top of page

Recent Posts

Archive

Tags

चौथा शिव सूत्र 'ज्ञान का आधार मातृका है'।

NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन

क्या ज्ञान का आधार मातृका है?-

13 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है कि ज्ञान का आधार मातृका है।वास्तव में, मुख से लेकर नाभि तक चक्राकार ‘अ’ से लेकर ‘ह’ तक के समस्त अक्षरों की एक ग्रन्थिमाला है, उस माला के दानों को ‘मातृकायें’ कहते हैं। इन मातृकाओं के योग- दर्शन द्वारा ही ऋषियों ने देवनागरी वर्णमाला के अक्षरों की रचना की है।मातृका अकारादि क्षकारान्त वर्णमाला को ही मातृका कहा जाता है। विभिन्न शास्त्रों में यह शब्दराशि, मालिनी, कालिका, भूतलिपि प्रभृति शब्दों से अभिहित होती है। यही सात करोड़ महामन्त्रों की जननी है।माति, तरति और कायति- इन तीन धातुओं से मातृका पद की निष्पत्ति बताई है। अनाहत मूर्ति, अर्थात् अनाहत नाद मध्यमा वाक् के रूप में यह सारे जगत को अपने में समेटे रहती है। उत्तीर्ण, अर्थात् पश्यन्ती के रूप में यह जगत् से ऊपर उठ जाती है और वैखरी वाणी के रूप में यह नाना नामरूपात्मक प्रपंच का शरीर धारण करती है। इसीलिए इसको मातृका कहा जाता है। तन्त्रसद्भाव नामक ग्रंथ में बताया गया है कि सभी मन्त्र वर्णों से बनते हैं और ये शक्ति से सम्पन्न होते हैं। यह शक्ति मातृका के नाम से शास्त्रों में जानी जाती है, जो कि शिव से अभिन्न है। इस प्रकार परावाक् स्वरूपिणी, अनाहतनादमयी, परमशिव से अभिन्न, 36 तत्त्वों की सृष्टि में कारणभूत परा संवित् को ही तन्त्रशास्त्र में मातृका कहा गया है। 2-यह मातृका पहले बीज और योनि, अर्थात् स्वर और व्यंजन के भेद से द्विधा विभक्त होती है। इसका दूसरा विभाग वर्गात्मक है। सात, आठ या नौ वर्गों का विधान विभिन्न शास्त्रों में वर्णित है। अक्षरों की संख्या के विषय में भी विभिन्न मत हैं। किन्तु 16 स्वर और 43 व्यंजनों वाला विभाग प्रायः सर्वमान्य है।मातृका अ से लेकर ह तक या क्ष तक की वर्णमाला को मातृका कहते हैं। इसे अक्षमाला भी कहा गया है।जिस प्रकार माला से जाप किया जाता है उसी प्रकार मातृका योग का साधक वर्णमाला के एक एक वर्ण पर अवधान को केंद्रित करता हुआ समस्त विश्व को शिव संवित् से परिपूर्ण देखता है। प्रायः अ से लेकर ह पर्यंत वर्णों को ही मातृका में गिना जाता है परंतु कई आचार्यों ने क्ष को भी मातृका में गिना है, जिसे कूट बीज कहा जाता है। मातृका को पराभगवती, परावाक्, भैरवी इत्यादि नामों से भी अभिहित किया गया है। शिवसूत्र वार्तिक में मातृका को शक्ति, देवी, रश्मि, कला, योनिवर्ग तथा माता कहा गया है। मातृका का एक एक वर्ण परमशिव की भिन्न भिन्न शक्तियों का द्योतक माना गया है। इसलिए मातृका को विश्वजननी और परमशिव की परा क्रियाशक्ति माना गया है। शाम्भव योग का अभ्यासी एक ओर से क से लेकर क्ष तक के वर्णों को अपने में प्रतिबिंबित होता हुआ देखता है और साथ ही साथ ऐसा भी अनुभव करता है कि पृथ्वी तत्त्व से लेकर शक्तित्त्व तक का सारा विश्व ही उसकी अपनी ही शक्तियों का प्रतिबिंब है, जो उसके प्रकाश स्वरूप अपने आप में ही दर्पण नगर न्याय से प्रकाशित हो रहा है। यह मातृका उपासना का रहस्य है। छत्तीस तत्त्व मानो अर्थ (रूप) हैं और मातृका के वर्ण उनके नाम हैं।

