राग और विराग और वीतराग में क्या भेद है?
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...…
13 FACTS;-
1-राग का अर्थ होता है किसी व्यक्ति वस्तु स्थान से लगाव।विराग इसके विपरीत होता है । विराग का अर्थ होता है विरक्ति । जो राग और विराग दोनों से परे हो ..जिसके राग और विराग दोनों बीत चुके हों उसे वीतराग कहते हैं ।राग का अर्थ है, किसी चीज में आसक्ति; विराग का अर्थ है, उस आसक्ति का विरोध। एक व्यक्ति धन इकट्ठा करता है, यह राग है। और एक व्यक्ति धन को छोड़कर भाग जाता है, यह विराग है।लेकिन दोनों की दृष्टि धन पर लगी है। जो इकट्ठा कर रहा है, वह भी धन का चिंतन करता है। जो छोड़कर जा रहा है, वह भी धन का चिंतन करता है। जिनके पास धन है, वे भी आंकड़े रखते हैं कि कितना है। और जिन्होंने छोड़ा है, वे भी आंकड़े रखते हैं कि कितना छोड़ा है। साधुओं और संन्यासियों की फेहरिस्तें निकलती हैं कि उन्होंने कितने उपवास किए हैं! कितने-कितने प्रकार के उपवास किए हैं। क्योंकि त्याग का भी हिसाब होता है, भोग का भी हिसाब होता है। राग भी हिसाब करता है, विराग भी हिसाब करता है। क्योंकि दोनों की नजर एक है, दोनों का बिंदु एक है, दोनों की पकड़ एक है।
2-वीतराग का अर्थ राग और विराग दोनों से मुक्त होना है। वीतराग का अर्थ है, चित्त की वह स्थिति कि न हम आसक्त हैं, न हम अनासक्त हैं। हमें कोई मतलब ही नहीं है। एक व्यक्ति के पास धन पड़ा हो, उसे कोई मतलब ही नहीं।उदाहरण के लिए
संत कबीर का एक लड़का था, कमाल। कबीर को अत्यंत विराग की आदत थी। कमाल की आदतें उन्हें पसंद नहीं थीं। कमाल को कोई भेंट कर जाता कुछ, तो कमाल रख लेता।संत कबीर ने उसे कई बार कहा कि ‘किसी की भेंट स्वीकार मत करो। हमें धन की कोई जरूरत नहीं।’ उसने कहा, ‘अगर धन बेकार है, तो नहीं कहने की भी क्या जरूरत है?संत कबीर को पसंद नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि ‘तुम अलग रहो।’ उनका विराग इससे खंडित होता था। कमाल अलग कर दिया गया। वह अलग झोपड़े में रहने लगा।काशी के नरेश मिलने जाते थे। उन्होंने पूछा, ‘कमाल दिखाई नहीं पड़ता!’ संत कबीर ने कहा, ‘उसके ढंग मुझे पसंद नहीं ;आचरण शिथिल है ..अलग किया है। पूछा, ‘क्या कारण है?’ कहा, ‘धन पर लोभ है। कोई कुछ देता है, तो ले लेता है।’
वह राजा गया। उसने एक बहुत बहुमूल्य हीरा जाकर उसके पैर में रखा और नमस्कार किया।
3-कमाल ने कहा, ‘लाए भी तो एक पत्थर लाए!’ राजा को हुआ कि संत कबीर तो कहते थे कि उसका मोह है। और वह तो कहता है कि लाए भी तो एक पत्थर लाए! तो वह उठाकर उसे रखने लगा। तो कमाल ने कहा, ‘अगर पत्थर है, तो अब वापस ढोने का कष्ट मत करो।’ नहीं तो अब भी तुम उसको हीरा समझ रहे हो।’ राजा बोला, ‘यह तो कुछ चालाकी की बात है।’ फिर उसने कहा कि ‘मैं इसे कहां रख दूं?’ कमाल ने कहा, ‘अगर पूछते हो कि कहां रख दूं, तो फिर पत्थर नहीं मानते। डाल दो। रखने की क्या बात है!’ फिर उसने झोपड़े में खोंस दिया । वह चला गया। उसने सोचा कि यह तो बेईमानी की बात है। मैं मुड़ा और वह निकाल लिया जाएगा।वह छः महीने बाद वापस पहुंचा। उसने जाकर कहा कि ‘कुछ समय पहले मैं कुछ भेंट कर गया था।’ कमाल ने कहा, ‘बहुत लोग भेंट कर जाते हैं। और अगर उनकी भेंटों में मतलब होता, तो या तो हम उत्सुकता से उनको रखते या उत्सुकता से लौटाते।’ लेकिन भेंट बेमानी है, इसलिए कौन हिसाब रखता है! तुम कहते हो, तो जरूर दे गए होगे।’ उसने कहा, ‘वह भेंट ऐसी आसान नहीं थी; बहुत बहुमूल्य थी। कहां है वह पत्थर जो मैं दे गया था?’ कमाल ने कहा, ‘यह तो मुश्किल हो गयी। तुम कहां रख गए थे?’
