सातवां शिवसूत्र.... ''जाग्रत, स्वप्न ,सुषुप्ति'
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...
सातवां शिवसूत्र - ''जाग्रत, स्वप्न ,सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जानने से तुर्यावस्था का भी ज्ञान हो जाता है''।
08 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जानने से तुर्यावस्था का भी ज्ञान हो जाता है।जब तक मनुष्य जीवित रहता है, तब तक उसकी चार अवस्थाओं में से एक बनी रहती है। इन्हें जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति और तुर्या कहा गया है। इनका स्तर क्रमशः एक से एक बढ़कर है। जागृति वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति सोचना, बोलना, करना ,चलना , देखना , सुनना आदि क्रियाये करता रहता है ।संक्षेप में इसे क्रियाशील स्थिति कहना चाहिए। विद्वत्ता, बलिष्ठता, सम्पदा, ख्याति आदि पाने का अवसर भी इसी स्थिति में मिलता है।इसीलिए मनुष्य चाहता है कि अधिक से अधिक इसी स्थिति में बना रहे।रात्रि की संरचना भगवान ने सोने के लिए की है ; परन्तु उसका भी बड़ा भाग जागते हुए ही बिताया जाता है।जब नींद का बहुत दबाव पड़ता है अथार्त विवशता जैसी स्थिति आ जाती है, तभी सोया जाता है।जब हम जाग्रत होते हैं तो बाहर का जगत तो दिखाई पड़ता है, लेकिन हम खुद अंधेरे में होते हैं अथार्त स्वयं का कोई बोध नहीं होता।संसार तो दिखाई पड़ता है, लेकिन आत्मा की कोई प्रतीति नहीं होती।जिसको हम जागरण कहते हैं वहआधी जाग्रत अवस्था है।
2-जागृति के अतिरिक्त दूसरी स्थिति है स्वप्न। स्वप्न नींद की स्थिति में ही देखे जाते हैं।जागृति के अनुभवों को सोता हुआ मनुष्य स्वप्न रूप से देखता है। अपनी कामनाओं और आकाँक्षाओं की पूर्ति इसी स्थिति में होती है। यह गरीब-अमीर, संपन्न-विपन्न आदि सभी के लिए एक मनोरंजन है। इस स्थिति को जागृति का पूरक कह सकते है।सामान्य लोगों के लिए स्वप्न एक प्रकार से विचित्र कल्पनाओं की झलक कह सकते हैं।परन्तु वैज्ञानिक इसे “रैम स्लीप” (रैपीड आई मूवमेन्ट स्लीप) की स्थिति में मानते हैं।किन्तु जिनका चेतना स्तर असामान्य है, उनके लिए इसे अतीन्द्रिय क्षमताओं की जागृति वाली स्थिति कह सकते हैं। मन, बुद्धि तो जागृति में काम करती है किन्तु चित्त और अहंता स्वप्न और सुषुप्ति स्थिति में ही क्रियाशील होती है। ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेन्द्रियाँ तो जागृति के साथ जुड़ी हुई है। किन्तु सूक्ष्म इन्द्रियाँ जो सूक्ष्म शरीर से संबंधित है, चित्त के साथ जुड़ती है। अचेतन मन उसी स्थित में काम करता है जब जागृति गहरी निद्रा में विलीन हो जाती है। इसे योग निद्रा भी कहा जा सकता है। योग निद्रा में दिखने वाले स्वप्न सार्थक होते हैं।उनमें अतीन्द्रिय ज्ञान अथार्त पूर्वाभास, दिव्यात्माओं के साथ संपर्क,भविष्य की घटनाओ का ज्ञान आदि होता है।
3- तीसरी अवस्था है सुषुप्ति; जिससे हम परिचित है। बाहर का, वस्तुओं का जगत भी अंधेरे में हो जाता है; और स्वप्न भी तिरोहित हो जाता है; तब हम गहन अंधकार में होते हैं .. वही हैं सुषुप्ति। सुषुप्ति- जागृति और निद्रा का सम्मिश्रण हैं। उसमें दिव्य विशिष्टता का , महामानव स्तर का या देवात्माओं जैसा एक अंश और जुड़ जाता है । इस स्थिति में जो भाव संवेदनाएँ उठती है। उनमें आदर्शों का ,जन-कल्याण आदि का गहरा समन्वय रहता है।सुषुप्ति स्थिति में ही ऐसे विचार उठते हैं जिन्हें दार्शनिक या वैज्ञानिक स्तर का कहा जा सकें।शास्त्रों का लेखन इसी आवेश में होता है। सुषुप्ति में न तो बाहर का ज्ञान रहता है, न भीतर का। जाग्रत में बाहर का ज्ञान रहता है। और जाग्रत और सुषुप्ति के बीच की एक मध्य कड़ी है ...स्वप्न, जहां बाहर का ज्ञान तो नहीं होता, लेकिन बाहर की वस्तुओं से बने हुए प्रतिबिंब हमारे मस्तिष्क में तैरते है और उन्हीं का ज्ञान होता है।
