विज्ञान भैरव तंत्र की श्वास-क्रिया से संबंधित,ध्यान की महत्वपूर्ण नौ विधियां क्या है? PART-04
ध्यान की आठवीं श्वास विधि:-
04 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है: -
''आत्यंतिक भक्ति पूर्वक श्वास के दो संधि-स्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।''
2-इन विधियों के बीच जरा-जरा से भेद है, तो भी हमारे लिए वे भेद बहुत हो सकते है। एक अकेला शब्द बहुत फर्क पैदा
करता है।“आत्यंतिक भक्ति पूर्वक श्वास के दो संधि-स्थलोंपर केंद्रित होकर…..।”भीतर आने वाली श्वास को एक संधि स्थल है। जहां वह मुड़ती है। इन दो संधि-स्थलों ..के साथ यहां जरा सा भेद किया गया है। हालांकि यह भेद विधि में तो जरा सा ही है, लेकिन साधक के लिए बड़ा भेद हो सकता है। केवल एक शर्त जोड़ दी गई है ...‘’आत्यंतिक भक्ति पूर्वक’’, और पूरी विधि
बदल गयी। इसके प्रथम रूप में भक्ति का सवाल नहीं था। वह मात्र वैज्ञानिक विधि थी। तुम प्रयोग करो और वह काम करेगी। लेकिन कुछ लोग विशेषकर वॉटर एलिमेंट ऐसी शुष्क वैज्ञानिक विधियों पर काम नहीं करेंगे। इसलिए जो ह्रदय की और झुके है;जो भक्ति के जगत के है, उनके लिए जरा सा भेद किया गया है: आत्यंतिक भक्ति पूर्वक श्वास के दो संधि-स्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।‘’
3- अगर तुम्हारा मन वैज्ञानिक रुझान का नहीं है, तो तुम आत्यंतिक भक्ति पूर्व..प्रेम श्रद्धा के साथ इस विधि को प्रयोग में लाओ। श्वास के दो संधि स्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जानना कैसे संभव होगा।यह भक्ति तो किसी के प्रति होती है ..
चाहे वे श्री कृष्ण हों या क्राइस्ट। लेकिन तुम्हारे स्वयं के प्रति, श्वास के दो संधि-स्थलों के प्रति भक्ति कैसी होगी। यह तत्व तो
गैर भक्ति वाला है। लेकिन व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर है।तंत्र का कहना है कि शरीर मंदिर है।तुम्हारा शरीर परमात्मा का मंदिर
है,उसका निवास स्थान है। इसलिए इसे मात्र अपना शरीर या एक वस्तु न मानो। यह पवित्र है, धार्मिक है। जब तुम एक श्वास भीतर ले रहे हो तब तुम ही श्वास नहीं ले रहे हो, तुम्हारे भीतर परमात्मा भी श्वास ले रहा है। तुम चलते फिरते हो ..इसे इस तरह देखो ...तुम नहीं, स्वयं परमात्मा तुममें चल रहा है। तब सब चीजें पूरी तरह भक्ति हो जाती है।
4-अनेक संतों के बारे में कहा जाता है कि वे अपने शरीर को प्रेम करते थे।तुम भी अपने शरीर को यह व्यवहार दे सकते हो। उसके साथ यंत्रवत व्यवहार भी कर सकते हो। वह भी एक रूझान है, एक दृष्टि है। तुम इसे अपराधपूर्ण पाप भरा और गंदा भी मान सकते हो। और इसे चमत्कार भी समझ सकते हो, परमात्मा का घर भी समझ सकते है, यह तुम पर निर्भर है।
यदि तुम अपने शरीर को मंदिर मान सको तो यह विधि तुम्हारे काम आ सकती है । ''आत्यंतिक भक्ति पूर्वक'' इसका प्रयोग करो। जब तुम भोजन कर रहे हो तब इसका प्रयोग करो। यह न सोचो कि तुम भोजन कर रहे हो, सोचो कि परमात्मा तुममें भोजन कर रहा है,और तब परिवर्तन को देखो। तुम वही चीज खा रहे हो। लेकिन तुरंत सब कुछ बदल जाता है। अब तुम परमात्मा को भोजन दे रहे हो। तुम स्नान कर रहे हो। कितना मामूली सा काम है। लेकिन दृष्टि बदल दो, अनुभव करो कि तुम अपने में परमात्मा को स्नान करा रहे हो, तब यह विधि आसान होगी।
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ध्यान की नौवीं श्वास विधि:-
08 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है: -
''मृतवत लेटे रहो। क्रोध में क्षुब्ध होकर उसमे ठहरे रहो। या पुतलियों को घुमाएं बिना एकटक घूरते रहो। या कुछ चूसो और चूसना बन जाओ।''
''LIE DOWN AS DEAD. ENRAGED IN WRATH, STAY SO. OR STARE WITHOUT MOVING AN EYELASH... OR SUCK SOMETHING AND BECOME THE SUCKING.''
