संगीत के सात स्वर का क्या अर्थ है?
स्वर क्या है?-
11 FACTS
1-संगीत में वह शब्द जिसका कोई निश्चित रूप हो और जिसकी कोमलता या तीव्रता अथवा उतार-चढ़ाव आदि का, सुनते ही, सहज में अनुमान हो सके, स्वर कहलाता है।जो नाद,जो ध्वनि आपके मन को आनंद से भर दे।उसका नाम स्वर है।ऐसे संगीत के सात स्वरों से संपूर्ण संगीत शास्त्र प्रकट हो गया।जैसे पाणिनी के 14 सूत्रों से पूरा व्याकरण तैयार हुआ ऐसे ही संगीत के सात स्वरों से सम्पूर्ण संगीत शास्त्र निर्मित हुआ। संगीत की साधना जिसने साध लिया वो ईश्वर को पा लिया।भक्तिमती मीरा,स्वामी हरि दास महा प्रभु इन्होंने संगीत साधना से प्रभु को रिझाया। भारतीय संगीत में सात स्वर (notes of the scale) हैं, जिनके नाम हैं - षड्ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद।यों तो स्वरों की कोई संख्या बतलाई ही नहीं जा सकती, परंतु फिर भी सुविधा के लिये सभी देशों और सभी कालों में सात स्वर नियत किए गए हैं। भारत में इन सातों स्वरों के नाम क्रम से षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद रखे गए हैं जिनके संक्षिप्त रूप सा, रे ग, म, प, ध और नि हैं।वैज्ञानिकों ने परीक्षा करके सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ में 256 बार कंप होने पर षड्ज, 298 2/3 बार कंप होने पर ऋषभ,320 बार कंप होने पर गांधार स्वर उत्पन्न होता है; और इसी प्रकार बढ़ते बढ़ते 490 बार कंप होने पर निषाद स्वर निकलता है।
2-तात्पर्य यह कि कंपन जितना ही अधिक और जल्दी जल्दी होता है, स्वर भी उतना ही ऊँचा चढ़ता जाता है। इस क्रम के अनुसार षड्ज से निषाद तक सातों स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं। एक सप्तक के उपरांत दूसरा सप्तक चलता है, जिसके स्वरों की कंपनसंख्या इस संख्या से दूनी होती है। इसी प्रकार तीसरा और चौथा सप्तक भी होता है। यदि प्रत्येक स्वर की कंपन संख्या नियत से आधी हो, तो स्वर बराबर नीचे होते जायँगे और उन स्वरों का समूह नीचे का सप्तक कहलाएगा।भारत में यह भी माना गया है कि ये सातों स्वर क्रमशः मोर, गौ, बकरी, क्रौंच, कोयल, घोड़े और हाथी के स्वर से लिए गए हैं, अर्थात् ये सब प्राणी क्रमशः इन्हीं स्वरों में बोलते हैं; और इन्हीं के अनुकरण पर स्वरों की यह संख्या नियत की गई है। भिन्न भिन्न स्वरों के उच्चारण स्थान भी भिन्न भिन्न कहे गए हैं। जैसे,—नासा, कंठ, उर, तालु, जीभ और दाँत इन छह स्थानों में उत्पन्न होने के कारण पहला स्वर षड्ज कहलाता है। जिस स्वर की गति नाभि से सिर तक पहुँचे, वह ऋषभ कहलाता है, आदि। ये सब स्वर गले से तो निकलते ही हैं, पर बाजों से भी उसी प्रकार निकलते है। इन सातों में से सा और प तो शुद्ध स्वर कहलते हैं, क्योंकि इनका कोई भेद नहीं होता; पर शेष पाचों स्वर दो प्रकार के होते हैं - कोमल और तीव्र। प्रत्येक स्वर दो दो, तीन तीन भागों में बंटा रहता हैं, जिनमें से प्रत्येक भाग 'श्रुति' कहलाता है।