4-तुर्या चतुर्थ एवं अन्तिम स्थिति है। उसमें जीवात्मा परमात्मा की चेतना से भर जाता है।इस स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति आत्मा से परमात्मा, भक्त से भगवान, क्षुद्र से महान स्तर में विकसित होता है। ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं और ईश्वर साक्षात्कार की यही स्थिति है। तुर्यावस्था में पहुँचे हुए व्यक्ति योगी, तपस्वी न रहकर देवात्मा, सिद्धपुरुष बनते हैं। उनकी वाणी में शाप ,वरदान की शक्ति होती है। अपने ऊर्जा किसी सुपात्र को हस्तान्तरित कर सकते हैं। इसी को शक्तिपात कहा जाता है। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को अपनी संचित दिव्य क्षमता का हस्तान्तरण किया था।गुरु विश्वामित्र ने श्री राम और लक्ष्मण को अपनी यही ऊर्जा बला और अतिबला विद्या की साधना कराते हुए उपलब्ध कराई थी। तुर्यावस्था एक प्रकार की समाधि अवस्था है।
जड़ समाधि में शरीर के Component Inactive हो जाते हैं और गति विधियाँ रुक जाती है। किन्तु इस जागृति समाधि में क्रियाशीलता तो सामान्यजनों जैसी रहती है। किन्तु उसकी अन्तः चेतना सर्वत्र दिव्य हो जाती है।शरीर यात्रा भी सामान्य जनों जैसी चलती रहती है लेकिन आकाँक्षा, भावना और चेष्टा ऐसी होती है जैसी जीवनमुक्त दिव्य पुरुषों की होनी चाहिए। तुर्यावस्था की इसी स्थिति को प्राप्त करना हर साधक का मुख्य लक्ष्य रहता है ;बशर्ते वह मार्ग में न भटके।तुर्यावस्था का अर्थ है परम ज्ञान अथार्त जब किसी प्रकार का अंधकार भीतर न रह जाये, सभी ज्योति स्वरुप हो उठे; बाहर और भीतर, सब ओर जागृति का प्रकाश फैल जाये।तुर्या वही सिद्धावस्था है ..सारी चेष्टा उसी को पाने के लिए है। सब ध्यान, सब योग तुर्यावस्था को पाने के उपाय हैं।
5-सातवां सूत्र है.... जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति— इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जान लेने से तुर्यावस्था का ज्ञान हो जाता है।अभी जहां हम हैं, वहां या तो हम जाग्रत होते हैं या हम स्वप्न में होते हैं या हम सुषुप्ति में होते हैं।चौथे का हमें कुछ भी पता नहीं है। हम जानते तो हैं, लेकिन पृथक रूप से नहीं जानते। जब हम स्वप्न में होते हैं, तब हमें पता नहीं चलता कि स्वप्न देख रहे हैं क्योकि हम स्वप्न के साथ एक हो जाते है। जब वह अवस्था होती है, तब हम पृथक रूप से नहीं जान पाते; Identification /तादात्म्य हो जाता है। स्वप्न में लगता है कि हम स्वप्न हो गये। सुबह जागकर लगता है कि अब हम स्वप्न नहीं रहे। लेकिन अब हमारा तादात्म्य 'जाग्रत' से हो जाता है।तुम प्रत्येक अवस्था के साथ एक हो जाते हो, जबकि तुम सभी से पृथक हो।तुम बचपन,जवानी और बुढ़ापा .. तीनों के पार हो। तुम्हारे भीतर कुछ है ..जो बचपन को छोड़ सका और जवान हो सका। वह कुछ बचपन और जवानी दोनों से अलग है। स्वप्न में तुम खो जाते हो। जागकर फिर तुम्हें लगता है कि सपना झूठ था। तुम्हारे भीतर ही कोई चेतना का तत्व है जो यात्रा करता है। स्वप्न, सुषुप्ति, जाग्रत तुम्हारी यात्रा के पड़ाव है,लेकिन तुम नहीं ...। और जैसे ही तुम इस बात को समझ पाओगे कि तुम पृथक हो, अलग हो, वैसे ही चौथे का जन्म शुरू हो जाएगा। वह पृथकता ही चौथा है।
