विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 67,68,69वीं, (साक्षित्व की तेरह विधियां ) विधियां क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 67;-
15 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''यह जगत परिवर्तन का है, परिवर्तन ही परिवर्तन का...। परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।’
2-पहली बात तो यह समझने की है कि तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है, तुम्हारे अतिरिक्त ..जानने वाले के अतिरिक्त सब कुछ परिवर्तन है। क्या तुमने कोई ऐसी चीज देखी है जो परिवर्तन न हो ,जो परिवर्तन के अधीन न हो।यह सारा संसार परिवर्तन की घटना है।हिमालय भी बदल रहा है। हिमालय का अध्यन करने वाले वैज्ञानिक कहते है कि हिमालय बढ़ रहा है ,बड़ा हो रहा है। हिमालय संसार का सबसे कम उम्र का पर्वत है। वह अभी बच्चा है और बढ़ रहा है। वह अभी प्रौढ़ नहीं हुआ है अथार्त अभी उस अवस्था को नहीं प्राप्त हुआ है ;जहां पहुंच कर ह्रास या गिरावट शुरू होती है।तो इतना स्थिर और अडिग और दृढ़ मालूम पड़ने वाला हिमालय भी बदल रहा है। विंध्याचल संसार के सबसे पुराने पर्वतों में हैं।सदियों से वह अपने बुढ़ापे के कारण क्षीण हो रहा है , मर रहा है।
3-तुलनात्मक दृष्टि से सब कुछ बदल रहा है। कोई भी चीज, जिसे तुम जान सकते हो... बदलाहट के बिना नहीं है। यह बात खयाल में रखना है कि जिसे तुम जानते हो वह वस्तु नित्य बदल रही है। जानने वाले के अतिरिक्त कुछ भी नित्य नही है। लेकिन जानने वाला सदा पीछे है ; वह कभी जाना नहीं जाता। वह कभी आब्जेक्ट्स नहीं बन सकता; वह सदा सब्जैक्ट ही रहता है। तुम जो कुछ भी करते हो या जानते हो, जानने वाला सदा उससे पीछे है। तुम उसे नहीं जान सकते हो और इसका अर्थ है कि तुम उसे विषय की तरह नहीं जान सकते हो। ज्ञान के लिए दो चीजें जरूरी है ..ज्ञाता और ज्ञेय/ Knower & Known।जो वस्तुएं दिखाई पड़ती हैं, वे हैं ज्ञेय, “The Known’।तो जब कोई तुम्हें देखता है तो तुम ज्ञेय हो और दूसरा ज्ञाता है ।दूसरा जगत है ज्ञान ..और दोनों के बीच ज्ञान सेतु की तरह है। लेकिन जब कोई अपने को ही देखता है तो ज्ञान का यह सेतु नहीं बन सकता । कुछ लोग वे हैं जो वस्तुओं के पीछे पड़े हैं, और उनसे जो कुछ ज्यादा समझदार हैं, वे ज्ञान की खोज में लगते हैं। वैज्ञानिक , दार्शनिक , कवि , मनीषी , विचारक , और चिंतक आदि ज्ञान को बढ़ाते हैं।
4-इसके भीतर छिपा है तुम्हारा ज्ञायक स्वरूप, ज्ञाता। ये तीन त्रिभंगियां हैं–ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञानअथार्त Knowledge, Knower & Known । जो परम रहस्य के खोजी हैं, वे ज्ञान की भी फिक्र नहीं करते, वे तो केवल उसकी फिक्र करते हैं: “यह जाननेवाला कौन है!’ जब कोई अपने को ही जानने की कोशिश करता है ; तो वहां केवल पूरी तरह अकेला '' मैं''है । दूसरा किनारा बिलकुल अनुपस्थित है। फिर सेतु कहां निर्मित किया जाए? स्वयं को जाना कैसे जाएं?तो आत्मज्ञान एक नेति-नेति प्रक्रिया है। तुम अपने को सीधे-सीधे नहीं जान सकते; तुम सिर्फ ज्ञान के विषयों को एक-एक करके छोड़ते चले जाओ। और जब ज्ञान का कोई विषय न रह जाए, अथार्त जानने को कुछ भी न रह जाए ..सिर्फ एक शून्य, एक खालीपन रह जाए ..तो यही ध्यान है।ज्ञान के विषयों को छोड़ते जाने से एक क्षण आता है ...तब चेतना तो है लेकिन जानने के लिए कुछ नहीं है।
5-तब जानने की सहज-शुद्ध ऊर्जा रहती है। लेकिन जानने को कोई विषय नहीं रहता है। उस अवस्था में जब जानने को कुछ नहीं रहता, तुम एक अर्थों में स्वयं को ..अपने को जानते हो।लेकिन यह ज्ञान अन्य सब ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। दोनो के लिए एक ही शब्द का उपयोग करना भ्रामक है।इसीलिए अनेक रहस्यवादियों ने कहा है कि आत्मज्ञान शब्द विरोधाभासी है। ज्ञान सदा दूसरे को होता है। अंत: आत्म ज्ञान संभव नहीं है। जब दूसरा नहीं होता है तो कुछ होता है, तुम उसे आत्म ज्ञान कह सकते हो। लेकिन यह शब्द भ्रामक है।तो तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है। ये जो दीवारें है, ये भी निरंतर बदल रही है। और भौतिक शास्त्र भी इसका समर्थन करता है। जो दीवार है, ये स्थाई ..ठहरी हुई लगती है। वह भी प्रति पल बदल रही है। एक-एक परमाणु ..प्रत्येक चीज बह रही है। लेकिन उसकी गति इतनी तीव्र है कि उसका पता नहीं चलता है।यह सूत्र कहता है कि सभी चीजें बदल रही है। ‘यह जगत परिवर्तन का है…..।’इस सूत्र पर ही गौतम बुद्ध का समस्त दर्शन खड़ा है।गौतम बुद्ध कहते है कि प्रत्येक चीज बहाव है, बदल रही है ,क्षणभंगुर है। और यह बात प्रत्येक व्यक्ति को जान लेना चाहिए।
6-गौतम बुद्ध कहते है कि प्रत्येक चीज बहाव है, बदल रही है ,क्षणभंगुर है। और यह बात प्रत्येक व्यक्ति को जान लेना चाहिए। उनकी पूरी दृष्टि इसी बात पर आधारित है। तुम्हें एक चेहरा दिखाई देता है, बहुत सुंदर है। और जब तुम सुंदर रूप को देखते हो तो भाव होता है कि यह रूप सदा ही ऐसा रहेगा। इस बात को ठीक से समझ लो ऐसी अपेक्षा कभी मत करो। और अगर तुम जानते हो कि यह रूप तेजी से बदल रहा है, कि यह इस क्षण सुंदर है और अगले क्षण कुरूप हो जायेगा।तो फिर आसक्ति पैदा होना असंभव है।एक शरीर को देखो,वह जीवित है; अगले क्षण वह मृत हो सकता है। अगर तुम परिवर्तन को समझो तो सब व्यर्थ है।गौतम बुद्ध ने अपना महल छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया। सुंदर पत्नी छोड़ दी, प्यारा पुत्र छोड़ दिया। और जब किसी ने पूछा कि क्यों छोड़ रहे हो, तो उन्होंने कहा: ‘जहां कुछ भी स्थाई नहीं है,वहां रहने का क्या प्रयोजन? बच्चा एक न एक दिन मर जायेगा।’ और बच्चे का जन्म उसी रात हुआ था। उसके जन्म के कुछ घंटे बाद ही उन्होंने उसे अंतिम बार देखा।