3-विद्वानों ने माना है कि जो ध्वनियाँ निश्चित ताल और लय में होती हैं वहीं संगीत पैदा करती हैं। ध्वनियों के मोटे तौर पर दो प्रकार ‘आहत’ और ‘अनाहत’ ध्वनियाँ हैं. 'अनाहत' ध्वनियां संगीत के लिए उपयोगी नहीं होतीं, इनका अनुभव ध्यान की परावस्था में होता है अतः ‘आहत’ नाद से ही संगीत का जन्म होता है। यह नाद दो वस्तुओं को आपस में रगड़ने, घर्षण या एक पर दूसरी वस्तु के प्रहार में पैदा होता है। ‘आहत’ नाद हम तक कंपन के माध्यम से पहुँचता है। ध्वनि अपनी तरंगों से हवा में हलचल पैदा करती है। ध्वनि तरंगों की चौ़ड़ाई और लम्बाई पर ध्वनि का ऊँचा या नीचा होना तय होता है। संगीत के सात स्वरों में ‘रे’ का नाद ‘सा’ के नाद से ऊँचा है। इसी तरह ‘ग’ का नाद ‘रे’ से ऊँचा है। यह भी कह सकते हैं कि ‘ग’ की ध्वनि में तरंगों की लम्बाई ‘रे’ की ध्वनि–तरंगों से कम है और कम्पनों की संख्या ‘रे’ की तुलना में ज्यादा है। इसके अलावा ध्वनि से सम्बन्धित और भी कई सिद्धान्त हैं जो ध्वनि का भारी या पतला होना, देर या कम देर तक सुनाई देना निश्चित करते हैं। इन्हीं गुणों को ध्यान में रखते हुए संगीत के लिए मुख्यतः सात स्वर निश्चित किये गए। षड्ज, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद स्वर-नामों के पहले अक्षर लेकर इन्हें सा, रे ग, म, प, ध और नि कहा गया। ये सब शुद्ध स्वर है।
4-इनमें ‘सा’ और ‘प’ अचल माने गये हैं क्योंकि ये अपनी जगह से जरा भी नहीं हटते। बाकी पाँच स्वरों को विकृत या विकारी स्वर भी कहते हैं, क्योंकि इनमें अपने स्थान से हटने की गुंजाइश होती है। कोई स्वर अपने नियत स्थान से थो़ड़ा नीचे खिसकता है तो वह कोमल स्वर कहलाता है। और ऊपर खिसकता है तो तीव्र स्वर हो जाता है। फिर अपने स्थान पर लौट आने पर ये स्वर शुद्ध कहे जाते हैं। रे, ग, ध, नि जब नीचे खिसकते हैं तब वे कोमल बन जाते हैं और ‘म’ ऊपर पहुँचकर तीव्र बन जाता है। इस तरह सात शुद्ध स्वर, चार कोमल और एक तीव्र मिलकर बारह स्वर तैयार होते हैं।सात स्वरों को ‘सप्तक’ कहा गया है, लेकिन ध्वनि की ऊँचाई और नीचाई के आधार पर संगीत में तीन तरह के सप्तक माने गये। साधारण ध्वनि को ‘मध्य’, मध्य से ऊपर की ध्वनि को ‘तार’ और मध्य से नीचे की ध्वनि को ‘मन्द्र’ सप्तक कहा जाता है। ‘तार सप्तक’ में तालू, ‘मध्य सप्तक’ में गला और ‘मन्द्र सप्तक’ में हृदय पर जोर पड़ता है। संगीत के आधुनिक-काल के महान संगीतज्ञों पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर और पण्डित विष्णुनारायण भातखण्डे ने भारतीय संगीत परम्परा को लिखने की पद्धित विकसित की। भातखण्डे जी ने सप्तकों के स्वरों को लिखने के लिए बिन्दु का प्रयोग किया।