4-उसने देखा झोपड़े में जाकर, जहां उसने खोंसा था, वह पत्थर वहीं रखा हुआ था। वह हैरान हुआ। उसकी आंख खुली।
यह व्यक्ति अदभुत था। इसके लिए वह पत्थर ही था। यह विराग नहीं है, यह वीतरागता है।राग है किसी को पकड़ने में रस। विराग है उसी को छोड़ने में रस। वीतरागता का मतलब है, उसका अर्थहीन / मीनिंगलेस हो जाना। वीतरागता ही लक्ष्य है। जो उसे उपलब्ध होते हैं, वे परम आनंद को उपलब्ध होते हैं। क्योंकि बाहर से उनके सारे बंधन क्षीण हो जाते हैं।वीतराग का अर्थ है: जहां न राग है, न विराग है। वहां छाया विसर्जित हो गई है। न किसी के पीछे जाना है, न किसी से भागना है। जो व्यक्ति किसी के पीछे जा रहा है, वह भी अपने से दूर जा रहा है। जो व्यक्ति किसी से भाग रहा है, वह भी अपने से दूर भाग रहा है। जो न किसी के पीछे जा रहा है और न किसी से भाग रहा है, वह अपने में है। अपने में होना सत्य है ,धर्म है ,आत्मा में होना है; परमात्मा को पा लेना है।
5-वीतराग वह है, जो कहता है, धन में कुछ अर्थ ही नहीं है। न मैं तिजोरी में बंद करता, न मैं त्यागता। जिसके लिए धन बस मिट्टी जैसा हो गया , वह त्याग के अहंकार से भी नहीं भरता है।उदाहरण के लिए महृषि याज्ञवल्क्य घर छोड़कर जाने लगे। उसकी दो पत्नियां हैं, कात्यायिनी और मैत्रेयी। उसने उन दोनों को बुलाकर कहा कि मेरी धन-संपदा आधी-आधी बांट देता हूं। मैं अब त्याग करके जाता हूं ,प्रभु की खोज में निकलता हूं।मैत्रेयी साधारण स्त्री थी; राजी हो गई। साधारण स्त्री का मतलब, जिसे पति भी इसीलिए मूल्यवान होता है कि उसके पास संपत्ति है। लेकिन कात्यायिनी ने एक सवाल उठाया। वह साधारण स्त्री न थी। कात्यायिनी ने कहा कि जो धन तुम्हें व्यर्थ हो गया, तो तुम मुझे किसलिए दे जाते हो? अगर व्यर्थ है, तो बोझ मुझे मत दे जाओ। और अगर सार्थक है, तो तुम भी छोड़कर क्यों जाते हो?कात्यायिनी ने बड़ा ठीक सवाल उठाया। अगर व्यर्थ है, राख है, धूल है, तो मुझे देकर इतने गौरवान्वित क्यों होते हो? अगर सार्थक है, तो छोड़कर कहां जाते हो? याज्ञवल्क्य मुश्किल में पड़ गये ।अभी वह सिर्फ विराग में जा रहे थे । कात्यायिनी ने उसे वीतराग के डायमेंशन / आयाम में उन्मुख किया।
6- वीतराग का अर्थ है, बियांड अटैचमेंट; डिटैचमेंट नहीं।श्रीकृष्ण कहते हैं, जो राग के पार हो जाता है–बियांड। वीतराग का अर्थ है, आसक्ति के पार; विरक्त नहीं। विरक्त विपरीत आसक्ति में होता है, पार नहीं होता। वह एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर चला जाता है; दोनों ध्रुव के पार नहीं होता। वह एक द्वंद्व के छोर से द्वंद्व के दूसरे छोर पर सरक जाता है, लेकिन द्वंद्वातीत नहीं होता।
श्रीकृष्ण कहते हैं, जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है। वह तीसरा ही थर्ड डायमेंशन/ आयाम है।
