श्रीकृष्ण कहते हैं कि " सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझ/अनन्य रूप से मेरी शरण में आ जाओ "।
10 FACTS;-
"भगवान श्री, श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यदि तू सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझ कर युद्ध करेगा, तो तू पाप को नहीं, स्वर्ग को उपलब्ध होगा।''
1-भगवान श्री, श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यदि तू सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझ कर युद्ध करेगा, तो तू पाप को नहीं, स्वर्ग को उपलब्ध होगा। यह क्यों और कैसे संभव है? क्या हिंसा तब हिंसा की घटना न रह जाएगी?' पहली तो बात यह कि श्री कृष्ण कहते हैं कि हिंसा एक असत्य है, जो हो नहीं सकती। भ्रम है, जो संभव नहीं है। कोई मारा नहीं जा सकता। "न हन्यते हन्यमाने शरीरे'। शरीर को मार डालने से वह नहीं मरता जो पीछे है; और शरीर मरा ही हुआ है। इसलिए शरीर मरता है, यह कहना व्यर्थ है।श्री कृष्ण पहले तो यह कहते हैं कि हिंसा असंभव है। लेकिन हिंसक-वृत्ति संभव है। तुम किसी को मारना चाहो, यह संभव है। तुम्हारे मारने से कोई नहीं मरेगा, यह दूसरी बात है। तुम मारना चाहते हो, यह बिलकुल दूसरी बात है। तुम मारना चाहते हो, इसमें पाप है; उसके मरने का तो कोई सवाल नहीं है, वह तो मरेगा नहीं। हिंसा में पाप नहीं है, हिंसकता में पाप है। तुमने तो मारना ही चाहा, वह नहीं मरा यह दूसरी बात है। तुम्हारी चाह तो मारने की है। कोई नहीं बचेगा, इसमें पुण्य नहीं है। तुमने बचाना चाहा, तो इसमें पुण्य है। एक व्यक्ति मर रहा है, सब जानते हुए कि मरेगा, तुम बचाने की कोशिश में लगे हो। तुम्हारी बचाने की कोशिश से वह बचेगा नहीं, आज नहीं तो कल मर जाएगा , लेकिन तुम्हारी बचाने की कोशिश में पुण्य है। पाप दूसरे को नुकसान पहुंचाने की वृत्ति है, पुण्य दूसरे को लाभ पहुंचाने की वृत्ति है।
2-और श्रीकृष्ण तीसरी जो बात कहते हैं, वे कहते हैं कि अगर तू पाप और पुण्य, अगर तू सुख और दुख, दोनों के पार उठ जा, तो फिर न पाप है, फिर न पुण्य है। फिर कुछ भी नहीं है। फिर न हिंसा है, न अहिंसा है, अगर तू इन दोनों के ऊपर उठ जाए और जान ले कि उस तरफ हिंसा नहीं होती, तो मैं हिंसा करने के खयाल क्यों करूं? और उस तरफ कोई बचता नहीं, तो मैं नाहक बचाने के पागलपन में क्यों पड़ूं? अगर तू सत्य को देखकर अपनी वृत्तियों को भी समझ ले कि ये वृत्तियां व्यर्थ हैं--असंभव हैं--अगर तू इन दोनों बातों को ठीक से समझ ले, तो तू स्वर्ग को उपलब्ध हो ही गया। हो जाएगा ऐसा नहीं, हो ही गया। क्योंकि ऐसी स्थिति में, जहां सुख और दुख, लाभ और हानि, जय और पराजय, हिंसा और अहिंसा, सब समान हो गई हैं, समत्व उपलब्ध हुआ, ऐसी स्थिति में स्वर्ग मिल ही गया। अब कुछ स्वर्ग बचा नहीं पाने को ।