3-देवनागरी वर्णमाला में कुल 53 अक्षर हैं, जिनमें से 16 स्वर हैं जैसे :- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, ऋ, ॠ, ऌ, ॡ। और 37 व्यंजन होते हैं।जिन वर्णों का उच्चारण करते समय साँस, कण्ठ, तालु आदि स्थानों से बिना रुके हुए निकलती है, उन्हें 'स्वर' कहा जाता है।जिन वर्णों का उच्चारण करते समय साँस कण्ठ, तालु आदि स्थानों से रुककर निकलती है, उन्हें 'व्यंजन' कहा जाता है। इस प्रकार प्रत्येक ज्ञान का आधार मातृका ही है।जो Seen है उससे Extreme और Extreme से Cream तक का ज्ञान मातृका से ही होता है ....

25 स्पर्श व्यंजन है ;-

क ख ग घ ङ ( क वर्ग )

च छ ज झ ञ ( च वर्ग )

ट ठ ड ढ ण ( ट वर्ग )

त थ द ध न ( त वर्ग )

प फ ब भ म ( प वर्ग )-

4 अंतस्थ व्यंजन;-

य र ल व

4 ऊष्म व्यंजन;-

श ष स ह

4 संयुक्त व्यंजन;-

क्ष त्र ज्ञ श्र



4-ह मातृका क्रम में अंतिम ऊष्म वर्ण। यह वर्ण शक्ति तत्त्व को अभिव्यक्त करता है। अ अनुत्तर परमशिव है और ह उसकी शक्ति है। शक्ति और शिव के भीतर ही सारा प्रपंच विद्यमान है। सारे ही प्रपंच का एक शब्द से विमर्श करना हो तो अ के साथ ह को जोड़कर ऊपर अंतःसारता को अभिव्यक्त करने वाले अनुस्वार को लगाकर ‘अहं’ यह महामंत्र बनता है जो परिपूर्ण परमेश्वरता को अभिव्यक्त करता है। क से लेकर ह तक के वर्ण पृथ्वी से लेकर शक्ति तक के तत्त्वों को अभिव्यक्त करते हैं। यह अभिव्यक्ति प्रतिबिंब न्याय से होती है। प्रतिबिंब का आभासन बिंब के आभास से उल्टा होता है। दाँया बाँया हो जाता है और बाँया दाँया, पूर्व पश्चिम हो जाता है और पश्चिम पूर्व। अतः शक्ति रूप प्रथम तत्त्व अंतिम वर्ण ‘ह’ के रूप में और अंतिम तत्त्व पृथ्वी प्रथम वर्ण ‘क’ के रूप में प्रकट हो जाते हैं। शेष सभी तत्त्व भी विपरीत क्रम से ही अभिव्यक्त होते हैं। इस तरह से इन्हें अपने ही संवित् स्वरूप में प्रतिबिंबवत् चमकते हुए देखने के अभ्यास को मातृका योग कहते हैं, जिसमें ह वर्ण का एक प्रमुख स्थान है।

5-देव शक्तियों में डाकिनी, राकिनी, शाकिनी, हाकिनी आदि के विचित्र नामों को सुनकर उनके मशानी जैसी होने का भ्रम होता है।वास्तव में, ऐसा नहीं है।चक्रों के देव जिन मातृकाओं से झंकृत औरसम्बद्ध होते हैं, उन्हें उन देवों की देवशक्ति कहते हैं। ड, र, ल, क, श, के आगे आदि मातृकाओं का बोधक ‘किनी’ शब्द जोडक़र राकिनी, डाकिनी बना दिये गये हैं। यही देव शक्तियाँ हैं।पंचतत्त्वों के अपने- अपने गुण होते हैं। पृथ्वी का गन्ध, जल का रस, अग्रि का रूप, वायु का स्पर्श और आकाश का गुण शब्द होता है।चक्रों में तत्त्वों की प्रधानता के अनुरूप उनके गुण भी प्रधानता में होते हैं।यही चक्रों के गुण हैं।यह चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को वैसे तो समस्त शरीर में प्रवाहित करते हैं, पर एक ज्ञानेन्द्रिय और एक कर्मेन्द्रिय से उनका सम्बन्ध विशेष रूप से होता है।सम्बन्धित इन्द्रियों को वे अधिक प्रभावित करते हैं।चक्रों के जागरण के चिह्न उन इन्द्रियों पर तुरन्त परिलक्षित होते हैं। इसी सम्बन्ध विशेष के कारण वे इन्द्रियाँ चक्रों की इन्द्रियाँ कहलाती हैं।

