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सूर्य और सात घोडो का रहस्य

हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं तथा उनसे जुड़ी कहानियों का इतिहास काफी बड़ा है या यूं कहें कि कभी ना खत्म होने वाला यह इतिहास आज विश्व में अपनी एक अलग ही पहचान बनाए हुए है। विभिन्न देवी-देवताओं का चित्रण, उनकी वेश-भूषा और यहां तक कि वे किस सवारी पर सवार होते थे यह तथ्य भी काफी रोचक हैं।


सूर्य रथ

हिन्दू धर्म में विघ्नहर्ता गणेश जी की सवारी काफी प्यारी मानी जाती है। गणेश जी एक मूषक यानि कि चूहे पर सवार होते हैं जिसे देख हर कोई अचंभित होता है कि कैसे महज एक चूहा उनका वजन संभालता है। गणेश जी के बाद यदि किसी देवी या देवता की सवारी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है तो वे हैं सूर्य भगवान।


क्यों जुते हैं सात घोड़े


सूर्य भगवान सात घोड़ों द्वारा चलाए जा रहे रथ पर सवार होते हैं। सूर्य भगवान जिन्हें आदित्य, भानु और रवि भी कहा जाता है, वे सात विशाल एवं मजबूत घोड़ों पर सवार होते हैं। इन घोड़ों की लगाम अरुण देव के हाथ होती है और स्वयं सूर्य देवता पीछे रथ पर विराजमान होते हैं।


सात की खास संख्या

लेकिन सूर्य देव द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती है? क्या इस सात संख्या का कोई अहम कारण है? या फिर यह ब्रह्मांड, मनुष्य या सृष्टि से जुड़ी कोई खास बात बताती है। इस प्रश्न का उत्तर पौराणिक तथ्यों के साथ कुछ वैज्ञानिक पहलू से भी बंधा हुआ है।


कश्यप और अदिति की संतानें

सूर्य भगवान से जुड़ी एक और खास बात यह है कि उनके 11 भाई हैं, जिन्हें एकत्रित रूप में आदित्य भी कहा जाता है। यही कारण है कि सूर्य देव को आदित्य के नाम से भी जाना जाता है। सूर्य भगवान के अलावा 11 भाई ( अंश, आर्यमान, भाग, दक्ष, धात्री, मित्र, पुशण, सवित्र, सूर्या, वरुण, वमन, ) सभी कश्यप तथा अदिति की संतान हैं।


वर्ष के 12 माह के समान

पौराणिक इतिहास के अनुसार कश्यप तथा अदिति की 8 या 9 संतानें बताई जाती हैं लेकिन बाद में यह संख्या 12 बताई गई। इन 12 संतानों की एक बात खास है और वो यह कि सूर्य देव तथा उनके भाई मिलकर वर्ष के 12 माह के समान हैं। यानी कि यह सभी भाई वर्ष के 12 महीनों को दर्शाते हैं।


सूर्यदेव की दो पत्नियां

सूर्य देव की दो पत्नियां – संज्ञा एवं छाया हैं जिनसे उन्हें संतान प्राप्त हुई थी। इन संतानों में भगवान शनि और यमराज को मनुष्य जाति का न्यायाधिकारी माना जाता है। जहां मानव जीवन का सुख तथा दुख भगवान शनि पर निर्भर करता है वहीं दूसरी ओर शनि के छोटे भाई यमराज द्वारा आत्मा की मुक्ति की जाती है। इसके अलावा यमुना, तप्ति, अश्विनी तथा वैवस्वत मनु भी भगवान सूर्य की संतानें हैं। आगे चलकर मनु ही मानव जाति का पहला पूर्वज बने।


सूर्य भगवान का रथ

सूर्य भगवान सात घोड़ों वाले रथ पर सवार होते हैं। इन सात घोड़ों के संदर्भ में पुराणों तथा वास्तव में कई कहानियां प्रचलित हैं। उनसे प्रेरित होकर सूर्य मंदिरों में सूर्य देव की विभिन्न मूर्तियां भी विराजमान हैं लेकिन यह सभी उनके रथ के साथ ही बनाई जाती हैं।


कोणार्क मंदिर

विशाल रथ और साथ में उसे चलाने वाले सात घोड़े तथा सारथी अरुण देव, यह किसी भी सूर्य मंदिर में विराजमान सूर्य देव की मूर्ति का वर्णन है। भारत में प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर भगवान सूर्य तथा उनके रथ को काफी अच्छे से दर्शाता है।