तीन आयाम हैं जगत में। किसी चीज के प्रति राग, अर्थात उसे पास रखने की इच्छा। किसी चीज के प्रति विराग, अर्थात उसे पास न रखने की इच्छा। और किसी चीज के प्रति वीतराग, अर्थात वह पास हो या दूर, अर्थहीन; उससे भेद नहीं पड़ता।शत्रु के प्रति तो सभी विरागी होते हैं; मित्र के प्रति सभी रागी होते हैं।वीतराग का अर्थ है, जिसका न कोई मित्र है, न कोई शत्रु। जिसका चित्त किसी भी चीज से, किसी भी कारण से बंधा हुआ नहीं है। मित्रता से भी बंधा हुआ नहीं; शत्रुता से भी बंधा हुआ नहीं।और ध्यान रहे, मित्र भी बांध लेते हैं और शत्रु भी बांध लेते हैं। मित्रों की भी याद आती है, शत्रुओं की भी याद आती है। सच तो यह है, शत्रुओं की थोड़ी ज्यादा आती है। मित्रों को भूलना आसान है; शत्रुओं को भूलना कठिन है। राग को भूलना आसान है; विराग को भूलना बहुत कठिन है। प्रेम को भूलना आसान; घृणा को भूलना कठिन है। शत्रु पीछा करते हैं, छाया की भांति पीछे होते हैं और बदला लेते हैं। सब विराग बदला लेता है।
7-संन्यस्त होने का अर्थ है, विकल्प में चुनाव छोड़ देना। इसलिए संन्यास संसार के विपरीत विकल्प नहीं है। और जिन लोगों ने संन्यास का अर्थ संसार के विपरीत बना रखा है वे संसार में ही उलझे रहेंगे।लोग कहते हैं कि संन्यास जो है वह संसार के विपरीत है। हम तो तब संन्यासी होंगे जब हम संसार छोड़ेंगे। उनका संन्यास भी द्वंद्व है। संसार और संन्यास उनके लिए दो विरोधी पहलू हैं ।संन्यास का अर्थ ही है निर्द्वंद्व हो जाना। हम चुनते ही नहीं। जो हो जाता है उसे स्वीकार कर लेते हैं, जो नहीं होता उसकी हम मांग नहीं करते; ऐसी भाव-दशा संन्यास है। तब आप कहीं भी संन्यासी हो सकते हैं। तब संन्यास भाव-दशा है; तब विकल्प नहीं है। इसलिए 'समाधिनिष्ठ होकर विकल्पों से शून्य बनना है।' समाधि आती ही तब है, जब कोई विकल्पों से शून्य होता है। और जो चित्त सरल हो गया है, वह चित्त अगर शून्य भी हो जाए, तो सरलता, स्वतंत्रता और शून्यता के मिलने से समाधि उपलब्ध हो जाती है।शून्य का अर्थ है: हम अपने भीतर अपने होने से बहुत भरे हुए हैं ...चौबीस घंटे उसी से भरे हुए हैं। कभी अपने भीतर खोज करें।
8-इसलिए मनुष्य के मन में एक बहुत अदभुत घटना घटती है।और वह घटना यह घटती है कि जो धन को पकड़ते हैं, वे कभी-कभी इंटरवल्स में, बीच-बीच में छुट्टी भी लेते हैं। बीच-बीच में उनका मन आता है, छोड़ो सब; कुछ सार नहीं है। तेईस घंटे दुकान पर होते हैं; कभी घंटेभर मंदिर भी हो आते हैं।लेकिन ध्यान रहे, इससे उलटी घटना भी घटती है। जो चौबीस घंटे मंदिर में रहता है, उसका मन भी घंटे दो घंटे को बाजार में आ जाता है। वह भी छुट्टी लेता है। चौबीस घंटे विरागी होना मुश्किल है और रागी होना भी मुश्किल है। क्योंकि मन थक जाता है, एक ही चीज से ऊब जाता है । इसलिए जो रागी हैं, वे अक्सर विराग के सपने देखते हैं; और जो विरागी हैं, वे राग के सपने देखते हैं। जो रागी हैं, वे कई बार सोचते हैं, सब छोड़-छाड़कर चले जाएं; सब बेकार है। जो विरागी हैं, वे कई बार सोचते हैं कि बड़ी मुश्किल में पड़ गए; नाहक छोड़-छाड़कर आ गए। इसमें कुछ सार नहीं है ।मन द्वंद्वों में डोलता रहता है। मन विश्राम चाहता है। इसलिए बुरे व्यक्तियों के भी अच्छे क्षण होते हैं, और अच्छे व्यक्तियों के भी बुरे क्षण होते हैं। ऐसा बुरा व्यक्ति खोजना मुश्किल है, जिसके अच्छे क्षण न होते हों। और कभी-कभी बुरे व्यक्ति अच्छे क्षणों में साधुओं को पार कर जाते हैं। और अच्छे व्यक्ति भी खोजने मुश्किल हैं, जिनके बुरे क्षण न होते हों क्योकि जब उनके बुरे क्षण होते हैं, तो असाधुओं को पार कर जाते हैं।उसका कारण है। क्योंकि जो व्यक्ति तेईस घंटे कोशिश करके अच्छा है, जब वह एक घंटे बुरा होगा, तो साधारण बुरा नहीं होगा।
