क्या सहस्रार को ही 'अमृत कलश' कहा गया है?
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...
चक्रों की स्थिति;-
06 FACTS;-
1-चक्र रीढ़ की हड्डी के अंदर सूक्ष्म एस्ट्रल अंग हैं।पहला चक्र, मूलाधार, Coccyx Region (टेलबोन) के ठीक ऊपर रीढ़ की हड्डी का आधार होता है। दूसरा चक्र, स्वाधिष्ठान, Sacral Region में, मूलाधार और मणिपुर के बीच में है। तीसरा चक्र, मणिपुर, lumbar region में, नाभि के समान स्तर पर है। चौथा चक्र, अनाहत Dorsal Region में है; Shoulder Blades को करीब लाकर और उनके बीच या उनके ठीक नीचे के क्षेत्र में तनावपूर्ण मांसपेशियों पर ध्यान केंद्रित करके इसके स्थान को महसूस किया जा सकता है। पाँचवाँ चक्र, विशुद्ध, वहाँ स्थित है जहाँ गर्दन कंधों से जुड़ जाता है। इसके स्थान का पता सिर को बगल से हिलाकर, छाती के ऊपरी हिस्से को स्थिर रखकर और उस बिंदु पर ध्यान केंद्रित करके लगाया जा सकता है जहां आप "क्रैकिंग" ध्वनि का अनुभव करते हैं।छठे चक्र को आज्ञा कहा जाता है। Medulla oblongata और Kutastha (भौंहों के बीच का बिंदु) आज्ञा से संबंधित हैं और इन्हें अलग-अलग संस्थाओं के रूप में नहीं माना जा सकता है।Medulla को आज्ञा चक्र का भौतिक प्रतिरूप माना जाता है।
2-तीन बिंदुओं में से किसी एक में एकाग्रता की स्थिरता पाकर, आध्यात्मिक नेत्र, एक अनंत गोलाकार चमक के बीच में एक चमकदार बिंदु, आंतरिक दृष्टि पर प्रकट होता है। यह अनुभव आध्यात्मिक आयाम का Royal Entrance है। कभी-कभी भ्रुमध्य शब्द का प्रयोग कूटस्थ के स्थान पर किया जाता है। रीढ़ की हड्डी के शीर्ष पर Medulla का पता लगाने के लिए, अपनी ठुड्डी को ऊपर उठाएं और गर्दन की मांसपेशियों को आधार पर तनाव दें।फिर ओसीसीपिटल हड्डी{खोपड़ी के पीछे की हड्डी}; के नीचे के छोटे hollow पर ध्यान केंद्रित करें।Medulla उस hollow के ठीक आगे है।Medulla की सीट से भौंहों के बीच के बिंदु की ओर बढ़ते हुए, अजना की सीट का पता लगाना मुश्किल नहीं है: धीरे-धीरे अपने सिर को बग़ल में (कुछ सेंटीमीटर बाएँ और दाएँ) घुमाएँ, जिसमें कुछ महसूस हो जैसे connecting the two temples ।
3-आज्ञा चक्र,भ्रूमध्य,Medulla एवम् कूटस्थ योग के अभ्यास के पूर्व साधक को स्पष्ट ज्ञात होना आवश्यक है कि आज्ञा चक्र क्या है तथा उसकी स्थिति मस्तक में कहाँ है। आज्ञा चक्र को भ्रूमध्य मान लिया जाता है जो कि एक सहज भूल है।भ्रूमध्य वस्तुतः आज्ञा चक्र का आंतरिक परिक्षेत्र है;हाई टेंशन विद्युत क्षेत्र,अर्थात भ्रूमध्य पर एकाग्र होना आज्ञा चक्र पर एकाग्र होने के समरूप ही है। इसे ही Pineal gland तथा तृतीय नेत्र कहते हैं।यह मस्तक में Medulla के ऊपर भ्रूमध्य की ओर अवस्थित है।अतः भ्रूमध्य को ही आज्ञा चक्र मान लेने में भूल है भी और नही भी,क्योंकि तृतीय नेत्र की दिव्य ज्योति के दर्शन भ्रूमध्य के परिक्षेत्र में ही होते हैं।