सात से कम या ज्यादा क्यों नहीं

लेकिन इस सब से हटकर एक सवाल काफी अहम है कि आखिरकार सूर्य भगवान द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती हैं। यह संख्या सात से कम या ज्यादा क्यों नहीं है। यदि हम अन्य देवों की सवारी देखें तो श्री कृष्ण द्वारा चालए गए अर्जुन के रथ के भी चार ही घोड़े थे, फिर सूर्य भगवान के सात घोड़े क्यों? क्या है इन सात घोड़ों का इतिहास और ऐसा क्या है इस सात संख्या में खास जो सूर्य देव द्वारा इसका ही चुनाव किया गया।


सात घोड़े और सप्ताह के सात दिन

सूर्य भगवान के रथ को संभालने वाले इन सात घोड़ों के नाम हैं - गायत्री, भ्राति, उस्निक, जगति, त्रिस्तप, अनुस्तप और पंक्ति। कहा जाता है कि यह सात घोड़े एक सप्ताह के सात दिनों को दर्शाते हैं। यह तो महज एक मान्यता है जो वर्षों से सूर्य देव के सात घोड़ों के संदर्भ में प्रचलित है लेकिन क्या इसके अलावा भी कोई कारण है जो सूर्य देव के इन सात घोड़ों की तस्वीर और भी साफ करता है।


सात घोड़े रोशनी को भी दर्शाते है


पौराणिक दिशा से विपरीत जाकर यदि साधारण तौर पर देखा जाए तो यह सात घोड़े एक रोशनी को भी दर्शाते हैं। एक ऐसी रोशनी जो स्वयं सूर्य देवता यानी कि सूरज से ही उत्पन्न होती है। यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य के प्रकाश में सात विभिन्न रंग की रोशनी पाई जाती है जो इंद्रधनुष का निर्माण करती है।


बनता है इंद्रधनुष

यह रोशनी एक धुर से निकलकर फैलती हुई पूरे आकाश में सात रंगों का भव्य इंद्रधनुष बनाती है जिसे देखने का आनंद दुनिया में सबसे बड़ा है।


प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न

सूर्य भगवान के सात घोड़ों को भी इंद्रधनुष के इन्हीं सात रंगों से जोड़ा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हम इन घोड़ों को ध्यान से देखें तो प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न है तथा वह एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है। केवल यही कारण नहीं बल्कि एक और कारण है जो यह बताता है कि सूर्य भगवान के रथ को चलाने वाले सात घोड़े स्वयं सूरज की रोशनी का ही प्रतीक हैं।


पौराणिक गाथा से भिन्न

यदि आप किसी मंदिर या पौराणिक गाथा को दर्शाती किसी तस्वीर को देखेंगे तो आपको एक अंतर दिखाई देगा। कई बार सूर्य भगवान के रथ के साथ बनाई गई तस्वीर या मूर्ति में सात अलग-अलग घोड़े बनाए जाते हैं, ठीक वैसा ही जैसा पौराणिक कहानियों में बताया जाता है लेकिन कई बार मूर्तियां इससे थोड़ी अलग भी बनाई जाती हैं।


अलग-अलग घोड़ों की उत्पत्ति

कई बार सूर्य भगवान की मूर्ति में रथ के साथ केवल एक घोड़े पर सात सिर बनाकर मूर्ति बनाई जाती है। इसका मतलब है कि केवल एक शरीर से ही सात अलग-अलग घोड़ों की उत्पत्ति होती है। ठीक उसी प्रकार से जैसे सूरज की रोशनी से सात अलग रंगों की रोशनी निकलती है। इन दो कारणों से हम सूर्य भगवान के रथ पर सात ही घोड़े होने का कारण स्पष्ट कर सकते हैं।


सारथी अरुण

पौराणिक तथ्यों के अनुसार सूर्य भगवान जिस रथ पर सवार हैं उसे अरुण देव द्वारा चलाया जाता है। एक ओर अरुण देव द्वारा रथ की कमान तो संभाली ही जाती है लेकिन रथ चलाते हुए भी वे सूर्य देव की ओर मुख कर के ही बैठते है !