9-तेईस घंटे का बदला एक घंटे में चुकाना पड़ेगा। और जो व्यक्ति तेईस घंटे बुरा है, वह जब एक घंटे के लिए अच्छा होगा, तो साधारण अच्छा नहीं होगा; अतिशय अच्छा हो जाएगा। तेईस घंटे की रुकी हुई अच्छाई बदला मांगती है।वीतराग को कभी छुट्टी नहीं लेनी पड़ती है, क्योंकि वीतराग द्वंद्व में नहीं होता। इसलिए सिर्फ वीतरागी पुरुष चौबीस घंटा एक-रस हो सकता है; न रागी हो सकता है, न विरागी हो सकता है। सिर्फ वीतराग एक-रस हो सकता है।वीतराग ऐसा होता है, जैसे हम सागर को कहीं से भी चखें, और वह नमकीन है। बस, ऐसा वीतरागी होता है । वह अपने में इतना आश्वस्त होता है कि अब उसका न कोई भय है, न कोई लोभ है। तुम इस पक्ष में या उस पक्ष में कुछ भी कहो वह निष्पक्ष ही रहेंगे। श्री कृष्ण कहते हैं, जो वीतराग होता, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है। यह जो ब्रह्मांड है, यह जो विश्व है, यह परमात्मा का शरीर है । यह जो दृश्य चारों ओर फैला है, ये चांद तारे , यह सूरज, यह अरबों-अरबों प्रकाश वर्ष की दूरियों तक फैला हुआ यह जो विस्तार है…यह परमात्मा का शरीर है।ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है, विस्तार, वृहत, जो फैलता ही चलता गया; जिसके फैलाव का कोई अंत नहीं है।इस फैले हुए का नाम ब्रह्म है।इस फैले हुए, दिखाई पड़ने वाले अस्तित्व को श्री कृष्ण कहते हैं ...मेरा शरीर।
10-जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।आत्मा को तो हम उपलब्ध ही हैं, हमारी भूल सिर्फ शरीर की है। श्री कृष्ण की आत्मा को तो हम अभी भी उपलब्ध हैं, लेकिन हम अपने-अपने शरीरों में अपने को बंद मान रहे हैं, वह हमारी भूल है। इसलिए श्री कृष्ण आत्मा की बात नहीं करते। उसको तो हम उपलब्ध ही हैं, सिर्फ हमारी यह शरीर की भूल भर टूट जाए । हमें किसी दिन यह पूरा ब्रह्मांड अपना शरीर मालूम पड़ने लगे, बस।हमारी आत्मा तो इस अज्ञान के क्षण में भी श्री कृष्ण का हिस्सा है। हमारी भ्रांति है शरीर की सीमा की। अगर शरीर की सीमा की भ्रांति टूट जाए, और हम कृष्ण के शरीर को– श्रीकृष्ण का शरीर अर्थात ब्रह्मांड को–उपलब्ध हो जाएं, तो बात पूरी हो जाती है। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं, मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है। शरीर का अर्थ है, आत्मा का आवरण। तब चांद तारे मेरे शरीर के भीतर हो जाएंगे; तब मेरी जो चमड़ी है, वह असीम को छू लेगी।संत कहते है कि हमने चांद तारों को अपने शरीर के भीतर परिभ्रमण करते देखा। जब भी कोई राग और विराग के एक क्षण को भी पार हो जाए, उसी क्षण अपने शरीर का स्मरण भूल जाता है, बॉडीलेसनेस आ जाती है, शरीरहीन हो जाता है। और ये दोनों बातें एक ही हैं।ब्रह्म के शरीर को उपलब्ध होना या अपने शरीर को भूल जाना, एक ही बात है। जो व्यक्ति अपने शरीर की सीमा को भूल जाता है, वह ब्रह्म के शरीर की सीमा के स्मरण से भर जाता है।यह शरीर मेरा है, यह हमारे राग और विराग के कारण है।