6- इस शिवसूत्र का अर्थ है कि तुम्हें, तीनों अवस्थाएं अलग -अलग हैं, इसका पता चल जाए। जैसे ही तीनों अवस्थाओं को तुम अलग-अलग जान लोगे, तुम यह भी जान लोगे कि मैं तीनों से अलग हूं— तुम्हें भेद की कला आ जाएगी ।अभी सुख आता है तो तुम नाचने लगते हो और दुख आता है तो रोने लगते हो। जो भी घटता है ...तुम उसी के साथ एक हो जाते हो। तुम्हें अपनी पृथकता का कोई बोध नहीं है। इसे धीरे- धीरे ,हर स्थिति में अलग करना सीखना होगा। भोजन करते समय यह जानना कि जो भोजन कर रहा है या जिसे भूख लगी है, वह शरीर है। मैं सिर्फ जाननेवाला हूं। चेतना को कोई भूख लग भी नहीं सकती। धीरे -धीरे प्रत्येक घटना से अपने को अलग करते जाना चाहिए। पृथक करना कठिन है क्योंकि अनंत जन्मों में हमने तादात्म्य करना ही सीखा है, तोड़ना नहीं और इसी का नाम ही बेहोशी है ।बेहोशी का अर्थ है कि चित्त की दशा के साथ एक हो जाना। तुमने जो भी बना लिया है, वह असत्य है , माया हैं। माया का अर्थ है कि तुम जिस संसार में रहते हो, वह झूठ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वृक्ष, पर्वत , आकाश ,चांद ,तारे आदि सब झूठ है। इसका केवल इतना ही अर्थ है कि तुम्हारा जो संसार का तादात्म्य है, वह झूठ है।
7-तादात्म्य समाप्त करने के लिए पहला कदम है ..जागरण।जागरण से ही शुरू करना होगा क्योंकि स्वप्न से तो मुश्किल होगा। और सुषुप्ति में तो सब होश ही खो जाता है। साधना जाग्रत से ही शुरू होती है । दूसरा कदम है ..रूप और तीसरा कदम है.. सुषुप्ति। और जिस दिन तुम तीनों कदम पूरे कर लेते हो, चौथा कदम उठ जाता है अथार्त तुर्यावस्था जो सिद्धावस्था है। जागरण से शुरू करना है अथार्त भूख लगे तो भोजन देना; लेकिन इस स्मरण को साधे रखना कि भूख शरीर को लगती है, मुझे नहीं। चोट लगे तो दवा लेना , अस्पताल जाना, ; लेकिन भीतर एक जागरण को साधे रखना कि चोट शरीर को लगी है, मुझे नहीं।आत्मा का न कोई पैर है कि चल सके और न ही कोई पेट है कि उसे भूख लगे । आत्मा की कोई भी वासना नहीं है। सभी वासना शरीर की है। निव्यानबे प्रतिशत पीड़ा तो इतना होश रखने से ही समाप्त हो जाती है। एक प्रतिशत बची रहेगी; क्योंकि अभी बोध पूरा नहीं है। जिस दिन बोध पूरा हो जाएगा, उस दिन सारा दुख समाप्त हो जाता है क्योंकि प्रतिपल जो भी घट रहा है, वह उससे अलग है।
8-उपनिषद के अनुसार एक ही वृक्ष पर, दो पक्षी बैठे हैं।एक पक्षी शांत है और दूसरा बेचैन है। वह जो वृक्ष है, वह तुम हो और वे दोनों पक्षी तुम्हारे भीतर हैं। जो शांत है वह साक्षी है और दूसरा बेचैन जीवात्मा है।अगर एक क्षण को भी शिवत्व का पता चल जाए तो तुमने महान संपदा का द्वार खोल लिया। फिर यात्रा सरल है। अगर तुमने दिन से शुरू किया तो तुम धीरे -धीरे स्वप्न में भी सफल हो जाओगे ।ज्ञानी पुरुष के स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं; क्योंकि, नींद में भी वह स्मरण रख पाता है कि यह स्वप्न है।जब तुम जागे हो, तभी से यह सूत्र अपने भीतर दोहराने लगो कि मैं जो देख रहा हूं यह स्वप्न है। कमरे को चारों तरफ देखो और यह भाव मन में गहरा करो कि जो मैं देख रहा हूं वह स्वप्न है। बिस्तर को स्पर्श करो और यह भाव गहरा करो कि जो मैं छू रहा हूं यह स्वप्न है। अपने हाथ को अपने ही हाथ से स्पर्श करो और अनुभव करो कि जो मैं छू रहा हूं यह स्वप्न है।यदि ऐसे भाव को करते -करते तुम सो गए तो भाव की यह सतत धारा तुम्हारे भीतर बनी रहेगी। कुछ ही दिनों में तुम पाओगे कि बीच स्वप्न में तुम्हें अचानक याद आ जाता है कि यह स्वप्न है।स्वप्न के चलने के लिए मूर्च्छा जरूरी है और जैसे ही याद आता है कि स्वप्न है, स्वप्न उसी क्षण टूट जाता है और तब तुम आनंद से ,एक गहरे प्रकाश से भर जाओगे ।
....SHIVOHAM....
Comments