2-“मृतवत लेटे रहो।”प्रयोग करो कि तुम एकाएक मर गए हो।शरीर को छोड़ दो,क्योंकि तुम मर गए हो।बस कल्पना करो
कि मृत हूं, मैं शरीर नहीं हूं, शरीर को नहीं हिला सकता। आँख भी नहीं हिला सकता। मैं चीख-चिल्ला भी नहीं सकता। न ही मैं रो सकता हूं, कुछ भी नहीं कर सकता। क्योंकि मैं मरा हुआ हूं।और तब देखो तुम्हें कैसा लगता है। लेकिन अपने को धोखा मत दो। तुम शरीर को थोड़ा हिला सकते हो, लेकिन हिलाओ नहीं। मच्छर भी आ जाये, तो भी शरीर को मृत समझो। यह
सबसे अधिक उपयोग की गई विधि है। रमण महर्षि इसी विधि से ज्ञान को उपलब्ध हुए थे। लेकिन यह उनके इस जन्म की विधि नहीं थी। इस जन्म में तो अचानक सहज ही यह उन्हें घटित हो गई।लेकिन जरूर उन्होंने किसी पिछले जन्म में इसकी सतत साधना की होगी। अन्यथा सहज कुछ भी घटित नहीं होता। प्रत्येक चीज का कार्य-कारण संबंध रहता है।
3-जब वे केवल चौदह या पंद्रह वर्ष के थे, एक रात अचानक रमण को लगा कि मैं मरने वाला हूं, उनके मन में यक बात बैठ गई कि मृत्यु आ गई है। वे अपना शरीर भी नहीं हिला सकते थे। उन्हें लगा कि मुझे लकवा मार गया है। फिर उन्हें अचानक घुटन महसूस हुई और वे जान गए कि उनकी ह्रदय-गति बंद होने वाली है। और वे चिल्ला भी नहीं सके, बोल भी नहीं सके कि
मैं मर रहा हूं। कभी-कभी किसी दुस्वप्न में ऐसा होता है कि जब तुम न चिल्ला पाते हो और न हिल पाते हो। जागने पर भी कुछ क्षणों तक तुम कुछ नहीं कर पाते हो। यही रमण महर्षि के साथ हुआ ।उनको अपनी चेतना पर तो पूरा अधिकार था ;परन्तु अपने शरीर पर नहीं। वे जानते थे कि मैं हूं, चेतना हूं, सजग हूं, लेकिन मैं मरने वाला हूं। और यह निश्चय इतना घना था कि कोई विकल्प भी नहीं था। इसलिए उन्होंने सब प्रयत्न छोड़ दिया। उन्होंने आंखे बद कर ली और मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे।
धीरे-धीरे उनका शरीर सख्त हो गया , शरीर मर गया।
4-लेकिन एक समस्या उठ खड़ी हुई। वे जान रहे थे कि मैं शरीर नहीं हूं लेकिन मैं तो हूं। वे जान रहे थे कि मैं जीवित हूं, और शरीर मर गया है। फिर वे उस स्थिति से वापस आए। सुबह तक शरीर स्वस्थ था। लेकिन वही आदमी नहीं लौटा था जो मृत्यु
के पूर्व था। क्योंकि उसने मृत्यु को जान लिया था।अब रमण ने एक नए लोक को देख लिया था। चेतना के एक नए आयाम को जान लिया था। उन्होंने घर छोड़ दिया। उस मृत्यु के अनुभव ने उन्हें पूरी तरह बदल दिया। और वे इस युग के बहुत थोड़े से
प्रबुद्ध पुरूषों में हुए।और यहीं विधि है जो रमण को सहज घटित हुई। लेकिन तुमको यह सहज ही घटित नहीं होने वाली है। लेकिन प्रयोग करो तो किसी जीवन में यह सहज ही प्रयोग करते हुए भी यह घटित हो सकती है। और यदि नहीं घटित हुई तो भी प्रयत्न कभी व्यर्थ नहीं जाता है। यह प्रयत्न तुम्हारे भीतर बीज बनकर रहेगा। कभी जब उपयुक्त समय होगा और वर्षा होगी, यह बीज अंकुरित हो जाएगा।
5-सब सहजता की यही कहानी है। किसी काल में बीज बो दिया गया था। लेकिन ठीक समय नहीं आया था और वर्षा नहीं हुई थी। किसी दूसरे जन्म और जीवन में समय तैयार होता है, तुम अधिक प्रौढ़, अधिक अनुभवी होते हो। और संसार में उतने ही निराश होते हो, तब किसी विशेष स्थिति में वर्षा होती है और बीज फूट निकलता है।''मृतवत लेटे रहो। क्रोध में क्षुब्ध होकर