5-स्वर के ऊपर बिन्दु तार सप्तक, स्वर के नीचे बिन्दु मन्द्र सप्तक और बिन्दु रहित स्वर मध्य सप्तक दर्शाते हैं। इन सप्तकों में कोमल और तीव्र स्वर भी गाये जाते हैं, जिन्हें भातखण्डे लिपि में स्वरों के ऊपर खड़ी पाई (म) लगाकर तीव्र तथा स्वरों के नीचे पट पाई (ग) लगाकर कोमल दर्शाया जाता है। इन स्वरों की ध्वनि का केवल स्तर बदलता है। इनकी कोमलता और तीव्रता बनी रहती है।संगीत में स्वर को लय में निबद्ध होना पड़ता है। लय भी सप्तकों की तरह तीन स्तर से गुजरती है जैसे सामान्य लय को ‘मध्य लय,’ सामान्य से तेज लय को ‘द्रुत लय’ तथा सामान्य से कम को ‘विलिम्बित लय’ कहा जाता है। संगीत में समय को बराबर मात्राओं में बाँटने पर ‘ताल’ बनता है। ‘ताल’ बार-बार दोहराया जाता है और हर बार अपने अन्तिम टुक़ड़े को पूरा कर समय के जिस टुकड़े से शुरू हुआ था उसी पर आकर मिलता है। हर टुकड़े को ‘मात्रा’ कहा जाता है। संगीत में समय को मात्रा से मापा जाता है। तीन ताल में समय या लय के 16 टुकड़ें या मात्राएँ होती हैं। हर टुकड़े को एक नाम दिया जाता है, जिसे ‘बोल’ कहते हैं। इन्हीं बोलों को जब वाद्य पर बजाया जाता है तो उन्हें ‘ठेका’ कहते हैं।
6-‘ताल’ की मात्राओं को विभिन्न भागों में बाँटा जाता है, जिससे गाने या बजाने वाले को यह मालूम रहे कि वह कौन सी मात्रा पर है और कितनी मात्राओं के बाद वह ‘सम’ पर पहुँचेगा। तालों में बोलों के छंद के हिसाब से उनके विभाग किए जाते हैं। जहाँ से चक्र दोबारा शुरू होता है उसे ‘सम’ कहा जाता है। ‘ताल’ में ‘खाली’ 'भरी' दो महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। ‘ताल’ के उस भाग को भरी कहते हैं जिस पर बोल के हिसाब से अधिक बल देना है। ‘भरी पर ताली दी जाती हैं। ‘ताल’ में खाली उम भाग को कहते हैं जिस पर ताली नहीं दी जाती और जिससे गायक को सम के आने का आभास हो जाता है। ताल लय को गाँठता है और उसे अपने नियंत्रण में रखता है।जब 12 स्वर खोज लिए गये होंगे तब उन्हें इस्तेमाल करने के तरीके ढूँढ़े गये। 12 स्वरों के मेल से ही कई राग बनाए गये। उनमें से कई रागों में समानता भी थी। कवि लोचन ने ‘राग-तरंगिणी’ ग्रंथ में 16 हजार रागों का उल्लेख किया है, लेकिन इतने सारे रागों में से चलन में केवल 16 राग ही थे। राग उस स्वर समूह को कहा गया जिसमें स्वरों के उतार-चढ़ाव और उनके मेल में बनने वाली रचना सुनने वाले को मुग्ध कर सके। यह जरूरी नहीं कि किसी भी राग में सातों स्वर लगें। यह तो बहुत पहले ही तय कर दिया गया था कि किसी भी राग में कम से कम पाँच स्वरों का होना जरूरी है। ऐसे और भी नियम बनाये गये थे जैसे षड्ज यानी ‘सा’ का हर राग में होना बहुत ही जरूरी है क्योंकि वही तो हर राग का आधार है।
