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क्या है सपनों का मनोविज्ञान ?PART 01




क्या है स्‍वप्‍न ?-

03 FACTS;-

1-मानव मन की चेतना के तीन स्तर है, जो हैं:- चेतन, अर्धचेतन व अचेतन।(Conscious Mind ,Sub-Conscious Mind and Un-Conscious Mind) अचेतन स्तर के अंतर्गत ऐसी मानसिक क्रियाएँ आती हैं जिनके प्रति लोग जागरूक नहीं होते हैं। यह अचेतन स्तर सभी ऐसी इच्छाओं व विचारों का घर है जो चेतन रूप से जागरूक स्थिति से छिपे हुए होते हैं क्योंकि वे मनोवैज्ञानिक द्वंद्व उत्पन्न करते हैं और व्यक्ति की निजी ज़िंदगी पर प्रभाव डालते हैं। यह विचार अगर मनुष्य की चेतन अवस्था में आ जाएँ तो वह ख़ुद भी भौंचक्का रह जाए। इन स्तम्भित अरमानों को इंसान तक पहुँचाने का ज़रिया हैं स्वप्न।

2-स्वप्न इन्हीं स्तम्भित भावनाओं व इच्छाओं की अभिव्यक्ति का एक ज़रिया है। इस तरह यह दबे अरमान व विचार ख़ुद को सपनों में व्यक्त कर अप्रत्यक्ष रूप से पूर्ण हो जाते हैं और मनुष्य की चेतन अवस्था में न आकर उसे आत्मग्लानि व असहजता के भाव से बचाते हैं। व्यक्ति का हर स्वप्न, किसी न किसी दबी हुई इच्छा या ऐसे स्तम्भित विचार को दर्शाता है जिससे अगर उसका प्रत्यक्ष रूप से साक्षात्कार हो जाए यानि उसकी चेतन अवस्था में आ जाए, तो उसकी व्यक्तिगत ज़िंदगी पे अत्यंत गहरा प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए मनुष्य को इन्हीं हानिकारक प्रभावों से बचाने के लिए अचेतन अवस्था के यह विचार सपनों में ख़ुद को व्यक्त कर अचेतन अवस्था में ही रहकर इंसान की इच्छा को तृप्त करते हैं।

3-मनुष्य की नींद दो प्रकार की निद्रा के चक्र से गुज़रती है जो हैं:- Rapid Eye Movement /आर. ई. एम.और Non Rapid Eye Movement /नॉनआर. ई. एम। निद्रा के प्रारम्भ में Non Rapid Eye Movement निद्रा होती है और सोने के 90 मिनट के पश्चात् व्यक्ति Rapid Eye Movement निद्रा में चला जाता है जिसके दौरान उसकी आँखें विभिन्न दिशाओं में तेज़ गति से घूमती हैं। निद्रा चक्र के इसी भाग में इंसान का दिमाग़ सक्रिय होता है जिसके फलस्वरूप उसे स्वप्नों की अनुभूति होती है। इसलिए, अगर सोते समय सपनों का आभास ना हो तो इसका मतलब यह नहीं की मनुष्य गहरी व सुरीली नींद में लीन है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि उसे Rapid Eye Movement निद्रा का अनुभव नहीं हो रहा है और निद्रा चक्र ठीक तरह से पूर्ण नहीं हो पा रहा है, जिसका इंसान की सेहत पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

क्या जगत अनित्य है?

