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‘रामचरित मानस’ में शंकर-भजन का गुप्त रहस्य,,,

07 FACTS;-

1-लंका-विजय के उपरान्त अयोध्या का राज्य-भार संभालने के बाद का प्रसंग है। एक दिन भगवान श्रीराम ने गुरुजनों तथा पुरजनों को एक सभा में आमंत्रित किया और उन्हें उपदेशित करते हुए कहा कि मानव काया उत्कृष्ट काया है जिसे प्राप्त करना सुरगण के लिए भी दुर्लभ है।यह मनुष्य-शरीर देव-दुर्लभ है? ऐसा क्या वैशिष्ट्य है इसमें? तो, भगवान श्रीराम कहते हैं कि यह नर-तन समस्त साधनों का घर है और कि इसके अन्दर एक ऐसा द्वार भी है जो मोक्षधाम की दिशा में खुलता है। अत: अन्य किसी भी योनि से यह अतुलनीय है। यह मानव देह भवसागर को पार करने के लिए एक नौका के समान है जिसे यदि प्रभु-कृपा रूपी अनुकूल वायु तथा सद्गुरु रूपी कर्णधार मिल जाएँ तो मोक्ष सुलभ हो जाता है।मानव-मात्र को चेताते हुए भगवान ने कहा कि जो मनुष्य नरतन रूपी ऐसे अनमोल साधन को प्राप्त कर भी भवसागर को पार करने का प्रयत्न नहीं करता, वह आत्महिंसक की गति को प्राप्त होता है।| अतः मनुष्य योनि का सर्वश्रेष्ठ साध्य ईश्वर-भक्ति द्वारा मुक्ति की प्राप्ति ही है।अंत में वे कहते हैं –“औरउ एक गुपुत मत, सबहि कहऊँ कर जोरि |संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ||”

2-इसका सामान्य व सरल शब्दार्थ यह हुआ, “आप सभी से कर (हाथ) जोड़कर एक गुप्त बात बतलाता हूँ और वह यह है कि बिना शंकर-भजन किये कोई भी मनुष्य मेरी भक्ति (जो मानव तन का परम पवित्र कर्तव्य है) नहीं पा सकता”।यह जन-साधारण को ज्ञात है कि भगवान शंकर भगवान श्रीराम के उपास्य हैं तथा भगवान श्रीराम भगवान शिव के आराध्य। अत: यदि कोई भगवान शिव की भक्ति करे तो, कोई आश्चर्य नहीं कि, भगवान श्रीराम को निश्चित रूप से प्रसन्नता होगी।इस सन्दर्भ में एक बड़ा ही रोचक प्रसंग है,,,, लंका अभियान के लिए प्रस्थान के पूर्व भगवान् श्रीराम ने समुद्र-तट पर भगवान शंकर का शिवलिंग स्थापित कर उसकी पूजा-अर्चना की थी। कालान्तर में वह पवित्र शिवलिंग व स्थल रामेश्वरम् के नाम से पूजित हुआ। आज भी लाखों की संख्या में भक्तगण प्रतिवर्ष वहाँ जाकर अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं।किसी ने भगवान श्रीराम से पूछा कि ये रामेश्वर कौन हैं? भगवान् राम ने बड़ा ही प्यारा सा जवाब दिया, “रामस्य ईश्वर: य:, स: रामेश्वर: |” अर्थात्, जो राम के ईश्वर हैं, वही रामेश्वर (शिव) हैं।उधर कोई भगवान महादेव के समीप गया और उनसे भी रामेश्वर के सन्दर्भ में जिज्ञासा की – “ये रामेश्वर कौन हैं?”

3-भगवान भोलेनाथ ने अद्भुत् उत्तर दिया, “राम: ईश्वर: यस्य, स: रामेश्वर: |” भगवान शिव कहते हैं कि भगवान राम जिसके ईश्वर हैं, वही रामेश्वर (शिव) हैं।तात्पर्य यह कि दोनों ही एक दूसरे को अपना अभीष्ट मानते हैं। ऐसे में भगवान राम का यह कथन कि बिना भगवान शिव की आराधना किये कोई मेरी भक्ति प्राप्त नहीं कर सकता, बिलकुल युक्तियुक्त अवश्य जान पड़ता है।