3-ऐसी स्थिति में, ऐसी समत्व बुद्धि को ही श्रीकृष्ण योग कहते हैं।वह कहते यह हैं कि दो तरह की भ्रांति है। एक भ्रांति तो यह कि कोई मरेगा। और एक भ्रांति यह कि मैं मारूंगा। एक भ्रांति यह कि कोई बचेगा और एक भ्रांति यह कि मैं बचाऊंगा। ये दोनों ही भ्रांतियां हैं। अगर पहली भ्रांति छूट जाए, कि कोई मरता नहीं, कोई बचता नहीं, जो है वह है, अगर यह पहली भ्रांति छूट जाए, तो फिर एक दूसरी भ्रांति बचती है कि कोई नहीं मरता तो भी मैं मारने की कोशिश करता हूं तो पाप है। कोई नहीं बचता तो भी मैं बचाने की कोशिश करता हूं, तो पुण्य है। लेकिन पाप और पुण्य भी अधूरा अज्ञान है। आधा अज्ञान बच गया। अगर यह भी पता चल जाए कि न मैं किसी को बचाता, न कोई बचता; न मैं किसी को मारता, न कोई मरता; अगर यह पूरा ही चला जाए, तो ज्ञान है। फिर ऐसे ज्ञान वाले व्यक्ति को जो हो रहा है, वह होने देता है। बाहर, भीतर, कहीं भी जो हो रहा है वह होने देता है। क्योंकि अब न होने देने का कोई सवाल नहीं। तब वह "टोटल एक्सेप्टिबिलिटी' को, समग्र स्वीकार को उपलब्ध हो जाता है।
तो श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि तू सब देख और स्वीकार कर और जो होता है, होने दे; तू धारा के खिलाफ लड़ मत, तू बह। और फिर तू स्वर्ग को उपलब्ध हो जाता है।
4-श्रीकृष्ण कहते हैं, ''अनन्य रूप से मेरी शरण में आ जाओ''।अनन्य का अर्थ है, जो अपने को मुझसे अन्य न माने। जो मुझको और अपने को भिन्न न माने, अन्य न माने, अदरनेस न रहे–अनन्य हो। अनन्य भाव से मेरे साथ एक हो गया हो।लेकिन फिर दूसरी बात कहते हैं। जब एक ही हो गया हो, तो शरण होने की गुंजाइश कहां रही! क्योंकि शरण तो हम उसी के जा सकते हैं, जो अन्य है,दूसरा है, दि अदर।जो दूसरा नहीं है, उसकी शरण हम कैसे जाएंगे? यह वक्तव्य बहुत कंट्राडिक्टरी /विरोधाभासी है।वास्तव में,जिस दिन न वह बचे, जो शरण जाता है; और न वह बचे, जिसकी शरण जाता है, उसी दिन व्यक्ति शरणागत होता है। जब तक आप बचे हैं और दूसरा बचा है, तब तक आप सिर रख दें चरणों में, आपका अहंकार चरणों में नहीं रखा जाता; वह भीतर खड़ा रहता है।उदाहरण के लिए मंदिरों में देखें; सिर रखे हैं चरणों में और अहंकार अकड़कर खड़े हैं। सिर जमीन पर झुका है, अहंकार आकाश में उठा है , चारों तरफ देख रहा है कि कोई देखने वाला भी मंदिर में है या नहीं? अनन्य भाव में , जब न मैं बचे, न तू बचे, तभी शरण होती है।शरण का अर्थ, समर्पण, सरेंडर। जब तक मैं बचता है, तब तक समर्पण नहीं होता। इसलिए ध्यान रहे, कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि मैं शरण जाता हूं। क्योंकि जब तक कहने वाला मौजूद है कि मैं शरण जाता हूं, तब तक शरण नहीं होगी। जब मैं नहीं रह जाता, तब व्यक्ति अनुभव करता है कि शरण जा चुका, शरणागत हो गया।अनन्य भाव में , न कोई है इस तरफ, न ही कोई दूसरा है उस तरफ, जिस दिन कोई ऐसी भाव-दशा में आता है–अर्थात वीतराग होने से शरणागति फलित होती है। वहां कोई मेरा -तेरा नहीं है।
5-दूसरी बात वे कहते हैं, ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए।यह भी पैराडाक्सिकल है–तप से शुद्ध हुए, इतना कहना भी काफी होता लेकिन ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए।वास्तव में, अक्सर ऐसा होता है कि अज्ञानी बहुत तप कर पाते हैं।अहंकारी बहुत तप कर सकता है, क्योंकि अहंकारी हठी होता है। वह कहता है कि हम तीस दिन व्रत रखेंगे , तो रह सकता है।अहंकार जरा कमजोर हो, तो तीस दिन व्रत रखना मुश्किल हो जाए।अहंकार मजबूत हो, तो व्यक्ति भूखा रह सकता है।तो ध्यान रहे, अहंकारी अक्सर तपश्चर्या में उत्सुक हो जाते हैं। इसलिए आमतौर से तपस्वी अहंकारी मिलते हैं। उसका कारण यह नहीं कि तपस्वी अहंकारी होते हैं, उसका बुनियादी कारण यह है कि अहंकारी आसानी से तपस्वी हो जाते हैं।