05 FACTS;- 1-उपनिषद के अनुसार जगत अनित्य है नित्य उसे कहते हैं, जो है, सदा है। जिसमें कोई परिवर्तन या रूपांतरण नहीं होता। जो वैसा ही है, जैसा सदा था और वैसा ही रहेगा।जगत एक धारा है, प्रवाह है।विज्ञान के अनुसार सात साल में आपके शरीर में एक टुकड़ा भी नहीं बचता... सब बह जाता है, शरीर नया हो जाता है। जो मनुष्य सत्तर साल जीता है, वह दस बार अपने पूरे शरीर को बदल लेता है। एक- एक सेल प्रतिपल बदलता जाता है ।आप सोचते हैं कि आप एक दफा मरते हैं, परन्तु आपका शरीर हजार दफे मर चुका होता है। एक- एक शरीर का कोष्ठ मर रहा है, शरीर के बाहर निकल रहा है। भोजन से रोज नए कोष्ठ निर्मित हो रहे हैं।मल के द्वारा तथा अन्य मार्गों से शरीर अपने मरे हुए पुराने कोष्ठों को बाहर फेंक रहा है। 2-आपने खयाल ही नहीं किया होगा कि नाखून काटते हैं, दर्द नहीं होता; बाल काटते हैं, दर्द नहीं होता। क्योकि ये डेड पार्ट्स हैं, इसलिए दर्द नहीं होता। अगर ये शरीर के हिस्से होते, तो काटने से तकलीफ होती।शरीर के भीतर जो कोष्ठ मर गए हैं, उनको बालों के द्वारा, नाखूनों के द्वारा, मल के द्वारा तथा पसीने के द्वारा बाहर फेंका जा रहा है ।प्रतिपल शरीर अपने मरे हुए हिस्सों को बाहर फेंक रहा है और भोजन के द्वारा नए हिस्सों को जीवन दे रहा है। शरीर एक सरिता है, लेकिन भ्रम तो यह पैदा होता है कि शरीर है।इस जगत में कोई चीज क्षणभर भी वही नहीं है, जो थी ..सब बदला चला जा रहा है। इस परिवर्तन को ऋषि अनित्यता कहते है ।अगर हमें यह स्मरण आ जाए कि जगत का स्वभाव ही अनित्य है, तो हम जगत में कोई भी ठहरा हुआ मोह निर्मित न करें। अगर सब चीजें बदल ही जाती हैं, तो हम चीजों को ठहराए रखने काआग्रह छोड़ देंगे ।जवान फिर यह आग्रह न करेगा कि मैं जवान ही बना रहूं, क्योंकि यह असंभव है।जवानी सिर्फ बूढ़े होने की कोशिश है, और कुछ भी नहीं। जवानी बुढ़ापे के विपरीत नहीं, उसी की धारा का अंग है।यह दो कदम पहले की धारा है और बुढ़ापा दो कदम बाद की। 3-अगर हमें यह खयाल में आ जाए कि इस जगत में सभी चीजें प्रतिपल मर रही हैं, तो हम जीने का जो पागल आग्रह है , वह भी छोड़ देंगे। क्योंकि जिसे हम जन्म कहते हैं, वह मृत्यु का पहला कदम है और मृत्यु जन्म का आखिरी कदम है। जिसे मरना नहीं है, उसे जन्मना भी नहीं है। अगर इसे प्रवाह की तरह देखेंगे, तो कठिनाई न होगी। अगर स्थितियों की तरह देखेंगे, तो जन्म, मृत्यु ,जवानी ,और बुढ़ापा सब अलग -अलग है। जगत एक अनित्य प्रवाह है। यहां जन्म भी मृत्यु से ,जवानी भी बुढ़ापे से,सुख भी दुख से , प्रेम भी घृणा से और मित्रता भी शत्रुता से जुड़ी है। और जो भी चाहता है कि चीजों को ठहरा लूं वह दुख और पीड़ा में पड़ जाता है।मनुष्य की चिंता यही है कि जहां कुछ भी नहीं ठहरता, वहां वह ठहराने का आग्रह करता है। अगर किसी के पास धन है, तो सोचता है कि धन ठहर जाए। जिसके पास जो भी है, वह चाहता है कि ठहर जाए। अगर कोई प्रेम करता है, तो चाहता है कि यह प्रेम स्थिर हो जाए। सभी प्रेमी की यही आकांक्षा है कि प्रेम शाश्वत हो जाए। इसलिए सभी प्रेमी दुख में पड़ते हैं। क्योंकि इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं हो सकता .. प्रेम भी नहीं।यहां सभी कुछ बदल जाता है। जगत का स्वभाव बदलाहट है। इसलिए जिसने भी चाहा कि कोई चीज ठहर जाए वह दुख में पड़ेगा। क्योंकि हमारी चाह से जगत नहीं चलता। जगत का अपना नियम है और वह अपने नियम से चलता है। 4-उदाहरण के लिए हमने मनी प्लांट लगाया और सोचने लगे कि यह हरी पत्ती सदा हरी रह जाए तो हम मुश्किल में पड़ेंगे, हमारी चाह ही हमें दिक्कत में डाल देती है कि पत्ती सदा हरी रह जाए। पत्ती तो हरी है ही इसीलिए कि कल वह सूखेगी। उसका हरा होना सूखने की तरफ यात्रा है, सूखने की तैयारी है।अगर हम हरी पत्ती में सूखी पत्ती को भी देख लें, तब हमें पता चलेगा कि जगत अनित्य है। अगर हम पैदा होते बच्चे में भी ,मरते हुए को देख लें, तब हमें पता चलेगा कि जगत अनित्य है। अगर हम जगते हुए प्रेम में उतरता हुआ प्रेम भी देख लें, तब हमें समझ में आएगा कि जगत अनित्य है। सब चीजें ऐसी ही हैं। लेकिन हम क्षण में जीते हैं, क्षण को देख लेते हैं और उसको स्थिर मान लेते हैं, आगे-पीछे को भूल जाते हैं .. जिसके कारण बड़ा कष्ट, बड़ी चिंता पैदा होती है।हमारी /मनुष्य की चिंता, का मूल आधार यही है कि जो रुक नहीं सकता, उसे हम रोकना चाहते हैं। जो बंध नहीं सकता, उसे हम बांधना चाहते हैं। जो बच नहीं सकता, उसे हम बचाना चाहते हैं। मृत्यु जिसका स्वभाव है, उसे हम अमृत देना चाहते हैं। बस, फिर हम चिंता में पड़ते हैं।