केवल एक ही पहिया

रथ के नीचे केवल एक ही पहिया लगा है जिसमें 12 तिल्लियां लगी हुई हैं। यह काफी आश्चर्यजनक है कि एक बड़े रथ को चलाने के लिए केवल एक ही पहिया मौजूद है, लेकिन इसे हम भगवान सूर्य का चमत्कार ही कह सकते हैं। कहा जाता है कि रथ में केवल एक ही पहिया होने का भी एक कारण है।


पहिया एक वर्ष को दर्शाता है


यह अकेला पहिया एक वर्ष को दर्शाता है और उसकी 12 तिल्लियां एक वर्ष के 12 महीनों का वर्णन करती हैं। एक पौराणिक उल्लेख के अनुसार सूर्य भगवान के रथ के समस्त 60 हजार वल्खिल्या जाति के लोग जिनका आकार केवल मनुष्य के हाथ के अंगूठे जितना ही है, वे सूर्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा करते हैं। इसके साथ ही गांधर्व और पान्नग उनके सामने गाते हैं औरअप्सराएं उन्हें खुश करने के लिए नृत्य प्रस्तुत करती हैं।

ऋतुओं का विभाजन

कहा जाता है कि इन्हीं प्रतिक्रियाओं पर संसार में ऋतुओं का विभाजन किया जाता है। इस प्रकार से केवल पौराणिक रूप से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों से भी जुड़ा है भगवान सूर्य का यह विशाल रथ।

( सूर्य विज्ञान )..आदित्यर्दय-अद्भुत चमत्कार

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निराकार ब्रह्म शिवजी का अग्नितत्व स्वरूप मतलब सूर्य । ये ब्रह्मांड 12 राशि और नक्षत्रों से बंधा हुवा है । सूर्य सालमे हर एक राशिमें एक मास स्थित रहता है उसे ही कार्तिक , मागशीर्ष,पोष,महा,फ़ाल्गुन ,चैत्र...मास कहते है । उत्तरायण से छे मास उतर की ओर दक्षिणायन से छे मास दक्षिण दिशाकी ओर उदय अस्त होता है । नीचे चित्रमे पृथ्वी भ्रमण की वो 12 स्थिति की समज दी गयी है। इस 12 अलग स्वरूपों को ही 12 आदित्य कहते है और हरेक 12 आदित्य की पूजा अलग अलग मंत्रो से की जाती है । ऐसे ही सूर्यकी 7 रश्मि को ही सोम,मंगल,बुध,गुरु,शुक्र,शनि,रवि ग्रह ओर वार के मुजब उस रष्मिओ की पूजा , ग्रह पूजा की जाती है। हरेक देवी देवता भी इस अलग अलग सूर्यरष्मी की ऊर्जा शक्तिसे जुड़े है,ये हिन्दू सनातन धर्म का सूक्ष्म विज्ञान हमारे ऋषिमुनि जानते है ।


सूर्य विज्ञान और सूर्य सिद्धांत दोनों अलग अलग है। सूर्य सिद्धांत , भगवान् सूर्य द्वारा मायासुर को दिया हुआ शास्त्र है जिसमे सभी ग्रहों और उनसे जुड़ी गणनाएँ है। यह ज्योतिष के सिद्धांत अर्थात गणित का एक शास्त्र है। इसकी गणनाएं बहुत चमत्कारिक है क्योंकि आज से हज़ारो वर्षों पुर्व बिना किसी वैज्ञानिक यंत्र के यिनी सूक्ष्म गणना कैसे की गयी इसका कोई उत्तर नहीं है। सूर्य सिद्धांत सिर्फ भारत में ही नहीं अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी में भी शोध का विषय है। आपको जान कर हर्ष होगा सूर्य सिद्धांत हिन्दू ज्योतिष के अंग्रेजी में अनुवाद होने वाले ग्रंथो में सबसे पहले अनुवाद हुए ग्रंथों में से एक है। यह उत्तर है उन लोगो के लिये जो कहते है ज्योतिष का कोई वैज्ञानिक पृष्ठभूमि नहीं है। इसकी पांडुलिपि अधूरी ही मिली है, परंतु वह भी बहुत ही ज्यादा वैज्ञानिक है, और आज भी उसके सभी नियम काम कर रहे है।