परन्तु यहाँ प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यह तो सर्वज्ञात है, भला इसमें गुप्त मत क्या हो सकता है ? ऐसा लगता है कि कुछ न कुछ रहस्य अवश्य है।वास्तव में, 'कर’ शब्द का अर्थ हाथ के अतिरिक्त किरण भी होता है।साधना के क्रम में साधक जब अपनी दृष्टि की युगल किरणों (कर) को एक बिंदु में जोड़ने में सफल हो जाता है तो उसे ब्रह्म-ज्योति के दर्शन होते हैं, आतंरिक नाद सुनने को मिलते हैं, और उसका ऊर्ध्वारोहण स्थूल जगत से सूक्ष्म-लोक में हो जाता है | जहां दृष्टि के दोनों करों का एक बिंदु में योग होता है, उसे सुषुम्ना, दशम द्वार, वज्र कपाट, व आज्ञा चक्र भी कहते हैं |आज्ञा चक्र उसे इसलिए कहते हैं कि जो अपनी दृष्टि धारों को समेटकर, एक केन्द्रित कर स्वयं को स्थूल जगत का अतिक्रमण करने के योग्य बना लेता है, इस चक्र में प्रवेश की दक्षता हासिल कर लेता है, ईश्वर की ओर से उसकी भक्ति स्वीकार करते हुए, उसे ईश्वरीय साम्राज्य में प्रवेश की आज्ञा प्राप्त हो जाती है |वह अज्ञान के अंधकार से ऊपर उठकर ज्ञान के आलोक में प्रतिष्ठित हो जाता है | उसकी समस्त ऐहिक कामनाएं भस्मीभूत हो जाती हैं | उसपर कामदेव के किये सारे वार बेकार होने लगते हैं, क्योंकि उसकी तीसरी आँख का उन्मीलन हो जाता है।

4-तीसरी आँख, जिसे त्रिनेत्र, शिवनेत्र अथवा रूद्राक्ष की संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है |इसी तीसरे चक्षु का उन्मेष कर भगवान भोलेनाथ ने कामदेव (कामनाओं के देव) को भस्मीभूत कर दिया था – “तब शिव तीसर नयन उघारा | चितवत काम भयउ जरि छारा |चूँकि इस भजन का अभ्यास स्वयं भगवान शंकर ने किया था, अत: दृष्टि-साधन की इस क्रिया को शंकर भजन भी कहते हैं। शंकर भगवान के अनेक नामों में से एक नाम ‘शिव’ भी है जिसका अर्थ होता है ‘कल्याणकारी’ | इस दृष्टि से, “शंकर भजन” का अर्थ “कल्याणकारी भजन” भी होता है | मोह रूपी अज्ञान की तमिस्रा को नष्ट कर दिव्य ज्ञान के प्रकाश में प्रतिष्ठित कराने वाले, “तमसो मा ज्योतिर्गमय” की प्रार्थना को अक्षरशः साकार कराने वाले इस साधन से श्रेष्ठतर कल्याणकारी भजन और क्या हो सकता है, जिससे प्रसन्न हो ईश्वर अपने प्रदेश में प्रवेश की आज्ञा प्रदान कर दें ?

5-गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने लोकप्रिय एवं लोकोपयोगी महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ में ‘स’ और ‘श’ में अंतर नहीं किया है और अनेकानेक स्थलों पर अक्षर ‘स’ का प्रयोग दोनों ही परिप्रेक्ष्यों वा अर्थों में किया है | यथा, “समन (शमन) सकल भव रुज परिवारू”, “सुकृत संभु (शम्भु) तन बिमल बिभूती ”, “दलन मोह तम सो सु-प्रकासू (सु-प्रकाशू)”, “कौतुक देखहिं सैल (शैल) बन, भूतल भूरि निधान”, “मोह जनित संसय (संशय) सब हरना”, ‘तेज कृसानु (कृशानु) रोष महिषेसा”, “सम प्रकास (प्रकाश)...ससि (शशि) पोषक सोषक (शोषक) समुझि...” इत्यादि, इत्यादि | अर्थात् रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने दंतस्थ ‘स’ तथा तालव्य ‘श’ दोनों के स्थान पर ‘स’ का ही उपयोग किया है |अत: उपर्युक्त दृष्टि से “संकर-भजन” का अर्थ “शंकर-भजन” के साथ-साथ “संकर-भजन” के सन्दर्भ में भी लिया जा सकता है | दो विजातीय तत्त्वों या जीवों व वर्णों के संयोग से जो उत्पन्न होता है उसे ‘संकर’ या ‘संकरवर्णी’ कहा जाता है | जैसे गधे और घोड़े के संयोग से उत्पन्न खच्चर अथवा दो भिन्न-भिन्न वर्णों के परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध से उत्पन्न संतान को संकर कहा जाता है |