5-एंग्जाइटी/ चिंता यही है कि मैं जिसे प्रेम करता हूं वह प्रेम कल भी ठहरेगा या नहीं! कल जिसे मैंने प्रेम किया था, वह आज बचा है कि नहीं बचा! कल जिसने मुझे आदर दिया था, वह आज भी मुझे आदर देगा कि नहीं देगा! कल जिन्होंने मुझे भला माना था, वे आज भी मुझे भला मानेंगे कि नहीं मानेंगे.. बस, चिंता यही है।इसलिए जब -जब दुनिया में पदार्थवाद/ Materialismका आग्रह बढ़ जाता है, तो चिंता बढ़ जाती है । ऋषि कहते हैं, जगत अनित्य है। इसलिए जगत में नित्य को बनाने की चेष्टा पागलपन है। अनित्यता की स्वीकृति ही समझ है, प्रज्ञा है। सब तरफ अनित्यता है और मनुष्य अदभुत है कि वह नित्य मानकर जी रहा है। कुछ भी नहीं बचता, सब बदल जाता है। फिर भी हम आंखें बंद किए बैठे हैं। जहाँ चारों तरफ जल प्रवाह चल रहा है, वहां हम बीच में सपने संजोए बैठे हैं कि सब बच रहेगा । ऋषि कहते है, आंख खोलो और तथ्य को देखो। क्या अनित्य जगत स्वप्त के संसार जैसा है?-

10 FACTS;- 1-स्वप्न और जगत को साथ-साथ रखना भारतीय मनीषा की खोजों में से एक है। दुनिया में किसी ने भी कहने की ठीक -ठीक हिम्मत नहीं की है कि जगत स्वप्‍नवत है ..जस्ट ए ड्रीम। कहना मुश्किल भी है। कोई भी बता सकता है कि आप गलत कह रहे हैं। एक पत्थर उठाकर आपके सिर पर मार दे, तो पता चल जाएगा कि जगत स्वप्‍नवत है या नहीं है। इसके लिए कोई बहुत तर्क देने की जरूरत नहीं है।खून बहने लगेगा, सिर में दर्द शुरू हो जाएगा। जो कह रहा था, जगत स्वप्‍नवत है, वह लट्ठ