7-कुछ स्वर जो राग में बार-बार आते हैं उन्हें ‘वादी’ कहते हैं और ऐसे स्वर दो ‘वादी’ स्वर से कम लेकिन अन्य स्वरों से अधिक बार आएँ उन्हें ‘संवादी’ कहते हैं। लोचन कवि ने 16 हजार रागों में से कई रागों में समानता पाई तो उन्हें अलग-अलग वर्गों में रखा। उन्होंने 12 वर्ग तैयार किये जिनमें से हर वर्ग में कुछ-कुछ समान स्वर वाले राग शामिल थे। इन वर्गों को ‘मेल’ या ‘थाट’ कहा गया। ‘थाट’ में 7 स्वर अर्थात् ‘सा’, ‘रे,’ ‘ग’, ‘म’, ‘प’,‘ध’, ‘नि’, होने आवश्यक है। यह बात और है कि किसी ‘थाट’ में कोमल और किसी में तीव्र स्वर होंगे या मिले-जुले स्वर होंगे। इन ‘थाटों’ में वही राग रखे गये जिनके स्वर मिलते-जुलते थे। इसके बाद सत्रहवीं शताब्दी में दक्षिण के विद्वान पंडित श्रीनिवास ने सोचा कि रागों को उनके स्वरों की संख्या के सिहाब से ‘मेल’ में रखा जाये यानी जिन रागों में 5 स्वर हों वे एक ‘मेल’ में, छः स्वर वाले दूसरे और 7 स्वर वाले तीसरे ‘मेल’ में। कई विद्वानों में इस बात को लेकर चर्चा होती रही कि रागों का वर्गीकरण ‘मेलों’ में कैसे किया जाये। दक्षिण के ही एक अन्य विद्वान व्यंकटमखी ने गणित का सहारा लेकर कुल 72 ‘मेल’ बताए। उन्होंने दक्षिण के रागों के लिए इनमें से 19 ‘मेल’ चुने। इधर उत्तर भारत में विद्वानों ने सभी रागों के लिए 32 ‘मेल’ चुने। अन्ततः भातखण्डेजी ने यह तय किया कि उत्तर भारतीय संगीत के सभी राग 10 ‘मेलों’ में समा सकते हैं। ये ‘मेल’। कौन-कौन से हैं इन्हें याद रखने के लिए ‘चतुर पण्डित’ ने एक कविता बनाई। चतुर पण्डित कोई और नहीं स्वयं पण्डित भातखण्डे ही थे। इन्होंने कई रचनाएँ ‘मंजरीकार’ और ‘विष्णु शर्मा’ नाम से भी रची है।
यमन, बिलावल और खमाजी, भैरव पूरवि मारव काफी।
आसा भैरवि तोड़ि बखाने, दशमित थाट चतुर गुनि मानें।।
8-उत्तर भारतीय संगीत में ‘कल्याण थाट’ या ‘यमन थाट’ से भूपाली, हिंडोल, यमन, हमीर, केदार, छायानट व गौड़सारंग, ‘बिलावट थाट’ से बिहाग, देखकार, बिलावल, पहा़ड़ी, दुर्गा व शंकरा, ‘खमाज थाट’ से झिझोटी, तिलंग, खमाज, रागेश्वरी, सोरठ, देश, जयजयवन्ती व तिलक कामोद, ‘भैरव थाट’ से अहीर भैरव, गुणकली, भैरव, जोगिया व मेघरंजनी, ‘पूर्वी थाट’ से पूरियाधनाश्री, वसंत व पूर्वी, ‘काफी थाट’ से भीमपलासी, पीलू, काफी, बागेश्वरी, बहार, वृंदावनी सारंग, शुद्ध मल्लाह, मेघ व मियां की मल्हार, ‘आसावरी थाट’ से जौनपुरी, दरबारी कान्हड़ा, आसावरी व अड़ाना, ‘भैरवी थाट’ से मालकौंस, बिलासखानी तोड़ी व भैरवी, ‘तोड़ी थाट’ से 14 प्रकार की तोड़ी व मुल्तानी और ‘मारवा थाट’ से भटियार, विभास, मारवा, ललित व सोहनी आगि राग पैदा हुए। आज भी संगीतज्ञ इन्हीं दस ‘‘थाटों’ की मदद से नये-नये राग बना रहे हैं। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि हर ‘थाट’ का नाम उससे पैदा होने वाले किसी विशेष राग के नाम पर ही दिया जाता है। इस राग को ‘आश्रय राग’ कहते हैं क्योंकि बाकी रागों में इस राग का थोड़ा-बहुत अंश तो दिखाई ही देता है।