11-जिसके बिना जीना मुश्किल हो जाएगा, वह आपका शरीर है।हवा की पर्त अगर हटा ली जाए, तो आप जी नहीं सकते।आपकी चमड़ी हवा के बिना एक क्षण नहीं जी सकती है । तो हवा भी आपके शरीर की चमड़ी के पार की एक पर्त है । उसके बिना आप नहीं जी सकते।आप इस भ्रांति में मत रहना कि आपकी सिर्फ नाक ही श्वास ले रही है। रोआं-रोआं श्वास ले रहा है। अगर आपके पूरे शरीर को पेंट कर दिया जाए, और सब रोएं बंद कर दिए जाएं, और सिर्फ नाक खुली छोड़ दी जाए, तो आप पांच-सात मिनट में मर जाएंगे। यह चारों तरफ हवा की जो पर्त है, वह भी आपकी चमड़ी है। उसके बिना आप नहीं जी सकते। दो सौ मील तक पृथ्वी के चारों तरफ हवा की पर्त है। लेकिन वह हवा की पर्त भी नहीं जी सकती, अगर उसके पास सूरज की किरणों का जाल न हो फिर दस करोड़ मील दूर तक सूरज की किरणों का जाल है; वह भी आपकी चमड़ी है। उसके बिना भी आप नहीं जी सकते।वहां सूरज ठंडा हो जाए, तो हम यहां अभी ठंडे हो जाएंगे। हमको पता भी नहीं चलेगा कि हम ठंडे हो गए, क्योंकि पता चलने के लिए भी हमारा बचना जरूरी है। इसलिए सूरज जब ठंडा होगा, तो हम लिखने के लिए बचेंगे नहीं। सूरज ठंडा हुआ कि हम ठंडे हुए। सूरज दस करोड़ मील दूर है, लेकिन सूरज की गर्मी शरीर की हमारी पर्त है । हम Embodied हैं; सूरज की पर्त के भीतर हम हैं; एक बड़ा शरीर है।
12-लेकिन सूरज भी न बचे, अगर महासूर्यों से उसे दिन-रात शक्ति न मिलती हो। हमारा सूरज बड़ा छोटा है। ऐसे हमसे बहुत बड़ा लगता है। पृथ्वी से कोई साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन और सूर्यों के मुकाबले बहुत मीडियाकर /बहुत छोटा सूरज है। रात को जो तारे दिखाई पड़ते हैं, वे महासूर्य हैं। हमारा सूरज कोई तीन-चार अरब महासूर्यों की भीड़ में एक छोटा-सा सूरज है। उससे करोड़ों बड़े सूर्य हैं। अगर उन सूर्यों से उसे दिन-रात ऊर्जा न मिलती हो, तो वह कभी का ठंडा हो जाए। वे भी हमारा शरीर हैं।हमारा शरीर जहां ब्रह्मांड समाप्त होता हो, वहीं समाप्त होता है। उसके पहले समाप्त नहीं होता।एक छोटे-से फूल के खिलने में पूरा ब्रह्मांड सहयोगी है।तों श्री कृष्ण कहते हैं कि जो वीतराग हो जाता है, जो मेरे तेरे के भाव से उठ जाता है; जो आकर्षण-विकर्षण के पार हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।मेरे शरीर का अर्थ है, समस्त ब्रह्मांड उसका शरीर बन जाता है। और जब ब्रह्मांड शरीर बनता है, तभी हमें ब्रह्म का पता चलता है कि हम कौन हैं!
13-जो अपने शरीर के संबंध में ही अज्ञानी हैं, वे अपनी आत्मा के संबंध में ज्ञानी नहीं हो सकते ।दो का भाव भ्रम है, लेकिन बड़ा गहरा है।यह हमारा अलग होना बड़ी से बड़ी भ्रांति, दि ग्रेटेस्ट इलूजन है। हम अलग जरा भी नहीं हैं। एक क्षण को भी हमें अलग कर दिया जाए, तो हम विलीन हो जाएंगे ..बचेंगे नहीं।हमारे अलग होने की भ्रांति वैसी है, जैसे कि नदी पर एक बुलबुला। सूरज की किरणों में चमक रहा है। उस बुलबुले को भी लगता है, मैं अलग।लेकिन वह जरा भी अलग नहीं है।नदी से जरा अलग करें और पता चलेगा, कहीं भी न रहा। नदी के पानी की जरा पतली-सी पर्त उसका शरीर थी; वह पानी में खो गई। हवा का छोटा-सा आयतन उसके भीतर कैद था, वह मुक्त होकर हवा में मिल गया। बस, हम नदी पर तैरते हुए बुलबुले की भांति अलग हैं।इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं कि जिसने भी इस सत्य को जान लिया है , वह मेरे शरीर को, वह ब्रह्मांड के साथ एक हो जाता है।
...SHIVOHAM...
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