लेकर आ जाएगा और दूसरा कहेगा कि जगत स्वप्‍नवत है, तो क्यों परेशान हो रहे हैं?जिन्होंने कहा, जगत स्वप्‍नवत है..वे बड़े हिम्मतवर लोग थे। हमें कुछ बातें समझनी चाहिए। पहली बात तो यह कि स्वप्‍नवत जब हम किसी चीज को कहते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि जो नहीं है। यह गलत है।स्वप्न नहीं है..ऐसा नहीं है, स्वप्‍न भी है और स्वप्न का अस्तित्व भी है। 2- स्वप्‍न का स्वभाव है कि जब होता है, तो प्रतीत होता है कि सत्य है। स्वप्न में पता चलता है कि जो मैं देख रहा हूं वह सत्य है।जैसे ही, स्वप्‍न टूट जाता है, तब पता चलता है कि वह स्वप्न था। स्वप्न के भीतर कभी पता नहीं चलता कि वह स्वप्न है। जब आप स्वप्न में होते हैं, तो स्वप्‍न नहीं होता वह, सत्य ही होता है। और अगर आपको स्मरण आ जाए कि यह स्वप्न है, उसी क्षण फिल्म टूट जाएगी ..सफेद पर्दा हो जाएगा। आप बाहर आ गए। जागकर सुबह पता चलता है कि वह स्वप्‍न था। लेकिन ऋषि कहते हैं कि वह छोड़ो, वह तो स्वप्‍न था ही ..जागकर सुबह जो दिखाई पड़ता है, वह भी स्वप्‍नवत है।यह मकान, यह परिवार, यह मित्र, यह पति /पत्नी, यह बेटे /बेटी , यह धन—यह सब एकदम सत्य मालूम पड़ता है।लेकिन हम कहते हैं,कि कम से कम इसको तो स्वप्न मत कहो!लेकिन ऋषि कहते हैं, एक और जागरण /एनादर अवेकनिंग है ..जो विवेक से उपलब्ध होती है। जब तुम उसमें जागोगे, तब तुम पाओगे कि वह जो तुम जागकर देख रहे थे, वह भी एक स्वप्‍न था। 3-स्वप्‍नवत कहने का अर्थ है, एक तुलना। इसका मतलब यह नहीं है कि सिर में लट्ठ मार देंगे, तो नहीं फूटेगा, खून नहीं बहेगा। सपने में भी सिर में लट्ठ मारने से सिर टूट जाता है और खून बहता है।सपने में भी कोई छाती पर चढ़ जाता है, छुरा भोंकने लगता है, तो छाती कंपने लगती है, रक्तचाप बढ़ जाता है, हृदय धड़कने लगता है और सपने से जागने के बाद भी थोड़ी देर तक धड़कता रहता है। पता भी चल जाता है कि यह सब सपना था, लेकिन अभी भी हृदय की धड़कन तेज है और खून की गति तेज है, रक्तचाप बढ़ा हुआ है। सपने में कोई मर गया था ..रो रहे थे ;सपना टूट गया, पता चल गया कि जो मर गया वह सपने में था, लेकिन आंखें अभी भी आंसू बहाए चली जाती हैं।सपना भी इतना गहरा घुस जाता है ..लेकिन पता चलने के लिए तुलना चाहिए । 4-आइंस्टीन कहा करता था कि जगत एक रिलेटिविटी है, एक तुलना है। जब भी आप कुछ कहते हैं, तो उसका अर्थ है तुलना। कोई सीधी बात नहीं कही जा सकती है।आप कहते हैं, फलां व्यक्ति गोरा है। यह वक्तव्य बिलकुल बेकार है, जब तक आप यह नहीं बताते,..' किससे'।सारे वक्तव्य इस जगत में तुलनात्मक हैं, रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं। जब हम कहते हैं, यह व्यक्ति मर गया, तब भी असल में हमें पूछना चाहिए कि ' किस हिसाब से'? क्योंकि मुर्दे के भी नाखून बढ़ते हैं और बाल बड़े होते हैं।कब्र में रखे हुए मुर्दे के नाखून बड़े हो जाते हैं और बाल बड़े हो जाते हैं। सिर घुटाकर रखो, तो फिर बाल बढ़ जाते हैं। अगर बाल बढ़ने को कोई जीवन का लक्षण समझता हो, तो यह व्यक्ति अभी मरा नहीं है।प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में कोई सात करोड जीवाणु हैं। जब आप मरते हैं, तो जीवाणुओं की संख्या एकदम बढ़ जाती है। अगर हम उनके प्राण का हिसाब रखें, तो यह व्यक्ति अब और भी ज्यादा जीवन से भरा है ।क्योकि पहले तो सात ही करोड़ थे, मरते ही सड़ना शुरू होता है,और जीवाणु बढ़ जाते हैं।

