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संसारिक प्राणीयों के चित्त की पाँच अवस्थाएं ...

योग शब्द इतना व्यापक है कि सभी सिद्धांतवादियों ने इसको अपनाया है। भक्तियोग, राजयोग, हठयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, लययोग, शून्ययोग इत्यादि इसके व्यापकता के परिचायक है। भक्ति प्रधान लोगों ने भक्तियोग, ज्ञान निष्ठा वालों ने ज्ञानयोग, निष्काम कर्म निष्ठा वालों ने कर्मयोग अपनाया. इत्यादि। योग शब्द का अर्थ है मिलाने वाली क्रिया - जुड़ना। महृषि पतंजलि ने 'चित्त वृत्तियों को नितांत रुक जाना ही निरोध है' कह कर योग शब्द को अभिव्यक्त किया।अर्थात निरोध ही समाधि है और समाधि ही योग है कह कर समाधि को परिभासित किया। जीवात्मा और परमात्मा की अभिन्नता या जुड़ना ही समाधि है । जब जीवात्मा अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाए उसे समाधि कहते है।समाधि की दो अवस्थाएँ सम्प्रज्ञात और असंप्रज्ञात समाधि दोनो को ही योग कहा गया है - दूसरे शब्दों में सम्प्रज्ञात को एकाग्रावस्था और असंप्रज्ञात को निरुद्धावस्था कहते है।चित्त= मन, बुद्धि और अहंकार के समन्वय को कहते हैं। इसी को अंतःकरण भी कहते हैं। वैदिक मंत्रों में भी चित्त की असीम शक्तियों का वर्णन किया गया है। हमारा चित्त त्रिगुणात्मक अर्थात सत्व( प्रकाशशील), रज( क्रियाशील)और तमोगुण(जड़ता) स्वभाव वाला होने से त्रिगुणात्मक है। चित्त को जैसा भी वातावरण मिलता है चित्त भी वैसा ही हो जाता है।सारे संसार के प्राणीयों के चित्त पाँच अवस्थाओं में विभक्त रहा करते है - 1-मूढ़ावस्था के प्राणी;-

ये तमोगुण प्रधान होते है ।रजोगुण सतोगुण गौण रहते है। ये काम क्रोध लोभ आलस्य से भरे होते है ।इनका लोक परलोक ईश्वर भजन से कोई सम्बंध नहीं होता।इस अवस्था के प्राणी मोह, काम, आलस्य तंद्रा से घिरे रहते हैं, केवल मात्र उदरपूर्ति ही इनका उद्देश्य रहता है। इस श्रेणी में कीट, पशु आदि आते हैं। इनमें योग की कोई संभावना नहीं होती है। 2-छिप्तावस्था के प्राणी; -

ये रजोगुण प्रधान प्राणी होते है ।तमोगुण सतोगुण गौण रहता है।सांसारिक व्यापार ही इनका मुख्य लक्ष्य होता है।इनके मन में चंचलता दुःख शोक चिंताए लगी रहती है।इन लोगों का मन ईश्वर आराधना में नहीं लगता।इनका सिद्धांत होता है - जब तक जियो सुख से जियो चाहे क़र्ज़ा लेना पड़े।एक दिन शरीर नष्ट हो जाएगा, किसने पुनर्जन्म देखा।इनको लोक परलोक सुधारने से कोई मतलब नहीं होता।व्यापार, धंधा इत्यादि इनका मुख्य लक्ष्य होता है, परलोक में इनकी आस्था नहीं। अतः इनमें भी योग की कोई संभावना नहीं होती। 3-विछिप्तावस्था के प्राणी ;-