7-गौतम बुद्ध अपनी पत्नी के कमरे में गये। पत्नी की पीठ दरवाजे की और थी और वह बच्चे को अपनी बांहों में लिए सो रही थी।गौतम बुद्ध ने अलविदा कहना चाहा। लेकिन वे झिझके। उन्होंने कहा: ‘एक क्षण उनके मन में यह विचार कौंधा कि बच्चे के जन्म के कुछ घंटे ही हुए है। मैं उसे अंतिम बार देख हूं। तब उनके मन ने कहा, क्या प्रयोजन है, सब तो बदल रहा है। आज बच्चा पैदा हुआ है। कल मर जायेगा। एक दिन पहले यह नहीं था, अभी वह है।और एक दिन फिर नहीं रहेगा। तो क्या प्रयोजन है.. सब बदल रहा है।’ वे मुड़े और विदा हो गये।जब किसी ने पूछा कि आपने क्यों सब कुछ छोड़ दिया?तो उन्होंने कहा मैं अपनी खोज में हूं। जो कभी नहीं बदलता,जो शाश्वत है। यदि मैं परिवर्तनशील के साथ अटका रहूंगा। तो निराशा ही हाथ आयेगी। क्षण भंगुर से आसक्त होना मूढ़ता है। वह कभी ठहरने वाला नहीं है। मैं मूढ़ नहीं हूं। मैं तो उसकी खोज कर रहा हूं जो कभी नहीं बदलता, जो नित्य है। अगर कुछ शाश्वत है तो ही जीवन में अर्थ है, जीवन में मूल्य है। अन्यथा सब व्यर्थ है।यह सूत्र कहता है कि ‘परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।‘’
8-गौतम बुद्ध कभी दूसरा हिस्सा नहीं कहते।वे इतना ही कहेंगे कि सब कुछ परिवर्तनशील है। इसे अनुभव करो और तुम्हें आसक्ति नहीं होगी। और जब आसक्ति नहीं होगी तो धीरे-धीरे अनित्य को छोड़ते-छोड़ते तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाओगे। जो नित्य है .. शाश्वत है। परिवर्तन को छोड़ते जाओ और तुम अपरिवर्तन के केंद्र पर, चक्र के केंद्र पर पहुंच जाओगे।इसलिए गौतम बुद्ध ने चक्र को अपने धर्म का प्रतीक बनाया है। क्योंकि चक्र चलता रहता है। लेकिन उसकी धुरी, जिसके सहारे चक्र चलता है, ठहरी रहती है ,स्थाई है।तो संसार चक्र की भांति चलता रहता है। तुम्हारा व्यक्तित्व चक्र की भांति बदलता रहता है। धुरी अचल रहती है।तंत्र कहता है कि जो परिवर्तनशील है उसे छोड़ो मत, उसमे उतरो, उसमें जाओ। उससे आसक्त मत होओ। लेकिन उसमें जीओं। उससे डरना क्या है? उसे घटित होने दो और तुम उसमें गति कर जाओ। उसे उसके द्वारा ही विसर्जित करो। डरों मत; भागों मत ..भागकर कहां जाओगे। इससे बचोगे कैसे? सब जगह तो परिवर्तन है। तंत्र कहता है,बदलाहट ही मिलेगी। सब भागना व्यर्थ है। भागने की कोशिश ही मत करो।
9-तब करना ये है कि आसक्ति मत निर्मित करो। तुम परिवर्तन हो जाओ। उसके साथ कोई संघर्ष मत खड़ा करो ..उसके साथ बहो। नदी बह रही है ; उसके साथ बहो ...तैरो भी मत। नदी को ही तुम्हें ले जाने दो। उसके साथ लड़ने से तुम्हारी शक्ति बरबाद होगी। और जो होता है, उसे होने दो। इससे क्या होगा? वास्तव में, अगर तुम नदी के साथ बिना संघर्ष किए , बिना किसी शर्त के बह सके, अगर नदी की दिशा ही तुम्हारी दिशा हो जाए, तो तुम्हें अचानक यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं , इसे अनुभव करो।किसी दिन नदी में उतर कर इसका प्रयोग करो। नदी में उतरो, विश्राम पूर्ण रहो और अपने को नदी के हाथों में छोड़ दो। उसे तुम्हें बहा ले जाने दो। लड़ों मत, नदी के साथ एक हो जाओ। तब अचानक तुम्हें अनुभव होगा कि चारों तरफ नदी है, लेकिन मै नदी नहीं हूं।यदि नदी में लड़ोगे तो तुम यह बात भूल सकते हो। इसीलिए तंत्र कहता है: ‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’ लड़ो मत, लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि परिवर्तन तुममें नहीं प्रवेश कर सकता है। डरो नहीं; संसार में रहो ;क्योंकि संसार तुममें प्रवेश नहीं कर सकता है ... उसे जीओं।
10-कोई चुनाव मत करो क्योंकि दो तरह के लोग है। एक वे जो परिवर्तन के जगत से चिपके रहते है। और एक वे है जो उससे भाग जाते है। लेकिन तंत्र कहता है कि जगत परिवर्तन है, इसलिए उससे चिपकना नहीं है।चिपकना और भागना दोनों व्यर्थ है।तुम नहीं थे तब यह बदल रहा था। तुम नहीं रहोगे तब भी यह बदलता रहेगा। फिर इसके लिए इतना शोरगुल क्यो?‘परिवर्तन को परिवर्तन से विसर्जित करो।’यह एक बहुत गहन संदेश है। क्रोध को क्रोध से विसर्जित करो; लोभ को लोभ से विसर्जित करो, संसार को संसार से विसर्जित करो। उससे संघर्ष मत करो, विश्रामपूर्ण रहो। क्योंकि संघर्ष से तनाव पैदा होता है; तनाव से चिंता और संताप पैदा होता है। तुम व्यर्थ में उपद्रव में पड़ोगे। संसार जैसा है उसे वैसा ही रहने दो।दो तरह के लोग है जो संसार को वैसा ही नहीं रहने देना चाहते ..जैसा वह है। वे क्रांतिकारी कहलाते है। वे उसे बदलने के लिए जद्दोजहद करेंगे और अपना सारा जीवन लगा देंगे।वे अपने को नष्ट करेंगे और दुनिया को बदलने में खुद खत्म होंगे।लेकिन यह जगत तो अपने आप ही बदल रहा है। उनकी कोई जरूरत नहीं है। और इसके लिए किसी क्रांति की जरूरत नहीं है। संसार स्वयं एक क्रांति है; वह बदल ही रहा है।
11-यह एक अंतदृष्टि है कि सब अपने आप ही बदल रहा है। उसके लिए क्रांति की कोई जरूरत नहीं है। तुम उसे बदलने के लिए क्यों परेशान होते हो। तुम न उसे बदल सकते हो और न बदलाहट को रोक सकते हो।एक तरह का व्यक्तित्व सदा संसार को बदलने की चेष्टा करता है। धर्म की दृष्टि में वह मानसिक तल पर रूग्ण है। सच तो यह है अपने साथ रहने में उसे भय लगता है। इसलिए वह भागता फिरता है और संसार में उलझा रहता है। राज्य को बदलना है, सरकार को बदलना है; समाज , व्यवस्था, अर्थनीति, सब कुछ को बदलना है। और इसी सब में वह मर जाएगा। और उसे आनंद का, उस समाधि का एक कण भी नहीं उपलब्ध होगा। जिसमें वह जान सकता था कि मैं कौन हूं। और संसार चलता रहेगा ..संसार चक्र घूमता रहेगा।