6-षट्चक्र;-

कुण्डलिनी शक्ति का स्रोत है। वह हमारे शरीर का सबसे अधिक समीप चैतन्य Sparkling है। उसमें बीज रूप से इतनी रहस्यमय शक्तियाँ गर्भित हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं हो सकती। कुण्डलिनी शक्ति के इन छ: केन्द्रों अथार्त षट्चक्रों में भी उसका काफी प्रकाश है। जैसे सौरमण्डल में नौ ग्रह हैं, सूर्य उनका केन्द्र है और चन्द्रमा, मङ्गल आदि उसमें सम्बद्ध होने के कारण सूर्य की परिक्रमा करते हैं, वे सूर्य की ऊष्मा, आकर्षणी, विलयिनी आदि शक्तियों से प्रभावित और ओत- प्रोत रहते हैं, वैसे ही कुण्डलिनी की शक्तियाँ भी चक्रों में प्रसारित रहती हैं।छहों चक्रों का परिचय नीचे दिया जा रहा है ...

7-मूलाधार चक्र-

स्थान- योनि (गुदा के समीप)। दल- चार। वर्ण- लाल। लोक- भू:लोक। दलों के अक्षर- वँ, शँ, षँ, सँ। तत्त्व- पृथ्वी तत्त्व। बीज- लँ। वाहन- ऐरावत हाथी। गुण- गन्ध। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चतुष्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- नासिका। कर्मेन्द्रिय- गुदा। ध्यान का फल- वक्ता, मनुष्यों में श्रेष्ठ, सर्व विद्याविनोदी, आरोग्य, आनन्दचित्त, काव्य और लेखन की सामर्थ्य ।

8-स्वाधिष्ठान चक्र-

स्थान- पेडू (शिश्र के सामने)। दल- छ:। वर्ण- सिन्दूर। लोक- भुव:। दलों के अक्षर- बँ, भँ, मँ, यँ, रँ, लँ। तत्त्व- जल तत्त्व। बीज- बँ। बीज का वाहन- मगर। गुण- रस। देव- विष्णु। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चन्द्राकार। ज्ञानेन्द्रिय- रसना। कर्मेन्द्रिय- लिङ्गं। ध्यान का फल- अहंकारादि विकारों का नाश, श्रेष्ठ योग, मोह की निवृत्ति, रचना शक्ति।

9-मणिपूर चक्र-

स्थान- नाभि। दल- दस। वर्ण- नील। लोक- स्व:। दलों के अक्षर- डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं। तत्त्व- अग्रितत्त्व। बीज- रं। बीज का वाहन- मेंढ़ा। गुण- रूप। देव- वृद्ध रुद्र। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- त्रिकोण। ज्ञानेन्द्रिय- चक्षु। कर्मेन्द्रिय- चरण। ध्यान का फल- संहार और पालन की सामर्थ्य, वचन सिद्धि।

10-अनाहत चक्र-

स्थान- हृदय। दल- बारह। वर्ण- अरुण। लोक- मह:। दलों के अक्षर- कं, खं, गं, घं, ङं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं। तत्त्व- वायु। देवशक्ति- काकिनी। यन्त्र- षट्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- त्वचा। कर्मेन्द्रिय- हाथ। फल- स्वामित्व, योगसिद्धि, ज्ञान जागृति, इन्द्रिय जय, परकाया प्रवेश।

11-विशुद्ध चक्र-

स्थान- कण्ठ। दल- सोलह। वर्ण- धूम्र। लोक- जन:। दलों के अक्षर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, ऋ, ॠ, ऌ, ॡ।‘अ’ से लेकर ‘अ:’ तक सोलह अक्षर।इसीलिए किसी भी शुभ अवसर पर षोडश मातृकाओं की स्थापना कर किए जा रहे कार्य की सफलता के लिए विशेष प्रार्थना की जाती हैं। तत्त्व- आकाश। तत्त्वबीज- हं। वाहन- हाथी। गुण- शब्द। देव- पंचमुखी सदाशिव। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- शून्य (गोलाकार)। ज्ञानेन्द्रिय- कर्ण। कर्मेन्द्रिय- पाद। ध्यान फल- चित्त शान्ति, त्रिकालदर्शित्व, दीर्घ जीवन, तेजस्विता, सर्वहित में कार्य।

12-आज्ञा चक्र-

स्थान- भ्रू। दल- दो। वर्ण- श्वेत। दलों के अक्षर- हं, क्षं। तत्व- मह: तत्त्व। बीज- ऊँ। बीज का वाहन- नाद। देव- ज्योतिर्लिंग। देवशक्ति- हाकिनी। यन्त्र- लिङ्गकार। लोक- तप:। ध्यान फल- सर्वार्थ साधन/Self-Serving Resource।