वास्तव में ,अहंकार जो भी जिद्द पकड़ ले, उसको पूरा करने की कोशिश करता है।तपस्वी अहंकार से तपश्चर्या के रास्ते पर आते हैं। इसलिए हम तपस्या की खूब प्रशंसा करते हैं, शोभायात्रा निकालते हैं।क्योंकि बहुत गहरे में इसकी आकांक्षा है।हम अहंकार को प्रोत्साहित करते हैं, क्योंकि अहंकार के आधार पर तप हो सकता है।लेकिन जो तप अहंकार के आधार पर होता है, उससे आत्मा पवित्र नहीं होती बल्कि अपवित्र हो जाती है।
6-इसलिए श्रीकृष्ण को कंडीशन लगानी पड़ी, कि ज्ञानरूपी तप अर्थात तप ज्ञान से निकलना चाहिए। अकेला तप काफी नहीं है; क्योंकि तप अज्ञानरूपी भी हो सकता है। और जब तप अज्ञान से निकलता है, तो आत्मा को और भी अपवित्र कर जाता है।हमारी पूरी जिंदगी, अज्ञान के केंद्र, अहंकार पर खड़ी होती है।पिता अपने बेटे से कहता है कि देखो पड़ोस का लड़का आगे निकला जा रहा है! हमारे कुल की इज्जत खतरे में है। बेटे के अहंकार को जगाता है। बेटा और रातभर पढ़ने में लग जाता है कि किसी तरह गोल्ड मेडल ले आए, क्योंकि इज्जत का सवाल है।हम अच्छी बात लाने के लिए भी अहंकार का उपयोग करते हैं।चारों तरफ ग्रेट परसुएडर्स /फुसलाने वाले बैठे हुए हैं। वे उस अहंकार को तरकीब से फुसलाकर हमसे काम करवा रहे हैं।हमारी पूरी जिंदगी अहंकार के आधार पर होने वाली तपश्चर्या है।व्यक्ति के लिए दुनिया में कोई सिद्धांत नहीं है। व्यक्ति का केवल एक गहरा सिद्धांत है, ईगो। सारी दुनिया अहंकार की तपश्चर्या में रत है। श्रीकृष्ण बहुत जानकर कहते हैं कि ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुई आत्मा।।तप ज्ञान से निकलने का अर्थ है, कि ज्ञानरूपी तप समर्पण पर निर्भर होगा, अहंकार पर नहीं ।इस फर्क को ठीक से समझ लें। इसलिए पहले उन्होंने कहा, अनन्य रूप से जो मेरी शरण; फिर कहा कि जो ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए हैं।ज्ञानरूपी तप सदा ही समर्पित है। ज्ञानरूपी तप के पीछे यह भाव नहीं है कि मैं तप कर रहा हूं; ज्ञानरूपी तप के पीछे यही भाव है कि परमात्मा जो करवा रहा है, वह मैं कर रहा हूं। वह अगर आग में डाल देता है, तो आग में जलने को तैयार हूं। मैं नहीं जल रहा हूं।
7-समर्पित तपश्चर्या ज्ञानरूपी तप है। परमात्मा के हाथों में जो जीए, वह जो ले आए–दुख तो दुख, सुख तो सुख, अंधेरा तो अंधेरा, उजेला तो उजेला, भोजन तो भोजन, भूख तो भूख–वह जो ले आए, उसके लिए राजी होकर जो जीए, उसकी जिंदगी ज्ञानरूपी तप है। उसका सारा जीवन एक तप है, लेकिन ज्ञानरूपी। वह ईगोइस्ट, वह अहंकार की जिद नहीं है कि मैं कर रहा हूं ऐसा।
उदाहरण के लिए साक्रेटीज एक सांझ अपने घर के बाहर गया। रात देर तक नहीं लौटा ।घर के लोग परेशान। बहुत खोजा, मिला नहीं। फिर सुबह तक राह देखने के सिवाय कोई रास्ता न रहा।सुबह सूरज निकला, तब लोग खोजने गए। देखा कि बर्फ जम गई है उसके घुटनों तक। रातभर गिरती बर्फ में खड़ा रहा। एक वृक्ष से टिका हुआ खड़ा है! आंखें बंद हैं। हिलाया! लोगों ने पूछा, यह क्या कर रहे हो? उसने आंख खोलीं; उसने कहा कि क्या हुआ? नीचे देखा। जैसे दूसरे लोग चकित थे, वैसा ही चकित हुआ। कहा कि अरे! बर्फ इतनी जम गई! रात गई? सूरज निकल आया? तो लोगों ने कहा कि तुम कर क्या रहे हो? होश में हो कि बेहोश? तुम रातभर करते क्या रहे?