सूर्य विज्ञान एक गुप्त शास्रहै, जिसकी शिक्षा केवल सिद्धों को सिद्धाश्रम अर्थात ज्ञानगंज में ही मिलती है। यह भी सूर्य की किरणों पर आधारित है। इसका निचोड़ है कि सूर्य ही सब जीव जंतु, वनस्पति, और खनिज को उत्पन्न करने में सक्षम है। ऐसे में सूर्य की किरणों को साध कर इन सब का प्रतिपादन कर देना ही सूर्य विज्ञान है। ऐसे तो ये विज्ञान है, परंतु आज के विज्ञान से कहीं आगे है। हवा से कोई भी खनिज बना देना शायद जादू लगे, पर हमारे सिद्ध ऋषियों ने इससे कर दिखाया है। इस विद्या को गुप्त रखा गया, अन्यथा इसका दुरुपयोग हो सकता है।


सूर्य ही जगत का प्रसविता है।जो पुरुष सूर्य की रश्मियों का या वर्णमालाओं को भलीभांति पहचान गया है और वर्णों को शोधित करके परस्पर मिश्रित करना सीख गया है, वह सहज ही सभी पदार्थों का संघटन या विघटन कर सकता है।वह देखता है कि सभी पदार्थों का मूल बीज इस रश्मि माला के विभिन्न प्रकार के संयोग से ही उत्तपन्न होता है जैसे वर्ण भेद से, और विभिन्न वर्णों के संयोग- भेद से विभिन्न पद उत्तपन्न होते है, वैसे ही रश्मि भेद और विभिन्न रश्मियों के मिश्रण भेद से जगत के नाना पदार्थ उत्तपन्न होते है।अवश्य ही यह स्थूल दृष्टि में बीज-सृष्टि का एक रहस्य है।सूक्ष्म दृष्टि से अव्यक्त गर्भ में बीज ही रहता है। बीज न होता, तो इस प्रकार संस्थान विशेष के जनक रश्मि विशेष के संयोग-वियोग से, और इच्छा शक्ति या सत्य-संकल्प के प्रभाव से भी, सृष्टि होने की संभावना नहीं रहती।इसीलिए योग और विज्ञान के एक होने पर भी, एक प्रकार से दोनों का किंचित पृथक रूप में व्यवहार होता है।


रश्मियों को शुद्ध-रूप में पहचान कर उनकी योजना करना ही सूर्य-विज्ञान का प्रतिपाद्य विषय है।जो ऐसा कर सकते है, वे सभी, स्थूल और सूक्ष्म कार्य करने में समर्थ होते है।


सुख-दुःख, पाप-पुण्य, लोभ-प्रीति, भक्ति आदि सभी चैतसिक वृतियां और संस्कार भी रश्मियों के संयोग से ही उत्पन्न होते है।स्थूल वस्तु के लिए तो कुछ कहना ही नहीं है।अतएव जो इस योजना को और वियोजन की प्रणाली को जानते है, वे सभी कुछ कर सकते है।निर्माण भी कर सकते है और संहार भी, परिवर्तन की तो कोई बात ही नहीं।यही सूर्य-विज्ञान है।


सूर्य की किरणों के सात रंगों हरा, पीला, नीला, नारंगी, लाल, बैगनी व आसमानी की खोज विज्ञान ने की। हमारे वेदों में इन्हें सप्तरश्मियां कहा गया है। प्रत्येक रश्मि नक्षत्र मंडल को कैसे नियंत्रित करती है, यह भी बताया गया है। विज्ञान कहता है कि सूर्य स्थिर नहीं गतिमान हैं। वेद भी कहते हैं कि सूर्य देवता रथ पर सवार होकर भ्रमण करते हैं यानी सूर्य स्थिर नहीं,गतिमान हैं। सूर्य के साथ रंग का घनिष्ठ संबंध है। किसी पदार्थ का अपना रंग नहीं होता। सूर्य की किरणों में से किसी रंग विशेष की किरण ग्रहण कर पदार्थ शेष रंग रिफ्लेक्ट कर देते हैं। पदार्थ जो रंग ग्रहण करते हैं, वही उस पदार्थ का रंग हो जाता है।


1. सुषुम्णा

यह रश्मि कृष्णपक्ष में चंद्रमा को व शुक्लपक्ष में उसकी कलाओं को नियंत्रित करती है।


2. सुरादना

चंद्रमा की उत्पत्ति सूर्य की इस रश्मि से हुई है। चंद्रमा में जो भी किरणें हैं, वे सूर्य की ही रश्मियां हैं।