9-‘राग’ शब्द संस्कृत की धातु 'रंज' से बना है। रंज् का अर्थ है - रंगना। जिस तरह एक चित्रकार तस्वीर में रंग भरकर उसे सुंदर बनाता है, उसी तरह संगीतज्ञ मन और शरीर को संगीत के सुरों से रंगता ही तो हैं। रंग में रंग जाना मुहावरे का अर्थ ही है कि सब कुछ भुलाकर मगन हो जाना या लीन हो जाना। संगीत का भी यही असर होता है। जो रचना मनुष्य के मन को आनंद के रंग से रंग दे वही काग कहलाती है। हर राग का अपना एक रूप, एक व्यक्तित्व होता है जो उसमें लगने वाले स्वरों और लय पर निर्भर करता है। किसी राग की जाति इस बात से निर्धारित होती हैं कि उसमें कितने स्वर हैं। आरोह का अर्थ है चढना और अवरोह का उतरना। संगीत में स्वरों को क्रम उनकी ऊँचाई-निचाई के आधार पर तय किया गया है। ‘सा’ से ऊँची ध्वनि ‘रे’ की, ‘रे’ से ऊँची ध्वनि ‘ग’ की और ‘नि’ की ध्वनि सबसे अधिक ऊँची होती है। जिस तरह हम एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए किसी मकान की ऊपरी मंजिल तक पहुँचते हैं उसी तरह गायक सा-रे-ग-म-प-ध-नि-सां का सफर तय करते हैं। इसी को 'आरोह' कहते हैं। इसके विपरीत ऊपर से नीचे आने को 'अवरोह' कहते हैं। तब स्वरों का क्रम ऊँची ध्वनि से नीची ध्वनि की ओर होता है जैसे सां-नि-ध-प-म-ग-रे-सा। आरोह-अवरोह में सातों स्वर होने पर राग ‘सम्पूर्ण जाति’ का कहलाता है। पाँच स्वर लगने पर राग ‘औडव’ और छह स्वर लगने पर ‘षाडव’ राग कहलाता है।
10-यदि आरोह में सात और अवरोह में पाँच स्वर हैं तो राग ‘सम्पूर्ण औडव’ कहलाएगा। इस तरह कुल 9 जातियाँ तैयार हो सकती हैं जिन्हें राग की उपजातियाँ भी कहते हैं। साधारण गणित के हिसाब से देखें तो एक ‘थाट’ के सात स्वरों में 484 राग तैयार हो सकते हैं। लेकिन कुल मिलाकर कोई डे़ढ़ सौ राग ही प्रचलित हैं। मामला बहुत पेचीदा लगता है लेकिन यह केवल साधारण गणित की बात है। आरोह में 7 और अवरोह में भी 7 स्वर होने पर ‘सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति’ बनती है जिससे केवल एक ही राग बन सकता है। वहीं आरोह में 7 और अवरोग में 6 स्वर होने पर ‘सम्पूर्ण षाडव जाति’ बनती है।स्वर शब्द का अर्थ क्या है?जो सब में व्याप्त हो पूरी प्रकृति में व्याप्त हो।जैसे ईश्वर व्याप्त है ऐसे ही प्रकृति में स्वर व्याप्त है।पर फिर भी "व्यापक ईश्वर को प्रकट करने के लिए हमने मूर्तिमान विग्रह मंदिर बनायें।ऐसे ही उस व्यापक स्वर को प्रकट करने के लिए सप्त स्वर मूर्ति मंत्र किए।
11-सात स्वर है....