संसार चक्र ने अनेक क्रांतिकारी देखे है और वह घूमता ही जाता है। तुम न तो इसे रोक सकते हो, और न तुम उसकी बदलाहट को तेज ही कर सकते हो।रहस्यवादियों की यह दृष्टि है कि संसार को बदलने की कोई जरूरत नहीं है।
12-लेकिन उनकी भी दो कोटियां है। कोई कहता है कि संसार को बदलने की जरूरत नहीं है, लेकिन अपने को बदलने की जरूरत तो है। वह भी परिवर्तन में विश्वास करता है। वह जगत को बदलने में नहीं, लेकिन अपने में बदलने में विश्वास करता है।लेकिन तंत्र कहता है कि किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है ..न संसार को और न अपने को।रहस्य का, अध्यात्म का यह गहनत्म तल है ...उसका अंतरतम केंद्र है। तुम्हें किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। तुम्हें इतना ही जानना है कि सब कुछ बदल रहा है, और तुम्हें उस बदलाहट के साथ बहना है, उसे स्वीकार करना है।और जब बदलने को कोई परिवर्तन नहीं है, तो तुम समग्ररतः: विश्रामपूर्ण हो सकते हो। जब तक प्रयत्न है ..तुम विश्रामपूर्ण नहीं हो सकते। तब तक तनाव बना रहेगा क्योंकि तुम्हें अपेक्षा है कि भविष्य में कुछ होने वाला है, जगत बदलने वाला है। संसार में साम्यवाद आने वाला है या पृथ्वी पर स्वर्ग उतरने वाला है। या भविष्य में कोई यूटोपिया (आदर्श―राज्य · रामराज्य )आने वाला है। या तुम प्रभु के राज्य में प्रवेश करने वाले हो। स्वर्ग में देवदूत तुम्हारा स्वागत करने के लिए तैयार खड़े है—जो भी हो; तुम भविष्य में कही अटके हो। इस अपेक्षा के साथ तुम तनावपूर्ण रहोगे।
13-तंत्र कहता है, इन बातों को भूल जाओ। संसार बदल ही रहा है। और तुम भी निरंतर बदल रहे हो। बदलाहट ही अस्तित्व है। इसलिए बदलाहट की चिंता मत करो। तुम्हारे बिना ही बदलाहट हो रही है। तुम्हारी जरूरत नहीं है। तुम भविष्य की कोई चिंता किए बिना उसमे बहो; और तब अचानक तुम्हें अपने भीतर के उस केंद्र का बोध होगा जो कभी नहीं बदलता है, जो सदा वही का वही रहता है।ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि जब तुम विश्रामपूर्ण होते हो तो बदलाहट की पृष्ठभूमि में विपरीत दिखाई पड़ता है।तुम्हें सनातन का, शाश्वत का बोध होता है। अगर तुम संसार को या अपने को बदलने का प्रयत्न में लगे हो तो तुम अपने भीतर छोटे से अकंप, स्थिर ठहरे हुए केंद्र को नहीं देख पाओगे। तुम बदलाहट में इतने घिरे हो कि तुम उसे नहीं देख पाते हो ..जो है।सब तरफ परिवर्तन है। यह परिवर्तन पृष्ठभूमि बन जाता है ...कंट्रास्ट बन जाता है। और तुम शिथिल होते हो , इसलिए तुम्हारे मन में भविष्य के विचार नहीं होते।
14-तुम यहां और अभी होते हो। यह क्षण ही सब कुछ होता है। सब कुछ बदल रहा है ..और अचानक तुम्हें अपने भीतर उस बिंदू का बोध होता है जो कभी नहीं बदला है।‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’इसका अर्थ यही है कि लड़ो मत। मृत्यु के द्वारा अमृत को जान लो; मृत्यु के द्वारा मृत्यु को मर जाने दो। उससे लड़ाई मत करो।तंत्र की दृष्टि को समझना कठिन है। कारण है कि हमारा मन कुछ करना चाहता है और तंत्र कहता है ..कुछ न करना। तंत्र कर्म नहीं, पूर्ण विश्राम है। लेकिन यह एक सर्वाधिक गुह्म रहस्य है। और अगर तुम इसे समझ सको या तुम्हें इसकी प्रतीति हो जाए,तो तुम्हें किसी अन्य चीज की चिंता लेने की जरूरत नहीं है।ये अकेली विधि तुम्हें सब कुछ दे सकती है।तब तुम्हें कुछ करने की जरूरत नही है । क्योंकि तुमने इस रहस्य को जान लिया है जो परिवर्तन से परिवर्तन का अतिक्रमण कर रहा है । मृत्यु से मृत्यु का अतिक्रमण हो सकता है। क्रोध से क्रोध का अतिक्रमण हो सकता है।अब तुम्हें यह कुंजी मिल गई है कि जहर से जहर का अतिक्रमण हो सकता है।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 68;-
15 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''जैसे मुर्गी अपने बच्चों का पालन-पोषण करती है, वैसे ही यथार्थ में विशेष ज्ञान और विशेष कृत्य का पालन-पोषण करो''।
2-इस विधि में मूलभूत बात है: ‘यथार्थ में।’ तुम भी बहुत चीजों का पालन पोषण करते हो; लेकिन सपने में, सत्य में नहीं।सपनों को पोषण देना छोड़ दो। सपनों को बढ़ने में सहयोग मत दो ...अपनी ऊर्जा मत दो। सभी सपनों से अपने को पृथक कर लो।यह कठिन होगा, क्योंकि सपनों में तुम्हारे स्वार्थ है। अगर तुम अपने को अचानक सपनों से बिलकुल अलग कर लोगे तो तुम्हें लगेगा कि मैं डूब रहा हूं, मैं मर रहा हूं। क्योंकि तुम हमेशा आशा करते रहे हो;सपनों में रहते आए हो। तुम कभी यहां और अभी नहीं रहे; तुम सदा कहीं और रहते आए हो।
3-क्या तुमने पंडोरा का डब्बा (एक यूनानी कहानी )सुनी है। किसी व्यक्ति ने बदला लेने के लिए पंडोरा के पास एक डब्बा भेजा। इस डब्बे में से सब रोग बंद थे जो अभी मनुष्य जाति के बीच फैले है। वे रोग उसके पहले नहीं थे; जब वह डब्बा खुला तो सभी रोग बाहर निकल आए। पंडोरा रोगों को देखकर डर गई ओर उसने डब्बा बंद कर दिया। केवल एक रोग रह गयाऔर वह थी आशा। अन्यथा मनुष्य समाप्त हो गया होता; ये सारे रोग उसे मार डालते, लेकिन आशा के कारण वह जीवित रहा।
तुम क्यों जी रहे हो ..क्या तुमने कभी यह प्रश्न पूछा है? यहां और अभी जीने के लिए कुछ भी नहीं है ... सिर्फ आशा है। तुम भी पंडोरा का डब्बा ढो रहे हो।अभी तुम जीवित हो ;हरेक सुबह तुम बिस्तर से उठ रहे हो .. रोज-रोज फिर वही करते हो जो कल किया था।इस पुनरूक्ति का कारण क्या है?
