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समर्पण भाव से जीने का क्या मार्ग है?

ध्यान है कुछ न करना, मात्र होना, और समर्पण द्वार है।समर्पण का मतलब है अटूट श्रद्धा ... बेशर्त आस्था।लेकिन तुम समर्पण सिर्फ इसीलिए चुनते हो ताकि कुछ न करना पड़े।वास्तव में, तुम आलस्य चुनना चाहते हो,और समर्पण का बहाना खोजते हो।लेकिन आलस्य से तो कोई परमात्मा ,कोई सत्य नहीं मिलता । आलसी सोचता है कि हम समर्पण किए है, दुनियाभर में खबर हो जाए कि हमारा समर्पण हो गया ।लेकिन दुनिया आलस्य को सम्मान नहीं देती।संसार तो करने वालों का है।तो जल्दी ही तुम्हारे भीतर यह लगने लगता है, समर्पण से तो कुछ नहीं मिल रहा है।आलसी को आदर नहीं मिलता। वास्तव में, समर्पण तुमने कभी किया नहीं और मिलने की आकांक्षा रखे हो। तुमने आलस्य के लिए समर्पण शब्द का बहाना खोज लिया।अगर तुम समर्पण चुनते हो, तो आलस्य से बचना वहां जरूरी है। क्योंकि आलसी को कोई आदर तो कहीं नहीं मिलता।और समर्पण हो जाए, तो सम्मान की इच्छा नहीं होती।आलसी समर्पण चुनते हैं और समर्पण के मार्ग पर आलस्य से बचना अनिवार्य है।तब फिर सोचते हो कि कुछ करें। तो वह करना भी संकल्प या साधना नहीं है। अगर तुम संकल्प चुनते हो, तो अहंकार से बचना वहां जरूरी है, क्योंकि वहां भी खतरा है।


समर्पण में अहंकार का खतरा नहीं है और संकल्प में आलस्य का खतरा नहीं है। इसलिए अगर समर्पण करना है, तो समर्पण को अकर्मण्यता मत बना लेना। कर्म तो करना, कर्ता भाव परमात्मा पर छोड़ देना।लेकिन तुम परमात्मा पर कर्ता भाव तो नहीं छोड़ते बल्कि कर्म छोड़ देते हो । कर्ता भाव बचाते हो और चाहते हो कि दुनिया तुम्हें सम्मान दे ऐसा, क्योकि तुमने बड़ी साधना की है, बड़े सिद्ध पुरुष हो। वह नहीं होगा।अगर तुम अहंकारी हो, तो समर्पण तुम्हारे लिए मार्ग है। अगर तुम आलसी हो, तो संकल्प तुम्हारे लिए मार्ग है।सफल व्यक्ति त्याग कर सकता है, लेकिन असफल नहीं कर सकता। कभी किसी चीज को असफल होकर मत त्यागना, नहीं तो वह तुम्हारे जीवन की शैली हो जाएगी। फिर तुम कभी सफल न हो पाओगे। जो भी छोड़ना हो, सफल होकर छोड़ना। अगर संसार छोड़ना हो, तो सफल होकर छोड़ना। पद छोड़ना हो, सफल होकर छोड़ना। धन छोड़ना हो, तो पाकर छोड़ना।धन ,पद का मूल्य नहीं है, लेकिन जो भाव की बुनियाद बनती है, उसका मूल्य है। वह काम आएगी। तुम जहां भी जाओगे, जिस दिशा में भी जाओगे, वहां काम आएगी। संकल्प के मार्ग पर अहंकार बढ़ता है और समर्पण के मार्ग पर आलस्य के बढ़ने की संभावना है।आलस्य वाला संकल्प की तरफ जाए, तो संकल्प आलस्य को काटता है। अहंकारी समर्पण की तरफ जाए, तो समर्पण अहंकार को काटता है। बिलकुल सीधा गणित है ...कहीं भी कोई उलझन नहीं है।मनुष्य के जीवन में जितनी अड़चनें दिखाई पड़ती हैं, उतनी अड़चनें हैं नहीं।

लोग कहते हैं कि हम दूसरे पर आस्था नहीं करना चाहते ...अपने पर ही आस्था है।लेकिन जिसकी अपने पर आस्था है, वह किसी पर भी आस्था कर सकता है। और जिसकी अपने पर आस्था नहीं है, वह किसी पर आस्था नहीं कर सकता। जो भीतर है, तुम उसे ही बाहर सकते हो।अगर तुम्हारी स्वयं पर आस्था है, तो तुम गुरु पर ,परमात्मा पर आस्था कर सकोगे। स्वयं की आस्था में और दूसरे पर आस्था में विरोध नहीं है। वे एक ही सुगंध की दो तरंगें हैं। लेकिन जिसकी स्वयं पर आस्था नहीं है, वह किसी पर आस्था नहीं कर सकेगा। और जो किसी पर आस्था नहीं करता है, उसे सम्हल जाना चाहिए, संभावना है कि उसकी स्वयं पर भी आस्था नहीं होगी।परमात्मा से मिलन के लिए प्रेम और श्रद्धा ही सेतु है। लेकिन जिसका मस्तिष्क संदेहशील हो और हृदय कुंठित, वह धर्म की यात्रा पर नहीं निकल सकता।लेकिन संसार में तुम्हें बहुत दुख मिलता है, सुख की तो सिर्फ आशा ही रहती है। केवल दिखाई पड़ता है कि अब सुख मिला, लेकिन मिलता कभी नहीं। दुख मिलता है और तब धर्म की ,इन ऋषि मुनियों की बात याद आती है ।

सुख संसार की तरफ बुलाता है।इसलिए तो सुख में कोई स्मरण नहीं करता, दुख में स्मरण करता है। दुख में लगता है कि शायद ये लोग ठीक ही कहते हों। तुम अगर कुछ समय के लिए परमात्मा को भूल जाओ और संसार की तरफ पूरी तरह दौड़ लो .. संसार को ठीक से जान ही लो। अगर सुख मिल गया, तब तो कोई परमात्मा की जरूरत ही न रहेगी। बात ही खतम हो गई। अगर सुख न मिला, तो परमात्मा की प्यास पैदा हो जाएगी।अब तक तो किसी को सुख मिला नहीं है। इसलिए प्यास पैदा होना निश्चित है।अगर नहीं पैदा हो रही, तो तुम संसार में ठीक से नहीं गए ...अधकचरे हो।अधकचर व्यक्ति न संसार को भोग पाता है और न ही परमात्मा की तरफ जा सकता है। संसार सिर्फ मरुस्थल है।लेकिन तुम्हारा भ्रम मिट जाना चाहिए कि विराट संसार है,हो सकता है, कहीं कोई सुख छिपा ही हो।संसार जब व्यर्थ होता है, तभी संन्यास सार्थक होता है।परिपूर्ण पराजय से ही रूपांतरण संभव है। तुम अभी हारे नहीं हो क्योकि आशा है। वही आशा तुम्हें भटकाए है। संसार में हो, सच्चाई से संसार में हो जाओ।सब भोग दुख पर ले आते हैं। सब भोगों के बाद अंधकार छा जाता है। उस गहन अंधकार से ही सुबह पैदा होती है।

....SHIVOHAM...


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