इनमे सतोगुण प्रधान होता है। रजोगुण एवं तमोगुण गौण होते है। इनके मन में प्रसन्नता दया , क्षमा , परोपकार की भावना होती है। ईश्वर आराधना में इनकी पूर्ण अभिरुचि होती है। इनका मन थोड़ा थोड़ा एकाग्र होने लगता है किंतु पूर्ण एकाग्र नहीं होता इसलिए योग श्रेणी में नहीं आते। ये लोग जप तप स्वाध्याय में संलग्न होते है और ईश्वर कृपा का इंतज़ार करते है।ये लोग स्वाध्याय करने की कोशिश करते हैं, संतों के प्रवचन सुनने में रूचि रखते हैं तथा व्रत, दान, यज्ञ आदि उपासनाएं कर ई्श्वर का अनुग्रह प्राप्त करने की आकांक्षा रखते हैं लेकिन ये लोग भी योगी की श्रेणी में नहीं आते हैं।योग की वर्णमाला तो एकाग्रता से शुरू होती है। 4-एकाग्रावस्था के प्राणी; -

इनमे सतोगुण प्रधान होता है। रजोगुण तमोगुण गौण है।इनका मन अपर वैराग्य को प्राप्त होता है।मनुष्य का मन बड़ा अद्भुत शक्तिशाली है, वस्तुतः इस सृष्टि के सारे बड़े कार्य मन की एकाग्रता से ही सम्भव होते है।जब तक हमारे मन में एकाग्रता नहीं आती तब तक सारे मंत्रो का उच्चारण केवल मात्र शब्द वर्ण है। शब्द की उत्पत्ति आकाश से हुई है और उसी में विलय हो जाता है।राम नाम का उच्चारण करके हम तब तक लाभ नहीं उठा सकते जब तक हमारा मन राम के रूप में एकाग्र ना हो जाए।इसलिए महृषि पतंजलि देव ने नाम का जप करना और अर्थ का ध्यान करना ..दोनो क्रियाएँ एक साथ चलने के लिए कहा है। तभी मनुष्य नाम जप के परिणाम को पा सकता है। इस अवस्था में सम्प्रज्ञात योग का आरम्भ होता है ।योग की वर्णाक्षरी यहीं से प्रारंभ होती है। मन की एकाग्रता ही योग का स्तंभ है। मन बड़ा चंचल है इसको वश में करना बड़ा कठिन है लेकिन ये व्यक्ति अभ्यास के द्वारा चंचल मन को शनैः शनैः वश में कर लेते हैं। 5-निरुद्धावस्था के प्राणी; -

इस अवस्था में बाहर से गुण का परिणाम बंद होकर चित्त सत्व में निरोध परिणाम संस्कार मात्र शेष रहता है। वे दृष्टा स्वरूप में स्थित हो जाते है।निरूद्धावस्था के प्राणी पूर्ण स्वस्थ तथा निर्मल होते हैं। इन व्यक्तियों का मन सदैव एकाग्र रहता है तथा ये वैराग्य को प्राप्त होते हैं। इस अवस्था में तीनों गुण मूल प्रकृति में लीन हो जाते हैं। पुरूष और प्रकृति अलग होकर अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं, यही योग का परम् लक्ष्य है। इस स्थिति में जीवात्मा और परमात्मा की समता अवस्था हो जाती है।इस स्थिति में साधक आठों सिद्धि तथा नव सिद्धि को प्राप्त कर आप्तकाम हो जाता है तथा दुनिया में उसे कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता। वह दुनिया का कर्ता-धर्ता होकर जीव से महेश्वर हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को पूर्ण योगी या युक्त योगी कहते हैं जिसके बारे में भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जो ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, विकार रहित है, जितेंद्रिय है और जो सुवर्ण और काष्ठ में सम देखता है, सब प्राणियों में अपने आप को देखता है तथा सम दर्शी है, वह योग युक्त कहा जाता है। किसी कवि ने निम्न पंक्तियों में नितांत सरल भाषा में इस स्थिति का निरूपण किया है ...

जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी ।

फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ कह गये ज्ञानी।। NOTE;-

ऊपर बताई अवस्थाओं में केवल एकाग्रावस्था एवं निरोधावस्था के प्राणी योग श्रेणी में आते है।

...SHIVOHAM....


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