4- वास्तव में,मनुष्य आशा में जीता है ;लेकिन यह जीवन नहीं है। वह अपने को ढोए चला जाता है। जब तक तुम यहां और अभी नहीं जीते हो, तुम जीवन नहीं हो। तुम एक मृत बोझ हो और वह कल तो कभी आने वाला नहीं है ..जब तुम्हारी सब आशाएं पूरी हो जाएंगी। और जब मृत्यु आएगी तो तुम्हें पता चलेगा कि अब कोई कल नहीं है, और अब स्थगित करने का भी उपाय नहीं है। तब तुम्हारा भ्रम टूटेगा; तब तुम्हें लगेगा कि यह धोखा था। लेकिन किसी दूसरे ने तुम्हें धोखा नहीं दिया। अपनी दुर्गति के लिए तुम स्वयं जिम्मेदार हो।इस क्षण में, वर्तमान में जीने की चेष्टा करो और आशाएं मत पालो ..चाहे वे किसी भी ढंग की हों। वे लौकिक हो सकती है, पारलौकिक हो सकती है। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। वे धार्मिक हो सकती है। किसी भविष्य में,किसी दूसरे लोक में, स्वर्ग में, मृत्यु के बाद, निर्वाण में; लेकिन इससे कोई फर्क नही पड़ता। तुम कोई आशा मत करो। यदि तुम्हें थोड़ी निराशा भी अनुभव हो, तो भी यही रहो। यहां और इसी क्षण से हटो ही मत। दुःख सह लो, लेकिन आशा को मत प्रवेश करने दो। आशा के द्वारा स्वप्न प्रवेश करते है।अगर जीवन में निराशा है तो निराश रहो। निराशा को स्वीकार करो। लेकिन भविष्य में होनेवाली किसी घटना का सहारा मत लो।
5-और तब अचानक बदलाहट होगी। जब तुम वर्तमान में ठहर जाते हो तो सपने भी ठहर जाते है। तब वे नहीं उठ सकते, क्योंकि उनका स्त्रोत ही बंद हो जाता है। सपने उठते है क्योंकि तुम उन्हें सहयोग देते हो। तुम उन्हें पोषण देते हो। सहयोग मत दो; पोषण मत दो।यह सूत्र कहता है: ‘विशेष ज्ञान का पालन-पोषण करो।’विशेष ज्ञान क्या है? तुम भी पोषण देते हो; लेकिन तुम विशेष सिद्धांतों को पोषण देते हो ..ज्ञान को नहीं। तुम विशेष शास्त्रों को पोषण देते हो, ज्ञान को नहीं। तुम विशेष मतवादों को, दर्शन शास्त्रों को, विचार-पद्धतियों को पोषण देते हो। लेकिन विशेष ज्ञान को कभी पोषण नहीं देते। यह सूत्र कहता है कि उन्हें हटाओं, दूर करो, शास्त्र और सिद्धांत किसी काम के नहीं है। अपना अनुभव प्राप्त करो जो प्रामाणिक हो; अपना ही ज्ञान हासिल करो, और उसे पोषण दो। कितना भी छोटा हो, प्रामाणिक अनुभव असली बात है। तुम उस पर अपने जीवन को आधार रख सकते हो। वे जैसे भी हो, जो भी हो। सदा प्रामाणिक अनुभवों की चिंता लो जो तुमने स्वयं जाने है।
6-तुम बहुत कुछ जानते हो; लेकिन तुम्हारा सब जानना उधार है। किसी से तुमने सुना है; किसी ने तुम्हें दिया है। शिक्षकों ने,माता-पिता ने, समाज ने, तुम्हें संस्कारित किया है। तुम ईश्वर के बारे में जानते हो, तुम प्रेम के संबंध में जानते है, तुम ध्यान को जानते हो। लेकिन तुम यथार्थत: कुछ भी नहीं जानते। तुमने इनमें से किसी का स्वाद नहीं लिया है। यह सब उधार है। किसी दूसरे ने स्वाद लिया है; स्वाद तुम्हारा निजी नहीं है। किसी दूसरे ने देखा है; तुम्हारी भी आंखें है।लेकिन तुमने उनका उपयोग नहीं किया है। किसी ने अनुभव किया ..किसी बुद्ध ने, किसी जीसस ने ...और तुम उनका ज्ञान उधार लिए बैठे हो।उधार ज्ञान झूठा है और वह तुम्हारे काम का नहीं है। उधार ज्ञान अज्ञान से भी खतरनाक है। क्योंकि अज्ञान तुम्हारा है, और ज्ञान उधार है। इससे तो अज्ञानी रहना बेहतर है। कम से कम तुम्हारा तो है .. प्रामाणिक तो है, सच्चा है, ईमानदार है। उधार ज्ञान मत ढ़ोओ; अन्यथा तुम भूल जाओगे कि तुम अज्ञानी हो; और तुम अज्ञानी के अज्ञानी बने रहोगे। यह सूत्र कहता है: ‘विशेष ज्ञान का पालन-पोषण करो।’
7-सदा ही जानने की कोशिश इस ढंग से करो कि वह सीधा हो, सच हो, प्रत्यक्ष हो। कोई विश्वास मत पकड़ो;विश्वास तुम्हें भटका देगा। अपने पर भरोसा करो। श्रद्धा करो। और अगर तुम अपने पर ही श्रद्धा नहीं कर सकते तो किसी दूसरे पर कैसे श्रद्धा कर सकते हो?सारिपुत्र गौतम बुद्ध के पास आया और उसने कहा: ‘मैं आपमें विश्वास करने के लिए आया हूं;मैं आ गया हूं। मुझे आप में श्रद्धा हो, इसमें मेरी सहायता करें।’ गौतम बुद्ध ने कहा: ‘अगर तुम्हें स्वयं में श्रद्धा नहीं है तो मुझमें श्रद्धा कैसे करोगे? मुझे भूल जाओ। पहले स्वयं में श्रद्धा करो; तो ही तुम्हें किसी दूसरे में श्रद्धा होगी।’यह स्मरण रहे, अगर तुम्हें स्वयं में ही श्रद्धा नहीं है ,तो किसी में भी श्रद्धा नहीं हो सकती। पहली श्रद्धा सदा अपने में होती है ,तो ही वह प्रवाहित हो सकती है ;बह सकती है और दूसरों तक पहुंच सकती है। लेकिन अगर तुम कुछ जानते ही नहीं हो तो अपने में श्रद्धा कैसे करोगे? अगर तुम्हें कोई अनुभव ही नहीं है तो स्वयं में श्रद्धा कैसे होगी? अपने में श्रद्धा करो।वास्तव में हम परमात्मा को ही दूसरों की आंखों से देखते है; और साधारण अनुभवों में भी यही होता है। कोशिश करो कि साधारण अनुभव भी तुम्हारे अपने अनुभव हों। वे तुम्हारे विकास में सहयोगी होंगे। वे तुम्हें प्रौढ़ बनाएँगे ...परिपक्वता देंगे।