5-वह जो हमारे भीतर जीव कोष्ठ हैं, उनके लिए हम भोजन से ज्यादा कुछ नहीं हैं।वे हमारा भोजन करते हैं और जीते हैं। हर चीज किसी के लिए भोजन होती है, क्योंकि इस जगत में सभी चीज भोजन है। वृक्ष पर एक फल लगता है , आपका भोजन बन जाता है। एक जानवर दूसरे जानवर का भोजन कर लेता है। तो मनुष्य भी किसी और वृहत्तर जीवन का भोजन हो सकता है?इस सापेक्षता से भरे हुए जगत में कोई चीज नित्य / ऐब्सल्युट नहीं हो सकती। सब बदलता हुआ है। हमारे बीच जिन लोगो का विवेक जाग जाता हैं ; उनको बड़ी अड़चन हो जाती है कि ये सारे लोग सोए हुए चल रहे हैं, सपने में जी रहे हैं। मगर उन्हें पता चलता है, हमें पता नहीं चलता। हम सब सपने में एक से ही जी रहे हैं। इसलिए हमारे बीच जब भी कोई व्यक्ति जागता है, तो हमें बड़ी बेचैनी पैदा होती है। हम घसीट -घसीटकर उसको भी सुलाने की पूरी कोशिश करते हैं कि तुम भी सो जाओ। हम उसे भी समझाते हैं कि सपने बड़े मधुर हैं, बड़े मीठे हैं। 6- जब भी कोई व्यक्ति जागने की दिशा में चलेगा, चारों तरफ से आक्टोपस की तरह पंजे पड़ जाएंगे कि सो जाओ। सब तरह के प्रलोभन इकट्ठे हो जाएंगे, और वे कहेंगे कि सो जाओ। क्यौंकि जब भी कोई व्यक्ति हमारे बीच जागता है, तो हमें बड़ी बेचैनी होती है, क्योंकि वह नई वैल्‍यूज/ मूल्य हमारे बीच उतारना शुरू कर देता है। वह कहता है कि तुम सपने में हो , तुम सोए हो, तुम होश में नहीं हो , यह संसार अनित्य है ,सब खो जाने वाला है और सब मिट जाने वाला है।अब कोई व्यक्ति , जो मकान बना रहा है, उससे कहो कि यह संसार अनित्य है , तो वह मानने को राजी नहीं हो सकता कि जो इतने खंडहर पड़े हैं, ऐसा ही उसका मकान भी किसी दिन खंडहर की तरह पड़ा रह जाएगा।जागा हुआ व्यक्ति आपको वे बातें याद दिलाने लगता है, जो दुखद मालूम पड़ती हैं। दुखद इसलिए मालूम पड़ती हैं कि उन बातों को समझकर आप जैसे जीते थे, वैसे ही जी नहीं सकते। आपको अपने को बदलना ही पड़ेगा और बदलाहट कष्ट देती मालूम पड़ती है। हम बदलना नहीं चाहते ; जैसे हैं, वैसे ही रहना चाहते हैं। क्योंकि बदलने में श्रम पड़ता है और जैसे हैं, वैसे बने रहने में कोई श्रम नहीं है। 7-ऋषि कहते हैं, जगत अनित्य है; जिसने उसमें जन्म लिया, अथार्त स्वप्त में जन्म लिया।जैसे कभी आकाश में बादल घिर जाते हैं,तो आप जो चाहें, बादल में बना लें, चाहे शेर देख लें या तोता । छोटे बच्चे चांद में जाने क्या- क्या देखते रहते हैं। आपकी मर्जी हैं, आप जो चाहे प्रोजेक्ट कर लें। आपकी आंखों में सब कुछ है। बादल तो सिर्फ बादल हैं। आप उनमें जो भी बना लें। मनोविज्ञान की किताबो में स्याही के धब्बे चित्र होते हैं। मनोवैज्ञानिक उन धब्बों का उपयोग करते हैं।मरीज उसमें कोई चित्र खोज लेता है तो उसकी वह खोज मरीज के बारे में खबर देती है।वास्तव में, जो हमें दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। जो हम देखते हैं ..वह हम अपने ही भीतर से फैलाते हैं। वह हमारे ही मन का फैलाव हैऔर सब हम पर ही निर्भर है । आकाश में देखे गए शेरो जैसा है यह संसार। खाली बादल हैं, स्याही के धब्बे हैं, उनमें जो हम देखना चाहें, वह देख लेते हैं। 