भगवान प्रजापति ब्रह्मा जी के विहार से अर्थात क्रीडा से गान्धर्वेद के सा रे गा मा प ध नी सा, ये सात स्वरों का प्रादुर्भाव हुआ है।ये सात स्वर प्रकट हुए पशु पक्षियों की आवाज सुनकर.. ऋषियों ने संगीत के सात स्वरों को प्रकट किया।
संगीत का प्रथम स्वर है "षडज।इनके नाम है-षडज,ऋषभ,गांधार,मध्यम्,पंचम,धैवत,निषाद।ये सात स्वर है-
इसी को सा,रे,ग,म,प,ध,नि। कहा जाता है।षडज-की उत्पत्ति हुई मोर की आवाज से।ऋषभ-की उत्पत्ति हुई चातक की आवाज से।गांधार-की उत्पत्ति हुई बकरी की आवाज से।मध्यम-की उत्पत्ति हुई क्रौंच की आवाज से।पंचम-की उत्पत्ति हुई कोयल की आवाज से।पंचम स्वर में कोयल बोले ।धैवत-की उत्पत्ति हुई दादुर/मेढ़क की आवाज से।निषाद-की उत्पत्ति हुई हाथी की आवाज चिग्घाड़ से।ऐसे संगीत के सात स्वर है जो पशु पक्षियों की ध्वनियों से प्रकट हुई है।इस प्रकार संगीत के सात स्वर प्रकट हुए ।सभी राग रागनियों के गायन इन सात स्वरों के अन्तर्गत ही होते हैं। राग रागनियों की संख्याएं तो अनन्त हो सकती हैं, किन्तु इन सात स्वरों में ही होंगे।नारद जी कहते है ये सातों स्वर ब्रह्म व्यंजक होने के नाते ही ब्रह्म रूप कहे गये है।
षडजं वदेन् मयूरो हि,ऋषभं चातको वदेत्!
अजा वदेति गांधारं, क्रौचो वदति मध्यमम्!
पुष्प साधारण काले, कोकिलः पंचम वदेत्!
दर्दुरो धैवतं चैव,निषादम् वदेत् गजः!
गायत्री आदि छंदों की उत्पत्ति ;-
श्रीमद् भागवत के तृतीय स्कंध के 12 वें अध्याय के 46 वें 47 वें और 48 वें श्लोक में मैत्रेय ऋषि ने विदुर जी को सम्पूर्ण विश्व के निर्माण को बताते हुए, मनुष्यों में विद्यमान विविध विद्याओं की उत्पत्ति और 24 अक्षर वाले गायत्री छन्द आदि की उत्पत्ति बताते हुए,सा रे ग म प ध नी सा इन सात स्वरों की उत्पत्ति बताकर, अ से लेकर ज्ञ तक के वर्णों की अनादिकालीन उत्पत्ति बताते हुए कहा कि - जिसने वनस्पतियों का निर्माण किया है। कीट-पतंगों से लेकर देवताओं तक का निर्माण किया है। नारद, वसिष्ठ, पुलस्त्य आदि ऋषियों का निर्माण किया है। मनुष्यों का निर्माण किया है,उस ब्रह्म शब्द से कहे जानेवाले भगवान ने ही इस सृष्टि में देवताओं को, ऋषियों को तथा मनुष्यों को सभी वेदों को तथा उपवेदों को भी प्रदान किया है। इस मृत्युलोक में जो भी कुछ प्राप्त हो रहा है,वह किसी का भी निर्माण नहीं है। जो पूर्व से ही निर्मित है,वही सब कुछ सभी को प्राप्त होता है । सर्वप्रथम गायत्री आदि छंदों की उत्पत्ति के विषय में जानते हैं।
1-तस्योष्णिगासील्लोमभ्य:।
उस ब्रह्मा जी के रोमों से 28 अक्षरों वाले,उष्णिक् नाम के छन्द का प्रादुर्भाव हुआ। उष्णिक् छंद में 28 अक्षर होते हैं। ये सभी छन्द वेदों में ही होते हैं।
2- गायत्री च त्वचो विभो:।