8-बडी अजीब बात है कि तुम दूसरों की आँख से देखते हो... तुम दूसरों की जिंदगी से जीते हो। तुम गुलाब को सुंदर कहते हो। क्या यह सच में ही तुम्हारा भाव है। या तुमने दूसरों से सुन रखा है कि गुलाब सुंदर होता है। क्या तुमने यह जाना है? तुम कहते हो कि चाँदनी अच्छी है, सुंदर है। क्या यह तुम्हारा जानना है? यह कवि इसके गीत गाते रहे है और तुम बस उन्हें दुहरा रहे हो?अगर तुम तोते जैसे दुहरा रहे हो तो तुम अपना जीवन प्रामाणिक रूप से नहीं जी सकते हो। जब भी तुम कुछ कहो, जब भी तुम कुछ करो, तो पहले अपने भीतर जांच कर लो कि क्या यह मेरा अपना जानना है ..अपना अनुभव है। उस सबको बाहर फेंक दो जो तुम्हारा नहीं है; वह कचरा है। और सिर्फ उसको ही मूल्य दो, पोषण दो, जो तुम्हारा है। उसके द्वारा ही तुम्हारा विकास होगा।‘यथार्थ में विशेष ज्ञान और विशेष कृत्य का पालन-पोषण करो।’
9-यहां 'यर्थाथ में', को सदा स्मरण रखो ..कुछ करो। क्या कभी तुमने स्वयं कुछ किया है या तुम केवल दूसरों का अनुसरण करते रहे हो। कहते है: ‘अपनी मां को प्रेम करो ,या पिता को प्रेम करो।क्या तुमने कभी ऐसा महसूस किया है तुम और प्रेम साथ थे .. बिना किसी विचार के या संस्कार के। या तुम सिर्फ कर्तव्य निभा रहे हो; क्योंकि तुम्हें कहा गया है, सिखाया गया है ।तुम्हारा प्रेम भी अनुकरण मात्र है।क्या तुम्हारे प्रेम में कभी ऐसा हुआ है कि उसमे किसी की सिखावन न काम कर रही हो? क्या कभी ऐसा हुआ है कि तुम किसी का अनुकरण नहीं कर रहे हो। क्या तुमने कभी प्रामाणिक रूप से प्रेम किया है।गौतम बुद्ध जीसस , महावीर ,सभी बहुत अच्छे है; लेकिन तुम उनका अनुसरण नहीं कर सकते। और अगर तुम अनुसरण करोगे तो तुम कुरूप हो जाओगे ..कार्बन कापी हो जाओगे। तब तुम झूठे हो जाओगे और अस्तित्व तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा। वहां कुछ भी झूठ स्वीकार नहीं है।गौतम बुद्ध को प्रेम करो, जीसस को प्रेम करो; लेकिन उनकी कार्बन कापी मत बनो। नकल मत करो। सदा अपनी निजता को अपने ढंग से खिलनें दो।
10-तुम किसी दिन गौतम बुद्ध जैसे हो जाओगे; लेकिन मार्ग बुनियादी तौर पर तुम्हारा अपना होगा। किसी दिन तुम जीसस जैसे हो सकते हो। लेकिन तुम्हारा यात्रा-पथ , अनुभव भिन्न होगे। एक बात पक्की है कि जो भी मार्ग हो, जो भी अनुभव हो, वह प्रामाणिक ..असली होना चाहिए .. तुम्हारा होना चाहिए ..तब तुम किसी न किसी दिन पहुंच जाओगे।असत्य से तुम सत्य तक नहीं पहुंच सकते। असत्य तुम्हें और असत्य में ले जाएगा। जब कुछ करो तो भली भांति स्मरण करो कि यह तुम्हारा अपना कृत्य हो, तुम खुद कर रहे हो। किसी का अनुकरण नहीं कर रहे हो। तो एक छोटा सा कृत्य भी, एक मुस्कुराहट भी , समाधि का स्त्रोत बन सकती है।तुम अपने घर लौटते हो और बच्चों को देखकर मुस्कराते हो। यह मुस्कुराहट झूठी है। तुम अभिनय कर रहे हो। तुम इसलिए मुस्कराते हो क्योंकि मुस्कराना चाहिए। यह ऊपर से चिपकायी गई मुस्कुराहट है। यह मुस्कुराहट कृत्रिम है, यांत्रिक है। और तुम इसके इतने अभ्यस्त हो चुके हो कि तुम बिलकुल भूल ही गये हो सच्ची मुस्कुराहट क्या है। तुम हंस सकते हो। लेकिन संभव है वह हंसी तुम्हारे केंद्र से न आ रही हो।
11-सदा ध्यान रखो कि तुम जो कर रहे हो उसमें तुम्हारा केंद्र सम्मिलित है या नहीं। अगर तुम्हारा केंद्र उस कृत्य मे सम्मिलित नहीं है तो बेहतर है कि उस कृत्य को न करो। उसे बिलकुल भूल जाओ। कोई तुम्हें कुछ करने के लिए मजबूर नहीं कर रहा है। बिलकुल मत करो। अपनी उर्जा को उस घड़ी के लिए बचा कर रखो.. जब कोई सच्चा भाव तुम्हारे भीतर उठे। और तब तुम उस में डूब कर उसे करो। यो ही मत मुस्कुराओ; उर्जा को बचाकर रखो। मुस्कुराहट आएगी, जो तुम्हें पूरा का पूरा बदल देगी। वह समग्र मुस्कुराहट होगी। तब तुम्हारे शरीर की एक-एक कोशिका मुस्कुराएगी। तब वह विस्फोट होगा, अभिनय नहीं होगा।
और बच्चे जानते है, तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते हो। और जब तुम उन्हें धोखा दे सको, समझ लेना वे बच्चे नहीं रहे। वे जानते है कि कब तुम्हारी मुस्कुराहट झूठी होती है। वे झट ताड़ लेते है। वे जानते है कि कब तुम्हारे आंसू झूठे है , तुम्हारी हंसी झूठी है। ये छोटे-छोटे कृत्य है, लेकिन तुम छोटे-छोटे कृत्यों से ही बने हो। किसी बड़े कृत्य की मत सोचो; मत सोचो कि किसी बड़े कृत्य में सच्चाई बरतूंगा। अगर तुम छोटी-छोटी चीजों में झूठे हो तो तुम सदा झूठे ही रहोगे। बड़ी चीजों में झूठ होना तो और भी सरल है।