उसमें ठहरे रहो।”निश्चय ही जब तुम मर रहे हो तो वह कोई सुख का क्षण नहीं होगा। वह आनंदपूर्ण नहीं हो सकता। जब तुम देखते हो कि तुम मर रहे हो तो भय पकड़ेगा। मन में क्रोध उठेगा, या विषाद, उदासी, शोक, संताप, कुछ भी पकड़ सकता है।क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति में फर्क है।सूत्र कहता है कि अगर तुमको क्रोध घेरे तो उसमे ही स्थित रहो। अगर उदासी घेरे तो
उसमे भी। भय, चिंता, कुछ भी हो, उसमें ही ठहरे रहो, डटे रहो, जो भी मन में हो, उसे वैसा ही रहने दो, क्योंकि शरीर तो मर चुका है।
6-यह ठहरना बहुत सुंदर है। अगर तुम कुछ मिनटों के लिए भी ठहर गए तो पाओगे कि सब कुछ बदल गया। लेकिन हम हिलने लगते है। यदि मन में कोई आवेग उठता है तो शरीर हिलने लगता है। उदासी आती है, तो भी शरीर हिलता है। इसे आवेग इसीलिए कहते है कि यह शरीर में वेग पैदा करता है। मृतवत महसूस करो और आवेगों को शरीर हिलाने इजाजत मत दो। वे भी वहां रहे और तुम भी वहां रहो ..स्थिर, मृतवत। कुछ भी हो, पर हलचल नहीं हो, गति नहीं हो। बस ठहरे रहो।“या
पुतलियों को घुमाएं बिना एकटक घूरते रहो।”ये एक बाबा की विधि थी। वर्षो वे अपने कमरे की छत को घूरते रहे, निरंतर ताकते रहे। वर्षो वह जमीन पर मृतवत पड़े रहे और पुतलियों को, आंखों को हिलाए बिना छत को एक टक देखते रहे। ऐसा वे लगातार घंटो बिना कुछ किए घूरते रहते थे। टकटकी लगाकर देखते रहते थे।आंखों से घूरना अच्छा है। क्योंकि उससे तुम
फिर तीसरी आँख मैं स्थित हो जाते हो।और एक बार तुम तीसरी आँख में स्थिर हो गए तो चाहने पर भी तुम पुतलियों को नहीं घूमा सकते हो। वे भी स्थिर हो जाती है..अचल।
7- तुम सिर्फ तीन मिनट के लिए ऐसी टकटकी लगाओ और तुमको लगेगा कि तीन वर्ष गुजर गये। तीन मिनट भी बहुत लम्बा समय मालूम होगा। तुम्हें लगेगा की समय ठहर गया है,और घड़ी बंद हो गई है। लेकिन वे बाबा घूरते रहे.... घूरते रहे, धीरे-धीरे विचार मिट गए। और गति बंद हो गई;बाबा मात्र चेतना रह गए। वे मात्र घूरना बन गए। टकटकी बन गए और तब वे आजीवन मौन रह गए। टकटकी के द्वारा वे अपने भीतर इतने शांत हो गए कि उनके लिए फिर शब्द रचना असंभव हो गई और तब वे बिलकुल खाली हो गए।उस सतत टकटकी ने बाबा के मन को पूरी तरह विसर्जित कर दिया था।यहां जरा सा रूपांतरण है। कुछ भी काम दे देगा। तुम मर गए, यह काफी है।जब तुम क्रोध में हो; क्रोध में क्षुब्ध होकर उसमे ठहरे रहो,लेटे रहो और क्रोध में स्थित पड़े रहो। इससे हटो नहीं, कुछ नहीं करो , स्थिर पड़ें रहो।केवल यह अंश भी एक विधि बन सकता है।
कृष्णामूर्ति की पूरी विधि इस एक सूत्र पर निर्भर है: क्रोध से क्षुब्ध होकर उसमे ठहरे रहो।“यदि तुम क्रुद्ध हो तो क्रुद्ध होओ और क्रुद्ध रहो। उससे हिलो नहीं, हटो नहीं।और अगर तुम वैसे ठहर सको तो क्रोध चला जाता है।और तुम दूसरे आदमी बन जाते हो। और एक बार तुम क्रोध को उससे आंदोलित हुए बिना देख लो तो तुम उसके मालिक हो गए।
8-‘’या पुतलियों को घुमाएं बिना एकटक घूरते रहो।या कुछ चूसो और चूसना बन जाओ।‘’
NOTE;-
Here bholenath is enlightening us about our innermost union at HEART CHAKRA.See the figure of human spine,which looks alike two hooded snake;one at root chakra & other at crown chakra. We can get the clear meaning through unique symbol, ''Caduceus''.
