शिवसूत्र-2-'ज्ञानम् बंध:'।
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन ....
06 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है कि 'ज्ञान बंधन है'।सीखा हुआ उधार ज्ञान या दूसरे से लिया हुआ ज्ञान ...बंधन का कारण है।ज्ञान की परिभाषा है कि जो प्रेम पर आधारित है, वही शुद्ध ज्ञान है।और जो ज्ञान प्रेम पर आधारित नहीं है वह तो केवल अज्ञान है।पहला बंधन तो इस बात का है कि 'मैं हूं'।दूसरा बंधन है.. वह सब ज्ञान जो तुमने बाहर से इकट्ठा कर लिये है।अथार्त जो तुमने शास्त्रों से या सदगुरुओं से उधार लिया है।वास्तव में,जो भी तुम्हारी स्मृति है वह सब बंधन है क्योकि सब जाना हुआ उधार है और उससे तुम्हें शक्ति भी नहीं मिलती है।क्योकि शब्दों से भरा हुआ चित्त, जानने में असमर्थ हो जाता है।वह बिना कुछ जाने बहुत ज्यादा जानता है ।एक पंडित का इलाज नहीं है क्योकि उसकी तकलीफ यह है कि वह जानता है। इसीलिए न वह सुन सकता है और न ही समझ सकता है। तुम उससे कुछ भी बोलो, उसने उसका अर्थ कर लिया है।इसके पहले कि वह तुम्हें सुने, उसने व्याख्या निकाल ली है।शास्त्र से अगर ज्ञान मिलता होता, तो शास्त्र सभी के पास है,सभी को ज्ञान मिल गया होता।वास्तव में, ज्ञान तो तब मिलता है, जब कोई निःशब्द हो जाता है और सभी शास्त्रों को विसर्जित कर देता है।
2-जब वह उस सब ज्ञान को, जो दूसरों से मिला है, जगत को वापिस लौटा देता है और उसे खोजता है, जो हमारा मूल अस्तित्व है।मूल अस्तित्व हमें दूसरों से नहीं मिलता है।इसे थोड़ा समझना है।हमारा शरीर हमें मां और पिता से मिलता है ।हमारे शरीर में हमारा तो कुछ भी नहीं है।आधा हमारी मां का दान है और आधा हमारे पिता का दान है। फिर हमारा शरीर हमें भोजन से मिला है और जो भोजन हम करते है वह पांच तत्वों से मिला है।पांचों तत्व अथार्त क्षिति ,जल ,पावक, गगन, समीरा । इसमें हमारा कुछ भी नहीं है। लेकिन हमारी चेतना मां और पिता ,भोजन ,पांचों तत्वों आदि में से किसी से भी नहीं मिलती है ।तुम जो -जो जानते हो वह तुमने स्कूल, विश्वविद्यालय से सीखा है, शास्त्रों से सुना है, गुरुओं से पाया है।वह तुम्हारे शरीर का हिस्सा है...तुम्हारी आत्मा का नहीं। तुम्हारी आत्मा तो वही है जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिली है। तुम्हें उस शुद्ध तत्व को खोजना है, जो केवल तुम्हारा है ...जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला है ।न मां ने दिया न पिता ने , न समाज ने दिया न गुरु ने, और न ही शास्त्र ने ..वही तुम्हारा स्वभाव है।
3-ज्ञान के बहुत अर्थ है। एक तो, जब तक तुम इस ज्ञान से भरे हो कि मैं हूं तब तक तुम अज्ञान में रहोगे; क्योंकि 'मैं' या अहंकार अज्ञान है। जिस दिन तुम आत्मा से भरोगे, उस दिन 'हूं पन' तो रहेगा, 'मैं -पन' नहीं रहेगा।’मैं हूं, इसमें से 'मै' तो कट जायेगा, सिर्फ 'हूं' रहेगा। उदाहरण के लिए कभी किसी बरगद के वृक्ष के नीचे शांत बैठकर खोजो कि तुम्हारे भीतर 'मैं' कहां है? तुम कहीं भी न पाओगे।’हूं, तो तुम सब जगह पाओगे लेकिन ’मैं' कहीं भी न पाओगे।'मैं हूं, यह ज्ञान बंधन का कारण है। सब जगह तुम्हें अस्तित्व मिलेगा, लेकिन अस्तित्व के साथ अहंकार तुम्हें कहीं न मिलेगा।क्योंकि अहंकार तुम्हारा बनाया हुआ है ... झूठा है।उसकी संसार में जरूरत है; लेकिन सत्य में उसका कहीं भी कोई स्थान नहीं है। 'मैं -पन' का बोध, 'हूं -पन' का बोध नहीं है क्योंकि 'हूं -पन' का बोध तो शुद्ध है ....उसमें कोई सीमा नहीं है। जब तुम कहते हो 'हूं, तो तुम्हारे 'हूं में और वृक्ष के 'हूं में कोई फर्क नहीं होता ।जब तुम सिर्फ 'हो', तो नदियां, पहाड़, वृक्ष, सभी एक हो गया।जैसे ही हमने कहा 'मैं', वैसे ही मैं अलग हुआ और अस्तित्व से पृथक हो गया।'हूं पन' ब्रह्म है और 'मैं' मनुष्य की अज्ञान दशा है। जब तुम जानते हो कि सिर्फ 'हूं, तब तुम्हारे भीतर केंद्र नहीं होता।तब सारा अस्तित्व एक हो जाता है। तब तुम उस लहर की तरह हो, जो सागर में खो गई है।परन्तु अभी तुम उस लहर की तरह हो जो जम कर बर्फ हो गई है; सागर से टूट गई है।