लेकिन इस तृतीय नेत्र का दर्शन सूक्ष्म है।वैज्ञानिक यदि तृतीय नेत्र को ढूंढने का प्रयास करेंगें तो उन्हें सिर्फ Gland मिलेगी। कूटस्थ सूक्ष्म आध्यात्मिक अस्तित्व है जो देश-काल से परे है।कूट का अर्थ होता है "घन" -लोहार का घन।इसका गूढ़ अर्थ है "वह जो अपरिवर्तनीय है"।आत्मा के जैसे कूटस्थ भी अनश्वर है।योगी को यह विशुद्ध श्वेत तारे के रूप में दीखता है जो नीले एवम् सुनहरे मंडल के घेरे में है।स्पष्ट करने वाली बात यह है कि आज्ञा चक्र एवम् कूटस्थ का मूल स्त्रोत मेडुला है।
4-जब हम चेतना को अंतर्मुखी कर मेडुला पर एकाग्र होते हैं तब आज्ञा चक्र एवम् कूटस्थ की दिव्य ज्योति के दर्शन होते हैं।कोई आश्चर्य नही कि ऐसी अवस्था में हम भ्रूमध्य पर एकाग्र हो जाएं।अतः स्मरण रहे कि Medulla ही मुख्य स्त्रोत है। Medulla तक प्राण का आरोहण पर्याप्त है।दूसरे शब्दों में,यदि हम प्राण ऊर्जा को भ्रूमध्य पर ले जाएं तो हम उसके मूल स्त्रोत Medulla को ही देखेंगे। मध्य पर आना अर्थात Medulla पर आना।यही कारण है कि Medulla को विश्वतोमुखो(माउथ ऑफ़ गॉड) की संज्ञा दी गई है।यही आत्मा का निवास,आत्म सूर्य की अवस्थिति है,अर्थात मूल स्त्रोत है।यही कारण है कि लाहिड़ी महाशय ने कहा कि आत्म सूर्य(medulla) की परिक्रमा करनी है। योगी प्राण ऊर्जा को छह चक्रों के इर्द गिर्द (ऊपर नीचे) घुमाता है!अतः अभ्यास के पूर्व आज्ञा चक्र,कूटस्थ एवम् Medulla का स्पष्ट ज्ञान होना आवश्यक है।Medulla पर एकाग्र हों एवम् चेतना का प्रवाह भ्रूमध्य की ओर हो ।लाहिड़ी महाशय जी ने इंग्लिश के मेडुला शब्द का प्रयोग तो किया नही;वे बोले "कूटस्थ"।अतः सार तत्व Medulla ही है।
5-इस प्रकार आज्ञा चक्र का आसन दो रेखाओं का प्रतिच्छेदन बिंदु/Intersecting Point है ।खेचरी मुद्रा के दौरान जीभ की नोक से बहने वाली ऊर्जा पिट्यूटरी ग्रंथि को उत्तेजित करती है। पिट्यूटरी ग्रंथि, या हाइपोफिसिस, एक मटर के आकार की एक अंतःस्रावी ग्रंथि है। यह मस्तिष्क हाइपोथैलेमस के तल पर एक फैलाव बनाता है। आध्यात्मिक नेत्र का अनुभव प्राप्त करने के लिए इस ग्रंथि पर ध्यान देना सार्थक है। फिर पीनियल ग्रंथि की भूमिका पर जोर देता है। यह मस्तिष्क में एक और छोटी अंतःस्रावी ग्रंथि है। यह एक छोटे पाइनकोन के आकार का है। प्रतीकात्मक रूप से, कई आध्यात्मिक संगठनों ने पाइन शंकु को एक आइकन के रूप में उपयोग किया है। यह पिट्यूटरी ग्रंथि के पीछे, मस्तिष्क के तीसरे Ventricle के पीछे स्थित होता है। पीनियल ग्रंथि पर लंबे समय तक एकाग्रता के बाद सफेद आध्यात्मिक प्रकाश का पूरा अनुभव होने के बाद, यह अंतिम क्रिया मानी जाती है जो आप समाधि में खो जाने से पहले अपने ध्यान को पूर्ण करने के लिए करते हैं।