6-उसी तरह, हमारी दृष्टि के जो युगल कर हैं, दृष्टि की जो दोनों दृष्टि धारें (इड़ा/गंगा और पिंगला/यमुना) हैं, उनमें से एक शीत तथा दूसरी उष्म है, एक रजोगुणी है तो दूसरी तमोगुणी, एक इड़ा है तो दूसरी पिंगला, एक गंगा है है तो दूसरी यमुना, एक सूर्य है तो दूसरी चन्द्रमा | इस न्याय से, दृष्टि की इन दो विषम धारों के युक्ति विशेष द्वारा एक बिंदु में जोड़ने (कर जोरि) को ‘संकर-भजन’ कहा जा सकता है |यह संकर-भजन निश्चितरूपेण ही ईश्वर की ओर ले जाने वाला कल्याणकारी भजन, ईश्वर-भक्ति का उत्कृष्ट मार्ग है | और, जो कोई भी इस संकर-भजन का अभ्यास करता है, वह सच्चे अर्थों में ईश्वर-भक्ति करता है, वह सही मायनों में राम (समग्र सृष्टि में रम रहे, सर्वव्यापक तत्त्व) की भक्ति को प्राप्त करता है, इसमें किसी प्रकार के संदेह के लिए किंचितमात्र भी अवकाश नहीं हो सकता |और, “शंकर-भजन” वा ‘संकर-भजन’ का यह स्वरुप अवश्य ही गुप्त है - इसकी इस प्रकार की अभिव्यक्ति इसे गुप्त बना देती है | करों के मिलन का यह स्थल भी अन्तर्निहित होने की वजह से गुप्त है | और, भक्ति (कर जोड़ने) की यह विधि भी जनसामान्य के लिए गुप्त है, जो किसी शुद्ध, प्रबुद्ध, प्रज्ञावान, क्रियावान जीवन्मुक्त गुरु से सीखकर ही संपन्न की जा सकती है।

7-पुस्तकों के अध्ययन अथवा श्रेष्ठजनों के श्रीमुख से श्रवण कर इसका सैद्धान्तिक परिचय तो प्राप्त किया जा सकता है पर इसे संपादित कर पाने के लिए सद्गुरु की नितान्त आवश्यकता है ही|अतः, यह पूर्णतः स्पष्ट और निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि उपर्युक्त दोहे में भगवान श्रीरामचन्द्र किस ‘गुपुत मत’ (गुप्त मत) की और इंगित कर रहे हैं | इसी भाँति हम पायेंगे कि रामचरितमानस में गोसाईं जी ने अन्य कई स्थलों पर आध्यात्मिक जगत के ऐसे सूक्ष्म संकेत छोड़ दिए हैं जो राम-चरित्र के मानसरोवर की गहराइयों में छुपे हुए हैं और जिनका प्रकटीकरण किन्हीं पूर्ण संत के उद्बोधन के उपरांत ही संभव है |वरना, अधिकांश लोग जो इस सरोवर की छिछली सतह पर ही भ्रमण करते रहते हैं, वे गोस्वामी जी को कथाकार और सगुणोपासक कहकर ही समाप्त कर देते हैं |

मानसिक मल या मन की मैल हैं ...

भवसागर से पार होने के लिये मनुष्य शरीर रूपी सुन्दर नौका मिल गई है।जब मन विषयों में आसक्त रहता है तो उसे मानसिक मल कहते हैं। जब संसार की मोहमाया व विषयों से वैराग्य हो जाए तो उसे मन की निर्मलता कहते हैं।

मानसिक तीर्थ हैं ...

सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है, इन्द्रिय निग्रह तीर्थ है, सभी प्राणियों पर दया करना, सरलता, दान, मनोनिग्रह, संतोष, ब्रह्मचर्य, नियम, मन्त्रजप, मीठा बोलना, ज्ञान, धैर्य, अहिंसा, आत्मा में स्थित रहना, भगवान का ध्यान और भगवान शिव का स्मरण—ये सभी मानसिक तीर्थ कहलाते हैं।शरीर और मन की शुद्धि, यज्ञ, तपस्या और शास्त्रों का ज्ञान ये सब-के-सब तीर्थ ही हैं। जिस मनुष्य ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में कर लिया, वह जहां भी रहेगा, वही स्थान उसके लिए नैमिष्यारण, कुरुक्षेत्र, पुष्कर आदि तीर्थ बन जाएंगे।अत: मनुष्य को ज्ञान की गंगा से अपने को पवित्र रखना चाहिए, ध्यान रूपी जल से राग-द्वेष रूपी मल को धो देना चाहिए और यदि वह सत्य, क्षमा, दया, दान, संतोष आदि मानस तीर्थों का सहारा ले ले तो जन्म-जन्मान्तर के पाप धुलकर परम गति को प्राप्त कर सकता है।भगवान के प्रिय भक्त स्वयं ही तीर्थरूप होते हैं। उनके हृदय में भगवान के विराजमान होने से वे जहां भी विचरण करते हैं; वही महातीर्थ बन जाता है।

....SHIVOHAM..


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