3. उदन्वसु

इस रश्मि से मंगल ग्रह का उदय हुआ। मंगल, जीवों में रक्त का संचालन करते हैं।


4. विश्वकर्मा

यह रश्मि बुध ग्रह का निर्माण करती है। इससे अशांत मन शांत होता है।


5. उदावसु

यह रश्मि बृहस्पति ग्रह का निर्माण करती है। सीधा संबंध मनुष्य का उत्थान-पतन होता है।


6. विश्वव्यचा

इस रश्मि से शुक्र व शनि दो ग्रह उत्पन्न हुए। शुक्र, वीर्य के तो शनि मृत्यु के अधिष्ठाता हैं।


7. हरिकेश

सूर्य रश्मि नक्षत्र, तेज, बल,के प्रभाव से कर्मफल को परलोक्र प्रदान करती है।


गायत्री का मूल सम्बन्ध सविता यानि सूर्य से है | सूर्य के उदय होने पर लोक में प्रकाश होता है और अन्धकार का विनाश होता है। सविता यधपि सूर्य को ही कहा जाता हैं लेकिन उसमें वही अंतर है जो आत्मा और शरीर में है।


मन्त्र विज्ञान में शब्द शक्ति का प्रयोग है। मन्त्र के अक्षरों का अनवरत जप करने से उसका एक चक्र बन जाता है और उसकी गति सुदर्शन चक्र जैसी गति विद्युत चमत्कारों से परिपूर्ण होती है। मन्त्र शब्द बेधी बाण की तरह काम करते हैं। जो अभीष्ट लक्ष्य को बेधते हैं।


गायत्री मन्त्र में गायत्री छंद , विश्वामित्र ऋषि और सविता देवता हैं। श्रुति में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। उसी से प्राण प्रादुर्भाव होता है। जिसके कारण प्राणियों का शारीर धारण करना, वनस्पतियों का उगना, पञ्च तत्वों का सक्रिय होना संभव है।


मानव शरीर 24 तत्व विशेष का बना होता है। चेतन्य, आत्मा, मन , बुद्धि, ष्ट धातु, पञ्च ज्ञानेद्रियाँ , पञ्च कर्मेन्द्रिया और पञ्च महाभूत |


गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों का गुंथन इस प्रकार जुड़ा हुआ है की उसके उच्चारण से जिह्वा, मुख, तालू की ऐसी नाड़ियों का क्रमबद्ध सञ्चालन होता है की जिसके कारण शरीर के विभिन भागों में स्थित यौगिक चक्र जागृत होते हैं। जैसे कुंडली जागरण से षष्ट चक्र जागृत किये जातें हैं वैसे ही गायत्री के उच्चारण मात्र से लघु ग्रंथियों को जागृत कर आश्चर्यजनक सकारात्मक परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।


ज्योतिष के अनुसार यदि किसी जातक की कुंडली में सूर्य ग्रह कमजोर होता है, उसे जीवन में तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उस व्यक्ति विशेष को महत्वपूर्ण पद और राज्य संबंधी सभी कार्य जैसे न्याय, राजदूत, राज्‍याध्‍यक्ष आदि पदों और व्यापार आदि में बड़ी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। सूर्य देव को ग्रहों का राजा माना जाता है। सभी ग्रहों को शक्ति सूर्य से ही प्राप्‍त होती है। अगर आपकी कुंडली में सूर्य का दोष है तो आपको हड्डियों से जुड़ी बीमारियां या फिर आंखों की बीमारी हो सकती है। हृदय रोग, पाचन तंत्र की बीमारियां और टीबी भी सूर्य दोष के कारण ही होती है।


सूर्यकृपा प्राप्त करने हेतु आम प्रजा केलिए हमारे ऋषिमुनियों द्वारा नित्य भगवान सूर्य को अर्घ्य देना और विशेष कृपा केलिए आदित्य रदय स्तोत्र पाठ की उपासना बताई है ।