8-उसने कहा, मैं कुछ भी न करता रहा। आज रात सांझ को जब यहां आकर खड़ा हुआ, तारों से आकाश भरा था, दूर तक अनंत रहस्य; मेरा मन समर्पित होने का हो गया। मैंने आंख बंद करके अपने को छोड़ दिया इस विराट के साथ। फिर मुझे पता नहीं क्या हुआ। करवाया होगा उसने, मैंने कुछ किया नहीं है।यह हुआ ज्ञानरूपी तप–समर्पित तपश्चर्या, सरेंडर्ड एटिटयूड। फिर जो हो जाए। फिर उसकी मर्जी।जीसस सूली लटकाए जा रहे हैं। एक क्षण को उनके मुंह से ऐसा निकला कि हे परमात्मा! यह क्या दिखला रहा है? क्या तूने मुझे छोड़ दिया? फिर एक क्षण बाद ही उन्होंने कहा, माफ कर। कैसी बात मैंने कही! तेरी मर्जी पूरी हो। दाई विल बी डन। तेरी मर्जी पूरी हो। फिर हाथ पर खीलियां ठोंक दी गईं; गर्दन सूली पर लटक गई; लेकिन फिर जीसस, तेरी मर्जी पूरी हो, उसी भाव में हैं। जीसस की यह सूली ज्ञानरूपी तपश्चर्या हो गई। समर्पित, तेरी मर्जी पूरी हो। बात समाप्त हो गई।जब तक मेरी मर्जी से तपश्चर्या होती है, तब तक अज्ञानरूपी है। और जब उसकी मर्जी से तपश्चर्या होती है, तब ज्ञानरूपी हो जाती है। वह अनन्य शरण का ही दूसरा रूप है।और जब कोई समर्पित होकर तप से गुजरता है, तब आत्मा पवित्र हो जाती है, तब भीतर सब शुद्ध हो जाता है। क्योंकि बड़ी से बड़ी अशुद्धि अहंकार है और बाकी सब अशुद्धियां अहंकार की ही बाई-प्रोडक्ट्स हैं। वे अहंकार से ही पैदा हुई हैं।
9-क्या आपने कभी खयाल किया हैं, अहंकार न हो, तो क्रोध ,लोभ, ईष्या कैसे पैदा हो सकती है! वास्तव में, अहंकार मूल रोग है, मूल अशुद्धि है। बीमारी की जड़ है। बाकी सारी बीमारियां उसी पर आए हुए पत्ते और शाखाएं हैं। इसलिए समर्पण मूल साधना है। समर्पण का अर्थ है, अहंकार की जड़ काट दो! अज्ञानरूपी तपश्चर्या–पत्ते, शाखाएं काटती है।लेकिन जैसा नियम बगीचे का है, वैसा ही नियम मन के बगीचे का भी है। आप पत्ता काटें; पत्ता समझता है कि कलम हो रही है। एक पत्ते की जगह चार निकल आते हैं। आप शाखा काटें; शाखा समझती है, कलम की जा रही है! एक शाखा की जगह चार अंकुर निकल आते हैं। आप क्रोध काटें अहंकार को बिना काटे, और आप पाएंगे कि क्रोध चार दिशाओं में निकलना शुरू हो गया। आप लोभ काटें बिना अहंकार को काटे, और आप पाएंगे, लोभ ने पच्चीस नए मार्ग खोज लिए!अज्ञानरूपी तपश्चर्या शाखाओं से उलझती रहती है और मूल को पानी देती रहती है।शाखाएं फैलती चली जाती हैं। अहंकार की जड़ मजबूत होती चली है।
10-ज्ञानरूपी तपश्चर्या पत्तों से , शाखाओं से नहीं लड़ती, मूल जड़ को काट देती है। वह अनन्य भाव से अपने को समर्पित कर देती है। वह कह देती है, परमात्मा, तू ही सम्हाल। अब न क्रोध मेरा, न क्षमा मेरी। अब न सुख मेरा, न दुख मेरा। अब न जीवन मेरा, न मृत्यु मेरी। अब तू ही सम्हाल। अब तू ही जो करे, कर। अब न मैं छोडूंगा, न पकडूंगा। अब न मैं भागूंगा; न मैं राग करूंगा, न विराग करूंगा। अब तू जो करवाए, मैं राजी हूं।इस राजीपन /एक्सेप्टेबिलिटी का नाम समर्पण है। इस समर्पण से सब शुद्ध हो जाता है, क्योंकि जड़ कट जाती है। जहां अहंकार नहीं, वहां अपवित्रता नहीं। और जहां अहंकार है, वहां अपवित्रता होगी ही। उसके रूप कुछ भी हो सकते हैं। और धार्मिक अपवित्रता अधार्मिक अपवित्रता से बदतर होती है।साधारण अहंकार से तपस्वी अहंकार ज्यादा खतरनाक होता है। साधारण व्यक्तियों के क्रोध से हम महृषि दुर्वासा के क्रोध की तुलना नहीं कर सकते हैं । साधारण व्यक्ति ऐसा क्रोध नहीं कर सकता। क्योंकि साधारण व्यक्ति ने तपश्चर्या से अहंकार को इतना पानी भी नहीं दिया है कि इतना क्रोध कर सके।अज्ञानरूपी तपश्चर्या प्राणों को और अशुद्ध कर जाती है। ज्ञानरूपी तपश्चर्या शुद्ध कर जाती है।
....SHIVOHAM....
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