क्या अर्थ है कैड्यूजस का?
WHAT IS THE MEANING OF SYMBOL OF CADUCEUS?- 02 FACTS;- 1-The image of serpents wrapped around a staff is a familiar one in the medical field, decorating pharmaceutical packaging and hospitals alike. Snakes bites are generally bad news, and so the animal might seem ill-fitting as the symbol of the medical profession, but the ancient emblem actually has a quite a story behind it. It is a known fact that every symbol has a unique meaning. In that case this unique symbol, Caduceus, which is used, in various forms and modifications, by many medical organizations have a deeper meaning.The story of this medical symbol started way back in 1400 BC, travelled through time, has undergone many changes, misconceptions and has finally reached the present state. 2-If you observe closely there are two symbols that are used to represent medicine (as seen in Figure ) .One is the Caduceus, and the other is the Rod of Asclepius. Caduceus is a symbol with a short staff entwined by two serpents or two snakes entwined around a rod.While the Rod of Asclepius is the one with a single snake. WHAT IS THE MEANING OF BOTH CADUCEUS? THE SYMBOL OF MEDICINE;- 02 FACTS;- 1-A staff or rod with a snake curled around it. This is the Rod of Aesculapius (also called Asklepios), the ancient mythical god of medicine. Asklepios may have been a real person who was renowned for his gentle remedies and humane treatment of the mentally ill. Today, the staff of Aesculapius is a commonly used . It is the symbol of the American Medical Association (AMA) and many other medical societies. 2-The snake has been a powerful symbol of healing itself.Have you ever wondered why is a snake, which is a symbol of destruction used ironically as a symbol of healing?The answer lies deep sown.
The snake's ability to change from a lethargic stage to one of rapid activity symbolized the power to convalesc(recover one's health and strength)from an illness.The other reasons why serpent has been used is the shedding of the skin that indicated longevity and immortality. WHAT IS THE SYMBOL OF GOD & KUNDALINI AWAKENING ?- A similar symbol, the caduceus, was the staff of the Greek god Hermes. The caduceus is usually depicted with two snakes and a pair of wings and is often used mistakenly as a symbol of medicine.The similarity between both these symbols is the snake. MEANING OF THE SYMBOL OF SNAKE;- 1-Ancient Greeks believed snakes have healing power. Snakes represented regeneration (relate to ecdysis or molting of skin in snakes), a symbol of life and death (snakes venom were used both as a medicine and poison) and wisdom.They used a species of non-venomous snake called Aesculapian snake in their healing temple (Asclepieia). Hygieia (goddess of health and hygiene) and Panacea (goddess of healing), two daughters of Asclepius, have snakes in their sculptures. MEANING OF STAFF;- 02 FACTS;- 1-According to some historians the staff was later added in the symbol by Asklepian cults. Some believe staff represents determination (doctor’s role in life-death decision).Caduceus is the symbol of Hermes the Greek god of border and transition.Later Romans adopted him as their god of commerce and negotiation and named him Mercury. So Caduceus is the symbol of both Hermes and Mercury. It represents a staff entwined by TWO snakes and a pair of wings at the top. 2-Hermes was later taken as the god of Alchemy. Alchemists believed in the elixir of life. They were also involved with medical practice at that time. So this can be an association between Caduceus and medicine. CADUCEUS AND KUNDALINI AWAKENING;- Caduceus represents a staff entwined by TWO snakes and a pair of wings at the top.A staff is spinal cord &TWO snakes are our left & right channels;named as ida & pingla.Wings at the top is the symbol of CROWN CHKRA. CO-RELATION OF NINTH TECHNIQUE & CADUCEUS (KUNDALINI AWAKENING AT HEART CHAKRA );- Our pingla is like male snake & our ida is female snake. It appears to show the snakes winding themselves into a coil, just as our friends up top are.The pingla begins to court the ida by bumping his chin on the back of her head and crawling over her. Our both ..left & right channels, inside can make union at nipples simultaneously.Its not the matter that outwardly you are pingla or ida (male or female).Although, its easy for idas because female are mothers,they prefer heart than mind, naturally. So ,we should meditate as two channels,in criss cross position are licking ,sucking each other mouth..you should watch them as witness only . THE KEY POINT;- Before applying this technique ,practice of SARP MUDRA is essential to purify the mind .Except it ,watch yourself as two snakes of the caduceus;as many times as you can.