12-पर यह सब झूठा है। कल्पना कीजिये कि अगर समाज की दृष्टि बदल जाए तो क्या होगा। ऐसी ही बदलाहट जब सोवियत रूस में या चीन में हुई तो तुरंत साधु-महात्मा वहां से विदा हो गये। वहां उनके लिए कोई आदर नहीं था।उदाहरण के लिए एक बौद्ध भिक्षु , स्टैलिन के दिनों में सोवियत रूप गये थे।वहां जब भी कोई व्यक्ति उससे हाथ मिलाता था तो तुरंत झिझक
कर पीछे हट जाता था। और कहता था कि तुम्हारे हाथ शोषण के हाथ है।उनके हाथ सचमुच सुंदरऔर कोमल थे; भिक्षु होकर उन्हें काम नहीं करना पड़ता था। वे शाही फकीर थे;उनका श्रम से वास्ता नहीं पडा था।भारत में जब कोई उनके हाथ छूता तो कहता कि कितने सुंदर हाथ है। लेकिन सोवियत रूस में जब कोई उनके हाथ अपने हाथ में लेता तो तुरंत सिकुड़कर पीछे हट जाता। उसकी आंखों में निंदा भर जाती।इसीलिए रूस में साधु-महात्मा विदा हो गए; क्योंकि आदर न रहा।आज रूस में केवल सच्चा संत ही संत हो सकता है। झूठे नकली संतों के लिए वहां कोई गुंजाइश नही है। आज तो वहां संत होने के लिए भारी संघर्ष करना पड़ेगा। क्योंकि सारा समाज विरोध में होगा। भारत में तो जीने का सबसे सुगम ढंग साधु-महात्मा होना है। सब लोग आदर देते है। यहां तुम झूठे हो सकते हो क्योंकि उसमे लाभ ही लाभ है।
13-तो इसे स्मरण रखो। सुबह से ही, जैसे ही तुम आँख खोलते हो,सिर्फ सच्चे और प्रामाणिक होने की चेष्टा करो। ऐसा कुछ मत करो जो झूठ और नकली हो। सिर्फ सात दिन के लिए यह स्मरण बना रहे कि कुछ भी झूठ और नकली न हो। कुछ भी अप्रमाणिक नहीं करना है।जो भी गंवाना पड़े ,जो भी खोना पड़े ..खो जाएं।जो भी होना हो, हो जाए;लेकिन सच्चे बने रहो।और सात दिन के भीतर नए जीवन का अनुभव होने लगेगा। तुम्हारी मृत पर्तें टूटने लगेंगी और नयी जीवंत धारा प्रवाहित होने लगेगी। तुम पहली बार पुनजींवन अनुभव करोगे। फिर से जीवित हो उठोगे।कृत्य का पोषण करो, ज्ञान का पोषण करो ;लेक़िन यथार्थ में..स्वप्न में नहीं। जो भी करना चाहो करो।लेकिन ध्यान रखो कि यह काम सच में 'मैं कर रहा हूं'। क्योंकि कब के जा चुके.. मरे हुए लोग, मृत माता-पिता, समाज, पुरानी पीढ़ियाँ, सब तुम्हारे भीतर अभी सक्रिय है।उन्होंने तुम्हारे भीतर ऐसे संस्कार भर दिए है कि तुम अब भी उनको ही पूरा करने में लगे हो।
14-तुम्हारे माता-पिता अपने मृत माता-पिता को पूरा करते रहे और तुम अपने माता-पिता को पूरा करने मे लगे हो।और आश्चर्य कि कोई भी पूरा नहीं हो रहा है।वास्तव में तुम उसे कैसे पूरा कर सकते हो ..जो मर चुका है। लेकिन ये सब मुर्दे तुम्हारे बीच जी रहे है।जब भी तुम कुछ करो तो सदा निरीक्षण करो कि यह मेरे माध्यम से मेरे पिता कर रहे है या मैं कर रहा हूं। जब तुम्हें क्रोध आए तो ध्यान दो कि यह मेरा क्रोध है या इसी ढंग से मेरे पिता क्रोध किया करते थे.. जिसे मैं दोहरा भर रहा हूं।वास्तव में पीढ़ी दर पीढ़ी वही सिलसिला चलता रहता है। पुराने ढंग- ढांचे दोहराते रहते है। अगर तुम विवाह करते हो तो वह विवाह करीब-करीब वैसा ही होगा जैसा तुम्हारे मां-पिता ने किया था। तुम अपने पिता की भांति व्यवहार करोगे। तुम्हारी पत्नी अपनी मां की भांति व्यवहार करेगी। और दोनों मिलकर वही सब उपद्रव करोगे जो उन्होने किया था।
15-जब क्रोध आए तो गौर से देखो कि मैं क्रोध कर रहा हूं या कि कोई दूसरा व्यक्ति क्रोध कर रहा है।जब तुम कुछ बोलों तो देखो कि मैं बोल रहा हूं या मेरा शिक्षक बोल रहा है। जब तुम कोई भाव-भंगिमा बनाओ तो देखो कि यह तुम्हारी भंगिमा है या कोई दूसरा ही वहां है।यह कठिन होगा; लेकिन यही साधना है,...यही आध्यात्मिक साधना है।और सारे झूठों को
विदा करो। थोड़े समय के लिए तुम्हें सुस्ती पकड़ेगी, उदासी घेरेंगी; क्योंकि तुम्हारे झूठ गिर जाएंगे। और सत्य को आने में ...और प्रतिष्ठित होने में थोड़ा समय लगेगा।अंतराल का एक समय होगा; उस समय को भी आने दो। भयभीत ,आतंकित मत होओ। देर-अबेर तुम्हारे मुखौटे गिर जाएंगे। तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व ,विलीन हो जाएगा। और उसकी जगह तुम्हारा असली चेहरा, तुम्हारा प्रामाणिक व्यक्तित्व अस्तित्व में आएगा ...प्रकट होगा। और उसी प्रामाणिक व्यक्तित्व से तुम ईश्वर से साक्षात्कार कर सकते हो।इसलिए यह सूत्र कहता है: 'जैसे मुर्गी अपने बच्चों का पालन पोषण करती है। वैसे ही यथार्थ में विशेष ज्ञान और विशेष कृत्य का पालन-पोषण करो'।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 69;-
12 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘यथार्थत: बंधन और मोक्ष सापेक्ष है; ये केवल विश्व से भयभीत लोगों के लिए है। यह विश्व मन का प्रतिबिंब है। जैसे तुम पानी में एक सूर्य के अनेक सूर्य देखते हो, वैसे ही बंधन और मोक्ष को देखो।’