उस विभु सगुण स्वरूप धारी परमात्मा की त्वचा से 24 अक्षरों वाला गायत्री छन्द प्रगट हुआ।
3- त्रिष्टुब् मांसात्।
उस विराट पुरुष के मांस से 44 अक्षरों वाला त्रिष्टुभ छंद उत्पन्न हुआ।
4- स्नुतोsनुष्टुप्
सगुणरूपधारी भगवान की स्नायुओं से 32 अक्षरों वाला अनुष्टुप छंद उत्पन्न हुआ।
5- जगत्यस्थन:प्रजापते:।
प्रजापति की अस्थियों से 48 अक्षरों वाला जगती छन्द प्रगट हुआ।
6-मज्जाया: पंक्तिरुत्पन्ना।
ब्रह्मा जी की मज्जा से 40 अक्षरों वाला पंक्ति नाम का छंद उत्पन्न हुआ।
7-बृहती प्राणतोsभवत्।
ब्रह्मा जी के प्राणों से 36 अक्षरों वाला,बृहती नामका छंद उत्पन्न हुआ। अर्थात आप जिस ब्रह्मा जी को एक साधारण देवता मानते हैं, उनके ही दिव्यदेह से सभी ऋषियों का प्रादुर्भाव हुआ है,तथा सभी प्रकार के वर्णों की तथा कलाओं की और ज्ञान की उत्पत्ति हुई है। ब्रह्मा जी साक्षात ब्रह्मस्वरूप ही हैं।
8-अ से ज्ञ तक के अक्षरों का प्रादुर्भाव ;-
1- स्पर्शस्तस्याभवज्जीव:।
क से म तक के सभी वर्णों को स्पर्श वर्ण कहते हैं।ब्रह्म का जीवकार्य है। अर्थात जैसे ब्रह्म के बिना जीव नहीं होता है,इसी प्रकार अ आ आदि स्वर वर्णों के बिना क आदि व्यंजन वर्णों का उच्चारण भी नहीं होता है।
कवर्ग- क ख ग घ ङ।
चवर्ग-च छ ज झ ञ।
टवर्ग-ट ठ ड ढ ण।
तवर्ग-त थ द ध न।
पवर्ग-प फ ब भ म।
इन पांचों वर्गों को क से म तक को स्पर्श वर्ण कहते हैं। इन सभी को ब्रह्मा जी का जीव कहा जाता है। जैसे जीव पराधीन होता है,इसी प्रकार इन सभी का उच्चारण भी अ आ आदि स्वरों के बिना नहीं होता है। अर्थात जीवों को उत्पन्न करनेवाले ब्रह्मा जी हैं और भगवान नारायण तो साक्षात अ आ आदि स्वर वर्ण हैं।ब्रह्मा जी, भगवान नारायण की नाभि से उत्पन्न हुए हैं, सृष्टि विधाता भगवान ही ब्रह्मा जी के रूप में विराजमान हैं। इसीलिए ब्रह्मा जी के लिए ही प्रजापति,विभु,ब्रह्मा,विराट आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।
2-स्वरो देह उदाहृत:।
अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ये स्वर कहे जाते हैं। इन स्वरों की उत्पत्ति, ब्रह्मा जी के देह से उत्पन्न होते हैं।
3-ऊष्माणमिन्द्रियाण्याहु:।
श ष स ह इन चारों वर्णों को ऊष्म वर्ण कहते हैं । ये सभी ब्रह्मा जी की इन्द्रियों से उत्पन्न हुए हैं।
4-अन्त:स्था बलमात्मन:।
अन्त:स्थ वर्णों को आत्मा अर्थात ब्रह्मा जी का बल कहा जाता है। य र ल और व इन चारों वर्णों को अन्तस्थ वर्ण कहते हैं।
5-स्वरा:सप्त विहारेण।
भगवान प्रजापति ब्रह्मा जी के विहार से अर्थात क्रीडा से गान्धर्वेद के सा रे गा मा प ध नी सा, ये सात स्वरों का प्रादुर्भाव हुआ है।
...SHIVOHAM.......
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