6-स्वामी प्रणबानंद गिरि द्वारा भगवद गीता पर लिखित भाष्य में मस्तिष्क में दो और आध्यात्मिक केंद्रों का संकेत मिलता है: रूद्री और बामा। रुद्री मस्तिष्क के बाईं ओर बाएं कान के ऊपर स्थित है, जबकि बामा दाएं कान के ऊपर मस्तिष्क के दाईं ओर स्थित है। हमें उन उच्च क्रियाओं के अभ्यास के दौरान उनका उपयोग करने का अवसर मिलता है। जो मस्तिष्क के ऊपरी भाग में होती हैं। बिंदु Occipital region में स्थित है और इसे अपने आप में एक चक्र नहीं माना जाता है। हालाँकि यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण आध्यात्मिक केंद्र है क्योंकि यह एक दरवाजे के रूप में काम करता है जो जागरूकता को सहस्रार तक ले जाता है - सिर के शीर्ष पर स्थित है सातवां चक्र। बिन्दु वह स्थान है जहाँ केश रेखा एक प्रकार के भंवर में मुड़ जाती है (यह वह बिंदु है जहाँ हिंदू अपना सिर मुंडवाने के बाद बालों को छोड़ देते हैं।) सहस्रार के बारे में जागरूक होने के लिए ब्रह्मरंध्र /Fontanelle पर ध्यान केंद्रित करने के लिए सलाह दी जाती हैं। Fontanelle को अधिक उचित रूप से ''ब्रेग्मा/ ब्रैनग्मा-शीर्षस्थ'' कहा जाता है।आठवां चक्र उच्चतम केंद्र है। यह Fontanelle से लगभग 30 सेंटीमीटर ऊपर स्थित है।
सहस्रार चक्र;-
07 FACTS;-
1-सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर स्थित है। इसे "हजार पंखुडिय़ों वाले कमल”, "ब्रह्म रन्ध्र” (ईश्वर का द्वार) या "लक्ष किरणों का केन्द्र” भी कहा जाता है, क्योंकि यह सूर्य की भांति प्रकाश का विकिरण करता है। अन्य कोई प्रकाश सूर्य की चमक के निकट नहीं पहुंच सकता।कुण्डलिनी के सहस्रार में प्रवेश करने में एकादश रुद्र सबसे बडी समस्या है । यह समस्या भवसागर से आती है,इस प्रकार यह तालू क्षेत्र में भी प्रवेश करती है। सहस्रार का अर्थ है.. =हजार, अनंत, असंख्य ।इन सब चक्रों के ऊपर, महाचक्र है,जिसे सहस्रार के नाम से जाना जाता है। हजार दलों वालें महापद्म पर,जिसे साधना ही महासाधना है ;वही सत्यलोक है। अमरत्व, मुक्ति,निर्वाण सब कुछ वहीं पहुचने पर है।सारी तैयारी उसी की साधना की है। मनुष्य शरीर के कपाल के उर्ध्व भाग में स्थित सहस्रार चक्र के बारे में शास्त्र कहते हैं कि “विद्युतधारा की तरह इन छह चक्रों से होती हुई, ऊपर सहस्रार कमल में तुम जा विराजती हो ।सूर्य, चन्द्र और अग्नि (इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना) तुम्हारी कला पर आश्रित हैं | मायातीत जो परात्पर महापुरुष हैं, तुम्हारी ही आनंदलहरी में स्नान करते हैं” । सहस्रार पर पहुंचने पर साधक निवर्विचार हो जाता है ।और कोई स्वर नहीं निकलता है | ह्दय में शुद्ध स्पंदनहोता है-लप-टप-लप- टप । ये सारे स्वर एकत्रित होकर इस समन्वय से उत्पन्न होने वाला स्वर ओं …होता है। सूर्य के सातों रंग अंततः सफेद किरणें बन जाती हैं या स्वर्णिम रंग की किरणें । ह्दय सात चक्रों के सात परिमलों से घिरा हुआ है और इसके अन्दर आत्मा निवास करती है । आपके सिर के शिखर पर सर्व शक्तिमान सदाशिव निवास करते हैं ।