2-यह बहुत गहरी से गहरी विधियों में से एक है। और विरले लोगों ने ही इसका प्रयोग किया है। झेन इसी विधि पर आधारित है। यह विधि बहुत कठिन बात कह रही है जो समझने में कठिन, परंतु अनुभव करने में कठिन नहीं है।यह सूत्र कहता है, कि हम संसार और निर्वाण दो नहीं है। वे एक ही है। स्वर्ग और नरक दो नहीं है। वे एक ही है। वैसे ही बंधन और मोक्ष दो नहीं है, वे भी एक ही है। यह समझना कठिन है, क्योंकि हम किसी चीज को आसानी से तभी सोच पाते है जब वह ध्रुवीय विपरीतता में बंटी हो।हम कहते है कि यह संसार बंधन है; इससे छूटा जाए और मुक्त हुआ जाए? तब मुक्ति कुछ है जो बंधन के विपरीत है, जो बंधन नहीं है। लेकिन यह सूत्र कहता है कि दोनों एक है, मोक्ष और बंधन एक है। और जब तक तुम दोनों से नहीं मुक्त होते, तुम मुक्त नहीं हो। बंधन तो बाँधता ही है,मोक्ष भी बाँधता है। बंधन तो गुलामी है ही मोक्ष भी गुलामी है।
3-इसे समझने की कोशिश करो। उस व्यक्ति को देखो जो बंधन के पार जाने की चेष्टा में लगा है। वह अपना घर छोड़ देता है, परिवार छोड़ देता है, धन दौलत छोड़ देता है, संसार की चीजें ..समाज छोड़ देता है। ताकि बंधन के बाहर हो सके, संसार की ज़ंजीरों से मुक्त हो सके। लेकिन तब वह अपने लिए नयी ज़ंजीरें गढ़ने लगता है। और वे ज़ंजीरें नकारात्मक है ,परोक्ष है।उदाहरण के लिए एक संत है ,जो धन नहीं छूते है। वे बहुत सम्मानित संत है। उनका सम्मान वे लोग जरूर करेंगे जो धन के पीछे पागल है। यह व्यक्ति उनके विपरीत ध्रुव पर चला गया है। अगर तुम उनके हाथ में धन रख दो तो वे उसे ऐसे फेंक देंगे जैसे कि वह जहर हो या कि तुमने उनके हाथ पर सांप रख दिया हो। वे उसे फेंक ही नहीं देंगे,बल्कि वे आतंकित हो उठेंगे। उनका शरीर कांपने लगेगा।
4- वास्तव में, वे धन से लड़ रहे है। वे पहले जरूर ही अति लोभी व्यक्ति रहे होंगे। तभी वे दूसरी अति पर पहूंच गए है। उनकी धन की पकड़ आत्यंतिक रही होगी;वे धन के लिए पागल रहे होंगे। वे धन से ग्रस्त रहे होंगे। वे अब भी धन से ग्रस्त है, लेकिन अब उनकी दिशा बदल गई है। वे पहले धन की तरफ भाग रहे थे; अब वे धन के विपरीत भाग रहे है।तुम प्रतिक्रिया करके मुक्त नहीं हो सकते। जिस चीज से तुम भागोगे वह पीछे के रास्ते से तुम्हें बाँध लेगी; उससे तुम बच नहीं सकते हो। यदि कोई व्यक्ति संसार के विरोध में मुक्त होना चाहता है तो वह कभी मुक्त नहीं हो सकता; वह संसार में ही रहेगा। किसी चीज के विरोध में होना भी एक बंधन है।यह सूत्र कहता है: ‘यथार्थत: बंधन और मोक्ष सापेक्ष है……।’वे विपरीत नहीं, सापेक्ष है। तुम कहते हो, जो बंधन नहीं है ..वह मोक्ष है। और बंधन ..तब तुम कहते हो, जो मोक्ष नहीं है वह बंधन है। तुम एक दूसरे से उनकी परिभाषा कर सकते हो। वे गर्मी और ठंडक की भांति है। विपरीत नही है। गर्मी और ठंडक एक ही चीज की कम और ज्यादा मात्राएं है ..ताप की मात्राएं है। लेकिन चीज एक ही है; गर्मी और ठंडक सापेक्ष है।
5-तंत्र कहता है, बंधन और मोक्ष संसार और निर्वाण दो चीजें नहीं है; वे सापेक्ष है, वे एक ही चीज की दो अवस्थाएं है। इसलिए तुम्हें बंधन से ही मुक्त नहीं होना है, तुम्हें मोक्ष से भी मुक्त होना है। जब तक तुम दोनों से मुक्त नहीं होते, तुम मुक्त नहीं हो।तो पहली बात कि किसी भी चीज के विरोध में जीने की कोशिश मत करो, क्योंकि ऐसा करके तुम उसी चीज की कोई भिन्न अवस्था में प्रवेश कर जाओगे। वह विपरीत दिखाई पड़ता है। लेकिन विपरीत है नहीं।लाभ से अलोभ में जाने की चेष्टा मत करो, क्योंकि वह अलोभ भी सूक्ष्म लोभ ही होगा। इसीलिए अगर कोई परंपरा अलोभ सिखाती है तो उसमें भी तुम्हें कुछ लालच देती है।जो लोग परलोक के लोभी है, वे इस उपदेश से बहुत प्रभावित होंगे। वे इसके लालच में बहुत कुछ छोड़ने को तैयार हो जायेंगे। कि ‘अगर तुम लोभ को छोड़ दोगे तो तुम्हें परलोक में बहुत मिलेगा’। लेकिन पाने की प्रवृति,चाह बनी रहती है। अन्यथा लोभी व्यक्ति अलोभ की तरफ क्यों जाएगा? उनके लोभ की सूक्ष्म तृप्ति के लिए कुछ अभिप्राय ..कुछ हेतु तो चाहिए ही।
6-तो विपरीत ध्रुवों का निर्माण मत करो। सभी विपरीतताएं परस्पर जुड़ी है। वे एक ही चीज की भिन्न-भिन्न मात्राएं है।और अगर तुम्हें इसका बोध हो जाए तो तुम कहोगे कि दोनों ध्रुव एक है।अगर यह अनुभव तुम्हारे भीतर गहरा हो सके तो तुम दोनों से मुक्त हो जाओगे। तब तुम ,न संसार चाहते हो न मोक्ष। वस्तुत: तब तुम कुछ भी नहीं चाहते हो; तुमने चाहना ही छोड़ दिया। और उस छोड़ने में ही तुम मुक्त हो गए। इस भाव में ही कि सब कुछ समान है, भविष्य गिर गया। अब तुम कहां जाओगे?यदि कामवासना और ब्रह्मचर्य एक है, तो कहां जाना है। यदि लोभ और अलोभ एक ही है, हिंसा और अहिंसा एक ही है, तो फिर जाना कहा है? कहीं जाने को न बचा। सारी गति समाप्त हुई; भविष्य ही न रहा। तब तुम किसी चीज की भी कामना, कोई भी कामना नहीं कर सकते, क्योंकि सब कामनाए एक ही है। फर्क केवल परिमाण को होगा। तुम क्या कामना करोगे। तुम क्या चाहोगे?
