शिवसूत्र 64-''सुख और दुख बाह्य वृत्तियां है ऐसा सतत जानता है।''
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन ....
07 FACTS;-
1-शिवसूत्र 64... भगवान शिव कहते है ''वह जो शिवत्व को उपलब्ध हुआ, ऐसा सतत जानता है कि सुख और दुख बाह्य वृत्तियां हैं''।वास्तव में, सुख भी बाहर घटता है, दुख भी बाहर घटता है; दोनों में से कोई भी तुम्हारे भीतर नहीं पहुंचता। लेकिन तुम दोनों से परेशान हो जाते हो। तुम सुख और दुख-दोनो को पकड लेते हो और Identify/तादात्म्य कर लेते हो।जैसे ही तुमने कहा ‘मैं सुखी हूं, तुमने दुख के बीज बो दिये। अब जल्दी ही दुख आ जायेगा । क्योंकि दुख का अर्थ है ..Instincts/वृत्तियों के साथ एक हो जाना। फिर जब दुख आयेगा, तब तुम दुख के साथ एक हो जाओगे। तुम्हारी समस्या यह है कि जो भी सामने आता है, तुम उसी के साथ एक हो जाते हो; जो भी दिखाई पड़ता है, उसमें Viewer नहीं बल्कि Experiencer हो जाते हो। दुख आया तो रोने लगते हो,और सुख आया तो नाचने लगते हो।
2-सुख भी बाहर से आता है, दुख भी बाहर से आता है और तुम्हारे भीतर जाने का कोई उपाय नहीं। लेकिन तुम स्वयं अपने सुख -दुख के साथ जुड़कर सुख -दुख भोग लेते हो। जैसे ही कोई व्यक्ति मन के पार गया, उसे फिर दिखाई पड़ने लगता है कि सब बाहर ही हो रहा है, भीतर कुछ नहीं आता। जब दूसरे पर दुख आता है, तब तुम Viewer /साक्षी हो। इसलिए ज्ञान उत्पन्न होता है।इतने ही देखनेवाले जब तुम अपने दुख के लिए हो जाओगे, तब तुम्हें अपने प्रति भी ज्ञान बना रहेगा। अभी तुम्हारा ज्ञान Divided है। सुख आये, तो साक्षी भाव से देखो । देखते ही देखते तुम पाओगे कि सुख खो गया, केवल तुम रह गये। और अगर तुम सुख में सफल हो गये, तो फिर तुम दुख में भी सफल हो जाओगे।चाभी तुम्हारे हाथ में है।तुम दूर खड़े हो सकते हो; क्योंकि शरीर और तुम दूर हो ।एक जड़ है,जो मिट्टी से बना है और एक चेतन है ,जो चैतन्य से बना है। बड़ा फासला है। इससे ज्यादा विपरीत छोर नहीं मिल सकते।सुख से शुरू करो और दुख तक ले जाओ।केवल एक ही बात स्मरण रखो कि तुम बाहर हो।
3-कोई व्यक्ति संसार को छोड़कर भागता है, क्योंकि उसे लगता है कि यहां दुख है।लेकिन जब दुख को छोड़कर भागते हो,तो जो यहां सुख है, वह भी छूट जाता है। एक साधु उदास दिखता हैं क्योंकि दुख को छोड़ भागे हैं,इसीलिए सुख भी छूट गया । उनकी आशा यह थी कि जब वे दुख को छोड़कर भाग जाएंगे, तो सुख ही सुख बचेगा। यहीं भूल है।संसार में दुख भी है और सुख भी। तुम सुख को तो बचाना चाहते हो, लेकिन दुख को छोड़ना चाहतें हो। दुख और उदासी में थोड़ा फर्क है। निराशा की दीर्घकालिक अवस्था ही दुख है।उदासी में एक तीव्रता है ...जब तुम दुख से इतने भर जाते हो कि आंसू बहने लगते हैं ।दो तरह की तीव्रता होती है- एक सुख की और दूसरी दुख की।जो वास्तव में,साधु है, वह सुख -दुख दोनों को छोड़ता है।जैसे ही सुख दुख दोनों को छोड्ता है, उदासी खो जाती है; क्योंकि उदासी उन दोनों का मध्य बिंदु है। जब तुमने दोनों ही छोड दिये, तब मध्य बिंदु भी खो जाता है। और तब एक नये आयाम की यात्रा शुरू होती है, उसे आनंद, शांति कहतें हैं ।
4-आनंद में तीव्रता नहीं है .. ठंडा प्रकाश है ।उदासी सुख और दुख के मध्य में है।आनंद सुख और दुख के पार है। उदासी एक अंधकार की स्थिति है , जहां सब शिथिल हो गया ,आलस्य में पड़ गया। आनंद एक जागृति की अवस्था है ; लेकिन, न वहां सुख है, न दुख है।एक अर्थ में आनंद भी उदासी जैसा है ...वहाँ न सुख है, न दुख है। वहां प्रकाश तो है, लेकिन प्रकाश जैसा नहीं है; क्योंकि, सुख के प्रकाश में भी तीव्रता होती है और पसीना आ जाता है।इसीलिए सुख से भी लोग थक जाते हैं क्योंकि, उसमें भी तीव्रता है। तुम ज्यादा देर सुखी नहीं रह सकते। उदाहरण के लिए अगर तुम्हें प्रतिदिन पार्टी में जाना तो इतना ज्यादा तनाव हो जाएगा कि तुम सो न सकोगे ...विश्राम न कर सकोगे।आनंद Agitated mind की दशा है। वहां प्रकाश तो है, लेकिन ताप नहीं है। वहां एक मौन है, जहां कोई आवाज नहीं होती।सुख और दुख दोनों शरीर के हैं;लेकिन आनंद आत्मा का है ।