8-जिस जगत में हम रहते हैं, वह हमारी सृष्टि है, हमारा सृजन है। और हमें उस जगत का तो कोई पता ही नहीं है, जो हमारे मन के पार, हम से भिन्न, हमारे सृजन के बाहर है। वह तो केवल उसे ही पता चलता है, जिसका मन मिट जाता है। क्योंकि जब तक मन है, तब तक प्रोजेक्टर है। वह भीतर से काम करता रहता है।एक व्यक्ति के चेहरे में आप सौंदर्य देख लेते हैं। आपको पता है, उसी के चेहरे में कुरूपता देखने वाले लोग मौजूद हैं। एक व्यक्ति में आप सब गुण देख लेते हैं और आपको पता है कि उसके भी दुश्मन हैं अथार्त सब दुर्गुण देखने वाले मौजूद हैं। जो आप देख रहे हैं, वह व्यक्ति तो सिर्फ निमित्त है, आकाश के बादलों जैसा, जो आप देख रहे हैं वह आपका ही फैलाव है। फिर रोज दुख होता है, क्योंकि वह व्यक्ति जैसा है वैसा ही है।वह आपके फैलाव के अनुसार नहीं हो सकता। अब आपने कुछ मान रखा है, तो वह आज नहीं तो कल टूटेगा ही । फिर झंझट शुरू होगी क्योंकि आप एक्सपेक्टेशस बना लेते हैं। 9-बादल में आपने शेर देखा,तो कितनी देर तक वह शेर रहेगा, कहना मुश्किल है। थोड़ी देर में बादल बिखरेगा, कुछ और बन जाएगा। तब आप रोते-चिल्लाते नहीं रहेंगे कि मैंने तो शेर देखा था, यह बहुत धोखा हो गया।हमारी सब अपेक्षाएं ही हमें धोखे में डाल देती हैं। क्योंकि वह तो वही है, जो है। हम कुछ सोच लेते हैं और फिर हम परेशानी में पड़ते हैं, क्योंकि वैसा वह सिद्ध नहीं होता। इसलिए जब तक मन है, तब तक हमें गलत व्यक्ति ही मिलते रहेंगे, क्योंकि हम गलत देखते ही रहेंगे। हम वह देखते रहेंगे, जो वहां है ही नहीं।यह जो हम चित्त का जाल फैला लेते हैं ,यही हमारा स्वप्‍नवत संसार है। मन संसार है ..मन के पार ,संसार के पार/स्वप्‍न के पार उठ जाना है। मन स्वप्न है।वैसे ही यह देह आदि समुदाय मोह के गुणों से युक्त है । यह सब रस्सी में भ्रांति से कल्पित किए गए सर्प के समान मिथ्या है।जैसे राह पर रस्सी पड़ी हो और कोई सांप देख ले।रस्सी में सांप देखना कठिन नहीं है। भयभीत व्यक्ति तत्काल देख लेता है। भयभीत व्यक्ति सांप के लिए तैयार रहता है कि कहीं दिख जाए। पसीना छूट जाता है ..घबड़ाहट फैल जाती है ; हाथ -पैर कंपने ही लगते हैं। रस्सी में देखा गया सांप भी तो वही काम कर देता है, जो असली सांप करता है ;कोई फर्क नहीं है। 10-चौबीस घंटे हम वह देख रहे हैं, जो हम देखना चाहते हैं। रस्सियों में सांप देख रहे हैं। और सांपों में भी रस्सी देखी जा सकती है। तुलसीदास की कहानी तो हम सबको पता है। ऐसा नहीं कि हम रस्सी में ही सांप देखते हैं, हम सांप में भी रस्सी देख लेते हैं। वक्त की बात है और मन के प्रक्षेपण का सवाल है। लेकिन मन कल्पना करता ही है और कल्पना ही मन की क्षमता है। इसलिए मन से कभी सत्य नहीं जाना जा सकता, केवल कल्पनाएं ही की जा सकती हैं। इस मन के द्वारा जो भी हम जानते हैं, वह रस्सी में देखे गए सर्प की भांति है। इसलिए जो नहीं है, वह दिखाई पड़ता है , वह सुनाई पड़ता है ,उसका स्पर्श होता है और हम अपने चारों तरफ अपना ही भ्रम जाल खड़ा करके जीए चले जाते हैं। सत्य से हमारा कोई संबंध नहीं हो पाता।ऋषि कहते हैं, संन्यासी तो उसकी खोज पर निकला है जो है, वह नहीं जो उसका मन कहता है ।दो में से एक ही चुनना पड़ेगा ।अगर जो है, उसे जानना है, तो मन को छोड़ना पड़ेगा । और अगर मन को पकड़ना है, तो कल्पनाओं के जाल के अतिरिक्त.. कभी कुछ भी नहीं जाना जा सकता है।