4-ज्ञान बंध है ..क्योंकि, वह तुम्हें इस स्वभाव तक न पहुंचने देगा। ज्ञान ने ही तुम्हें बांटा है। तुम कहते हो कि मैं हिंदू हूं या मुसलमान हूं। हिंदू और मुसलमान में फर्क क्या है? क्या कोई डाक्टर उनका खून निकालकर परीक्षा करके बता सकता है कि यह हिंदू का खून है, यह मुसलमान का खून है? शरीर की जांच से तो कुछ भी पता न चलेगा; क्योंकि, दोनों के शरीर पांच तत्त्वों से बनते हैं। लेकिन अगर उन के दिमाग की जांच करो तो पता चल जायेगा कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है; क्योंकि दोनों के सिद्धांत और शब्द अलग हैं।हमारे बीच शब्दों का भेद है या जितने भी फासले है ,दीवाले हैं -वें ज्ञान की दिवाले हैं, और सब ज्ञान उधार है।उदाहरण के लिए एक मुसलमान बच्चे को हिंदू के घर में रख दिया जाये तो वह हिंदू की तरह बड़ा होगा। वह ब्राह्मण की तरह जनेऊ धारण करेगा ;उपनिषद और वेद के वचन उद्धृत करेगा। और अगर एक हिंदू के बच्चे को मुसलमान के घर रख दिया जाये तो वह कुरान की आयत दोहरायेगा।ज्ञान तुम्हें बांटता है; क्योंकि ज्ञान तुम्हारे चारों तरफ एक दीवार खींच देता है। और ज्ञान तुम्हें लड़ाता भी है क्योंकि तुम्हारे जीवन में वैमनस्य और शत्रुता पैदा करता है।
5-थोड़ी देर के लिए कल्पना करो कि अगर तुम्हें कुछ भी न सिखाया जाये कि तुम हिंदू हो, या मुसलमान, या जैन, या पारसी, तो तुम क्या करोगे?वास्तव में, तुम एक मनुष्य की भांति बड़े होओगे ...तुम्हारे बीच कोई दीवार न होगी।दुनियां में जितने भी धर्म हैं उतने ही कारागृह हैं। और हर मनुष्य के पैदा होते ही, उसे एक कारागृह से दूसरे कारागृह में डाल दिया जाता है और उसको ही धर्म शिक्षा कहा जाता हैं। पहले सात साल तक के बच्चों को पकड़ते हैं; क्योंकि सात साल का बच्चा अगर बड़ा हो गया, तो फिर पकड़ना मुश्किल हो जायेगा। और बच्चे को अगर थोड़ा भी बोध आ गया, तो फिर वह सवाल उठाने लगेगा। बच्चे अबोध हैं ;अभी उनका तर्क या विचार नहीं जगा हैं ।इसीलिए वे प्रश्र नहीं पूछ सकते। अभी तुम जो भी कचरा उनके दिमाग में डाल दो, वे उसे स्वीकार कर लेंगे। बच्चे सभी कुछ स्वीकार कर लेते हैं; क्योंकि वे सोचते हैं, जो भी दिया जा रहा है, वह सभी ठीक है।
6-सवाल उठाने के लिए थोड़ी प्रौढ़ता चाहिए।बच्चे खाली बाल्टी होते हैं, उसमें चाहे दूध बढ़ा दो या कीचड़।इसलिए सभी धर्म बच्चों को ही पकड़ते हैं ।फिर ये इतने प्रीतिकर बंधन हैं कि इनको छोड़ने की हिम्मत जुटानी बहुत मुश्किल है। और जब भी तुम इन्हें छोड़ना चाहोगे, एक खतरा सामने आ जायेगा। क्योंकि जैसे ही तुम उन्हें छोड़ोगे, तुम स्वयं को अज्ञानी पाओगे।तुम्हे महसूस होगा कि मैं तो कुछ जानता ही नहीं, बस यह किताब ही सारी संपदा है। इसको सम्हालना ही अपने अज्ञान को छिपाने का एक उपाय है। लेकिन अज्ञान छिपने से बढ़ता है। जैसे कोई अपने घाव को छिपा ले तो घाव भीतर ही भीतर और बढ़ेगा।तुम्हे उस सबको छोड देना है, जो दूसरे से मिला है और उसकी तलाश करनी है, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला।तुम्हे उस चेहरे की खोज में निकलना है जो कि तुम्हारा है। तुम्हारे भीतर चैतन्य का छिपा हुआ एक झरना है , जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला।वही तुम्हारा स्वभाव है ...तुम्हारी निज संपदा है और वही तुम्हारी आत्मा है।
....SHIVOHAM....
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