2-कुण्डलिनी जब इस विन्दु को छूती है तो आपकी आत्मा प्रसारित होने लगती है,और आपके मध्य नाडी तन्त्र पर कार्य करने लगती है क्योंकि स्वतःचैतन्य वाइब्रेशन्स आपके मस्तिष्क में प्रवाहित होने लगती है।और आपकी नाडियों को ज्योतिर्मय करती है।परन्तु अभी भी ह्दय में पहचान नहीं आई लेकिन आप चैतन्य वाइब्रेशन्स महसूस करने लगते हैं। आप उस स्थिति में दूसरो लोगों को रोग मुक्त कर सकते हैं तथा और भी बहुत से कार्य कर सकते हैं। परन्तु अभी भी यह पहचान नहीं है क्योंकि पहचान आपके ह्दय की मानसिक गतिविधि है । आपको याद रखना होगा कि ह्दय पूरी तरह से मस्तिष्क से जुडा हुआ है।
ह्दय जब रुक जाता है तो मस्तिष्क भी रुक जाता ,सारा शरीर बेकार हो जाता है। कोई खतरा दिखने लगता है कि ह्दय धडकने लगता है। आपके ह्दय में जब दिव्यत्व और आध्यात्मिकता का अनुभव विकसित होने लगता है ।तब आप जान पाते हैं कि आप दिव्य व्यक्ति हैं । और जब तक आप पूर्ण रूपेण विश्वस्त नहीं होते कि आप दिव्य व्यक्ति हैं तो चाहे जितनी श्रद्धा आपमें हो यह पहचान अधूरी है।
3-हम जब भी और जहॉ भी विद्युत चुम्बकीय शक्ति को कार्य करते हुये देखते हैं तो यह हनुमान जी के आशीर्वाद से होता है। वे ही विद्युत चुम्बकीय शक्तियों का सृजन करते हैं । गणेश मूलाधार चक्र पर विराजमान हैं ।श्री गणेश जी के अन्दर चुम्बकीय शक्तियॉ हैं ; पदार्थ की अवस्था में वे मस्तिष्क तक जाते हैं । मस्तिष्क के विभिन्न पक्षों में सहसम्बंधों का सृजन करते हैं ।गणेश जी हमें बुद्धि प्रदान करते हैं तो श्री हनुमान हमें सद्विवेक प्रदान करते ।क्योंकि कुण्डलिनी गौरी शक्ति है और गणेश जी हर क्षण उनकी रक्षा करने के लिए वहॉ होते हैं, इतना ही नहीं बल्कि कुण्डलिनी के चक्र भेदन करने के बाद श्री गणेश उस चक्र को बन्द कर देते हैं।ताकि कुण्लिनी फिर नीचे न चली जाय। शिव आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं और आत्मा का निवास आपके ह्दय में है।वास्तव में,सदा शिव का स्थान आपके सिर के शिखर पर है परन्तु वे आपके ह्दय में प्रतिविम्बित होते हैं।
आपका मस्तिष्क विठ्ठल है अथार्त हरिहर ।पूरी साधना हरिहर को समझने की ही है। हरि माया का प्रतिनिधित्व करते हैं और हर आत्मा का। जब तक दोनों ... मस्तिष्क और आत्मा में यह वाइब्रेशन नहीं पहुंचता ।हमारी साधना का लक्ष्य भी पूरा नहीं होता।
4-आत्मा को आपके मस्तिष्क में लाने का अर्थ आपके मस्तिष्क का ज्योतिर्मय होना परमात्मा का साक्षात्कार करने की आपके मस्तिष्क की सीमित क्षमता का असीमित बनना है।जब आत्मा मस्तिष्क में आती है तो आप जीवन्त चीजों का सृजन करते हैं..मृत भी जीवित की तरह से व्यवहार करने लगता है। सहस्रार चक्र में ‘अ’ से ‘क्ष’ तक की सभी स्वर और वर्ण ध्वनि उत्पन्न होती है।पिट्यूटी और पीनियल ग्रंथि का आंशिक भाग इसमें संबंधित है।