क्या अर्थ है 'शताभिधान लक्ष्यम्' का।

10 FACTS;- 1-ऋषि कहते हैं,वह अनंत-2 नाम वाला है, सैकड़ों नाम वाला है। कोई उसे ब्रह्म कहता, कोई उसे ब्रह्मा कहता, कोई उसे विष्णु कहता, कोई शिव कहता, कोई कुछ और कहता, वह तो सैकड़ों नाम वाला सत्य है।उसका कोई भी नाम नहीं है, इसीलिए तो सैकड़ों नाम हो सकते हैं। उसे ही पाना है, क्योंकि जो है, उसे पाकर ही दुख का विसर्जन है, चिंता का अंत है, पीड़ा की समाप्ति है, दुख का निरोध है। जो है, उसे जानकर ही मुक्ति है, स्वतंत्रता है ,सत्य के साथ ही अमृत का अनुभव है, मृत्यु की समाप्ति है।लेकिन उसके अनेक नाम हो सकते हैं।ध्यान रखें, अगर उसका कोई एक नाम हो, तो फिर सैकड़ों नाम नहीं हो सकते।वह तो अनाम है। लेकिन मनुष्यों ने अलग -अलग भाषाओं में, युगों में,अनुभवों में उसे बहुत से नाम दिए हैं । उनका इशारा एक है लेकिन शब्द अलग- अलग हैं और इसी से बड़ा उपद्रव पैदा हुआ।नाम सिर्फ नाम है, इशारा है और सब इशारे बेकार हो जाते हैं, जब वह दिख जाए, जिसकी तरफ इशारा है। सभी नाम उसके हैं इसीलिए कोई भी नाम दे दो, 2-हिंदू दृष्टि से ज्यादा उदार दृष्टि पृथ्वी पर पैदा नहीं हो सकी। लेकिन वही हिंदुओं के लिए मुसीबत बन गई। इस सोए हुए जगत में जागे हुए लोगों की बात अगर सोए हुए लोग उपयोग में लाएं, तो बहुत मुसीबत बन सकती है।सभी नाम उसके हैं। कोई , संघर्ष नहीं ,कोई विरोध नहीं ;केवल सभी इशारों से काम चल जाएगा। लेकिन कोई भी नाम पर्याप्त नहीं है ;वह केवल सहयोग दे सकता है।जब सभी नाम उसके हैं, तो जो अल्लाह कहता है, वह भी वही कहता है, जो राम कहने वाला कहता है...काम उसी का हो रहा है।ऋषि कहता है, ब्रह्म कहो, विष्णु कहो, शिव कहो, जो भी कहो, जो है ..वह एक लक्ष्य है। उसे जानना है, जो परिवर्तित नहीं होता, जो शाश्वत है, नित्य है। जो कल भी वही था, आज भी वही है, कल भी वही होगा। जो न नया है, न पुराना है। क्योंकि जो नया है, वह कल पुराना पड़ जाएगा। जो पुराना है, वह कल नया था। 3-जो परिवर्तित होता है, उसे हम नया, पुराना कह सकते हैं। लेकिन जो नित्य है, वह न नया है, न पुराना। वह पुराना नहीं पड़ सकता, इसलिए उसे नया कहने का कोई अर्थ नहीं है ..वह सिर्फ है।वह जो है ,मात्र उसे जानना ही लक्ष्य है। लेकिन उसे जानने के लिए हम जो कल्पनाएं फैलाते हैं, उन्हें तोड़ देना पड़ेगा।हम सब जगत को भरी हुई आंखों से ,भरे हुए मन से देखते हैं , तो खाली आंखों से , खाली मन से देखना पड़ेगा।हम जगत के पास धारणाएं लेकर पहुंचते हैं और उन धारणाओं के पर्दे में से देखते हैं। फिर जगत वैसा ही दिखाई पड़ने लगता है, जैसा हमारी धारणाएं होती है।अगर अस्तित्व को, सत्य को ... देखना है, तो शून्य होकर , मौन होकर ,खाली होकर जाना पड़ेगा। सारी धारणाओं का त्याग करना पड़ेगा।वह सत्य नित्य है, शाश्वत है और सनातन है।जो निर्विचार ,मौन और शून्य खड़ा हो जाता है, वह सत्य के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है । ...SHIVOHAM...


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