नौवीं श्वास विधि:-
03 FACTS;-
1-यह अंतिम विधि शारीरिक है और प्रयोग में सुगम है।क्योंकि चूसना जीवन का पहला कृत्य है जो एक बच्चा करता है।बच्चा जब पैदा होता है, तब वह पहले रोता है।अगर वह नहीं रोंए तो मिनटों के भीतर मर जाए।क्योंकि रोना हवा लेने का पहला
प्रयत्न है।जब वह पेट में था, बच्चा स्वास नहीं लेता है।बिना स्वास लिए वह जीता था।वह वहीं प्रक्रिया कर रहा था।जो भूमिगत समाधि लेने पर योगी जन करते है।वह बिना श्वास लिए प्राण को ग्रहण कर रहा था..मां से शुद्ध प्राण ही ग्रहण कर रहा था।
यही कारण है कि मां और बच्चे के बीच जो प्रेम है, वह और प्रेम से सर्वथा भिन्न होता है। क्योंकि शुद्धतम प्राण दोनों को जोड़ता है।अब ऐसा फिर कभी नहीं होगा।उनके बीच एक सूक्ष्म प्राणमय संबंध था।मां बच्चे को प्राण देती थी।बच्चा श्वास तक नहीं लेता था।
2-लेकिन जब वह जन्म लेता है, तब वह मां के गर्भ से उठाकर एक बिलकुल अनजानी दुनिया में फेंक दिया जाता है।अब उसे प्राण या ऊर्जा उस आसानी से उपलब्ध नहीं होगी। उसे स्वयं ही श्वास लेनी होगी। उसकी पहली चीख चूसने का पहला प्रयत्न है। उसके बाद वह मां के स्तन से दूध चूसता है।जीवन के ये बुनियादी कृत्य है, और प्रथम कृत्य उसका अभ्यास भी किया जा
सकता है।यह सूत्र कहता है: ‘’या कुछ चूसो और चूसना बन जाओ।''किसी भी चीज को चूसो , हवा को ही चूसो, लेकिन तब
हवा को भूल जाओ और चूसना ही बन जाओ। इसका अर्थ क्या हुआ? तुम कुछ चूस रहे हो, इसमें तुम चूसने वाले हो, चोषण/Sucking नहीं।तुम चोषण के पीछे खड़े हो। यह सूत्र कहता है कि पीछे मत खड़े रहो, कृत्य में भी सम्मिलित हो जाओ और चोषण बने जाओ।
3-किसी भी चीज से तुम प्रयोग कर सकते हो, अगर तुम दौड़ रहे हो तो ''दौड़ना ही बन जाओ'' और दौड़ने वाले न रहो। दौड़ना बन जाओ और दौड़ने वाले को भूल जाओ। अनुभव करो कि भीतर कोई दौड़ने वाला नहीं है। मात्र दौड़ने की प्रक्रिया है। वह प्रक्रिया तुम हो ..सरिता जैसी प्रक्रिया। भीतर कोई नहीं है , सब शांत है और केवल यह प्रक्रिया है।तुम पानी
पी रहे हो...ठंडा पानी भीतर जा रहा है। तुम पानी बन जाओ। पानी न पीओ। पानी को भूल जाओ। अपने को भूल जाओ,अपनी प्यास को भी, और मात्र पानी बन जाओ।प्रक्रिया में ठंडक है, स्पर्श है, प्रवेश है, और पानी है...वही सब बने रहो।यदि तुम
चोषण/Sucking बन गये तो तुम निर्दोष हो जाओगे। ठीक वैसे जैसे प्रथम दिन जन्मा हुआ शिशु होता है।क्योंकि वह
प्रथम प्रक्रिया है,आधारभूत है।
... SHIVOHAM...
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