7-तुम्हारी चाहत तुमसे ही पैदा होती है। तुम जैसे हो ,उसमें ही तुम्हारी जड़ है। अगर कोई लोभी है तो वह अलोभ की चाह करता है। अगर कोई कामी है तो वह ब्रह्मचर्य की कामना करता है। क्योंकि वह उससे पीड़ित है , दुःखी है। लेकिन ब्रह्मचर्य की एक कामना की जड़ ,अलोभ की एक कामना की जड़ ,उसकी कामुकता और लोभ में ही है।लोग जानना चाहते है कि : ‘इस संसार से कैसे छूटा जाए?’क्योंकि संसार उन पर बहुत भारी पड़ रहा है। वे संसार के बोझ के नीचे दबे जा रहे है। और वे संसार से बुरी तरह चिपके भी है। क्योंकि जब तक तुम संसार से चिपकते नहीं हो तब तक संसार तुम्हें बोझिल नहीं कर सकता। यह बोझ तुम्हारे सिर में है; और उसका कारण तुम हो ..बोझ नहीं। तुम इसे ढो रहे हो। लोग सारा संसार उठाए है; और फिर वे दुःखी होते है। और दुःख के इसी अनुभव से विपरीत कामना का उदय होता है। और वे विपरीत के लिए लालायित हो उठते है।
8-पहले वह धन के पीछे भाग रहे थे; अब वे ध्यान के पीछे भाग रहे है। पहले वह इस लोक में कुछ पाने के लिए भाग दौड़ कर रहे थे; अब वे परलोक में कुछ पाने के लिए भाग दौड़ कर रहे है। लेकिन भाग दौड़ जारी है और भाग दौड़ ही समस्या है; विषय अप्रासंगिक है। कामना समस्या है; चाह समस्या है। तुम क्या चाहते हो, यह अर्थपूर्ण नहीं है। तुम चाहते हो, यह समस्या
है।और तुम चाह के विषय बदलते रहते हो।आज तुम ‘क’ चाहते हो, कल ‘ख’ चाहते हो, और तुम समझते हो कि मैं बदल रहा हूं। और फिर परसों तुम ‘ग’ चाह करते हो। और तुम सोचते हो कि मैं रूपांतरित हो गया। लेकिन तुम वही हो। तुमने ‘क’ की चाह की, तुमने ‘ख’ की चाह की। और तुमने ही ‘ग’की चाह की; लेकिन क-ख-ग ये सब तुम नही हो। तुम तो 'वह' हो ..जो चाहता है , जो कामना करता है। और 'वह' वही का वही रहता है।
9-तुम बंधन चाहते हो। और फिर उससे निराशा हो जाते हो ,ऊब जाते हो। और तब तुम मोक्ष की कामना करने लगते हो। लेकिन तुम कामना करना जारी रखते हो। और कामना बंधन है; इसलिए तुम मोक्ष की कामना नहीं करते। चाह ही बंधन है। इसलिए तुम मोक्ष नहीं चाह सकते। जब कामना विसर्जित होती है तो चाह का छूट जाना ही मोक्ष है।इसीलिए यह सूत्र कहता है: ‘यथार्थत: बंधन और मोक्ष सापेक्ष है।’तो विपरीत से ग्रस्त मत होओ।बंधन और मोक्ष, ये शब्द उनके लिए है जो विश्व से भयभीत है।‘यह विश्व मन का प्रतिबिंब है।’तुम संसार में जो कुछ देखते हो वह प्रतिबिंब है। अगर वह बंधन जैसा दिखता है तो उसका मतलब है कि वह तुम्हारा प्रतिबिंब है। और अगर यह विश्व मुक्ति जैसा दिखता है तो भी वह तुम्हारा प्रतिबिंब है।
10-‘जैसे तुम पानी में एक सूर्य के अनेक सूर्य देखते हो, वैसे ही बंधन और मोक्ष को देखो।’सुबह सूरज ऊगता है और सरोवर उनके ..बड़े और छोटे, सुंदर और कुरूप,अनेक टुकड़े कर देता है। एक ही सूरज इन अनेक छवियों में प्रतिबिंबित होता है। अनेक रूप और आकारों में कहीं गंदा और कही शुद्ध। लेकिन जो प्रतिबिंब को देख कर यथार्थ को देखेगा ..उसे एक ही
सूर्य दिखाई देगा।जिस संसार को तुम देखते हो वह तुम्हारा प्रतिबिंब है।अगर तुम चोर हो तो सारा संसार तुम्हें उसी धंधे में संलग्न मालूम पड़ेगा।बिलकुल यही हो रहा है। तुम अपने चारों और जो कुछ देखते हो वह तुम्हारा प्रतिबिंब ज्यादा है ,यथार्थ कम है। तुम अपने को ही सब जगह प्रतिबिंबित देख रहे हो। और जिस क्षण तुम बदलते हो, तुम्हारा प्रतिबिंब भी बदल जाता है। और जिस क्षण तुम समग्ररतः: मौन हो जाते हो, शांत हो जाते हो, सारा संसार भी शांत हो जाता है। संसार बंधन नहीं है, बंधन केवल एक प्रतिबिंब है। संसार मोक्ष भी नहीं है। मोक्ष भी प्रतिबिंब है। बुद्ध को सारा संसार निर्वाण में दिखाई पड़ता है।श्री कृष्ण को सारा जगत नाचता-गाता, आनंद में, उत्सव मनाता हुआ दिखाई पड़ता है। उन्हें कही कोई दुःख नहीं दिखाई पड़ता है।
11-लेकिन तंत्र कहता है कि तुम जो भी देखते हो वह प्रतिबिंब ही है। जब तक सारे दृश्य नहीं विदा हो जाते और शुद्ध दर्पण नही बचता ..प्रतिबिंब रहित दर्पण ही सत्य है।अगर कुछ भी दिखाई देता है तो वह प्रतिबिंब ही है। सत्य एक है। अनेक तो प्रतिबिंब ही हो सकते है। और एक बार यह समझ में आ जाए ..सिद्धांत के रूप में नहीं, अस्तित्वगत, अनुभव के द्वारा ..तो तुम मुक्त हो, बंधन और मोक्ष दोनों से मुक्त हो।उदाहरण के लिए जब तुम बीमार होते हो तो स्वास्थ्य की कामना करते हो। यह स्वास्थ्य की कामना तुम्हारी बीमारी का ही अंग है। अगर तुम स्वस्थ ही हो तो तुम स्वास्थ्य की कामना नहीं करोगे।अगर तुम सच में स्वस्थ हो तो फिर स्वास्थ्य की चाह कहां है? उसकी जरूरत नहीं है।अगर तुम यथार्थत: स्वस्थ हो तो तुम्हें महसूस नहीं होता कि मैं स्वस्थ हूं। सिर्फ बीमार, रोगग्रस्त लोग ही महसूस कर सकते है कि हम स्वस्थ नहीं है।अगर तुम स्वस्थ ही पैदा हुए और कभी बीमार नहीं हुए, तो क्या तुम कभी अपने स्वास्थ्य को महसूस कर सकोगे?
12- स्वास्थ्य तो है, लेकिन उसका अहसास नहीं हो सकता। उसका अहसास तो विपरीत के द्वारा, विरोधी के द्वारा ही हो सकता है। विपरीत के द्वारा ही, उसकी पृष्ठभूमि में ही किसी चीज का अनुभव होता है। अगर तुम बीमार हो तो स्वास्थ्य का अनुभव कर सकते हो; और अगर तुम्हें स्वास्थ्य का अनुभव हो रहा है तो निश्चित जानो कि तुम अब भी बीमार हो।तो बौद्ध धर्म के नरोपा ने कहा: ‘हां और नहीं दोनों।' हां 'इसलिए कि अब कोई बंधन नहीं रहा। और 'नहीं' इसलिए कि बंधन के जाने के साथ मुक्ति भी विलीन हो गई। मुक्ति बंधन का ही हिस्सा थी। अब मैं दोनों के पार हूं; न बंधन में हूं, और न मोक्ष में।’धर्म को चाह, कामना मत बनाओ। मोक्ष को, निर्वाण को कामना का विषय मत बनाओ। वह तभी घटित होता है जब सारी कामनाए खो जाती है।
...SHIVOHAM....
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