रविवार के दिन सुबह स्नान के बाद साफ जल में लाल चंदन, लाल फूल, अक्षत और दूर्वा मिलाकर सूर्य देव को जल अर्पित करें. ऐसा करने से भी सूर्य मजबूत होता है. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार रविवार के व्रत रखने से सूर्य शुभ फल देता है. साथ ही, शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। अर्घ्य देते समय सूर्य की किरणों पर भी ध्यान देना चाहिए कि किरणें हल्की हो न कि बहुत तेज। अर्घ्य देते समय सूर्य मंत्र 'ओम सूर्याय नमः' का 11 बार जप करना चाहिए, सूर्य को अर्घ्य देने के लिए केवल तांबे के बर्तन या ग्लास का ही इस्तेमाल करना चाहिए।


12 मास के भी राशिउर्जा मुजब प्रति मास इस 12 अलग अलग मंत्रो से सूर्य उपासना की जाती है । ये सिद्ध ऋषिमुनियों उच्च उपासना पद्धति है ।

1 कार्तिक - ॐ विष्णवे नमः

2 मार्गशीर्ष - ॐ धाताय नमः

3 पौष - ॐ मित्राय नमः

4 माध - ॐ आर्यमाय नमः

5 फाल्गुन - ॐ पुषाय नमः

6 चैत्र - ॐ शक्राय नमः

7 वैशाख - ॐ अंशुमानाय नमः

8 ज्येष्ठ - ॐ वरुणाय नमः

9 आषाढ़ - ॐ भगाय नमः

10 श्रावण - ॐ त्वाष्टाय नमः

11 भाद्रपद - ॐ विवश्वते नमः

12 अश्विन - ॐ सविताय नमः


लंका के महाप्रतापी सिद्ध साधक रावण को पराजित करने केलिए भगवान राम ने इस आदित्य रदय स्तोत्र से उपासना की थी ।

आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ नियमित करने से अप्रत्याशित लाभ मिलता है। आदित्य हृदय स्तोत्र के पाठ से नौकरी में पदोन्नति, धन प्राप्ति, प्रसन्नता, आत्मविश्वास के साथ-साथ समस्त कार्यों में सफलता मिलती है। हर मनोकामना सिद्ध होती है। सरल शब्दों में कहें तो आदित्य ह्रदय स्तोत्र हर क्षेत्र में चमत्कारी सफलता देता है।


अदित्यरदय स्तोत्र :-


ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्‌ । रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्‌ ॥1॥


दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्‌ । उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥2॥


राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम्‌ । येन सर्वानरीन्‌ वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥


आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्‌ । जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्‌ ॥4॥


सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्‌ । चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्‌ ॥5॥

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्‌ । पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्‌ ॥6॥


सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावन: । एष देवासुरगणांल्लोकान्‌ पाति गभस्तिभि: ॥7॥


एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति: । महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यापां पतिः ॥8॥


पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु: । वायुर्वहिन: प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकर: ॥9॥


आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान्‌ । सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकर: ॥10॥

हरिदश्व: सहस्त्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान्‌ । तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्‌ ॥11॥


हिरण्यगर्भ: शिशिरस्तपनोऽहस्करो रवि: । अग्निगर्भोऽदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशन: ॥12॥


व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु:सामपारग: । घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥


आतपी मण्डली मृत्यु: पिगंल: सर्वतापन:। कविर्विश्वो महातेजा: रक्त:सर्वभवोद् भव: ॥14॥


नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावन: । तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्‌ नमोऽस्तु ते ॥15॥

नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम: । ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम: ॥16॥


जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम: । नमो नम: सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नम: ॥17॥


नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नम: । नम: पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥


ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे । भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥19॥


तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने । कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम: ॥20॥

तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे । नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥


नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभु: । पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि: ॥22॥


एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित: । एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्‌ ॥23॥


देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च । यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभु: ॥24॥


एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । कीर्तयन्‌ पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥


पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम्‌ । एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥26॥


अस्मिन्‌ क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि । एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्‌ ॥27॥


एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्‌ तदा ॥ धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयतात्मवान्‌ ॥28॥


आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्‌ । त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्‌ ॥29॥


रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम्‌ । सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्‌ ॥30॥


अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण: । निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31॥


भगवान भास्कर सूर्यनारायण की आप सभी धर्मप्रेमी जनो पर सदैव कृपा हो यही प्रार्थना सह .. श्री मात्रेय नमः


( एक ही स्थान पर से 12 मास दरम्यान सूर्योदय की फोटोमे हरमास सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन तक उतर से दक्षिण और दक्षिण से उतर की ओर भृमण का दृश्य )

....SHIVOHAM......




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