5-साधु की परिभाषा हैं कि ...मिल जाए तो बांट कर खाए और न मिले तो नाच कर परमात्मा को धन्यवाद दे कि तुमने तपक्ष्चर्या का एक अवसर दिया।लोग कहते हैं कि संतोषी सदा सुखी है।वास्तव में, संतोषी सिर्फ सुख मानता है,परन्तु भीतर गहरे में दुखी होता है, लेकिन कुछ कर भी नहीं पाता। संतोष में एक उदासी है .. सह लिया, शिकायत न की ...यह मरे हुए चित्त का लक्षण है।मिले तो धन्यवाद, क्योंकि बांटा, फैलाया और न मिला तो भी धन्यवाद। जो भी मिले, उसे बांटे वही साधु है।वह चाहे कुछ भी हो आनंद हो, ज्ञान हो या ध्यान हो।जो भी मिल जाए ,उसे बांट दे। उसे पकडे,बचाये या रोके तो गृहस्थ है।एक बड़े आश्चर्य की बात है ..इस संसार में जो चीजें है, अगर तुम उन्हें बांटों, तो वे कम हो जायेंगी क्योंकि इस संसार में सब कुछ सीमित है ..बांटा गया तो गया। इसलिए संसार में सीमित को पकड़ना पड़ता है।पर इस आदत को आत्मा में ले जाने की कोई जरूरत नहीं; वहां सब संपदा असीम है। वहां अनंत सागर है...जितना बांटों उतना बढ़ता है ...उतना ही नया आता है।
6-साधु के आनंद को नष्ट नहीं किया जा सकता, और एक गृहस्थ किसी तरह दुख को छोड़ भी दे तो बस उदास हो जाता है। वास्तव में,तुम्हें दुख भी काम में लगाये रखता है। तुमने खयाल नहीं किया कि अगर तुम्हारे सब दुख छिन जाएं तो तुम आत्महत्या कर लोगे; क्योंकि फिर कुछ करने को बचेगा नहीं।एक पिता काम में लगा है; क्योंकि बेटों को पढाना है, शादी करनी है। सबकी शादी हो जाए और सबका काम इसी वक्त निपट जाए , तो पिता को जिंदगी बेकार मालूम होगी। बेकार की चीज में तुम्हें लगता है कि तुम कुछ कर रहे हो, महत्वपूर्ण हो ..तुम्हारे बिना दुनिया न चलेगी; इससे तुम्हारे अहंकार को सहारा मिलता है कि तुम आवश्यक हो; तुमसे ही सब चल रहा है। हालांकि, सब तुम्हारे बिना भी चलता रहेगा। तुम नहीं थे, तब भी चल रहा था; तुम नहीं होओगे, तब भी चलेगा। लेकिन, बीच में थोड़ी देर को तुम अपने जरूरी होने का सपना देख लेते हो। तो साधु संतोषी नहीं होता; साधु आनंदित होता है। परिस्थिति कोई भी हो, मिलेगा तो बांटकर आनंदित होगा; नहीं मिलेगा तो न मिलने में भी नाचेगा और आनंदित होगा।
7-‘सुख -दुख बाह्य वृत्तियां हैं, शिवत्व को उपलब्ध योगी ऐसा सतत जानता है।’ ‘सतत’/ Persistent शब्द का अर्थ है .. सदा, सर्वदा ...एक भी क्षण को व्यवधान नहीं। सतत केवल वही हो सकता है जो तुम्हारा स्वभाव हो। जो तुम्हारा स्वभाव नहीं वह सतत नहीं हो सकता।सुख -दुख बाह्य वृत्तियां है, ऐसा तुम्हें साधना पड़ेगा; लेकिन बार बार खो -खो जायेगा। यह सतत तभी होगा, जब तुम अमन, आत्मा स्वरुप हो जाओगे। लेकिन जितनी देर अभ्यास कर सको, करो। उससे रास्ता साफ होगा।जैसे ही तुम होश गवांओगे कि फिर सुख पकड़ लेगा, दुख पकड़ लेगा।सुख और दुख के मध्य में किसी बिंदु को खोजना है , वही सतत हो सकता है।क्योकि ठीक मध्य में संतुलन है। वहां न यह अति है, न वह अति है। तुम कभी सुख के साथ जुड़ जाते हो,तो कभी दुख के साथ जुड़ जाते हो। साक्षी बनो ...मध्य में ठहर जाओ। तब तुम सतत रह पाओगे।मध्य में, शांत अवस्था है। वहां आनंद तो है, लेकिन वह आनंद सूरज की तेज किरणों की भांति नहीं है; बल्कि चांद की शांत किरणों की भांति है।उसमें कोई बेचैनी नहीं है।
....SHIVOHAM...
Comentarios