NOTE;-

षट्चक्रों में उपर्युक्त छ: चक्र ही आते हैं; परन्तु सहस्रार या सहस्र दल कमल को सातवाँ शून्य चक्र भी माना जाता हैं। उसका निम्न वर्णन है—

13-शून्य चक्र-

स्थान- मस्तक। दल- सहस्र। दलों के अक्षर- अं से क्षं तक की पुनरावृत्तियाँ। लोक- सत्य। तत्त्वों से अतीत। बीज तत्त्व- (:) विसर्ग। बीज का वाहन- बिन्दु। देव- परब्रह्म। देवशक्ति- महाशक्ति। यन्त्र- पूर्ण चन्द्रवत्। प्रकाश- निराकार। ध्यान फल- भक्ति, अमरता, समाधि, समस्त ऋद्धि- सिद्धियों का प्राप्त होना।

चक्रों के तत्त्व का क्या अर्थ है?- शरीर पंचतत्त्वों का बना हुआ है। इन तत्त्वों के न्यूनाधिक सम्मिश्रण से विविध अंग- प्रत्यंगों का निर्माण कार्य, उनका संचालन होता है। जिस स्थान में जिस तत्त्व की जितनी आवश्यकता है, उससे न्यूनाधिक हो जाने पर शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। तत्त्वों का यथास्थान, यथा मात्रा में होना ही निरोगिता का चिह्न समझा जाता है। चक्रों में भी एक- एक तत्त्व की प्रधानता रहती है। जिस चक्र में जो तत्त्व प्रधान होता है, वही उसका तत्त्व कहा जाता है।

चक्रों के बीज का क्या अर्थ है?-

ब्रह्मनाड़ी की पोली नली में होकर वायु का अभिगमन होता है, तो चक्रों के सूक्ष्म छिद्रों के आघात से उनमें एक वैसी ध्वनि होती है, जैसी कि वंशी में वायु का प्रवेश होने पर छिद्रों के आधार से ध्वनि उत्पन्न होती है। हर चक्र के एक सूक्ष्म छिद्र में वंशी के स्वर- छिद्र की सी प्रतिक्रिया होने के कारण स, रे, ग, म जैसे स्वरों की एक विशेष ध्वनि प्रवाहित होती है, जो- यँ, लँ, रँ, हँ, जैसे स्वरों में सुनाई पड़ती है, इसे चक्रों का बीज कहते हैं।

चक्रों के वाहन का क्या अर्थ है?-

चक्रों में वायु की चाल में अन्तर होता है।जैसे अंगूठे के बगल की अंगुली वात की नाड़ी होती है जो सांप की तरह चलती है। उसके बगल में मध्यमा अंगुली पित्त की नाड़ी होती है जो मेढ़क की तरह व उसके पास की अंगुली कफ की नाड़ी हंस की भांति चलती है। उस चाल को पहचान कर वैद्य लोग अपना कार्य करते हैं। तत्त्वों के मिश्रण टेढ़ा- मेढ़ा मार्ग, भँवर, बीज आदि के समन्वय से तथा प्रत्येक चक्र में Blood Circulationऔर Air Access के संयोग से एक विशेष प्रकार की चाल दिखाई देती है। यह चाल किसी चक्र में हाथी के समान मन्द , किसी में मगर की तरह डुबकी मारने वाली, किसी में हिरण की- सी छलाँग मारने वाली, किसी में मेढक़ की तरह फुदकने वाली होती है। उस चाल को चक्रों का वाहन कहते हैं।

चक्रों के देवी- देवता का क्या अर्थ है?-

इन चक्रों में विविध दैवी शक्तियाँ समाहित हैं। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि शक्तियों को देवता विशेषों की शक्ति माना गया है अथार्त ये शक्तियाँ ही देवता हैं। प्रत्येक चक्र में एक पुरुष वर्ग की उष्णवीर्य और एक स्त्री वर्ग की शीतवीर्य शक्ति रहती है, क्योंकि पॉजिटिव और नेगेटिव , अग्नि और सोम दोनों तत्त्वों के मिले बिना गति और जीव का प्रवाह उत्पन्न नहीं होता। यह शक्तियाँ ही चक्रों के देवी- देवता हैं।

...SHIVOHAM....






/

コメント


Single post: Blog_Single_Post_Widget
bottom of page