यह मस्तिष्क का ऊपरी हिस्सा और दाईं आंख को नियंत्रित करता है तथाआत्मज्ञान, आत्म दर्शन, एकीकरण, स्वर्गीय अनुभूति के विकास का मनोवैज्ञानिक केंद्र है। सहस्रार को कैलास पर्वत के रूप में इंगित करने भगवान शंकर के तप रत होने की स्थिति को भी कहते हैं। सहस्रार चक्र दोनों कनपटियों से दो-दो इंच अंदर और भौहों से भी लगभग तीन-तीन इंच अंदर हैं।मस्तिष्क मध्य में महावीर नामक महारुद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योतिपुंज के रूप में अवस्थित है। तत्व दर्शीयों के अनुसार यह छोटे उलटे कटोरे के समान दिखाई देता है।
सहस्रार को जागृत कर लेने वाला व्यक्ति संपूर्ण भौतिक विज्ञान की सिद्धियां हस्तगत कर लेता है। यही वह शक्ति केंद्र है जहां से मस्तिष्क शरीर का नियंत्रण करता है।और विश्व में जो कुछ भी मानव-हित के लिए विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है -उसका संपादन करता है। इसे ही दिव्य दृष्टि का स्थान कहते है। मूलाधार से लेकर आज्ञा चक्र तक सभी चक्रों के जागरण की कुंजी सहस्रार चक्र के पास ही है ।
5-शरीर शास्त्र के अनुसार मोटे विभाजन की दृष्टि से मस्तिष्क को पाँच भागों में विभक्त किया गया है- (1) बृहद् मस्तिष्क-सेरिव्रम (2) लघु मस्तिष्क- सेरिवेलम (3) मध्य मस्तिष्क-मिड ब्रेन (4) मस्तिष्क सेतु-पाँन्स (5) सुषुम्ना शीर्य -मेडुला आँवलाँगेटा। इनमें से अन्तिम तीन को संयुक्त रूप से मस्तिष्क स्तम्भ ब्रेन स्टीम भी कहते है। इस तरह मस्तिष्क के गहन अनुसंधान में ऐसी कितनी ही सूक्ष्म परतें आती है जो सोचने-विचारने सहायता देने भर का नहीं, वरन् समूचे व्यक्तित्व के निर्माण में भारी योगदान करती है। वैज्ञानिक इस तरह की विशिष्ट क्षमताओं का केन्द्र ‘फ्रन्टललोब ‘ को मानते है जिसके द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व, आकांक्षायें, व्यवहार प्रक्रिया, अनुभूतियाँ संवेदनाएँ आदि अनेक महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों का निर्माण और निर्धारण होता हैं। इस केन्द्र को प्रभावित कर सकना किसी औषधि उपचार या शल्य क्रिया से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए योग साधना की ध्यान धारण जैसी उच्चस्तरीय प्रक्रियायें ही उपयुक्त हो सकती है, जिन्हें कुण्डलिनी जागरण के नाम से जाना जाता है। अध्यात्म शास्त्र के अनुसार मस्तिष्क रूपी स्वर्ग लोक में यों तो तैंतीस कोटि देवता रहते, पर उनमें से पाँच मुख्य हैं। इन्हीं का समस्त देव स्थान पर नियंत्रण है। उक्त मस्तिष्कीय पाँच क्षेत्रों को पाँच देव परिधि कह सकते है। इन्हीं के द्वारा पाँच कोशों की पाँच शक्तियों का संचार-संचालन होता है।
