंकि रामकृष्‍ण रामकृष्‍ण परमहंस पहले खुद फूल को सूँघते और तब उसे मां काली के चरणों में चढ़ाते। लेकिन यह बात कर्मकांड के विपरीत हो जाती है। सूंघा हुआ फूल देवी-देवताओं को नहीं चढ़ाया जा सकता ; वह तो झूठा हो गया। अशुद्ध हो गया। रामकृष्‍ण पहले खुद चखते थे। फिर मां काली को भोग लगाते थे। और वे पुजारी थे। तो ट्रस्‍टियों

ने कहा कि ऐसा नहीं चल सकता है।रामकृष्‍ण परमहंस ने ट्रस्‍टियों को जवाब दिया कि तब मुझे काम से मुक्‍त कर दो। मैं मंदिर से निकल जाना पसंद करूंगा। लेकिन मैं चखे बीन मां को भोग नहीं लगा सकता हूं। मेरी मां ऐसा ही करती थी। जब भी वह कुछ भोजन बनाती थी तो पहले खुद चखती थी ..तब मुझे खिलाती थी। मैं सूंघें बिना कोई फूल नहीं चढ़ा सकता। मैं निकल जाने के राज़ी हूं और तुम मुझे रोक नहीं सकते। मैं कहीं भी पूजा कर लूँगा। क्‍योंकि मां सर्वत्र है। वह तुम्‍हारे मंदिर में ही सीमित नहीं है। मैं जहां भी जाऊँगा इसी तरह मां की पूजा करता रहूंगा।

4-एक बार ऐसा हुआ कि किसी मुसलमान ने रामकृष्‍ण परमहंस से कहा कि 'अगर आपकी मां काली सर्वत्र है तो आप हमारी मस्‍जिद में क्‍यों नहीं आते।' उन्‍होंने कहा कि ठीक है, मैं आऊँगा और वे छह महीने मस्‍जिद में रहे। वे दक्षिणेश्‍वर को पूरी तरह से भूल गये। और मस्‍जिद के ही होकर रह गये। तब उनके मित्रों ने आग्रह किया की अब तो बहुत दिन हो गये ,घर चलो। और उन मित्र ने कहां कि ..आप सही है और अब आप जा सकते है,...सही में मां हर जगह है।कोई सोच सकता है कि

रामकृष्‍ण परमहंस गुलाम है; लेकिन उनकी भक्‍ति ऐसी प्रगाढ़ है कि अब ईश्वर /मां काली सब जगह है।जब तुम नहीं होते तो ईश्वर सर्वत्र होता है। और जब तुम होते हो तो ईश्वर कहीं नहीं होता क्योकि आपने अपने शरीर अर्थात किराये पर लिये हुए घर में मकान मालिक को ही प्रधानता नहीं दी।

...SHIVOHAM....

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