6- मस्तिष्क के विभाजन तथा सहस्रार चक्र के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार एक ही तथ्य के भिन्न-भिन्न विवेचन मिलते है। शास्त्रों में इसी को अमृत कलश ‘ कहा गया है। उसमें से सोमरस स्रवित होने की चर्चा है। देवता इसी अमृत कलश से सुधा पान करते अजर अमर बनते है। वर्तमान वैज्ञानिक की मान्यतानुसार मस्तिष्क में एक विशेष द्रव भरा रहता है जिसे ‘सेरिब्रोस्पाइनल फ्ल्यूड’ कहते है ।यही मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों को पोषण और संरक्षण देता रहता है।मस्तिष्कीय झिल्लियों से यह झरता रहता है और विभिन्न केन्द्रों तथा सुषुम्ना में सोखा जाता हैं। अमृत कलश में सोलह पटल गिनाये गये हैं। इसी प्रकार कहीं- कहीं सहस्रार की सोलह पंखुड़ियों का वर्णन है। यह मस्तिष्क के ही सोलह महत्वपूर्ण विभाग-विभाजन है। शिव संहिता में भी सहस्रार की सोलह कलाओं का वर्णन करते हुए कहा गया है- ‘कपाल के मध्य चन्द्रमा के समान प्रकाशमान सोलह कलायुक्त सहस्रार की यह सोलह कलायें मस्तिष्क के सेरिब्रोस्पाइनल फ्ल्यूड से सम्बन्धित मस्तिष्क के सोलह भाग है। इन सभी विभागों में शरीर को संचालित करने वाले एवं अतीन्द्रिय क्षमताओं से युक्त अनेक केन्द्र है।
7-सहस्रार अमृत कलश को जागृत कर योगीजन उन्हें अधिक सक्रिय बनाकर असाधारण लाभ प्राप्त करते है। योग शास्त्रों में इन्हीं ही ऋद्धि-सिद्धियाँ कहते है । इस सहस्रार कमल की साधना से योगी का चित्त स्थिर होकर आत्म-भाव में लीन हो जाता है। तब वह समग्र शक्तियों से सम्पन्न हो जाता हैं और भव-बंधन से छूट जाता है। सहस्रार से बाहर आया हुए अमृत पर भी विजय प्राप्त कर लेता है। सहस्रार मनुष्य का अपना उत्पादन नहीं, वरन् दैवी अनुदान हैं ; जिसका सम्बन्ध ब्रह्मरंध्र से होता है। ब्रह्मरंध्र को दशम द्वार कहा गया है। नौ द्वार है- दोनों नथुने, दो आँखें, दो कान, एक मुख, दो मल-मूत्र के छिद्र। दसवाँ ब्रह्मरंध्र है।इसी के माध्यम से दिव्य शक्तियों तथा दिव्य अनुभूतियों का आदान-प्रदान होता है।योगी जन इसी से होकर प्राण त्यागते हैं।मरणोपरान्त कपाल क्रिया करने का उद्देश्य यही है कि प्राण का कोई अंश शेष रह गया हो तो वह उसी में होकर निकले और ऊर्ध्वगामी प्राप्त करे।सहस्रार और ब्रह्मरंध्र मिलकर एक संयुक्त इकाई यूनिट के रूप में काम करते है। अतः योग साधना में इन्हें संयुक्त रूप में प्रभावित करने का विधान है। मानव काया की धुरी उत्तरी ध्रुव सहस्रार और ब्रह्मरंध्र ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क बनाकर आदान-प्रदान का पथ प्रशस्त करता है। भौतिक ऋद्धियाँ और आत्मिक सिद्धियाँ जागृत सहस्रार के सहारे निखिल ब्रह्माण्ड से आकर्षित की जा सकती है।चेतन और अचेतन मस्तिष्कों द्वारा जो इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध होता है, उसका केन्द्र यही है। ध्यान से लेकर समाधि तक और आत्मिक चिन्तन से लेकर भक्ति योग तक की समस्त साधनायें यहीं से फलित होती और विकसित होती है।
....SHIVOHAM....
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